छत्तीसगढ़ी भाषा (बोली)
प्राचीनकाल में कोसली कहा जाता था. किंतु विगत् दो-ढाई सौ वर्षों से दक्षिण कोसल के कारण यहां की लोक भाषा 'कोसली' को 'छत्तीसगढ़ी' कहा जाने लगा। यह संस्कृत की अनुगामिनी है डॉ. महेशचंद्र शर्मा ने इसे संस्कृत की पठियारी बहन कहा है। छत्तीसगढ़ में प्राप्त हुए शिलालेखों के प्रमाण के आधार पर छत्तीसगढ़ी के 'जन्मदाता प्राचीन भाषा-रूप की जड़ें ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी तक पहुँचती है।उसके पहले ईसा-पूर्व चतुर्थ शताब्दी के मागधी प्राकृत के शिलालेख पूर्व दिशा में तथा शौरसेनी प्राकृत के शिलालेख उत्तर-पश्चिम दिशा में मिले हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि इन दो प्राकृतों के मध्य के क्षेत्र में इनके मिश्रण से एक भिन्न प्राकृत का स्वरूप निर्मित हो रहा था, रहा था, जिसमें शौरसेनी की तुलना में मागधी के लक्षणों के अधिक प्रयुक्त होने के कारण 'अर्धमागधी' शब्द से अभिहित किया गया । उपर्युक्त तीनों प्राकृतों की अनुवांशिक संबद्धता आज भी क्षेत्रीय भाषाओं- अर्धमागधी प्रसूत छत्तीसगढ़ी के रूप में और उत्तर-पश्चिम में शौरसेनी-प्रसूत बुंदेली के रूप में देखी जा सकती हैं। छत्तीसगढ़ में भी उत्तर भारत के विविध क्षेत्रों के समान संस्कृत का स्थान ईसा की तीसरी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक प्रतिष्ठित रहा, जिसके प्रमाण-स्वरूप यहां उस अवधि के लगभग एक सौ शिलालेख विद्यमान हैं। बाद की दो शताब्दियों के शिलालेखों में क्षेत्रीय बोलियों का वर्चस्व है।
लगभग एक सहस्त्र वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में हैहयवंशी नरेशों का राज्य आरंभ हुआ, जिन्होंने यहां अर्ध मागधी से विकसित बोली का प्रचार-प्रसार किया। यह आर्य-बोली क्षेत्र में पूर्वोपलब्ध द्रविड़ और आग्नेय बोलियों की अपेक्षा राजकीय प्रभुत्व वाली होने के कारण दृढ़ता से स्थापित होती चली गई और क़मज़ोर पड़ने वाली पुरानी बोलियाँ वन्य पहाडी क्षेत्रों में सिमट कर रह गईं। परिणामस्वरूप क्षेत्र की सर्वप्रथम विचार-वाहिनी के रूप में प्राचीन छत्तीसगढ़ी स्थिर हो गई।
छत्तीसगढ़ी बोली-भाषा क्षेत्र के दक्षिण-पूर्वी विस्तार को संभाले हुए है और मानक हिंदी की सहभागिता के साथ छत्तीसगढ़ के घरों और गलियों में, खेतों और लोक-संस्कारों में, मातृजात सलिला के रूप में प्रवाहित है। इसके व्यवहार-क्षेत्र में कहीं तटीय ढंग से और कहीं द्वीपों के रूप में द्रविड़-भाषा परिवार के आदिवासी-भाषारूपों-गोंडी, उरांव, तेलंगी, दोरली आदि के तथा आग्नेय-भाषा परिवार के आदिवासी-भाषारूपों कोरकू, खड़िया, खेरवारी, आदि के उपक्षेत्र समाहित हैं। यहां उल्लेखनीय वास्तविकता यह है कि छत्तीसगढ़ की कुल जनसंख्या का लगभग एक- तिहाई अंश आदिवासियों का है।
छत्तीसगढ़ का 'पाणिनी : हीरालाल काव्योपाध्यान्न
पूरी एक सदी से भी अधिक पहले एक व्यक्ति ऐसा भी हुआ, जिसने तर्क-वितर्क या विवाद पैदा करने अथवा कोई नारा गढ़ने की बजाय अपनी प्रतिभा को पूरी लगन और समर्पण से 1885 ई. में छत्तीसगढ़ के व्याकरण तैयार करने में लगाया। उन्होंने न सिर्फ छत्तीसगढ़ी का, बल्कि पूरे इस अंचल की भाषा का गौरवशाली इतिहास रचा। ये मनीषी थे धमतरी के एंग्लो-वर्नाकुलर स्कूल के हेड मास्टर हीरालाल काव्योपाध्याय । छत्तीसगढ़ी व्याकरण का यह इतिहास एक अन्य ऐतिहासिक तथ्य से जुड़ा हुआ है। लगभग सौ साल पहले जार्ज ए.ग्रियर्सन द्वारा भारत का भाषा सर्वेक्षण जिस व्यापक स्तर पर कराया गया था वह संपूर्ण विश्व के किसी भी क्षेत्र में हुए भाषायी सर्वेक्षण में विशालतम था। इस पूरे सर्वेक्षण के दौरान एकमात्र छत्तीसगढ़ी का वैज्ञानिक व्यवस्थित व्याकरण प्राप्त हुआ था। यह व्याकरण प्राप्त होने पर ग्रियर्सन इतने रोमांचित और उत्साहित हुए कि उन्होंने 'हीरालाल काव्योपाध्याय' के ससम्मान नामोल्लेख सहित इसे सन् 1890 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, शोध-पत्रिका के खंड़-49, भाग-1 में अनुदित और सम्पादित कर प्रकाशित कराया। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी व्याकरण की यह परम्परा आगे सतत् विकसित होती रही। सन् 1921 में पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ने राय बहादुर हीरालाल के निर्देशन में इस व्याकरण को विस्तृत रूप से पुस्तकाकार प्रकाशित कराया। इसी परम्परा के विकास में बिलासपुर के डॉ. शंकर शेष (छत्तीसगढ़ी का भाषा शास्त्रीय अध्ययन,1973) और रायपुर के डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा (छत्तीसगढी भाषा का उविकास, 1979) के नाम भी उल्लेखनीय हैं।
छत्तीसगढ़ी का वितरण- यद्यपि छत्तीसगढ़ी के बिखरे-उजड़े रूप असम राज्य के चाय के वागों में तथा अफ्रीका की सोने की खानों में भी प्राप्त होते हैं, तथापि निन्यानबे प्रतिशत छत्तीसगढ़ी-मातृभाषी छत्तीसगढ़ में ही निवास करते हैं। शेष मातृभाषियों में से आधा प्रतिशत छत्तीसगढ़ के पश्चिम-दक्षिणार्ध से जुड़े महाराष्ट्र में तथा चौथाई प्रतिशत छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व से जुड़े झारखण्ड में रहते हैं। बचे हुए चौथाई प्रतिशत मातृमाषी यत्र-तत्र छिटके हुए हैं। छत्तीसगढ़ से बाहर छत्तीसगढ़ी का प्रयोग मिश्रित रूपों में मुख्यतः बालाघाट, मंडला (मध्य प्रदेश), भंडारा (महाराष्ट्र).छोटानागपुर (झारखण्ड) और संबलपुर (उड़ीसा) में होता है। छत्तीसगढ़ी अपने चारों ओर विभिन्न भाषाओं-बोलियों से घिरी हुई है - पूर्व में उड़िया से, उत्तर-पूर्व में मगही (हिन्दी) से, उत्तर-पश्चिम में बघेली और बुंदेली (हिन्दी) से, पश्चिम में मराठी से और दक्षिण में तेलुगु से। वर्तमान में इसे बोलने वालों की संख्या दो करोड़ से अधिक है। पिछली जनगणना के विश्लेषण के अनुसार बिलासपुर जिले (कोरबा, जांजगीर सहित) में 91%. रायपुर (महासमुंद, धमतरी सहित) में 81% लोग छत्तीसगढ़ी बोलते हैं। बस्तर जिले में हल्बी तथा गोंड़ी मुख्य जनमाषाएं हैं, किंतु वहां भी छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की पर्याप्त संख्या है। अन्य सभी जिलों में लगभग 90% लोग छत्तीसगढ़ी बोलते हैं।
छत्तीसगढ़ी में हुए कार्य- छत्तीसगढ़ी के भाषागत विकास में ग्रियर्सन के सर्वेक्षण (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया. 1904) का ऐतिहासिक महत्त्व है, किंतु स्वातंत्र्योत्तर काल में हुए अनेक शोध ग्रियर्सन के कार्य की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह डालते हैं। इसके आगे भालचन्द्रराव तैलंग ने सन् 1966 ई. के अपने ग्रंथ "छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन' में ग्रियर्सन का ही अनुसरण किया है, इसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ी बोली के रूपों को निम्नानुसार बांटा है-(1) छत्तीसगढ़ी (अथवा खलटाही अथवा लरिया). (2) सरगुजिया, (3) सदरी-कोरबा (4) बैगानी (5) बिंझवारी (6) कलंगा, (7) भुलिया। परंतु नरेन्द्रदेव वर्मा ने इसमें संशोधन करके सन् 1979 ई. में अपने ग्रंथ 'छत्तीसगढ़ी भाषा का उदिवकास' में विश्लेषण को आगे बढ़ाया है। उन्होंने छत्तीसगढी के अतर्गत दो भाषिक-भेद रायपुरी और बिलासपुरी (पार्थक्य की भौगोलिक विभाजन रेखा शिवनाथ नदी को स्वीकार करने के साथ) स्थापित करते हुए खलटाही और लरिया की अलग-अलग निजता सिद्ध की है तथा हलबी (या बस्तरी) को सूची में बढ़ा दिया है। उन्होंने सन् 1961 ई. के जनजागरण-प्रतिवेदन में छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत दी गई सोलह मातृभाषाओं का वर्ग-बंधन अपने द्वारा प्रदत्त बोली-रूपों के साथ किया है।
छत्तीसगढ़ी पर प्रकाशित भाषिक कार्य- छत्तीसगढ़ी पर प्रकाशित कार्यों में पुस्तकों या उनके खंडों का कालानुक्रम निम्न है-'छत्तीसगढ़ी बोली का व्याकरण', हीरालाल काव्योपाध्याय का अनुवाद ‘ए ग्रामर ऑफ छत्तीसगढ़ी डायलॅक्ट-जी. ए. ग्रियर्सन (1890) (मूलग्रंथ अनुपलब्ध); ए ग्रामर ऑफ छत्तीसगढी डायलॅक्ट ऑफ हिन्दी-लोचन प्रसाद पांडेय (1921); लिस्ट ऑफ मोस्ट कॉमन छत्तीसगढ़ी वर्ड्स एण्ड डिक्शनरी'-ई. डब्ल्यू. मेन्जेल (1939) 'छत्तीसगढी, हलबी, भतरी बोलियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन-भालचन्द्र राव तैलंग (1966): छत्तीसगढ़ी बोली, व्याकरण और कोश-कांति कुमार (1969); 'छत्तीसगढ़ी भाषाशास्त्रीय अध्ययन-शंकर शेष (1973); 'छत्तीसगढ़ी भाषा का उविकास-नरेन्द्रदेव वर्मा (1979); 'छत्तीसगढ़ी लोकोत्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन-मन्नूलाल यदु: छत्तीसगढ़ी-शब्दकोश-रमेश चंद्र
महरोत्रा एवं अन्य (1982); 'छत्तीसगढ़ी और खड़ी बोली के व्याकरणों का तुलनात्मक अध्ययन-साधना जैन (1986); 'छत्तीसगढ़ी-मुहावरा-कोश-रमेशचंद्र महरोत्रा एवं अन्य (1991): छत्तीसगढ़ी की व्याकरणिक कोटियाँ-चितरंजन कर (1993); संकल्प : छत्तीसगढ़ी भाषा विशेषांक'-विनय कुमार पाठक (1994) छत्तीसगढ़ी में उपसर्ग, नरेन्द्र कुमार सौदर्शन (1996); "हिन्दी की पूर्वी बोलियाँ (छत्तीसगढी रमेश चंद्र महरोत्रा); इसके अलावा छत्तीसगढ़ी के वर्णनात्मक, संरचनात्मक, संवहनात्मक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक, व्यतिरेकी, शब्दवैज्ञानिक, नामवैज्ञानिक, बोली-भौगोलिक, समाज-भाषा-वैज्ञानिक, अर्थ-वैज्ञानिक और लोकभाषी आदि विविध पक्षों पर हुए पी.एच. डी. तथा डी. लिट् स्तरीय शोध कार्य हुए हैं, जो पिछले 30-35 वर्षों में किये गये हैं। शोध कार्यों की लगभग 20 प्रकाशित-अप्रकाशित सामग्री भी उपलब्ध हैं।
छत्तीसगढ़ी की भौगोलिक व्यापकता और प्रयोक्तागत बहुलता के साथ इसके अंतर्गत बहुत-से नाम-रूप सम्मिलित होते गए हैं, जो अलग-अलग उपक्षेत्रों (प्रयोग के क्षेत्रों) के नाम अथवा उन्हें प्रयुक्त करने वाली जातियों के नाम पर आधारित हैं। जनगणना-प्रतिवेदनों में छत्तीसगढ़ी के साथ परिगणित मातृ-भाषाओं की संख्या का और
क्षेत्र में प्रचलित अन्य विविध अभिधानों की संख्या का छत्तीसगढ़ी बोली की विज्ञान-सम्मत उपबोलियों की संख्या के साथ सीधा-टेढ़ा कोई ताल-मेल नहीं बैठता। प्राप्त हुए कुल नाम-रूप' संख्या में 41 है जो इस प्रकार हैं
(1) (केन्द्रीय-क्षेत्रीय) छत्तीसगढ़ी,
(2) खलटाही/खलताही/खलवाटी
(3) लरिया या लड़िया
(4) कलंगा
(5) कलंजिया
(6) कवर्धाई
(7) कांकेर
(8) खैरागढ़ी
(9) गोरो
(10) गौरिया
(11) जशपुरी
(12) डंगचगहा/डंगचगही/नटी
(13) देवार बोली या देवरिया,
(14) धमदी या धमधी
(15) नांदीगाह,
(16) नागवंशी,
(17) पंडो
(18) पनकी
(19) पारधी
(20) बहेलिया,
(21) बिंझवारी या बिंझवाली
(22) बिलासपुरी
(23) बैगानी
(24) भूलिया
(25) मरारी
(26) रतनपुरी
(27) रायपुरी
(28) शिकारी
(29) सतनामी
(30) सदरी-कोरबा
(31) सरगुजिया/सुरगुजिया/सुरगुजिहा
(32) हलबी
(33) अदकुरी
(34) चंदारी/चंडारी
(35) जोगी
(36) धाकड़
(37) नाहरी
(38)महरी/मेहरी/मुहारी
(39) मिरगानी
(40) बस्तरी/बस्तरिया
(41) कमारी
उपर्युक्त बोली-रूपों में से स्थान के आधार पर नामकरण के उदाहरण कांकेरी, जशपुरी, नांदगाही, बिलासपुरी, रायपुरी, बस्तरी और स्वयं छत्तीसगढ़ी आदि हैं तथा जाति के आधार पर नामकरण के उदाहरण कमारी, नटी. बहेलिया, बिंझवारी, बैगानी, मरारी, सतनामी, और हलबी आदि हैं।
यदि छत्तीसगढ़ी से जुड़े सभी स्थान-नामों और जाति-नामों को अलग करके विविध मतों के विश्लेषण के बाद छत्तीसगढ़ी बोली के भाषिक प्रमुख रूप गिनाए जाएं. तो उसके केवल पांच रूप ठहरते है-केन्द्रीय, पश्चिमी, उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी। छोटे-मोटे भीतरी भेदों के बावजूद ये पांच आधार उप-बोलियाँ पर्याप्त हैं। उपर्युक्त कुल 41 नाम-रूपों की उपबोलियों से संलग्नता निम्नानुसार हैं
1. केन्द्रीय छत्तीसगढ़ी (मानक हिन्दी से इतर बाह्य प्रमावों की सघनता से मुक्त)- कवर्धाई, कांकेरी, खैरागढ़ी, गोरो, गौरिया, केंद्र-क्षेत्रीय छत्तीसगढ़ी, डंगचगहा, देवार बोली, धमदी, नांदगाही, पारधी, बहेलिया, बिलासपुरी, बैगानी, रतनपुरी, रायपुरी, शिकारी, सतनामी (कुल 18 : इनमें अगुआ-केंद्र क्षेत्रीय छत्तीसगढ़ी)।
2. पश्चिमी छत्तीसगढ़ी (बुंदेली और मराठी के तत्वों से संविलित)- कमारी, खलटाही, पनकी. मरारी (कुल 4 :इनमें अगुआ-खलटाही है)।
3. उत्तरी छत्तीसगढ़ी (बघेली, भोजपुरी और उरांव के तत्वों से संविलित)- पंडों, सदरी, कोरवा, जशपुरी, सरगुजिया, नागवंशी (कुल 5 : इनमें अगुआ-सरगुजिया है)।
4. पूर्वी छत्तीसगढ़ी (उड़िया के तत्वों से संविलित) कलंगा, कलंजिया, बिंझवारी, भूलिया, लरिया (कुल 6 : इनमें अगुआ लरिया है)।
5. दक्षिणी छत्तीसगढ़ी (पश्चिम से मराठी, पूर्व से उड़िया और दक्षिण से गोंड़ी के तत्वों से संविलित) अदकुरी. चंदारी, जोगी, धाकड़, नाहरी, वस्तरी, महारी, मिरगानी, हलबी। (कुल 9 : इनमें अगुआ-हलवी है)।
जिस प्रकार किसी भी मातृबोली की साहचर्यगत छाया उस क्षेत्र की मानक भाषा पर निश्चित रूप से पड़ती है, उसी प्रकार छत्तीसगढ़ी के भी अनेक तत्व बहुत से छत्तीसगढ़ी-भाषियों द्वारा व्यवहृत मानक हिन्दी में प्रविष्ट हो चुके हैं। इस हिन्दी को 'छत्तीसगढ़ी-हिन्दी' (छत्तीसगढ़ी-प्रभावित हिन्दी) कहा जा सकता है। स्वयं में यह विषय पर्याप्त विस्तृत अध्ययन वाला है।