छत्तीसगढ़ की जलवायु
किसी स्थान के अनेक वर्षों के मौसम के मध्यमान को वहाँ की जलवायु कहते हैं अर्थात किसी भी क्षेत्र में लंबे समय तक पाये जाने वाले तापमान की स्थिति, वर्षा का समय तथा मात्रा, वायु की आदता एवं हवा की गति आदि की औसत अवस्था वहाँ की जलवायु के मुख्य तत्व होते हैं। किसी स्थान की जलवायु में शीघ्र परिवर्तन नहीं होता, जबकि मौसम उक्त घटकों के प्रतिदिन की अवस्था को कहते हैं। मौसम थोड़े-थोड़े समय पर बदलता रहता है। किसी छत्तीसगढ़ स्थान की जलवायु पर प्रभाव डालने वाले अनेक मूलभूत एवं स्थिर कारक जैसे-भूमध्य रेखा से वार्षिक वर्षा दूरी, समुद्र से दूरी, समुद्र सतह से ऊँचाई. जल एवं स्थल से चलने वाली हवाएं, महासागरीय धाराएं (जैसे-गल्फस्ट्रीम, अलनीनो). पर्वत श्रेणियों की दिशा. मिट्टी, वनस्पति की मात्रा आदि ऐसे अनेकानेक कारक हैं, जिनसे वहाँ की जलवायु निर्धारित होती है।
छत्तीसगढ़ की जलवायु में भी मानसूनी जलवायु की सभी विशेषताएं प्राप्त होती हैं। इस प्रदेश की जलवायु उष्ण-आई मानसून प्रकार की है. जिसे सामान्य बोलचाल में उष्ण-कटिबंधीय.मानसून जलवायुया 'शुष्क उप-आई (Dry sub- humid) कहा जाता है। मानसून की दृष्टि से छत्तीसगढ़ शुष्क आई मानसूनी जलवायु के अंतर्गत आता है। कर्क रेखा प्रदेश के उत्तरी भाग (सरगुजा, कोरिया जिले) से होकर गुजरती है जिसका पर्याप्त प्रभाव यहाँ की जलवायु पर पड़ता है। सम्पूर्ण प्रदेश की जलवायु में आंशिक संकेत भिन्नता है, जो समय-समय पर वर्षा, तापमान 1800 मि.मी. से अधिक आदि के रूप में परिलक्षित होती रहती है। यहाँ 1400-1600 ग्रीष्म में अधिक गर्मी तथा शीतकाल काफी ठंडा होने के साथ-साथ वर्षा ऋतु में न्यून दैनिक तापान्तर एवं न्यूनाधिक वर्षा यहाँ की जलवायु की मुख्य विशेषता है। इस तरह प्रदेश में देश की: मानसूनी जलवायु में प्राप्त ऋतु क्रम से अभिन्न स्थिति दृष्टिगोचर होती है अर्थात संपूर्ण देश के समान यहाँ की जलवायु में मुख्य तीन ऋतुएं प्राप्त होती हैं। अंचल में औसत वर्षा 140 सेमी. तथा इसका 90% दक्षिण-पश्चिम मानसून के द्वारा प्राप्त होता है अर्थात जून से सितम्बर के मध्य ।
छत्तीसगढ़ में ऋतुओं का आगमन - 21 मार्च के बाद सूर्य उत्तरायण होता है, किरणें सीधी होती जाती हैं तथा 21जून को यह कर्क रेखा पर लम्बवत होती है। कर्क रेखा प्रदेश के उत्तरी भाग से हो कर जाती है। अतः तेज धूप के फलस्वरूप तापमान बढ़ता जाता है। इस अवधि में यहाँ ग्रीष्म ऋतु होती है। इस समय उत्तर-पश्चिम भारत में न्यून वायु भार का केन्द्र स्थापित हो जाता है. जबकि हिन्द महासागर पर अपेक्षाकृत कम तापमान और अधिक यायुदाय होता है स्पष्टतः वायुभार की दिशा दक्षिण से पश्चिम की ओर होती है तथा इसी दिशा (दक्षिण-पश्चिम) में हया बहती है। जून तक उत्तर-पश्चिम का न्यून वायुभार केन्द्र इतना तीव्र हो जाता है कि न केवल समीपवर्ती समुद्र की हयाएं स्थल की ओर आने लगती है बल्कि हिन्द महासागर के दक्षिणी भाग (भूमध्य रेखा के दक्षिण) से भी हवाएं आकर्षित होने लगती हैं। सागर से आने वाली इन हवाओं से भारत. स्वभावतः छत्तीसगढ़ में वर्षा होती है। 21 सितम्बर के बाद सूर्य भूमध्य रेखा पार कर दक्षिणायन होने लगता है और स्थिति ठीक विपरीत होने लगती है अर्थात सूर्य की किरणें तिरछी होना. तापमान गिरना, उत्तर-पश्चिम में अधिक वायुभार केन्द्र तथा इसकी तुलना में हिन्द महासागर पर न्यून वायुभार का केन्द्र स्थापित होन आदि। इसके फलस्वरूप हवाएं स्थल से जल की ओर वापस होने लगती हैं (North-cast re-treating mansoon)। वापस आती ये मानसून हवाएं सूखी होती हैं इससे छत्तीसगढ़ में कोई वर्षा नहीं होती अतः कहा जा सकता है कि छत्तीर.गढ में वर्षा ऋतु 15 जून के पश्चात सितम्बर के अंतिम सप्ताह तक चलती है। सूर्य के दक्षिणायन होने से तापमान निरंतर गिरता जाता है और यह मकर संक्राति तक (14 जनवरी). जब तक सूर्य की लंबवत् किरणें मकर रेखा से वापस पुनः कर्क रेखा की ओर नहीं लौटती. गिरता ही जाता है। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में शीत ऋतु नवंबर से जनवरी के अंत तक रहती है। इस बीच माह अक्टूबर वर्षा एवं शीत कालों के बीच का संक्राति काल होता है. जिसे शरद' कहते हैं। इसी तरह शीत एवं ग्रीष्म के मध्य का संक्राति काल माह फरवरी होता है, जिसे बसन्त कहा जाता है।
ऋतुएं - जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है छत्तीसगढ़ प्रदेश में मुख्य रूप से तीन ऋतुएं होती हैं।
1. शीत ऋतु - शीत ऋतु का आगमन नवम्बर में होता है एवं मध्य फरवरी तक रहता है। इस ऋतु में मौसम सूखा, आकाश स्वच्छ एवं हवा की गति मंद होती है। इस काल का औसत तापमान 16-20 सें. के मध्य रहता है। न्यूनतम तापमान दिसम्बर-जनवरी के मध्य रहता है। इस काल में न्यूनतम तापमान दिसम्बर में सामरी पाट प्रदेश में 8° सें. ' से भी नीचे चला जाता है। रात्रि का तापमान गिरने से ऊंचे पठारी व पहाड़ी भागों में स्थानीय रूप से पाला व कुहरा पड़ता है। इस काल में प्रदेश में सबसे अधिक ठंड पाट प्रदेश में पड़ती है, जबकि मध्यवर्ती मैदानी भाग में अपेक्षाकृत कम ठंड पड़ती है। उत्तरी हिस्से में शीत ऋतु की अवधि दक्षिणी हिस्से की तुलना में कुछ अधिक होती है। मैदानी हिस्से में दैनिक तापान्तर कम होता है. जबकि उत्तरी एवं दक्षिणी हिस्से में यह अधिक होता है।
2. ग्रीष्म ऋतु - ग्रीष्म ऋतु प्रदेश में मार्च से प्रारंभ होकर जून के दूसरे व तीसरे सप्ताह तक रहती है. तत्पश्चात् मानसून आता है। मार्च से तापमान निरंतर बढ़ता जाता है एवं मई में लगभग संपूर्ण प्रदेश का अधिकतम तापमान 39° सें. से अधिक ही होता है। मई में प्रदेश का अधिकतम तापमान 44 सें.ग्रे. तक चांपा में प्राप्त होता है। इस काल में मैदानी भाग में गर्मी पड़ती है। इसके विपरीत प्रदेश के पठारी व पाट क्षेत्र में गर्मी अपेक्षाकृत कम पड़ती है। प्रदेश में ग्रीष्म ऋतु में मई-जून महीनों में गर्म शुष्क आंधियां चलती हैं। जिन्हें लू की संज्ञा दी जाती है। साधारणतः यह सूखी ऋतु होती है फिर भी प्रदेश में ऑसत वर्षा 2.5 से 12.5 सें.मी. तक हो जाती है। इस ऋतु में आर्द्रता बहुत कम होती है। आकाश स्वच्छ रहता है तथा मैदानी व पठारी भागों में तेज धूल भरी हवाएं चलती हैं। इस समय मैदानीक्षेत्र में दैनिक तापान्तर अधिक एवं पाट तथा पठारी क्षेत्र में कम होता है।
३. वर्षा ऋतु - प्रदेश में वर्षा का आगमन मानसून के साथ होता है, जो यहाँ सामान्यतः 15 से 20 जून के मध्य पहुंचती है। वायु में आर्द्रता बढने लगती है तथा तापमान कम होने लगता है। जून और जुलाई के तापमान में पर्याप्त अंतर पाया जाता है। प्रदेश में मानसून के, बंगाल की खाडी तथा अरब सागर दोनों ही धाराओं से वर्षा होती है, किंतु अधिकतम् भाग बंगाल की खाड़ी से आये मानसून द्वारा होती है। कुछ वर्षा दिसंबर व जनवरी में चक्रवातों से होती है। जुलाई के बाद तापमान लगभग ठहर जाता है। सामान्यतः यह स्थिति जून से सितम्यर माह तक रहती है। जुलाई-अगस्त माह में अधिकतम वर्षा होती है। प्रदेश में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 138 से 140 सें.मी. तक होती है। सम्पूर्ण प्रदेश में वर्षा की मात्रा समान नहीं होती. इसमें विषमता प्राप्त होती है, जो कि 15% तक है जैसे-उत्तर दुर्ग तथा निकटवर्ती भागों में केवल 1143 सें.मी. के लगभग वर्षा होती है, जबकि दक्षिणी भाग दंतेवाड़ा, जगदलपुर, कांकेर में 145.2 सें.मी. (कुल 72 वर्षा दिवस) तथा छत्तीसगढ़ के मैदान के बिलासपुर, रायपुर आदि जिलों में 142 सें.मी. से अधिक (64 वर्षा दिवस) होती है एवं उत्तरी पहाड़ियों में (यघलखण्ड) 161 सें.मी. (कुल 83 वर्षा दिवस) होती है। सितंबर के अंतिम दिनों में मानसून का वेग कम होने लगता है, वर्षा की मात्रा घटती जाती है एवं स्वच्छ आकाश रहने का समय बढ़ने लगता है। अक्टूबर में औसत वर्षा कम हो जाती है तथा तापमान थोड़े समय के लिए एक बार हल्का बढ़ता है। इसे गर्मी की द्वितीय ऋतु (Second summer) कहते हैं। सबसे अधिक वर्षा अबूझमाड़ की पहाड़ियों में होती है, जबकि कम वर्षा का क्षेत्र उत्तरी दुर्ग है। राजनांदगांव जिले के पश्चिम में स्थित मैकल श्रेणी का पूर्वी भाग एक वृष्टि छाया वाला प्रदेश है। इसमें कवर्धा एवं उत्तरी राजनांदगांव जिलों के भू-भाग पड़ते हैं। यहाँ 120 सें.मी. से कम वर्षा होती है। इसके पश्चिम में उत्तर-पूर्व की ओर वर्षा की मात्रा बढ़ती जाती है। छत्तीसगढ़ के पूर्वी हिस्से में सामान्यतः अधिक वर्षा होती है, जबकि पश्चिम में अपेक्षाकृत कम, वर्षा का प्रथम आगमन 10 जून के आसपास बस्तर जिले के दक्षिणतम छोर पर होता है तथा 25 जून तक पूरे प्रदेश में पहुंच जाता है। मानसून की वर्षा मध्य सितंबर में उत्तरी भाग से खत्म होना आरंभ होकर 25 सितंबर तक पूरे प्रदेश से चली जाती है। वर्षा के प्रादेशिक वितरण एवं अवधि से संबंधित तालिका कृपि अध्याय में दी गई है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि छत्तीसगढ का औसत तापमान वनों की बाहुल्यता तथा कृषि के लिये अनुकूल है और प्रदेश की प्रमुख आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र वन तथा कृषि हेतु महत्यपूर्ण है। वर्षा की मात्रा भी पर्याप्त है, किंतु इसके वितरण में असमानता भी है. जो यहाँ की वनस्पति तथा कृषि व्यवस्था में परिलक्षित होती है। विगत कुछ दशकों से वनों में कमी के कारण मृदा अपरदन, बाढ़ व सूखे की स्थितियां निर्मित हो रही है, जो हमें यहाँ जल नियोजन की आवश्यकता की ओर इंगित कर रही हैं। वर्षा के पर्याप्त जल को संरक्षित कर इसका बहुउद्देशीय उपयोग किया जाना चाहिये।