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करमा नृत्य

छत्तीसगढ़ की संपन्न लोक संस्कृति में अनेक लोकनृत्य प्रचलित हैं। इन्हीं प्रचलित लोकनृत्यों में से एक है ‘करमा’ लोकनृत्य। छत्तीसगढ़ के बिलासुपर, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, रायगढ़, सरगुजा, जशपुर तथा कोरिया, कवर्धा जैसे जिले में निवास करने वाली जनजातियों द्वारा करमा नृत्य किया जाता है। जनजातियाँ अपने देवी-देवताओं का वास पेड़-पौधों पर मानती हैं। प्राचीन काल से ही पेड़-पौधों एवं पशुओं के साथ-साथ पितरों की पूजा की परंपरा इनमें रही है। ये देवी-देवता एवं पेड़-पौधों की पूजा कर, अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। पूजित वृक्षों में सरई एवं करम वृक्ष प्रमुख है। जनजाति समूह वर्ष में एक बार वृक्ष के नीचे एकत्रित होकर पूजा-अर्चना कर उत्सव मनाते हैं। करमा नृत्य-गीत में इनका विशेष महत्व है। लोक पर्वों का सीधा संबंध कृषि और पर्यावरण से है। अँचल की जनजातियों का लोक जीवन मूल रुप से कृषि और वन पर आधारित है। कृषक समाज लोक पर्वों के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त करता है। यहाँ के स्थानीय पर्व- करमा, छेरता, गंगा दशहरा, कठोरी, हरेली, तीजा, नवाखाई आदि हैं। इनमें से ‘करमा’ पर्व मध्यवर्ती भारत की जनजातियों द्वारा मनाये जाने वाले सर्वाधिक प्रिय लोकपर्वों में से एक है। इस पर्व पर किया जाने वाला नृत्य करमा नृत्य कहलाता है। इस पर्व की मूल भावना को कालांतर में कर्म एवं भाग्य से जोड़कर इसका एक दूसरा पहलू सामने लाया गया है। करमा नृत्य-गीत कर्म का परिचायक है जो हमें कर्म का संदेश देता है। करमाअनुष्ठान ‘करमा’ शब्द कर्म (परिश्रम) तथा करम (भाग्य) को इंगित करता है। ‘मनुष्य नियमित रूप से अच्छे कर्म करे और भाग्य भी उसका साथ दे’, इसी कामना के साथ करम देवता की पूजा की जाती है। यह पर्व भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। सरगुजा अंचल में इस दिन बहनें अपने भाईयों की दीर्घायु के लिए दिन भर व्रत रखती हैं, तथा रात को करम देवता की पूजा के उपरांत प्रसाद ग्रहण कर व्रत तोड़ती हैं। करमा पर्व में ‘करमी’ नामक वृक्ष की एक डाली को पारंपरिक रूप से गाँव के पटेल या प्रमुख व्यक्ति के आँगन में गाड़कर स्थापित किया जाता है। उस डाली को ही करम देवता का प्रतीक माना जाता है और उसकी पूजा की जाती है। महिलायें करमा त्यौहार के सप्ताह भर पहले तीजा पर्व के दिन टोकरी में जौध्गेहुँध्मक्का बोती हैं जो करमा पर्व तक बढ़ गया होता है। स्थानीय बोली में उसे ‘जाईं’ कहा जाता है। उसी ‘जाईं’ में मिट्टी का दीया जलाते हैं उसे फूलों से सजाते हैं, और उसमें एक खीरा रखकर करम देवता के चरणों में चढ़ाते हैं। इसके बाद हाथ में अक्षत लेकर स्थानीय भाषा में करम देवता की कथा सुनते हैं । करम देवता की पूजा-अर्चना और प्रसाद ग्रहण के बाद रात भर करम देवता के चारों ओर घूम-घूम कर करमा नृत्य किया जाता है। महिलाएँ गोल घेरे में श्रृँखला बनाकर नृत्य करती हैं और उनके मध्य में पुरूष गायक, वादक एवं नर्तक होते हैं। करमा नृत्य राएस करमा (भाद्रपद एकादशी) के अलावा आठे पर्व (श्री कृष्ण जन्माष्टमी), तीजा पर्व (हरितालिका तीज), जींवतिया पर्व (पुत्रजीवित्का), दशईं पर्व (दशहरा) और देवठन पर्व (कार्तिक एकादशी) में भी किया जाता है। वाद्ययंत्रों के रूप में माँदर, झाँझ, मोहरी (शहनाई) आदि का प्रयोग किया जाता है। करमा पर्व में रात भर गीत-नृत्य के माध्यम से करम देवता की सेवा करने के पश्चात् सूर्योदय के पूर्व उनका विसर्जन कर देते हैं। करमा की उत्पत्ति के संबंध में कई कथाएँ हैं जैसे- राजा कर्मसेन की कथा, कर्मा रानी की कथा एवं सात भाइयों की कथा में कर्म देव का उल्लेख आदि का विवरण प्राप्त होता है जो कर्मा पूजा के इर्द-गिर्द करमा नृत्य की उत्पत्ति से संबंधित जान पड़ते हैं। इनमें से कथा इस प्रकार है- कर्म चंद नामक राजा का राज्य अत्यंत खुशहाल और धर्म वैभव से परिपूर्ण था। जिसके कारण पड़ोसी राजाओं को बड़ी ईर्ष्या होती थी। ईर्ष्यावश पड़ोसी राजा द्वारा आक्रमण किया जाता है तदोपरांत उसके राज्य का पतन हो जाता है। इन घटनाओं से चिंताग्रस्त राजा को जंगल में कुछ दूरी पर कुछ दीये जलते दिखे और देवता के दर्शन हुए। यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने दौड़कर देवता के पाँव पकड़ लिये और अपनी विपदा की कथा देवता के सामने रो-रोकर सुनाई। देवता ने उसके कष्टों का निवारण कर कुछ दिशा निर्देश दिए। देवता के बताये अनुसार उसने डेरे के बीच की जगह को कुँवारी लड़कियों द्वारा गोबर से लिपवाया। लड़कों ने कदम वृक्ष का डाल लाकर आँगन के बीच में खोदकर गाड़ दिया। लड़कियों ने व्रत रखा और रात में कर्म देव का पूजन किया। रात भर नृत्य चला, प्रातः काल जलाशय में डाल का विसर्जन किया गया। राजा को उसका राज्य वापस मिल गया और वह अपनी राज्य के राजधानी में प्रतिवर्ष बड़ी धूमधाम से कदम वृक्ष की पूजा उक्त विधि से करने लगा। यह उत्सव कर्म पूजा के नाम से राज्य में फैल गया। यही कर्म पूजा व नृत्य करमा नृत्य के नाम से प्रसि़द्ध हुआ जो प्रतिवर्ष क्वार के महीने में आदिवासी क्षेत्रों में मनाया जाता है। प्रत्येक पर्व के पीछे उसका एक लोक इतिहास जरूर होता है। करमा पर्व मनाने से संबंधित भी अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, जो इस प्रकार हैं- किंवदंतियाँ 1. झारखण्ड प्रान्त की जनजातियों के अनुसार करमा और धरमा नाम के दो भाई थे। करमा ने कर्म की महत्ता बतायी और धरमा ने शुद्ध आचरण तथा धार्मिक जीवन का मार्ग दिखाया। इन्हीं दोनों भाईयों में से करमा को देव स्वरूप मानकर अच्छे प्रतिफल की प्राप्ति हेतु उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा-अर्चना तथा नृत्य प्रतिवर्ष किया जाता है। 2. छत्तीसगढ़ के रायगढ़, कोरबा, जांजगीर-चाम्पा, महासमुन्द आदि जिलों की जनजातियों के अनुसार राजा करमसेन ने अपने ऊपर विपत्ति पड़ने पर इष्टदेव को मनाने के लिए रात भर नृत्य किया जिससे उनकी विपत्ति दूर हुई। तब से राजा करमसेन के नाम पर करमा का पर्व एवं करमा नृत्य प्रचलित है। 3. छत्तीसगढ़ के मध्य व पश्चिमी क्षेत्र की जनजातियाँ मानती हैं कि करमी नामक वृक्ष पर करमसेनी देवी का वास होता है। उन्हें प्रसन्न करने के लिए करमी वृक्ष की डाल को आँगन में विधि पूर्वक स्थापित कर पूजा की जाती है और रात भर नृत्य किया जाता है। 4. छत्तीसगढ़ की उराँव जनजाति एवं कुछ अन्य जनजातीय कृषक वर्ग खेतों में परिश्रम करके करम देवता से अच्छी फसल की अपेक्षा करते हैं। उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा-अर्चना तथा नृत्य किया जाता है। करमा नृत्य करम वृक्ष की टहनी को भूमि पर गाड़कर चारों ओर घूम-घूम कर, करमा नृत्य किया जाता है। करमा नृत्य में पंक्तिबद्धता ही करमा नृत्य का परिचायक है। स्त्री-पुरूष पंक्तिबद्ध होकर नाचते हैं और एक दूसरे का हाथ पकड़कर सीधी पंक्ति में अथवा अर्द्ध घेरे में आमने सामने अथवा दायें-बाँयें चलते हुए नाचते हैं। महिलाओं का दल अलग होता है और पुरूषों का दल अलग होता है। नाचने व गाने वालों की सँख्या निश्चित नहीं होती है कितने भी नर्तक इस नृत्य में शामिल हो सकते हैं बशर्ते नाचने के लिये पर्याप्त जगह हो। करमा नृत्य में माँदर और टिमकी दो प्रमुख वाद्य होते हैं जो एक से अधिक तादाद में बजाये जाते हैं। वादक नाचने वालों के बीच में आकर वाद्य बजाते हैं और नाचते हैं। बजाने वालों का मुख हमेशा नाचने वालों की तरफ होता है। माँदर और टिमकी के अलावा कहीं-कहीं मंजीरा, झाँझ व बाँसुरी भी बजाये जाते हैं। किसी स्थान में नर्तक पैरों में घुँघरू भी पहनते हैं। करमा नर्तकों की वेशभूषा सादी दैनिक पहनावे की होती है। जिस क्षेत्र में जिस प्रकार के कपड़े और गहने-जेवर पहनने का रिवाज होता है, उसी तरह करमा नर्तक भी पहनते हैं। इसके लिये कोई अलग पहनावा नहीं है। जैसे भील इलाके में धोती, कमीज, जैकेट और साफा पुरूष नर्तक पहनते हैं। उराँव क्षेत्र में पुरूष नर्तक धोती, बंडी व साफा और महिला नर्तक परंपरागत तरीके से साड़ी पहनती हैं। श्रृँगार के साधन में मुख्य रूप से परंपरागत कलगी ही लगाते हैं तथा गहना-जेवर रोजमर्रा के ही पहनते हैं। इस तरह करमा नृत्य में कोई अलग से वेषभूषा तथा सजावट के सामग्री की आवश्यकता नहीं होती है। खेतों में काम करने वाला मजदूर तथा स्थानीय सरकारी नौकर व लड़के भी अपने दैनिक वेषभूषा में किसी प्रकार का श्रृंगार किये बिना नृत्य में शामिल हो जाते हैं। नृत्य अधिकतर रात्रि के समय ही चलता है इसीलिये किसी भी प्रकार के रूपसज्जा की आवश्यकता नहीं होती। छत्तीसगढी करमा लोक नृत्य-गीत छत्तीसगढ़ में करमा नृत्य की विभिन्न शैलियां प्रचलित हैं, छत्तीसगढ़ एवं सीमावर्ती मंडला जिले में भी करमा की परंपरा विद्यमान है। यहाँ के करमा लोक नृत्य-गीतों के कुछ उदाहरण अधोलिखित हैं माड़ी करमा बस्तर बस्तर जिले के अबूझमाड़ क्षेत्र में दण्डामी माड़िया जनजाति निवास करती है, जिनके द्वारा माड़ी करमा लोक नृत्य किया जाता है। माड़ी करमा नृत्य विशेष रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता है। माड़ी करमा में वाद्यों का प्रयोग नहीं किया जाता। इसे माड़ी पाटा अर्थात् माड़ी करमा गीत के साथ प्रस्तुत किया जाता है। यह नृत्य किसी सामाजिक उत्सव व शुभ कार्य के अवसर पर करते हैं। माड़ी करमा बस्तर के अलावा अन्यत्र दूसरे जिलों में प्रचलित नहीं है। यह एक विलुप्त प्राय नृत्य गीत है जिसे बस्तर संभाग के नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ क्षेत्र में किया जाता है। इसके गीत में नायिका द्वारा अपने नायक से बाजार जाकर अपने साज-सिंगार एवं अन्य सामग्री लाने का अनुरोध करती है। भुँइहारी करमा बिलासपुर यह विशेष रूप से छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में निवासरत भुँइहार जनजाति द्वारा किया जाता है। चूँकि यह जाति बिलासपुर जिले में निवास करती है इस कारण इसे बिलासपुरी करमा के नाम से भी जाना जाता है। भुँइहार को भुँइया या भूमिया जाति के नाम से भी जाना जाता है। कार्तिक के महीने में भुँइहार जाति ‘धरम देवता’ का पूजा उत्सव मनाते हैं। उनकी ऐसी मान्यता है कि धरम देवता का निवास स्थान करम वृक्ष है एवं उनकी पूजा अर्चना से उनका जीवन धन-धान्य, फल-फूल आदि से परिपूर्ण होकर सुखमय हो जाता है। भुँइहार जाति अपने किसी कार्य के अतिरिक्त फसल के पकने पर अन्न प्राप्ति के खुशी में अपने धरम देवता को प्रसन्न करने के लिये पूजा अर्चना कर नृत्य करते हैं। भुँइहारी करमा में माँदर वादक के ताल व लय में नाच कर गीत गाते हुए आकर्षक भंगिमा निर्मित कर नृत्य को गति प्रदान करते हैं। देवार करमार देवार गोंड जाति की उपजाति मानी जाती है। देवार एक घुमन्तु जाति है जो किसी नगर, कस्बे अथवा गांव के बाहर तंबू लगाकर डेरे में अस्थायी रूप से निवास करती है फिर उस स्थान से प्रस्थान कर लेती है। इनकी अपनी विषेष संस्कृति है जिसमें लोक संगीत एवं नृत्य का प्रमुख स्थान है। छत्तीसगढ़ में मनाये जाने वाले त्यौहार हरेली, पितर, जंवारा और होली त्यौहारों के समान ही देवार जाति का करमा त्यौहार भी होता है। करमा नृत्य को प्रमुख रूप से इसी उक्त अवसर पर किया जाता है। देवार जाति बैसाख के महीने में ‘अक्ती’ (अक्षय तृतीया) दिन को शुभ मानती है अतः इस अवसर पर भी नृत्य करते हैं। देवार नर्तक शरीर पर आकर्षक साड़ी कान में खिनवा, नाक में फुल्ली, माथे में टिकली, गले में हमेल, सुर्रा, मोती माला, बाह में नागमोरी, हाथ हरैया, चूड़ी, कमर में करधन पांव में बिछिया आदि। पुरूष नर्तक धोती, कुरता, साफा, हाथ में चूड़ा पहनते हैं। देवार जाति अपने संगीत के लिये छत्तीसगढ़ में अत्यन्त प्रसिद्ध पेषेवर जातियों में से एक हैं जो उक्त कला में माहिर मानी जाती है। ये अपने नृत्य गीत के माध्यम से अपनी ओर लोगों को आकर्षित करने की क्षमता रखते हैं। इनके नृत्य गीत को सुनकर लोग बरबस ही इनके ओर खिंचे चले आते हैं। कुछ अन्य प्रचलित करमा लोक नृत्य-गीत- छत्तीसगढ़ में करमा लोक नृत्य-गीतों का विस्तार अत्यंत व्यापक है। उपरोक्त करमा नृत्यों के अलावा यहाँ के विविध क्षेत्रों में निम्नलिखित नृत्य-गीतों का प्रचलन है- 1. करमसेनी- करमसेनी करमा लोक नृत्य में राजा करमसेन के जीवन चरित्र का वर्णन मिलता है। 2. गोंडी करमा- यह छत्तीसगढ़ की गोंड जनजाति के द्वारा किया जाने वालालोकनृत्य है। 3. पहाड़ी करमा- पहाड़ी करमा छत्तीसगढ़ के उच्च भूमि स्थलों में निवासरत जनजातियों के द्वारा किया जाने वाला लोकनृत्य है। 4. बीरम करमा- पाँच भाईयों की एक लाडली बहन के विरह तथा वेदना से प्रेरित होकर देवार जाति के द्वारा यह लोकगीत गाया जाता है। 5. तलवार करमा- कलगी की विषेषताओं तथा खूबसूरती को रेखांकित करते हुये उसकी तुलना तलवार से कर गाया जाने वाला लोकगीत तलवार करमा के नाम से जाना जाता है। 6. कलसा करमा- कलसा करमा में सिर पर कलश रखकर नृत्य करते हैं उसे कलसा करमा कहते हैं। करमा की कथा एक शहर में एक महाजन रहता था। उसके सात बेटे थे। महाजन के मरने के बाद एक दिन सातों भाईयों ने आपस में विचार किया कि व्यापार के लिए दूसरे राज्य में जाना चाहिए। ऐसा विचार करके वे छोटे भाई को घर में छोड़कर व्यापार के लिए निकल गए। रास्ते में चलते-चलते जहाँ रात हो जाती थी वे वहीं सो जाते थे। उन्हें जहाँ कुछ सामान सस्ता मिलता वे खरीद लेते और जहाँ मँहगा होता वहाँ बेचते थे। ऐसा करते-करते बारह महीने बीत गए। वे साल भर में बहुत सारा धन दौलत कमा कर बैलगाड़ी में सामान भर कर वापस लौट रहे थे। रास्ते में चलते-चलते जहाँ रात हो जाती थी वे वहीं सो जाते थे। इस तरह वे अपने गाँव की सीमा में पहुँच गए। बड़े भाई ने कहा- ‘हम यहीं विश्राम कर लेते हैं’। ऐसा कहते हुए उसने मँझले भाई को घर जाकर पहुँचने की खबर देने के लिए भेजा। घर पहुँच कर मँझले भाई ने देखा कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी का दिन था और उनके आँगन में करमा नृत्य में सब लीन थे। सातों देवरानी-जेठानी एक दूसरे का हाथ पकड़ कर गोल घेरे में नाच रहीं थीं। छोटा भाई उनके बीच में झूम-झूम कर माँदर बजा रहा था। मँझला भाई भी करमा नृत्य देख, मोहित होकर अपने कमरे से माँदर निकाल कर बजाने गाने लगा। इधर बड़ा भाई, मँझले भाई की राह देखते-देखते थक कर सँझले भाई से बोला- ‘जाओ तुम घर जाकर देखो, मँझला कहाँ रह गया’। सँझला भाई भी घर पहुँचकर करमा नृत्य में शामिल हो गया। बड़ा भाई जिसे भी घर भेजता वह करमा में लीन हो जाता था। किसी को किसी की सुध-बुध नहीं थी। इधर बड़ा भाई परेशान होकर सोचने लगा कि जिसे भी घर भेजता हूँ, वह लौट कर वापस नहीं आता है। आखिर क्या बात है? तब उसने गाय, बैल और सारा सामान वहीं छोड़कर कुल्हाड़ी पकड़ी और बहुत गुस्से में घर की ओर दौड़ा। घर पहुँचकर वह क्या देखता है कि सब करम देवता की सेवा में नाच गा रहे थे। यह उसे अच्छा नहीं लगा। उसने कुल्हाड़ी से करम डाल को काटकर सात टुकड़े कर दिये। इस अप्रत्याशित घटना से क्षुब्ध होकर सब अपने-अपने कमरे में घुस गये। तब बड़ा भाई बाहर रखे हुए सामान और गाय-बैलों को लेने पहुँचा तो उनके स्थान पर उसे पत्थर पड़े हुए मिलते हैं। वह सिर पकड़कर रोने लगता है और मुँह लटका कर खाली हाथ घर वापस लौटता है। इस तरह दिन बीतने लगे। जब खेती करने का समय आया तो सभी भाईयों ने अपने हिस्से के खेतों में धान बोया। छः भाईयों के धान की फसल लहलहाने लगी परंतु बड़े भाई की फसल नहीं के बराबर थी। छः भाईयों के खेत की मेंड़ पर उनके करम देवता टहल रहे थे। उन्हें देखकर बड़े भाई ने डाँटते हुए कहा- ‘तू कौन है और इस तरह हमारे खेतों की मेड़ पर क्यों टहल रहा है?’ करम देवता बोले- ‘मैं तुम्हारे भाईयों का करम (भाग्य) हूँ। तू मुझे कहाँ से पा सकेगा रे पापी? तूने तो अपने करम के सात टुकड़े कर डाले’। बड़ा भाई अपनी गलती पर पश्चाताप करने लगा और करम देवता के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। करम देवता को उस पर दया आ गई। वे बोले- ‘तुम्हारा करम सात समुद्र सोलह धार के उस पार है’। इतना कह कर वे अंतर्ध्यान हो गये। बड़ा भाई वहाँ से घर लौटकर अपने करम की तलाश में हाय करम, हाय करम करते हुए निकला। चलते-चलते रास्ते में उसे एक महिला मिली। उस महिला के कूल्हे में एक बड़ा सा पीढ़ा चिपका हुआ था। उसने बड़े भाई से पूछा- ‘तुम कौन हो भाई और इस तरह हाय करम, हाय करम करते हुए कहाँ जा रहे हो? बड़ा भाई बोला- ‘मैं एक दुखिया हूँ और अपने करम देवता के पास जा रहा हूँ। महिला बोली- ‘भईया, करम देवता से मेरे दुःख को भी अवश्य बताना’। ‘हाँ’, कहकर बड़ा भाई आगे बढ़ गया। चलते-चलते एक गाँव में उसे एक और महिला मिली जिसके सिर पर घास उगी हुई थी। उस महिला ने भी बड़े भाई के विषय में जानकर हाथ जोड़ते हुए कहा कि- ‘भईया, करम देवता से मेरे दुःख को भी अवश्य बताना। ‘जरूर बताऊँगा बहन’, कहकर वह हाय करम, हाय करम करते हुए आगे अपने रास्ते चलने लगा। चलते-चलते वह एक नदी के किनारे पहुँचा, वहाँ एक बेर का पेड़ लाल-लाल फलों से लदा हुआ था। उसे जोरों की प्यास भी लगी थी। उसने सोचा कि पहले जी भर कर बेर खा लूँ फिर पानी पीकर प्यास बुझाऊँगा। जैसे ही वह बेर हाथ में लेता है उनमें उसे कीड़े ही कीड़े नजर आते हैं। वह बेरों को फेंक कर पानी पीने के लिए नदी में जाता है। जैसे ही पानी को वह अँजुली में भरता है तो पानी उसे लाल-लाल खून की तरह दिखाई देता है। वह बिना पानी पीये हाय करम, हाय करम करते हुए आगे निकल जाता है। आगे चलते-चलते उसे एक और नदी मिलती है। नदी के एक छोर पर एक गाय रंभा रही थी। गाय का बछड़ा नदी के दूसरे छोर पर था। उसने सोचा कि बछड़े को इस पार लाकर गाय का दूध पी लूँ। वह बछड़े को नदी के इस पार ले आया तो गाय उस पार चली गई। जब वह गाय को इस पार लाया तो बछड़ा उस पार चला गया। उसने कई बार प्रयास किया परन्तु वह सफल नहीं हो सका। इस प्रकार भूख-प्यास से तड़पते हुए वह हाय करम, हाय करम करते हुए आगे की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। पैदल चलते-चलते उसके कदम लड़खड़ाने लगे। वह थककर एक पेड़ की छाया में बैठ गया, तभी उसकी नजर एक घोड़े पर पड़ी। उसने सोचा कि अब बाकी रास्ता इस घोड़े पर सवार होकर पूरा करूँ। वह जैसे ही घोड़े के पास पहुँचा, घोड़ा जोर जोर से हिनहिनाते हुए उछलने लगा। वह घोड़े को अपने काबू में नहीं कर सका। वह समझ चुका था कि उसके साथ जो भी हो रहा है वह करम देवता के अपमान के कारण हो रहा है। वह गिरते-पड़ते हाय करम, हाय करम करते हुए जैसे-तैसे समुद्र के किनारे पहुँचा। वहाँ एक मगर रोगी की भाँति रेत में लेटा हुआ था। बड़े भाई ने मगर से कहा- ‘भाई मुझे किसी तरह सात समुद्र सोलह धार के पार पहुँचा दो। मैं जीवन भर तुम्हारा उपकार मानूँगा। मगर उसके बारे में सब कुछ जानकर बोला, ‘मेरे सिर में बहुत बड़ी सूजन हो गयी है। उसकी पीड़ा मुझसे सही नहीं जा रही है। मुझे इस पीड़ा से छुटकारा कैसे मिलेगी यह करम देवता से पूछकर बताना इसी शर्त पर मैं तुम्हें समुद्र पार कराऊँगा। बड़े भाई ने कहा- ‘भाई मैं करम देवता से सबसे पहले तुम्हारे दुःख को ही बताऊँगा’। तब मगर ने उसे सात समुद्र सोलह धार के पार पहुँचा दिया। बड़ा भाई देखता है कि उसके करम देवता करम पेड़ के रूप में लहलहा रहे हैं। वह करम देवता के चरणों गिर कर क्षमा माँगते हुए कहता है- ‘हे करम देवता! मुझसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है। मेरे पाप को क्षमा कीजिए। मैं आपकी शरण में हूँ’। करम देवता बोले- ‘जाओ मैने तुम्हें माफ किया, परंतु अब से ऐसी गलती मत करना और प्रति वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को मुझे आँगन में स्थापित कर व्रत, पूजन करके रात भर मेरी सेवा करना’। बड़ा भाई करम देवता से हाथ जोड़कर कहता है, ‘प्रभु आपने मुझे क्षमा करके मेरा उद्धार किया है। इसके लिए मैं सदैव आपका आभारी रहूँगा’। वह फिर उनसे पूछता है- ‘हे देव! आते समय मुझे एक मगर मिला जिसके सिर में सूजन है वह दर्द से तड़पता रहता है। उसका दुःख कैसे दूर होगा? बताने की कृपा करें’। करम देवता बोले- ‘उसके सिर पर एक बहुमूल्य हीरा है। तुम उसके सिर पर मुष्टिका प्रहार करना, हीरा बाहर निकल जाएगा जिससे उसका दुःख दूर हो जाएगा। हीरे को तुम अपने साथ ले जाना’। बड़ा भाई रास्ते में मिले बेर के पेड़, नदी, गाय-बछड़े व घोड़े के बारे में पूछता है। करम देवता मुस्कुराते हुए उत्तर देते हैं कि वे सब मेरे रूष्ट हो जाने के कारण तुम्हारे प्रतिकूल हो गये थे। अब वे सब तुम्हारे अनुकूल होंगे। बड़े भाई ने आगे कहा, ‘हे देव! मार्ग में मुझे दो महिलाएँ मिली थीं जिनमें से एक के कूल्हे में बड़ा सा पीढ़ा चिपका है और दूसरी के सिर पर घास उगी हुई है। कृपया उनके कष्ट निवारण का मार्ग बताने की कृपा करें। करम देवता बोले- ‘पहली महिला कभी किसी को सम्मान नहीं देती है। घर परिवार में अपने से बड़ों के सामने भी सदा ऊँचे आसन पर बैठती है तथा दूसरी महिला अपने सास, ससुर, जेठ एवं अन्य बड़े बुजुर्गों के सामने भी अपना सिर नहीं ढँकती है। इन्हीं कारणों से उन्हें कष्ट भोगना पड़ रहा है। यदि वे दोनों अपने बड़े बुजुर्गों का आदर सम्मान करना स्वीकार करेंगी तो तुम पीढ़े को लात मार देना और सिर को स्पर्श कर देना। उन दोनों के दुःख दूर हो जाएंगे’। बड़ा भाई करम देवता को सादर प्रणाम करके वापस लौटने लगता है। समुद्र के किनारे मगर उसकी प्रतीक्षा में बैठा हुआ था। बड़े भाई को देखते ही वह पूछ बैठता है, ‘करम देवता ने मेरे दुःख के विषय में क्या कहा’? बड़े भाई ने कहा, ‘पहले मुझे समुद्र के उस पार पहुँचाओ फिर मैं बताऊँगा’। मगर उसे अपनी पीठ पर बैठाकर समुद्र के किनारे ले आता है। जैसे ही बड़ा भाई किनारे पहुँचता है मगर के सिर पर एक जोरदार मुष्टिका प्रहार करता है। मगर के सिर से हीरा बाहर निकल आता है। मगर को आराम मिल जाता है। बड़ा भाई हीरा लेकर वापस अपने घर के रास्ते खुशी-खुशी लौटने लगता है। रास्ते में उसे वही घोड़ा फिर मिलता है परंतु इस बार वह घोड़ा बड़े भाई को देखकर बैठ जाता है। वह घोड़े पर सवार होकर आगे बढ़ता है। रास्ते में गाय अपने बछड़े को दूध पिला रही होती है। वह गाय का मीठा दूध पीकर उन्हें अपने साथ लेते हुए आगे बढ़ता है। फिर आगे बढ़ने पर जी भर कर मीठे-मीठे बेर खाता है और नदी का स्वच्छ पानी पीता है। जब वह सिर पर घास वाली महिला के पास पहुँचता है तो उसे कहता है, ‘तुम अपने बड़े-बुजुर्गों का आदर-सम्मान नहीं करती। कभी अपना सिर नहीं ढँकती। ये उसी का दुष्परिणाम है’। वह महिला बोली, ‘आज से मैं अपने से बड़ों के सामने तो क्या छोटों के सामने भी घूँघट डालकर रहूँगी’। यह सुनकर बड़े भाई ने उसके सिर को स्पर्श किया। महिला कष्ट से मुक्त हो गई। इसी प्रकार वह पहली महिला के पास पहुँच कर उससे कहता है, ‘तुम हमेशा ऊँची जगह पर बैठती हो। घर-परिवार में अपने बड़ों का भी लिहाज नहीं करती। तुम्हारा कष्ट उसी का दुष्परिणाम है’। वह महिला बोली, ‘आज से मैं ऊॅंची जगह पर तो क्या चटाई पर भी नहीं बैठूँगी’। यह सुनकर बड़े भाई ने चिपका हुआ पीढ़ा लात मारकर अलग कर दिया। इस तरह बड़ा भाई वापस अपने घर पहुँचा और प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन व्रत रखकर विधिपूर्वक पूजन करके करम देवता की सेवा करने लगा। करम देवता के आशीर्वाद से उसके सुख भरे दिन वापस लौट आये। जिस प्रकार उसके लिए करम देवता प्रसन्न हुए, वैसे ही सबके लिए करम देव प्रसन्न हों। इस प्रकार, कथा समाप्त होने पर सब करम देवता की पूजा-अर्चना करते हैं और प्रसाद ग्रहण कर व्रत तोड़ते हैं। समकालीन प्रसिद्द करमा गायक कलाकारों की निम्न सूचि यह दर्शाती है कि करमा किसी एक समुदाय से जुड़ा हुआ त्यौहार नहीं है. बल्कि यह समूचे क्षेत्र में लोकप्रिय है. करमा गीत मूलतः सामूहिक और अनुष्ठानिक थे , जिनमें नृत्य एवं गीत एक दूसरे से अभिन्न थे। धीरे धीरे करमा की लोकप्रियता बढ़ने और उसके व्यावसायिक प्रदर्शनों की मांग होने से अनेक करमा मंडलियां अस्तित्व में आ गईं और करमा का मंचन किया जाने लगा।क्यूंकि करमा कथा और गीतों में कोई सीधा संबंध नहीं था , अतः उसे अनुष्ठान से पृथक रूप में कल्पित करने में की कठिनाईं नहीं हुई। करमा गीतों की लोकप्रियता ने व्यावसायिक स्तर पर समसामयिक कर्मा गीतों के लेखन और गायन को प्रोत्साहित किया, जिसके फलस्वरूप अनेक करमा गायक सामने आ गए. 1. श्री मांझीराम उरांव, 2. श्रीमती किसमत बाई, 3. श्रीमती बरतनीन बाई, 4. श्रीमती फिदा बाई, 5. श्रीमती जयंती यादव 6. श्रीमती रेखा देवार, 7. श्री गणेष राम मरकाम, 8. श्री कोदू राम वर्मा, 9. श्रीमती पूनम तिवारी, 10. स्व0 प्रहलाद सिंह कष्यप, 11. श्री घनष्याम सिंह, 12. श्री खुमान साव, 13. श्री कुलेष्वर ताम्रकार 14. श्री दीपक चंद्राकर, 15. श्री मिथलेष साहू, 16. पद्मश्री गोविंदराम निर्मलकर, 17. पद्मश्री ममता चंद्राकर, 18. श्रीमती कविता वासनिक, 19. श्री गोपीराम निषाद, 20. श्री कलिराम ढीमर, 21. श्री श्याम लाल रावत, 22. श्री नान दाऊ गोंड, 23. श्री प्रीत राम उमरे, 24. श्री पंडितराम, 25. श्री सेहुन मिंज, 26. श्रीमती माला बाई।

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