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छत्तीसगढ़ में हिन्दी साहित्य का विकास



छत्तीसगढ़ में हिन्दी साहित्य का विकास
छत्तीसगढ़ में 20वीं शताब्दी के आरंभ में पत्रकारिता के उद्भव के साथ हिन्दी साहित्य ने भी स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में पदार्पण किया। आरंभिक हिन्दी साहित्य राष्ट्रीयता से ओतप्रोत था। स्पष्टतः स्वतंत्रता हेतु राष्ट्रव्यापी आंदोलन की धारा से ओतप्रोत छत्तीसगढ़ की प्रतिभाओं के कलम चल पड़े और जिन्होंने आजादी की लड़ाई की ज्वाला अपनी कलम से घधकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे साहित्य पुरुषो ने अपनी लेखनी से न केवल राष्ट्रीय आंदोलन को प्रखर किया अपितु प्रदेश और देश के साहित्य जगत् में अपनी लेखनी की अमिट छाप छोड़ी है।
  कुछ और कुछ, बिखरे पन्ने, तुम्हारे लिये, मेरी अपनी कथा, मेरा देश, वे दिन. हिन्दी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा. अंतिम अध्याय, मकरंद बिदु जैसी कालजयी रचनाओं के सृजनकर्ता स्व. श्री पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी न केवल छत्तीसगढ़ अपितु हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में स्थापित एक राष्ट्रीय नाम है, विशेष कर आलोचना के क्षेत्र में।
   व्यग्र संवेदना के चितेरे स्व. गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्मभूमि ग्वालियर के समीप श्योपुर कलां थी, किंतु कर्मभूमि उन्होंने छत्तीसगढ़ को बनाया। उनकी प्रथम कहानी 'खलील काका' 1936 में प्रकाशित हुई और उन्होंने कुल 47 कहानियां लिखीं। 'अधेरे में, 'ब्रम्हाराक्षस का शिष्य', 'काठ का सपना', 'कलाई', 'आखेट', 'क्लॉर्ड ईथरली' से लेकर 'विपात्र' जैसी कविताओं और कहानियों में मुक्तिबोध का विराट रचना संसार प्रतिबिम्बित होता है। मुक्तिबोध राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक थे। क्रांतिकारी कवियों में 'निराला' के बाद इन्हीं का स्थान है। इनकी कविताएं स्वाधीन भारत की इस्पाती दस्तावेज कहलाती है। हिन्दी कविता में इन्होंने एक नयी धारा का सूत्रपात किया। वे प्रगतिशील, प्रयोगवादी कवि थे।
   हिन्दी काव्य मे छायावाद के प्रवर्तक पद्मश्री स्व. मुकुटधर पांडेय ग्राम बालपुर जिला बिलासपुर के थे। वे पंडित लोचन प्रसाद पांडेय के अनुज थे। विभिन्न शासकीय पदों पर कार्य करते हुए भी वे साहित्य सृजन में जुटे रहे। उनकी पहली कविता 'कुरकरी के प्रति के प्रकाशन से उन्हें छायावाद का प्रवर्तक माना जाने लगा। उनकी अन्य रचनाएं-पूजा के फूल, परिश्रम, शैल बावा, यामा, लक्षमा। ये सभी रचनाएं 1915 से 1920 के मध्य प्रकाशित हुई थीं। उनका निबंध 'छायावाद' काफी चर्चित हुआ था। वाचस्पति पुरस्कार, भवभूति अलंकरण से सम्मानित स्व. पांडेय को भारत शासन ने 1976 में पद्मश्री से सम्मानित किया था।
   लोचन प्रसाद पांडेय ने 40 से भी ज्यादा ग्रंथ लिखे। इनमें 3 उड़िया में तथा 4 अंग्रेजी में और शेष हिन्दी में हैं। दो मित्र, प्रवासी, माधव मंजरी, कौशल रत्नमाला आदि स्व. लोचन प्रसाद की प्रमुख रचनाएं है।
  जिस समय हिन्दी भाषा अपना स्वरूप निर्मित करने का प्रयास कर रही थी, उसी समय शिवरीनारायण के ठाकुर जगमोहन सिंह ने 'श्याम स्वप्न' नाम का एक उपन्यास लिखा। यह उपन्यास 1886 में लिखा गया और 1988 में प्रकाशित हुआ। यह खड़ी बोली में लिखा गया आरंभिक उपन्यासों में से एक है।
  छत्तीसगढ़ के माधवराव सप्रे को हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरुषो में गिना जाता है। उन्होने 1900 में पेंड्रा रोड से 'छत्तीसगढ़ मित्र' नामक समाचार पत्र का प्रकाशन किया। बाद के दिनों में माधवराव सप्रे ने कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन व सम्पादन किया व हिन्दी पत्रकारिता के आधार को मजबूत किया। उन्होने क्रांतिकारी मराठी लेखो का हिन्दी में अनुवाद कर रायपुर में अंग्रेजों की नीद हराम कर दी थी, इसके लिये इन्हें सलाखो के पीछे भी जाना पड़ा था।
  बिलासपुर के स्व. श्रीकांत वर्मा ने मनुष्य की कुटा तथा आक्रोश को अभिव्यक्ति दी थी। साहित्य और पत्रकारिता में अनूठी छाप छोड़ने वाले इस रचनाकार ने माया दर्पण, जलसाद्य, मगध आदि रचनाएं लिखीं, जिनका 12 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। म.प्र. सरकार ने साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए स्व. वर्गा को 1973 में विशेष सम्मान, 1980 में शिखर सम्मान प्रदान किया। 1984 में केरल सरकार ने उनकी कविता को पहला कुमार हसन राष्ट्रीय पुरस्कार दिया और 1985 में उन्हे इदिरा प्रियदर्शिनी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। स्य. घर्गा ने 1982 में अफ्रीकी एशियाई कहानी लेखक सम्मेलन की अध्यक्षता भी की थी।

  मध्य प्रदेश राज्य और केन्द्र में कई उल्लेखनीय पद संभालने वाले और अब अतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति दुर्ग के श्री अशोक वाजपेयी की पहचान मूलत. एक साहित्यकार के तौर पर है। कविता और समालोचना में समान रूप से अधिकार रखने वाले श्री वाजपेयी ने संस्कृत, कला. कविता व अन्य विषयो पर 6 पत्रिकाओं और 10 अन्य पुरतको का सम्पादन किया। म. प्र. के प्रख्यात भारत भवन, कातिदारा अकादमी. म प्र आदिवासी लोककला परिषद, धुपद केन्द्र, उर्दू अकादमी और सस्कृति विभाग की रथापना से जुड़े रहे है । भारत गवन में विश्व कविता जैसे चर्चित आयोजन करने वाले श्री वाजपेयी को दयावती मोदी कवि शिखर सम्मान और साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है। पूर्वाग्रह चौमासा जैसी चर्चित पत्रिकाओं का सम्पादन करने के
पश्चात् अभी ये बहुवचन' के सम्पादक हैं।
  जगदलपुर के डॉ. धनंजय वर्मा को 1971 मे साहित्य आलोचक पुरस्कार और 1976 में हिन्दी सरथान पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। म प्र की क्षेत्रीय लोक कला एव आदिवासी कला पर कई सेमीनार. सम्मेलन व प्रदर्शनियों के आयोजक डॉ वर्मा 1980-82 में म प्र. के लोक आदिवासी कला राज्य अकादमी के सचिव. अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रमो के कार्यालय प्रभारी रह चुके हैं। आलोचक डॉ. वर्मा की 10 से अधिक पुस्तके प्रकाशित
हो चुकी हैं और इन्होने कई पुस्तकों का सम्पादन भी किया है।
  'शानी' के नाम से विख्यात जगदलपुर के स्व. गुलशेर अहमद अरसों तक सूचना एवं प्रकाशन संचालनालय और भाषा विभाग से जुड़े रहे तथा बस्तर के अबूझमाड़ का समाजशास्त्री और छतीसगढ अंचल का रचनात्मक सर्वेक्षण किया। फिल्म पटकथा, संवाद लेखन में सक्रिय स्व. शानी ने काला जल, साल वनों के द्वीप समेत दर्जना कितावे लिखीं और अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में इन किताबों का अनुवाद हुआ।
  हिन्दी उपन्यास जगत् मे नौकर की कमीज' दीवार में एक खिड़की रहती थी और खिलेगा तो देखेंगे जैसी रचनाओं से एक नया मुहावरा गढने वाले श्री विनोद कुमार शुक्ल देश में एक चर्चित नाम है। वह आदमी चला गया गरम कोट पहिन कर विचार की तरह जैसे कविता के रचयिता विनोद कुमार शुक्ल ने समान रूप ते कविता के क्षेत्र
में ख्याति अर्जित की है। दयावती मोदी कवि शिखर सम्मान और साहित्य अकादमी सम्मान समेत कई फेलोशिप और पुरस्कार पाने वाले विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है और उन पर फिल्म भी बनी है। छत्तीसगढ़ शासन का वर्ष 2001 का मुक्तिबोध सम्मान दिया गया है।
  साहित्यकार, समालोचक और शिक्षाविद् डॉ. राजेन्द्र मिश्र शिक्षा जगत में नामी व्यक्तित्व हैं । वे बख्शी शोध पीठ, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के अध्यक्ष हैं। कई पत्रिकाओं का संपादन कर चुके डॉ मिश्र की समालोचना पर कई पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी कविता की समालोचना पर अपना विशेष अधिकार रखने वाले डॉ. मिश्र ने लन्चे समय तक चर्चित स्तभ भी लिखे हैं।
  भिलाई के कवि स्व. डॉ. प्रमोद कुमार बख्शी सृजन पीठ भिलाई के अध्यक्ष थे। मूलतः कवि डॉ. प्रमोद वर्मा ने कहानियां भी लिखी और निबंध तथा आलोचना भी. पर उनकी कविताए विशेष तौर पर चर्चित हुई।
  इस प्रकार हिन्दी साहित्य जगत् में छत्तीसगढ़ की प्रतिभाओं में अचल का नाम स्थापित किया है। पिछली एक शताब्दी में यहां के साहित्य सेवक हिन्दी साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में अपनी उपस्थिति अकित करते रहे हैं।
प्रमुख साहित्य मर्मज्ञों की संक्षिप्त जीवनी यहा दी जा रही है।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख हिन्दी साहित्यकारों का संक्षिप्त परिचय
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के पितामह : माधवराव सप्रे- पं. माधराव सप्रे का जन्म दमोह जिले के पथरिया ग्राम में 19 जून सन् 1871 को हुआ था। 4 वर्ष की अवस्था में माधवराव अपने माता-पिता के साथ बिलासपुर में रहने लगे। उनकी प्राथमिक शिक्षा बिलासपुर में ही प्रारंभ हुई। हाईस्कूल शिक्षा के लिये आप रायपुर आये। आपकी महाविद्यालयीन शिक्षा जबलपुर मे शुरू हुई, बाद में ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज (महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज) में पूर्ण की। सन्
1899 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से वी.ए. परीक्षा पास की।
  अपने विद्यार्थी जीवन से ही सप्रे जी हिन्दी भाषा के अनन्य भक्त थे। अपने संकल्पों को साकार रूप देने हेतु उन्होने एक मासिक पत्रिका निकालने का निश्चय किया। सन् 1900 में पेंड्रा से छत्तीसगढ मित्र साहित्यिक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया, बाद में पं. वामनरव लाखे तथा रामराव चिचोलकर के सहयोग से छत्तीसगढ़ मित्र का रायपुर के कयूनी प्रेस से प्रकाशन प्रारभ किया। यह इस अंचल का प्रथम पत्र था एवं सप्रे जी इसके सम्पादक थे।
  पं वामनराव लाखे छत्तीसगढ मित्र पत्रिका के मालिक (प्रोप्राइटर) थे। "मित्र में कड़ाई और नम्रता, निर्भीकता और सहानुभूति. विद्वता और जिज्ञासा जैसे गुणों का मधुर मिलन हुआ था। 1905 में नागपुर से उनके द्वारा लिखी स्वदेशी आदोलन और बायकाट' पुस्तक हिन्दी ग्रंथ प्रकाशक मंडली के द्वारा प्रकाशित हुई। यह पुरतक ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गई। कांग्रेस के 1905 के बनारस अधिवेशन में उन्होंने प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया। बनारस मे तिलक जी से उनकी भेंट हुई। 13 अप्रैल, 1907 ई.से निकलने वाले 'हिन्दी केसरी' को सप्रे जी ने अपना भरपूर सहयोग प्रदान किया। हिन्दी केसरी के संपादक के रूप मे सप्रे जी को गिरफ्तार कर लिया गया। सप्रे जी की गिरफ्तारी के पूर्व ही तिलक जी को 6 वर्ष की सजा पर जेल भेज दिया गया था। पारिवारिक परिस्थिति एवं अंग्रेजी शासन के आदेश पर सप्रे जी को क्षमा मागने के लिए बाध्य होना पडा । आत्मग्लानि से मुक्ति के लिए प्रायश्चित स्वरुप वे तेरह महीनों के अज्ञातवास में रहकर पुनः सार्वजनिक जीवन में आए।
  सन् 1915 में लोकमान्य तिलक का सुविख्यात 'गीतारहस्य' मराठी में प्रकाशित हुआ। सप्रे जी ने इसका अनुवाद कार्य आरंभ किया और उसका प्रकाशन सन् 1916 मे हुआ। सन् 1925 में मथुरा, वृन्दावन के हिन्दी साहित्य सम्मेलन में सम्मिलित हुए। उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाए निम्नानुसार हैं-
  1907-'हिन्दी केसरी साप्ताहिक का संपादक एव प्रकाशन; 1908-जेल यात्रा : क्षमा याचना : प्रायश्चित: अज्ञातवास एवं पराजपे जी से गुरु दीक्षा; 1909-मराठी दासबोध का अनुवाद व हिन्दी दास बोध के नाम से प्रकाशित एवं राम चरित्र. भारतीय युद्ध और आत्म विद्या आदि ग्रथों का प्रणयन: 1912- हिन्दी दास बोध का प्रकाशन : 1913-जानकी देवी महिला पाठशाला की रायपुर में स्थापना; 1915-लोकमान्य तिलक के गीता रहस्य का अनुवाद एवं प्रकाशन, 1918 में हिन्दी दास बोध का प्रकाशन; 1919-भारत में सरकारी नौकरियां नामक ग्रंथ का अनुवाद; 1920-राष्ट्रीय हिन्दी मदिर जबलपुर का संचालन एवं कर्मवीर का प्रकाशन: राजिम में मालगुजार किसान सभा का आयोजन और महाभारत मीमांसा का अनुवाद; 1921-राष्ट्रीय विद्यालय एवं अनाथालय की स्थापना रायपुर में 1922- हिन्दी दास बोध का तीसरा संस्करण प्रकाशित; 1924-अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन के सभापति, 1925-जीवन संग्राम मे विजय प्राप्ति के कुछ उपाय' का प्रकाशन; 23 अप्रैल, सन् 1926 को ज्दर से उनका देहांत हो गया।
  देश के हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनकी कृतियां जितनी महत्वपूर्ण हैं वहीं राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जागृति के क्षेत्र में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
गद्यकार एवं संपादक : स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी -  इनका जन्म सन् 1894 ई. में राजनांदगांव जिले के खैरागढ में हुआ था। बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त करके इन्होंने साहित्य जगत में प्रवेश किया। काव्य-रचना का गुण इन्हें वंश परपरा से प्राप्त हुआ था। अपने विद्यार्थी जीवन से ही बख्शी जी कविता और कहानिया लिखने लगे थे। इनकी प्रारभिक कविताएं एवं कहानियां हितकारिणी नामक पत्रिका में प्रकाशित होती रहीं। इसके बाद आप आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आये और तब से इनकी रचनाएं सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित होने लगी। कुछ समय तक सरस्वती पत्रिका का संपादन भी किया। इसके बाद खैरागढ़ के एक हाईस्कूल में आप कुछ समय तक अध्यापक भी रहे। बख्शी जी स्वभाव से अत्यंत सरल. मृदुभाषी एवं एकान्त प्रिय थे। वे यथार्थ में जीते थे तथा व्यवहार कुशल एवं स्पष्ट वक्ता थे। बख्शी जी राजनीति एव दलबंदियों से दूर रहकर जीवनपर्यन्त साहित्य सेवा में लगे रहे। 28 दिसंबर, सन् 1971 को इनका स्वर्गवास हो गया।
रचनाएं -  बख्शी जी ने गद्य एव पद्य दोनो पर अपनी लेखनी चलाई। उन्होंने हिन्दी साहित्य-जगत् को लगभग 100 ग्रंथ प्रदान किये। उनकी प्रसिद्ध रचनाए निम्नलिखित हैं-
निबंध संग्रह -  हिन्दी साहित्य विमर्श, साहित्य चर्चा, साहित्य शिक्षा, हिन्दी कहानी साहित्य, यात्रा, बिखरे पत्र, प्रबंध पारिजात, तुम्हारे लिये, कुछ और कुछ, मकरन्द बिन्दु. प्रदीप आदि आलोचनात्मक ग्रंथ-हिन्दी उपन्यास साहित्य, विश्व साहित्य आदि कहानी संग्रह-अंजलि. झलमला आदि आत्मचरित-मेरी आत्मकथा काव्य ग्रंथ-शतदल, अश्रुदल;सम्मान-उन्हें हिन्दी साहित्य वाचस्पति की उपाधि प्राप्त हुई।
  बख्शी जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। वे एक भावुक कवि, सफल कहानीकार, गम्भीर समालोचक, प्रौढ़ निबंधकार, सुयोग्य संपादक तथा कुशल अनुवादक थे। वे हिन्दी के महान साहित्यकार थे तथा बंगला, अंग्रेजी एवं

संस्कृत के उच्चकोटि के विद्वान भी थे । बख्शी जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था । उनके भाषा के दो रूप - संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक हिन्दी और सरल साहित्यिक हिन्दी मिलते हैं । बख्शी जी मुख्य रूप से दो शैलियों- सरल एवं अलकारिक का प्रयोग करते थे । विषय की दृष्टि से उन्होंने आलोचनात्मक शैली . भावात्मक शैली , विवेचनात्मक शैली , व्यंग्यात्मक शैली और आत्मव्यंजक शैली अपनाया है । उन्होंने विविध शैलियों को अपनाकर हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध बनाया है ।

गजानन माधव मुक्तिबोध - छायावादोत्तर हिन्दी कविता को सर्वथा नवीन दिशा की ओर ले जाने वाले , साम्यवादी विचारधारा को स्वीकार करके चलने वाले . गजानन माधव मुक्तिबोध की ख्याति प्रगतिवादी कवि के रूप में भी है और प्रयोगवादी कवि के रूप में भी । उनका जन्म 14 नवंबर , 1917 को श्योपुरकलाँ में हुआ था । उनकी शिक्षा उज्जैन , विदिशा , अमझरा आदि स्थानों पर हुई , पत्रकार , संपादक और अध्यापक के रूप में वे वाराणसी , प्रयाग , नागपुर और राजनादगांव में रहे । 11 सितम्बर , 1964 को उनका निधन हो गया । उनकी प्रकाशित कृतियाँ है - ' भारत : इतिहास और संस्कृति , कामायनी : एक पुनर्विचार , नयी कविता का आत्म संघर्ष ' , ' चाँद का मुँह टेढ़ा है ( कविता संग्रह ) एक साहित्यिक की डायरी ( निबन्ध संग्रह ) ।

मुक्तिबोध तेजस्वी विचारक तथा औपचारिकताओं से सदा दूर रहने वाले और अभावों से जूझने वाले हिन्दी की विद्रोही काव्य परम्परा के कीर्ति स्तभ है । वे तार सप्तक ' के प्रथम प्रतिष्ठित कवि हैं । मुक्तिबोध के उत्तरवर्ती जीवन का परिवेश और विषमतर होता गया । उन्हीं के शब्दों में उनकी ' अन्तर्मुख दशाएँ निरन्तर दीर्घ और गहन होती गयी , किन्तु यह भी एक तथ्य है कि इस आत्मग्रस्तता के बावजूद और शायद उसको साथ लिए मेरा आत्म - संवेदन समाज के व्यापकतर छोर छूने लगा । कविता का कलेवर भी दीर्घतर होता गया परिणामतः मेरी कविताएँ कदाचित मासिक पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशन के योग्य भी नहीं रह गयीं । यह मुक्ति- बोध का विचारणीय आत्मकथ्य है | मुक्तिबोध की भाषा का स्वरूप अत्यन्त जीवन्त है । उसमें आधुनिक युग की प्रचलित पदावली प्रचुरता के साथ प्रयुक्त है , किन्तु संस्कृत की प्राचीन शब्द राशि , अंग्रेजी की वैज्ञानिक शब्दावली और कहीं - कहीं मराठी , और उर्दू शब्द - समूहों का प्रयोग भी उन्होंने किया है । मुक्तिबोध के काव्य में प्रतीकात्मक व्यजंनाओं की बहुलता है ।

मुक्तिबोध की आस्था मार्क्सवादी जीवन दर्शन पर रही है तथा उन्होंने मध्यवर्गीय जीवन और उसके मानसिक द्वन्द्व को अपना काव्य विषय बनाया है इसलिए उनके मन में पूजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध तीव्र आक्रोश निरन्तर बना रहा । मार्क्सवाद उनके मन में जीवन के प्रति नयी प्रेरणा और विश्वास भी जगाता है । उनके काव्य में एक विशिष्ट विचारशीलता और तज्जन्य बौद्धिक दुरुहता के दर्शन होते हैं , जो मुक्तिबोध की निजी पहचान है । मुक्तिबोध ग्रन्थावली पाच खण्डों में प्रकाशित हुई है जो कवि के विकास क्रम को ही नहीं दर्शाती वरन् उनके समग्र रचना संसार की प्रामाणिक झाँकी प्रस्तुत करती है ।

स्व . पं . केदारनाथ ठाकुर - जन्म -1870 , रायपुर में मृत्यु -23 जनवरी , 1940 , इनके माता पिता की मृत्यु एक ही दिन कार्तिक पूर्णिमा को हुई थी , जिनकी पुण्य स्मृति में इन्होंने रायपुर में रामसागर तालाब की स्थापना कर उसके किनारे आम का बगीचा लगवाया था । इन्होंने ' बस्तर भूषण ' की रचना की । नवंबर 1908 में इनकी समालोचना ' सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई , तत्कालीन बस्तर के महाराज प्रतापरुद्रदेव ने इसकी प्रशंसा की थी । प्रमुख रचनाए -बस्तर भूषण भाषा पद्यमय ' सत्यनारायण एवं ' बसंत विनोद हैं , जिसको उन्होंने ' केदार विनोद ' नामक ग्रथ में संग्रहित किया था , जिसे उन्होंने 1910 में लिखा था , जब बस्तर में प्रसिद्ध ' भूमकाल हो रहा था । पद्य में इन्होंने विपिन विज्ञान नामक ग्रंथ की रचना की । 1923 में ' सत्यनारायण कथा ' की रचना की थी , यह बस्तर स्टेट प्रेस , जगदलपुर में इसी वर्ष मुद्रित हुआ था , जबकि बस्तर भूषण ( 1908 ) तथा केदार विनोद ( 1910 ) भारत प्रेस बनारस से प्रकाशित हुआ था ।

उन्होंने नवंबर 1936 में एक दान पत्र द्वारा अपना निजी पुस्तकालय रुद्रप्रतापदेव पुस्तकालय जगदलपुर को भेंट कर दिया था । वे बस्तर में हिन्दी के प्रथम साहित्यकार थे तथा देश में हिन्दी गजेटियर जैसी रचना के जनक थे । इनकी रचना बस्तर भूषण 20 कीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर के बस्तर के संबंध में एक दस्तावेज है ।

पं . लोचन प्रसाद पांडेय - जन्म -1886 , जॉजगीर जिले के बालपुर ( चंद्रपुर के निकट ) ग्राम में , पं . मुकुटधर पांडेय अनुज , प्रारंभिक शिक्षा घर पर , 1902 में माध्यमिक शिक्षा संबलपुर से प्रथम श्रेणी में , उच्च शिक्षा हेतु बनारस गये किंतु बीच में वापस , 1900 में ' छत्तीसगढ़ मित्र ' हिन्दी मासिक का प्रकाशन , संपादन सप्रे जी के साथ । 1907 में स्वदेशी और बायकांट ' पर इनका लेख सर्वोत्तम था । श्री देवी प्रसाद वर्मा बच्चु जाँजगीरी ' ने इनके 15 निबंधों का संपादन किया है , इन निबंधों को शोध निबंधों की श्रेणी में रखा जा सकता है । 1920 में इन्होंने छत्तीसगढ़ के प्राचीन गौरव के संरक्षण तथा संवर्धन के लिये ' छत्तीसगढ गौरव प्रचारक मंडली की स्थापना की थी , जिसका नाम आगे चलकर महाकोसल इतिहास परिषद रखा गया , जो आज भी अस्तित्व में है । वे इस संस्था में चालीस वर्ष तक अध्यक्ष रहकर सेवा करते रहे । सम्मान -1948 के अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन , मेरठ में साहित्यवाचस्पति की उपाधि , हिन्दी गल्पमाला मासिकपत्र बनारस से स्वर्णपदक , भारत धर्म महामंडल , काशी से रजत पदक , भारतेंदू साहित्य समिति बिलासपुर द्वारा मानपत्र , 1912 में उड़ीसा के बामंडा के राजा त्रिभुवनदेव द्वारा काव्य विनोद की उपाधि इन्होंने 1954 में सारंगढ़ में राष्ट्रपति डॉ . राजेन्द्र प्रसाद को बालपुर से प्राप्त सिक्के आदि पुरातात्विक सामग्री समर्पित की तथा 1956 में रायगढ़ के नागरिकों की ओर से मानपत्र समर्पण किया था । उनके द्वारा छत्तीसगढ़ के इतिहास , संस्कृति - साहित्य एवं पुरातत्व के क्षेत्र में किये गये कार्य अविस्मरणीय हैं ।

पं . रामदयाल तिवारी - पं . रामदयाल तिवारी का जन्म 23 जुलाई , 1892 को रायपुर में हुआ । वे मेधावी थे । परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न थी अतः ट्यूशन करके घर का खर्च चलाना तथा म्युनिसिपल लैंप के नीचे बैठकर आपको पढना पड़ता था । चित्रकला में आपकी विशेष रूचि थी ।

सन् 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पासकर 1911 में इलाहाबाद से बी.ए. की परीक्षा पास की । इसी समय आपके पिता की मृत्यु हो गई । पिता की मृत्यु से तिवारी जी बहुत विचलित हुए और आगे की पढ़ाई जारी न रख सके । वे रायगढ के हाई स्कूल में अध्यापक हो गए । 1915 में आप वकालत की परीक्षा पास कर वकालत करने लगे । आप हिन्दी के साथ - साथ अंग्रेजी , संस्कृत , बंगला , उड़िया और उर्दू के भी मर्मज्ञ थे ।

इन्होंने अपना अधिकांश लेखन हिन्दी में ही किया , किंतु अंग्रेजी में भी उन्होंने बहुत लिखा है । कलकत्ता , मद्रास , नागपुर के पत्र - पत्रिकाओं में आपके विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित होते थे । राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त की यशोधरा एवं साकेत काव्य पर आपने समीक्षा की , जिससे प्रभावित होकर आपको समर्थ - समालोचक की उपाधि से विभूषित किया गया । सन् 1930 के बाद उन्होंने अपना अधिक समय साहित्य सेवा में लगाया । गांधीजी के द्वितीय रायपुर आगमन के पश्चात् उनसे प्रभावित होकर उन्होंने , उनके व्यक्तित्व पर ग्रंथ लिखने की प्रतिज्ञा की , जो 1936 में पूर्ण हुई । इस ग्रंथ का नाम था ' गांधी मीमांसा । इसके पश्चात् गांधी एक्सरेड नामक विशाल ग्रंथ अंग्रेजी में लिखा । इसके अतिरिक्त विद्यालयोपयोगी पुस्तके हमारे नेता , स्वराज्य प्रश्नोत्तरी आदि की रचना की ।

पं . तिवारी ने विश्व विख्यात कवि उमर - खय्याम की रूबाईयों पर भारतीय दृष्टिकोण से समीक्षा पुस्तक लिखी थी । वे सन् 1942 में बंबई अधिवेशन में सम्मिलित हुए । उस समय उनका स्वास्थ्य बहुत खराब था , लौटने पर वे और भी अस्वस्थ्य हो गए तथा 22 अगस्त , 1942 को उनका देहावसान हो गया ।

गांधी जी पर लिखे ग्रंथ से उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाने लगा । उन्होंने अपने विचारों व लेखनी के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन को शक्ति प्रदान की । वे पत्रकार , साहित्यकार , इतिहासकार एवं जनसेवक के रूप में जाने जाते हैं ।

काव्य - जगत में छायावाद के प्रवर्तक : पदमश्री मुकुटधर पांडेय - देश के प्रसिद्ध कवि एवं हिन्दी काव्य जगत् में छायावाद के प्रवर्तक पं . मुकुटधर पांडेय का जन्म वर्तमान जाँजगीर जिले के बालपुर ( चंद्रपुर के समीप ) ग्राम में 30 सितंबर , 1885 को हुआ था । वे रायगढ़ में बस गये थे । जहां संगीत के क्षेत्र में रायगढ़ ने देश को एक घराना दिया , वहीं साहित्य में मूर्धन्य विद्वान एवं छायावाद के प्रवर्तक पद्मश्री मुकुटधर पांडेय देश के साहित्य जगत् को रायगढ़ की महत्वपूर्ण देन है । पं . मुकुधर पांडेय का काव्यसंसार अपनी ही आंचलिक भाव - भूमि में सृजित हुआ है । पांडेय जी छायावाद के प्रथम कवि हैं और छायावाद के प्रथम समीक्षक भी । छायावाद का नाम उनका ही दिया हुआ है तथा छायावाद को प्रथम बार प्रमाणित भी उन्होंने ही किया । छायावाद के प्रथम कवि के रूप में स्वयं जयशंकर प्रसाद ने पं . मुकुटधर पांडेय को स्वीकार किया है । 1916 में मुरली मुकुटधर पांडेय के नाम से इटावा के ब्रम्हप्रेस से पूजा के फूल ' का प्रकाशन हुआ । उसी वर्ष प्रयाग विश्वविद्यालय से पांडेय जी किशोरवय में कवि प्रवेशिका में उत्तीर्ण भी हुए घर पर ही रह कर हिन्दी , अंग्रेजी , बंगला , उडिया साहित्य का गंभीर अध्ययन किया । पिताश्री द्वारा स्थापित विद्यालय में अध्यापन का कार्य शुरू किया और उसके साथ लेखन भी शुरू किया । हिन्दी काव्य जगत् में इनकी रचनाओं से एक नयी चेतना जागृत हुई एवं द्विवेदी युगीन इति वृतात्मकता फीकी पड़ने लगी , जिससे काव्य में प्रेम और सौंदर्य की प्रवृत्ति बढ़ने लगी । परिणामस्वरूप वैयक्तिक रागानुभूति के साथ ही रहस्यात्मक प्रवृत्तियां भी बढ़ने लगी और पद्यात्मकता के स्थान पर प्रतीकात्मकता प्रमुख होती गयी । इसी घारा पर मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद भी अग्रेसित हो रहे थे । इस समय पांडेय जी की रचनाएं सभी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण हो गये थे । सरस्वती पत्रिका की निःशुल्क सूची में उनका नाम रखा गया ।

पाडेय जी प्रसिद्ध कविता कुरकरी के प्रति काव्य जगत में अमर कृति बन गयी एवं केवल इनकी इस एकमात्र रचना से छायावाद की भूमि निर्दिष्ट हो गयी ।

अन्य रचनाएं - इनकी प्रकाशित प्रमुख कृतियों में पूजा के फूल ( 1916 ) , हृदय गान कहानी संग्रह ( 1918 ) , परिश्रम निबंध संग्रह ( 1917 ) , लक्षमा , शेर बाल , मामा ( तीनों अनुदित उपन्यास ) , मेघदूत 1984 , ' छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध ( 1984 ) , विश्वबोध ( 1984 ) , स्मृति पुज ( 1983 ) प्रमुख हैं । इसके अलावा इन्होंने 1909 से 1927 के बीच महत्वपूर्ण लेख लिखे , महाकवि कालीदास की प्रसिद्ध कृति ' मेघदूत का उन्होंने छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया ।

सम्मान - पांडेय जी को साहित्य प्रेम विरासत में मिला था । उन्हें दीर्घजीवन मिला था । काव्य जगत् में उनके योगदान को देखते हुए 1975 में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पदमश्री की उपाधि से विभूषित किया गया । रविशंकर विश्वविद्यालय के कुलपति ने उनके गृहनगर रायगढ जाकर पी.एच.डी. की मानद उपाधि से विभूषित किया । गुरु घासीदास विश्वविद्यालय ने उन्हें डी . लिट की उपाधि प्रदान कर स्वयं को गौरवान्वित किया । इसके अलावा उन्हें अनेक सम्मान एवं प्रशस्ति पत्र मिले ।

स्व . श्रीकांत वर्मा - इनका जन्म 18 सितंबर , 1931 में केंदा जमींदारी के दीवान के यहां हुआ था । बाल्यकाल केंदा जैसे अरण्य क्षेत्र में ही व्यतीत हुआ । 1950 में जमींदारियों का भारतीय संघ में विलय हो जाने से इनके परिवार की आर्थिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ा । अतः इनके जीवन का आरंभिक दौर काफी संघर्षमय रहा । दस - ग्यारह वर्ष की उम्र में इन्होंने घर पर एक पुस्तकालय की स्थापना की , जिसमें शरतचंद्र , प्रेमचंद्र , देवकी नंदन खत्री जैसे अनेक तत्कालीन साहित्य विभूतियों की रचनाओं का संग्रह होता था । अध्ययन हेतु इन्होंने इलाहाबाद के क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया कितु शीघ्र ही वहां से वापस आकर बिलासपुर के एस.बी आर कॉलेज में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की । इनके पश्चात् नौकरी की तलाश में बंबई जाकर फिल्मों में स्वयं को स्थापित करने का असफल प्रयास किया । 1948 से ही कविताएं लिखना आरंभ किया जो तत्कालीन प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं - तूफान , सारथी , नया खून , नागपुर टाइम्स आदि में प्रकाशित होती थीं । इनकी साहित्य यात्रा बिलासपुर से आरंभ होकर राजधानी तक जा पहुंची ।

' मटका मेघ ' जैसे काव्य संग्रह पर युवा कवि के सहज , सरल और निश्छल भावनाओं के उद्गार मिलते हैं । इनकी प्रारंभिक रचनाओं में छत्तीसगढ़ की प्रकृति के दर्शन होते हैं । इस चितेरे कवि ने अंचल से निकल कर राज धानी में स्वयं को स्थापित करं शीर्ष प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त किया । ' मटका मेघ जैसे काव्य संग्रह पर युवा कवि सहज , सरल और निश्छल भावनाओं के उदगार मिलते हैं । इनकी प्रारंभिक रचनाओं में छत्तीसगढ़ की प्रकृति के दर्शन होते हैं । इस चितेरे कवि ने अचल से निकल कर राज धानी में स्वयं को स्थापित करं शीर्ष प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त किया ।

रचनाएं - इनकी प्रमुख प्रकाशित रचनाएं मायादर्पण , जलसाद्य , मगध आदि हैं , जिनका 12 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है । सम्मान - म . प्र . सरकार ने साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए स्व . वर्मा को 1973 में विशेष सम्मान , 1980 में शिखर सम्मान प्रदान किया । 1984 में केरल सरकार ने उनकी कविता को पहला कुमार हसन राष्ट्रीय पुरस्कार दिया और 1985 में उन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । स्व . वर्मा ने 1982 में अफ्रीकी एशियाई कहानी लेखक सम्मेलन की अध्यक्षता भी की थी । तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी उनकी प्रतिभा से अत्यंत प्रभावित थीं एवं इन्हें उनका सम्मान एव सानिध्य प्राप्त हुआ । उनकी साहित्यिक यात्रा अभी पूर्ण आवेग में अग्रसर थी कि बीच में ही प्रकृति ने इन्हें 25 मई , 1986 को अपने काल का ग्रास बना लिया ।

हिन्दी शोक गीतों के प्रथम रचनाकार : स्व . मेदिनी प्रसाद पांडेय - इनका जन्म शक्ति रियासत के राज पुरोहित पं . सुखदेव राम के घर 1869 ई . में ग्राम परसकोल ( शक्ति ) में हुआ था । ये बारह वर्ष की उम्र से ही काव्य सृजन करने लगे थे । वे आगे चलकर रायगढ़ , शक्ति व फुलझर रियासत के राज्य पुरोहित हो गये । उनकी रचनाए तात्कालीन पत्रिकाओं हितकारिणी , शारदा , सरस्वती , सुधा और रसिक मित्र में छपा करती थीं । भारतीय साहित्य में , विशेषकर संस्कृत एवं हिन्दी शोक गीत लिखने की परंपरा सामान्यतः नहीं है , किंतु स्व . पांडेय ने अनेक शोक गीतों का सृजन किया जिससे इन्हें हिन्दी काव्य जगत् में शोक गीत लिखने वाले प्रथम कवि होने का श्रेय दिया जा सकता है । यद्यपि निराला जी ने ' सरोज स्मृति लिखा था , तथापि यह उनके बाद की रचना है । इन्होंने अपने माता - पिता , मित्रों , आश्रय दाताओं आदि के निधन पर करुण रस से ओत - प्रोत गीत लिखे हैं ।

रचनाएं - वे संस्कृत , हिन्दी , छत्तीसगढ़ी व अन्य भाषाओं के विद्वान थे । इनका महाकाव्य सत्संग विलास ' एक ऐसी वृहद कृति है जिसकी पांडुलिपियों का वजन 12 किलो ग्राम है । सत्संग विलास को यदि प्राचीन हिन्दी काव्य का सबसे वृहद कोश कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी । इसे संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ सुभाषित रत्नभण्डार के समकक्ष रखा जा सकता है , कितु यह ग्रंथ अब तक प्रकाशित नहीं हो सका है । इसकी पांडुलिपियां जीर्ण - शीर्ण हो रही हैं । इनकी अन्य रचनाओं में संग्रह सागर ' , रामायण , दरबाद प्रशंसा ( सन् 1894 में रायगढ़ के राजा भूपदेव सिंह की प्रशसा में ) , दुर्जन दर्पण , विकट बत्तीसी , सरयूपारीण गोत्रावली , नित्य कर्म पद्धति , पूजा , पुज प्रकाश . पद्य मजूसा ( भाग दो ) आदि अब तब अप्रकाशित हैं । इनकी प्रकाशित रचनाओं में पद्य मजूसा ( भाग - एक ) , विष्णु षटमदी स्रोत की टीका , गणपति उत्सव दर्पण और शृंगार सुधा दर्पण हैं ।

छत्तीसगढ़ी रचनाएं - उन्होंने छत्तीसगढ़ी में प्रचुर रचनाएं की हैं । लोक छदो का प्रयोग इनके द्वारा प . ' विप्र ' के बहुत पहले किया जा चुका है । ' करमा छद में लिखे गये उनके गीत गम्मतों में बहुत प्रचलित रहे हैं और आज भी नाचा पार्टियों , गम्मतियों और करमा नर्तकों द्वारा गाये जाते हैं । श्री प्रभाकर दर्शन ने इनकी लोक कृतियों पर शोध किया है । इनका निधन 27 मार्च , 1952 को 82 वर्ष की उम्र में हुआ । आश्चर्य की बात यह है कि 50 वर्षों तक उत्कृष्ट काव्य सृजन करने वाले इस विद्वान , जिसके प्रशंसक पिंगलाचार्य जगन्नाथ प्रसाद भानु , महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे मूर्धन्य साहित्य साधक रहे हों , को अब तक साहित्य जगत् में समुचित स्थान नहीं मिल सका है । आवश्यकता है उनके अप्रकाशित पांडुलिपियों , जिनमें विपुल काव्य भण्डार है , को प्रकाशित करने की , ताकि इनमें बंद काव्य निधि प्रकाश में आये , तो इस विद्वान को यथार्थ श्रद्धांजली होगी ।

पं . स्वराज प्रसाद त्रिवेदी - राष्ट्रीय आंदोलन के अतिम एवं निर्णायक चरण में अपनी लेखनी से राष्ट्रीय आदोलन को प्रखर करने एवं राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न करने वाले मूर्धन्य पत्रकार , साहित्यकार , स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं . स्वराज प्रसाद त्रिवेदी का जन्म 1 जुलाई , 1920 को हुआ था । इन्होंने 15 वर्ष की आयु में ही लेखन आरंभ कर दिया था जबकि मात्र 16 वर्ष की आयु में तत्कालीन मासिक पत्रिका ' आलोक ' ( 1936 ) , रायपुर के संपादन का कार्य किया । इन्होंने साहित्य की सभी विधाओं को अपनी लेखनी से स्पर्श किया है . इनकी महत्वपूर्ण प्रमुख कृतियों में वीर हरदोल ' ( खण्डकाव्य , अप्रकाशित ) , राहुल दान ' ( नाटक , फिर सुबह होगी ( नाटक ) , तीसरा किनारा ( कहानी संग्रह ) , ' बरसों के बाद भी ' ( काव्य संग्रह ) , पौधे हरियाये ' ( व्यग्य ) , ' दीदी ( कविता एवं कहानी संग्रह ) , रामायण और महाभारत के पात्रों पर लघु पुस्तिकाएं आदि प्रमुख हैं । ये प्रदेश के प्रथम पीढ़ी के प्रमुख पत्रकार हैं , इस क्षेत्र में इनके कार्य उल्लेखनीय हैं । इनके लेख तत्कालीन प्रमुख पत्र - पत्रिकाओं यथा माधुरी , कर्मवीर , शुभचिंतक , विशाल भारत में प्रकाशित होते थे और आज भी देश भर के विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में होते रहते हैं । इनकी रचनाएं ' त्रिशुल ' , ' अघोरभैरव ' , ' देवकुमार आदि उपनामों से भी प्रकाशित होती रहीं । इन्होंने मासिक ' आलोक ( 1936 ) से आरंभ कर अग्रदूत और महाकौशल जैसे प्रमुख दैनिकों का सपादन किया है । इस क्षेत्र में इन्हें म . प्र . शासन के अनेक पुरस्कारों के साथ अन्य संस्थाओं ने भी सम्मानित किया है । अन्य - हिन्दी साहित्य मंडल रायपुर के संस्थापक , छत्तीसगढ़ साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष , भारतेन्दु सम्मेलन बिलासपुर के संरक्षक एवम् म . प्र . साहित्य सम्मेलन के प्रधानमंत्री भी रहे ।

पं . सुन्दरलाल त्रिपाठी - पं . सुन्दरलाल त्रिपाठी का जन्म जगदलपुर में हुआ था । त्रिपाठी जी बंगला , संस्कृत और अंग्रेजी के ज्ञाता थे , विशेषकर बंगला साहित्य का उनका अपना अध्ययन प्रगाढ़ है । कुछ वर्षों तक आप विधानसभा सदस्य रहे कितु पुनः शुद्ध ज्ञान के क्षेत्र में लौट आये । त्रिपाठी जी असाधारण प्रतिमा के धनी साहित्यकार थे । दैनंदिनी इनकी एक चर्चित रचना रही है जो रायपुर जिला काउंसिल से सन् 1935-37 में प्रकाशित हुई । श्री त्रिपाठी हिन्दी साहित्य के लेखक थे तथापि अभिरूचि पुरातत्व , इतिहास , नेतृत्व , पाषाण तत्व , संस्कृत काव्य , साहित्य आदि के शोध मूलक लेखन में भी थी । सन् 1936 में इन्होंने रायपुर डिस्ट्रिक्ट काउन्सिल की मासिक पत्रिका उत्थान का बड़ी योग्यता के साथ सम्पादन किया । उस समय उत्थान ' हिन्दी के किसी भी उच्चस्तरीय पत्रिका से बराबरी कर सकता था । ' उत्थान ' में शिक्षा और साहित्य का अनुपात लगभग बराबर था । यह लगभग साढ़े तीन वर्षों तक चला । आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी ने अपनी एक समीक्षा में त्रिपाठी जी की दैनंदिनी ' के निबंधों को प्रसिद्ध अंग्रेजी निबंधकार चार्ल्स लेम्ब के निबंधों के समकक्ष माना है । इसमें अगस्त 1939 से फरवरी 1944 तक की घटनाएं लिपिबद्ध है , किंतु इसमें तत्कालीन राजनीतिक उथल - पुथल की किंचित मात्र भी चर्चा नहीं है । 1935 में महाकोसल नागपुर से प्रकाशित होता था जिसमें इन्होंने संवाद लिखने के साथ ही उसके संपादन में भी योगदान किया । उन्होंने मासिक सरस्वती के संपादन में भी योगदान किया है । दिल्ली में महारथी नामक एक लघु संवाद पत्र लगभग एक वर्ष प्रकाशित हुआ था , त्रिपाठी जी उसके सपादक थे तथा पत्र में उनका नाम प्रकाशित नहीं होता था । विवेच्यकाल में द्विवेदी युगीन साहित्यिक प्रवृत्तियों को विकसित करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था । इनका देहांत 2001 में जगदलपुर में हुआ ।

विनोद कुमार शुक्ल - जन्म -1 जनवरी , 1937 , शिक्षा - एम.एस - सी . ( कृषि ) पत्रकारिता में स्नातक , व्यवसाय अध्या पन , पद सेवा निवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर , ऑफ एक्सटेंशन इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय , रायपुर , उपलब्धिया अनेक साहित्य कृतिया प्रकाशित ( लगभग , जयहिद वह आदमी चला गया ) सम्मान - मुत्तियोध फेलोशिप रजा अगाई , नौकर की कमीज पर म प्र साहित्य अकादमी पुरस्कार , रघुवीर सहाय पुरस्कार इस पर अनेक भाषाओं में फिल्में बनी , रशियन , जर्मनी , अंग्रेजी आदि में कवितायें अनुदित ।

साहित्यकार , समालोचक . शिक्षाविद : राजेन्द्र मिश्र - जन्म -17 सितंबर , 1937 अरजुदा , दुर्ग में शिक्षा- एम.ए. ( हिन्दी ) , नागपुर , पी.एच.डी. सागर , व्यवसाय - सेवानिवृत्त प्राचार्य ( म . प्र . उच्च शिक्षा विभाग में ) मनोनीरा अध्यक्ष , बक्शी शोध पीठ , रविधि , रायपुर , रचनाएं - चार आलोचना पुस्तके प्रकाशित एकत्र समकालीन कविता का सम्पादन , अक्षार पर्व रचना वार्षिक का संपादन , विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में कई रचनाए प्रकाशित , सेमीनार कई राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार सम्मेलन व कार्यशाला में भागीदारी ।

अशोक बाजपेयी – जन्म -16 जनवरी , 1941 को दुर्ग में , शिक्षा - एम.ए अंग्रेजी , सेवानिवृत्त आई ए एस अधिकारी , रचनाए -13 हिन्दी कविताओं की पुस्तके एत तीन आलोचनाए प्रकाशित , सस्कृति कला , कधिता एवं अन्य विषय पर अंग्रेजी भाषा में 6 पत्रिकाओं एवं 10 पुस्तकों का संपादन , संस्थापक - भारत भवन कालीदास अकादमी , म . प्र . आदिवासी लोककला परिषद , धुपद केन्द्र , उर्दू अकादमी , सस्कृति विभाग आदि । भारत भवन में विश्व कविता समेत कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सेमीनारों में भागीदारी । सम्मान दयावनी मोदी कवि शिखर सम्मान 1994. साहित्य अकादमी अवार्ड 1994 1

लतीफ घोंघी - जन्म- 28 सितंबर , 1935 , महासमुद में । हास्या व्यंग की 30 पुस्तके प्रकाशित , कई भाषाओं में अनुवाद तथा टीवी धारावाहिक ' भैयाजी ' प्रसारित । ' लतीफ घोघी व्यक्तित्व और कृतित्व पर रविशकर वि.वि में पी एच डी की गयी , पुरस्कार - जसोरिया सम्मान , राजस्थान , एनाडू सम्मान , आंघ प्रदेश , अहिन्दी भाषी लेखक सम्मान ग्वालियर , सृजन श्री सम्मान म . प्र . शरद जोशी सम्मान व साहित्य सम्मान म . प्र .।

रामकुमार चतुर्वेदी ' चंचल ' - जन्म - 8 अक्टूबर , 1926 , मुंगेली में रचनाए - आत कविता संग्रह प्रकाशित , प्रसिद्ध लाल किला कवि सम्मेलन में अनेक बार सहभागिता , विश्व हिन्दी सम्मेलन , गणतंत्र दिवस उत्सव नेपाल में भागीदारी , पुरस्कार - साहित्य शिरोमणी 1987 , भारत भाषा भूषण 1951 , उ , प्र एव म प्र सरकार द्वारा सम्मानित ।

क्रांति त्रिवेदी - सुप्रसिद्ध , कथाकार , जन्म - रायपुर . पं . रविशकर शुक्ल की पुत्री : रचनाए - मन की हार , औरा की बूंद , समर्पण ( उपन्यास ) , गंगादत्त , दीक्षा ( कथा संग्रह ) , फूलों का सपना , अतिथि क्षण ( कविता ) , पत्ते की नाव ( बाल गीत ) , मैं और मेरा समय ( जीवन चरित्र ) आदि पुस्तकें प्रकाशित । वर्तमान में स्वतत्र लेखन कार्य ।