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सुआ गीत

सुआ का तात्पर्य तोता नामक पक्षी है और सुआ गीत मूलतरू गोंड आदिवासी नारियों का नृत्य-गीत है जिसे सिर्फ स्त्रियाँ ही गाती हैं। यह संपूर्ण छत्तीसगढ़ में दीपावली के पूर्व से गाई जाती है जो देवोत्थान (जेठउनी) एकादशी तक अलग-अलग परम्पराओं के अनुसार चलता है। सुवा गीत गाने की यह अवधि धान के फसल के खलिहानों में आ जाने से लेकर उन फसलों के परिपक्वता के बीच का ऐसा समय होता है जहाँ कृषि कार्य से कृषि प्रधान प्रदेश की जनता को किंचित विश्राम मिलता है। यद्धपि अध्येताओं का मानना है कि यह मूलतः आदिवासियों का नृत्य गीत रहा है किन्तु इसे छत्तीसगढ़ में विगत कई दशकों से हर वर्ग और जाति की महिलाओं इसे ने अपनाया है। वर्ष में इसका आरंभ दीपावली के समय शंकर और पार्वती के विवाह के गौरा पर्व के साथ होता है जो अगहन माह (दिसंबर-जनवरी) के अंत तक चलता है। सुवा के संबंध में अपने शोध ग्रंथ छत्तीसगढ़ के सुआ गीतरू साहित्यिक-सांस्कृतिक अनुशीलन में डॉ. जगदीश कुलदीप लिखते हैं रू सुवा एक ऐसा पालतू प्राणी है जो मनुष्य की भाषा को अतिशीघ्र ग्रहण कर लेता है। वह बड़ी सहजता से मनुष्य की वाणी और भावों को ग्रहण करने की क्षमता रखता है। अल्पज्ञ प्रयास से ही सुवा को सिखाया-पढ़ाया जा सकता है। यह सुंदर और सीधा-साधा तो है ही, नारी मन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, व्यथा-कथा का सहभागी भी बन जाता है। प्राचीन काल से सुआ का वास मनुष्य के साथ उसके घर में और परिवार के मध्य रहा है। निरंतर मनुष्य के संपर्क के कारण वह मानवीय संवेदनाओं का साथी और अभ्यर्थी तथा सहभागी बन जाता है। इसी तरह अपने एक आलेख में डॉ. रमाकांत सोनी जी कहते हैं रू यद्यपि सुआ लोकनृत्य में करुणा का सागर लहराता है बावजूद इसके लोक नृत्य गीत में प्रकृति के विविध जीवन रंग, कृषि जीवन की झलक, अध्यात्म-दर्शन के साथ हास्य-श्रृंगार, शांत रसों का वैविध्य दिखाई पड़ता है। अर्थात सुवा गीत छत्तीसगढ़ की नारियों का जीवन दर्शन है जिसमें श्रम का संयोग, प्रियतम का वियोग, अनहोनी के संयोग की भाव धारा समाहित है। इस तरह हम पाते हैं कि सुवा लोक नृत्य में छत्तीसगढ़ का लोक जीवन स्पंदित है। सुवा गीत एवं छत्तीसगढ़ के अन्य सांस्कृतिक परम्पराओं की प्राचीनता के संबंध में विद्वानों का तो यहाँ तक कहना है कि यह महानदी घाटी सभ्यता काल से छत्तीसगढ़ में विद्यमान है। अपने एक आलेख में स्वर्गीय हरि ठाकुर जी कहते हैं कि रू यह गीत कितने प्राचीन हैं यह किसको मालूम? किंतु इतना तो निश्चित है कि यह गीत उतने ही प्राचीन हैं जितने उन में व्याप्त भावनाएँ प्राचीन हैं। यह भी संभव है कि कालिदास और जायसी ने इन गीतों से प्रेरणा ली हो। यह गीत तो आज भी अलिखित ही हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक ही चले आ रहे हैं। रायगढ़ से कांकेर और सराईपाली से डोंगरगढ़ तक सुवा गीत अपने विभिन्न स्वरूपों में बिखरा चला आ रहा है। पारम्परिक भारतीय संस्कृत-हिन्दी साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संदेश लाने ले जाने वाले वाहक के रूप में शुक (तोता) का मुख्य स्थान रहा है। मानवों की बोलियों का हूबहू नकल करने के गुण के कारण एवं सदियों से घर में पाले जाने वाला यह जीव खासकर कन्याओं व नारियों का प्रिय माना जाता है। मनुष्य की बोली की नकल उतारने में सिद्धस्त इस पक्षी को साक्षी मानकर उसे अपने मन की बात ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना, कहि आते पिया ला संदेस’ कहकर वियोगिनी नारी इन लोकगीतों के अनुसार यह संतोष करती रही कि उनका संदेशा उनके पति-प्रेमी तक पहुँच रहा है। कालान्तर में सुआ के माध्यम से नारियों के संदेश गीतों के रूप में गाये जाने लगे और प्रतीकात्मक रूप में सुआ का रूप मिट्टी से निर्मित हरे रंग के तोते ने ले लिया, साथ ही इसकी लयात्मकता के साथ नृत्य भी जुड़ गया। सुआ नृत्य गीत कुमारी कन्याओं तथा विवाहित स्त्रियों द्वारा समूह में गाया और नाचा जाता है। इस नृत्य गीत के परंपरा के अनुसार बाँस की बनी टोकरी में धान रखकर उस पर मिट्टी का बना, सजाया हुआ सुवा रखा जाता है। लोक मान्यता है कि टोकरी में विराजित यह सुवा की जोड़ी शंकर और पार्वती के प्रतीक होते हैं। डॉ. जीवन यदु राही इसे और भी स्पष्ट करते हुए लिखते हैं रू धान से भरी टोकरी में तोते की दो मूर्तियाँ होती है। महिलाएँ इन्हें ही संबोधित करके सुआ गीत गाती हैं। टोकरी को सिर पर धारण करने वाली लड़की को सुग्गी कहा जाता है। सुआ गीत लोक में इतना प्रिय है इसमें जाति बंधन नहीं है। सुआ नृत्य में सभी जाति की महिलाएँ भाग लेती हैं इस प्रकार से सुआ गीत को किसी जाति विशेष का गीत नृत्य मानना उचित नहीं प्रतीत होता। सुवा नृत्य सामान्यतया सँध्या को आरंभ किया जाता है। गाँव के किसी निश्चित स्थान पर महिलाएँ एकत्रित होती हैं जहाँ इस टोकरी को लाल रंग के कपड़े से ढँक दिया जाता है। टोकरी को सिर में उठाकर दल की कोई एक महिला चलती है और किसानों के घर के आँगन के बीच में उसको रख देती हैं। दल की महिलाएँ उसके चारों ओर गोलाकार खड़ी हो जाती हैं। टोकरी से कपड़ा हटा लिया जाता है और दीपक जलाकर नृत्य किया जाता है। छत्तीसगढ़ में इस गीत नृत्य में कोई वाद्ययंत्र उपयोग में नहीं लाया जाता। महिलाओं के द्वारा गीत में तालियों से ताल दिया जाता है। कुछ गाँवों में महिलाएँ ताली के स्वर को तेज करने के लिए हाथों में लकड़ी का गुटका रख लेती हैं। छत्तीसगढ़ से सौ साल पहले असम गए असमवासी छत्तीसगढ़िया भी इस नृत्य गीत परंपरा को अपनाए हुये हैं, हालाँकि वे सुवा नृत्य गीत में मांदर वाद्य का प्रयोग करते हैं जिसे पुरुष वादक बजाता है। प्राचीन परंपरा में सुवा गीत नृत्य करने महिलाएँ जब गाँव में किसानों के घर-घर जाती थीं तब उन्हें उस नृत्य के उपहार स्वरूप पैसे या अनाज दिया जाता था जिसका उपयोग है वे गौरा-गौरी के विवाह उत्सव में करती थी। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तब सुवा नृत्य से उपहार स्वरूप एकत्र राशि से गौरा-गौरी का विवाह किया जाता था जिससे यह स्पष्ट है कि सुवा नृत्य का आरंभ दीपावली के पहले से ही हो जाता है। पारम्परिक रूप से सुवा नृत्य करने वाली नारियाँ हरी साड़ी पहनती हैं जो पिंडलियों तक आती है, आभूषणों में छत्तीसगढ़ के पारंपरिक आभूषण करधन, कड़ा, पुतरी होते हैं। इन परम्पराओं में बदलाव के संबंध में सुधा वर्मा कहती हैं, ‘आज सुआ नृत्य और गीत का स्वरूप बदल गया है। छत्तीसगढ़ का पहनावा साड़ी और करधन, कड़ा, पुतरी भी अब देखने में नहीं आता है। गीतों के बोल आधुनिक हो रहे हैं फिल्मीकरण हो रहा है। सुआ नृत्य में लड़कियाँ अब आधुनिक परिधान पहन रही हैं’। सुवा गीत के संबंध में पूर्व प्रकाशित एवं यथास्थापित भ्रांतियों को भी हम यहाँ स्पष्ट कर देना चाहते हैं। कुछ राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित पुस्तकों में लिखा है कि छत्तीसगढ़ में सुवा गीत धान की निराई करते हुए स्त्रियों द्वारा झूम कर नाचते हुए गाया है। इस पर अपनी टिप्पणी देते हुए डॉ. जीवन यदु राही लिखते हैं कि, ‘धान की निराई करते हुए, खेत के अंदर यदि महिलायें झूम कर नाचे तो खेत की क्या गति होगी आप स्वयं ही समझ लीजिए’। सुआ सामूहिक गीत नृत्य है इसमें छत्तीसगढ़ की नारियाँ मिट्टी से निर्मित सुआ को एक टोकरी के बीच में रख कर वृत्ताकार रूप में खड़ी होती हैं। सुआ की ओर ताकते हुए झुक-झुक कर चक्राकार चक्कर लगाते, ताली पीटते हुए नृत्य करते हुए गाती हैं। ताली एक बार दायें तथा एक बार बायें झुकते हुए बजाती हैं, उसी क्रम में पैरों को बढाते हुए शरीर में लोच भरती हैं। इस नृत्य में स्त्रियाँ तोते की ग्रीवा की तरह सिर हिलाती हैं। नृत्य करते हुए गोल घेरे में जब यह नाचती हैं तो इनकी टाँगें तोते की उठी हुई टाँग जैसी दिखती हैं। सुआ गीत के पदों में विभिन्न लोक अवयव होते हैं। प्रकृति, कृषि, कृषक, रिश्ते-नाते, लोक व्यवहार के साथ ही विरहणी प्रेयसी या पत्नी की व्यथा इसमें होती है। आपस में हंसी-ठिठोली, हास-परिहास आपसी नोंक-झोंक और यादों का इसमें विस्तार होता है। प्रतीकात्मक रूप से सुवा को यह बातें कहते हुए ग्राम बालायें गाती हैं। पारंपरिक लोक जीवन पर शोध प्रस्तुत करने वाले विद्वान डॉ. वेरियर एल्विन (1946) सुआ नृत्य को धीर-गंभीर सरिता कहते हैं। उनका यह मानना है कि यह एक सरल नृत्य गीत है, इसमें कहीं भी क्लिष्ट मुद्राएँ नहीं होती। कलाइयों, कटि प्रदेश और कंधे से लेकर बाहों तक सर्वत्र गुलाइयाँ बनती हैं। इसी क्रम में पं. अमृतलाल दुबे कहते हैं कि रू इसमें संगीत की काशिकी वृत्ति चरितार्थ होती है जिसमें मुक्तक गीत और प्रबंधात्मक गीत होते हैं। सुआ गीत नारी जीवन के सुख-दुख, हर्ष विषाद और व्यवस्था का ही चित्रांकन है। इस गीत में पारिवारिक प्रसंग और प्रेम के विविध अनुभव प्रस्तुत होते हैं। वैसे तो यह लोकगीत करुण रस प्रधान होते हैं लेकिन श्रृंगार और हास्य की झलक भी इसमें होता हैं। फोक सॉन्ग्स आफ छत्तीसगढ़ में डॉ. वेरियर एल्विन ने लिखा है कि रू सुआ नृत्य में महिलाएँ एक वृत्त में नृत्य करती हैं, आगे झुकती हैं और ताली बजाती हैं। जैसे ही वे घूमती हैं, पीछे वाली महिलाएँ अनुसरण में अपने पैरों को उठाती हैं और तोता वाल टोकरी के चक्कर लगाती हैं। इन गीतों में तोता एक भरोसेमंद मित्र के रूप में प्रकट होता है जो महिलाओं का सलाहकार है, खासकर युवा विवाहित लड़कियों का। भारतीय परंपरा में और साहित्य में तोता को एक आदर्श संदेशवाहक माना जाता है। भारतीय लोक में इसका विशेष महत्व है जो पति और पत्नी एवं प्रेमियों के बीच संदेश वाहक के रूप में प्रतिष्ठित है (1946)। गीत का आरम्भ ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना ....’ से एक दो नारियाँ करती हैं जिसे गीत उठाना कहते हैं। उनके द्वारा पदों को गाने के तुरन्त बाद पूरी टोली उस पद को दुहराती हैं। तालियों की थप-थप एवं गीतों का मधुर संयोजन इतना कर्णप्रिय होता है कि किसी भी वाद्य यंत्र की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। सुवा गीत के पहली और तीसरी पंक्ति के अंत में ‘रे सुवा’ या ‘रे मोरे सुवा’ जो सुवा के संबोधन के लिए प्रयोग में लाया जाता है। यह मान सकते हैं कि, सुवा को समझाने-सिखाने के लिए उसकी स्मृति में बातों को बार-बार डालने के लिए पंक्तियों की पुनरावृत्ति होती रहती है। गीतों में विरह के मूल भाव के साथ ही दाम्पत्य बोध, प्रश्नोत्तर, कथोपकथन, मान्यताओं को स्वीकारने का सहज भाव पिरोया जाता है जिसमें कि नारियों के बीच परस्पर परम्परा व मान्यताओं की शिक्षा सहज रूप में गीतों के द्वारा पहुँचाई जा सके। अपने स्वप्न प्रेमी के प्रेम में खोई अविवाहित बालायें, नवव्याही वधुयें, व्यापार के लिए विदेश गए पति का इंतजार करती ब्याहता स्त्रियों के साथ जीवन के अनुभव से परिपूर्ण वयस्क महिलायें सभी वय की नारियाँ सुवा गीतों को गाने और नाचने को सदैव उत्सुक रहती हैं। इसमें सम्मिलित होने किशोरवय की छत्तीसगढ़ी कन्या अपने संगी-सहेलियों को सुवा नृत्य हेतु जाते देखकर अपनी माँ से अनुनय करती है कि उसे भी सुवा नाचने जाना है इसलिए वह माँ से उसके श्रृंगार की वस्तुएँ मांगती है- ‘देतो दाई देतो तोर गोड के पैरी, सुवा नाचे बर जाहूँ’ यह गीत प्रदर्शित करता है कि सुवा गीत-नृत्य में नारियाँ संपूर्ण श्रृंगार के साथ प्रस्तुत होती थीं । संपूर्ण भारत में अलग अलग रूपों में प्रस्तुत विभिन्न क्षेत्रों के लोकगीतों में एक जन गीत प्रचलित है जिसमें नवविवाहित कन्या विवाह के बाद अपने ससुराल से अपने सभी नातेदारों के लिवाने आने पर भी नहीं जाने की बात कहती है किन्तु पति के लिवाने आने पर सहर्ष तैयार होती है। इसी गीत का निराला रूप यहाँ के सुआ गीतों में सुनने को मिलता है। यहाँ की परम्परा एवं नारी प्रधान गीत होने के कारण छत्तीसगढ़ी सुवा गीतों में सास के लेने आने पर वह नवव्याही कन्या जाने को तैयार होती है क्योंकि सास ससुराल के रास्ते में अक्ल बतलाती है, परिवार समाज में रहने व चलने की रीति सिखाती है- ‘सासे संग में तो जाहूँ ओ दाई, कि रद्दा म अक्कल बताथे, रे सुआ ना कि रद्दा म अक्कल बताथे’। इस गीत का भावार्थ है किरू अलसी छोटे आकार में और गेंदा फैल कर फूला हुआ है। उस गेंदे को फूल को बाल में लगा नहीं पाई कि ससुर ले जाने के लिए आ गया। माँ मैं ससुर के साथ नहीं जाऊँगी क्योंकि वह रास्ते में आँखें दिखाता है। उस गेंदे को फूल को बाल में लगा नहीं पाई कि देवर ले जाने के लिए आ गया। माँ मैं देवर के साथ नहीं जाऊँगी क्योंकि वह रास्ते में मजाक-मसखरी करता है। उस गेंदे को फूल को बाल में लगा नहीं पाई कि पति ले जाने के लिए आ गया। माँ मैं पति के साथ नहीं जाऊँगी क्योंकि वह रास्ते में मारता है। उस गेंदे को फूल को बाल में लगा नहीं पाई कि सास ले जाने के लिए आ गई। माँ मैं सास के साथ जाऊँगी क्योंकि वह रास्ते में अक्ल बताती है। सुवा गीत नृत्य स्त्री प्रधान है, न तो पुरूष सुवा गीत गाता है ना ही इस गीत में किसी वाद्य का वादन करता है ना ही नृत्य में सहभागी होता है। इसके संबंध में अध्येताओं का कहना है कि सुवा गीत में पुरुषों का अभाव या अनुपस्थिति यह प्रदर्शित करता है कि नारियाँ एक तो अपने हृदय की घनीभूत व्यथा को प्रियतम के लिए संप्रेषित करती हैं। दूसरी स्थिति सामंती युग में स्त्री वर्ग की दासता और और बेड़ियों को तोड़ने का एक उपक्रम और अपनी कलात्मक मन को नया आकाश देने की व्यवस्था है। पुरुष सहयोग के बिना नारियाँ सुआ गीत के माध्यम से अपनी निजता प्रकट करती हुई अपनी अहमियत भी सिद्ध करती हैं। नारियाँ अपनी प्रतिभा, महत्ता और कला को सुवा गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करते हुए आसपास के हाट बाजारों और मोहल्लों में सुआ गीत प्रदर्शित करती हैं। पुरूष प्रधान समाज में बेटी होने का दुख साथ ही कम वय में विवाह कर पति के घर भेज देने का दुख, बालिका को सहन नहीं होता है। ससुराल में उसे घर के सारे काम करने पड़ते हैं, ताने सुनने पड़ते हैं। बेटी को पराई समझने की परम्परा पर प्रहार करती यहाँ की बेटियाँ अपना दुख इन्हीं गीतों में पिराते हुए कहती हैं कि ‘मुझे नारी होने की सजा मिली है जो बाबुल नें मुझे विदेश दे दिया और भाई को दुमंजिला रंगमहल’। छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में से बहुत बार उपयोग में लिया गया और समय-समय पर बारंबार संदर्भित बहुप्रचलित एक गीत है जिसमें नारी होने की कल्पना दर्शित है- ‘पइयाँ परत हौं मैं चंदा सुरूज के, रे सुवना तिरिया जनम झनि देय’। स्त्री कहती है रू मैं चंद्रमा और सूर्य को प्रणाम करती हूँ कि मुझे नारी का जन्म मत दे। अरे सुवा, नारी का जन्म बहुत दुखदाई है, सुवा, जहाँ भेज दिया जाए वहां उसे जाना होता है। ऊँगलियों को मोड़-मोड़ कर घर को लीपवाने के बावजूद रे सुवा, नंनद को यह काम पसंद नहीं आता। मेरी बाँह पकड़ कर मेरे पति इस घर में लाए हैं, रे सुवा, ससुर मुझे डंडा दिखाते हैं। मेरे पिता ने भाई को दोमंजिला रंगमहल दिया है, रे सुवा, और मुझे विदेश भेज दिया। ससुराल में पति व उसके परिवार वालों की सेवा करते हुए नारी को अपने बाबुल का आसरा सदैव रहता है वह अपने बचपन की सुखमई यादों के सहारे जीवन जीती है व सदैव परिश्रम से किंचित विश्राम पाने अपने मायके जाने के लिए उद्धत रहती है। ऐसे में जब उसे पता चलता है कि उसका भाई उसे लेने आया है तब वह अपने ससुराल वालों से विनती करती है कि ‘उठव उठव ससुर भोजन जेवन बर, मोर बंधु आये लेनहार’ किन्तु उसे घर का सारा काम काज निबटाने के बाद ही मायके जाने की अनुमति मिलती है। कोयल की सुमधुर बोली भी करकस लग रही है क्योंकि नायिका अपने भाई के पास जाना चाहती है। उसने पत्र लिख लिख कर भाई को भेजे हैं कि भाई मुझे लेने आ जाओ। सारी बस्ती सो रही है किन्तु भाई भी अपनी प्यारी बहन के याद में सो नहीं पा रहा है - ‘एक नई सोवे मोर गाँव के गरडिया रे सुवना कि जेखर बहिनी गए परदेस’, यानी रू अरे सुवा, काली कोईली कूकती है और मृग आधी रात को चिल्लाती है। मृग का बोलना मुझे बहुत अच्छा लगता है सुवा, क्योंकि तब बस्ती के लोग सुख से सोते हैं। एक गड़रिया ही है जो रात को नहीं सोता जिसकी बहन परदेश गई है। पत्र लिख-लिख कर उसकी बहन भेज रही है कि भाई मुझे लेने आ जावो। छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकगीतों में पुरूष को व्यापार करने हेतु दूर देश जाने का उल्लेख बार-बार आता है। इन गीतों के अनुसार अकेली विरहाग्नि में जलती नारी अपने यौवन की रक्षा बहु विधि कर रही है किन्तु यौवन सारे बंद तोड़ने को आतुर है ‘डहत भुजावत, जीव ला जुडावत, रे सुवना कि चोलिया के बंद कसाय’। ऐसे में पति के बिना नारी का आँगन सूना है, महीनों बीत गए पर पति आ नहीं रहा है। वह निरमोही बन गया है उसे किसी बैरी ने रोक रखा है, अपने मोह पाश में जकड़ रखा है। इधर नारी बीड़ी की भांति जल-जल कर राख हो रही है। पिया के वापसी के इंतजार में निहारती पलके थक गई हैं। आसरा अब टूट चुका है, विछोह की यह तड़प जान देने तक बढ़ गई है ‘एक अठोरिया में कहूँ नई अइहव, रे सुवना कि सार कटारी मर जांव’ कहती हुई वह अब दुख की सीमा निर्धारित कर रही है। एक अन्य गीत में विवाह के बाद पहली गौने से आकर ससुराल में बैठी बहू अपने पिया को सुवा के माध्यम से संदेशा भेजती है कि आप तो मुझे अकेली छोड़कर व्यापार करने दूर देश चले गये हो। मैं किसके साथ खेलूंगी-खाऊँगी, सखियाँ कहती हैं कि घर के आँगन में तुलसी का बिरवा लगा लो वही तुम्हारी रक्षा करेगा और वही तुम्हारा सहारा होगा, ‘अंगना लगा ले तैं तुलसी के बिरवा, रे सुवना राखही पत ला तुम्हार’। वह गीत में कहती है, विवाह के बाद पहली गवने के बाद से ही मुझे ससुराल में लाकर बैठाने के बाद मेरे पति मुझे छोड़कर व्यवसाय के लिए चले गए। किसके साथ मैं खेलूंगी, किसके साथ खाऊँगी, रे सुवा, मुझे तुम्हारी याद आ रही है। आँगन में तुम तुलसी का चैंरा लगा लो, वही तुम्हारी लाज को रखेगा। इन गीतों में छत्तीसगढ़ की नारियाँ देवर की उत्सुकता का सहज उत्तर देते हुए छोटे देवर को अपने बिस्तर में नहीं सोने देने के कारणों का मजाकिया बखान करते हुए कहती है कि मेरे पलंग में काली नाग है, छुरी कटारी है। तुम अपने भईया के पलंग में सोओ। देवर के इस प्रश्न पर कि तुम्हारे पलंग में काली नाग है तो भईया कैसे बच जाते हैं तो भाभी कहती है कि तुम्हारे भईया नाग नाथने वाले हैं इसलिए उनके प्राण बचते हैंदृ ‘तुंहरे भईया बाबू बड नंगमतिया, फेर अपने जियरा ला लेथे बंचाय’। गीत का अर्थ है रू ऊँगलियों को मोड़-मोड़ के मैं देवता को जगा रही हूँ। हटो रे कुत्ता, हटो रे बिल्ली, कौन पापी दरवाजे को खोल रहा है। मैं कुत्ता-बिल्ली नहीं हूँ भाभी मैं तुम्हारा प्रिय छोटा देवर हूँ। मेरे घर में तुम आये हो तो आवो किन्तु भाई के साथ सोना। भाई के पंलग में बहुत मच्छर काटते हैं भाभी, तुम्हारे पलंग में सुख की नींद आती है। सुन लो देबर बाबू मेरे पलंग में छूरी-कटारी है। मेरे पलंग में काली नागिन है जो काट-काट के प्राण लेती है। तुम्हारे पलंग में काली नागिन है भाभी तो भईया कैसे बच जाते हैं। देवर बाबू तुम्हारे भईया बड़े नागनथईया हैं इसलिए अपने प्राण को बचा लेते हैं। छत्तीसगढ़ में दो-तीन ऐसे सुआ गीत पारंपरिक रूप से प्रचलित हैं जिनमें इस काली नागिन का विवरण आता है। यह वही काली नागिन है जो व्यापार के लिए दूर देश गए पिया के बिना अकेली नारी की रक्षा करती है। यह काली नागिन इन गीतों के अनुसार उसका विश्वास है, उसके अंतर्मन की शक्ति है - ‘छोटका देवर मोर बडा नटकुटिया, रे सुवना छेंकत है मोर दुवार’, अर्थात् रू मेरा छोटा देवर बहुत नटखट है, मेरे द्वार पर मुझे रोकता है। जब रात हो जाती है तो दरवाजे को धक्का देता है, रे सुवा, मेरा धर्म कैसे बचे। कसली नागिन मेरी सहेली है, रात में मेरे साथ रहती है। कार्तिक लगने वर तुम्हारे सजन आ जायेंगें, तब माता का ज्योत जलेगा। भावों से ओतप्रोत ऐसे ही कई सुवा गीत छत्तीसगढ़ में प्रचलित है, जिनको संकलित करने का प्रयास प्रमुखतरू हेमनाथ यदु एवं कुछेक अन्य लोककला के खोजकर्त्ता एवं शोधार्थियों ने किया है। इन गीतों का वास्तविक आनंद इनकी मौलिकता व स्वाभाविकता में है जो छत्तीसगढ़ के गांवों में देखने को मिलता है। फोक सॉन्ग्स ऑफ छत्तीसगढ़ में डॉ. वेरियर एल्विन (1946) ने दुर्ग जिले के खर्थुली में हल्बा सुवा गीत और बलौदाबाजार तहसील के सिंगारपुर में गाए जाने वाले सतनामी सुवा गीत, एवं बलौदाबाजार तहसील के ही भरतपुर, निपनिया में कुरमी सुवा गीत (झुमरि-झुमरि आवय नींद रे), बलौदाबाजार तहसील के ही मेंडुका और केंदा जमीन्दारी के डंडजरा में पनकिन सुवा गीत, केंदा जमीन्दारी के नवांगाँव में अहीर सुवा गीत, पेंड्रा जमीन्दारी, छूरी जमीन्दारी के नरेरा, उपरोरा जमीन्दारी के कोकड़ीझार में गाए जाने वाले गोंडि़न सुवा गीत का भी उल्लेख किया है। छत्तीसगढ़ में प्रचलित वाचिक लोक गाथाओं में भी सुवा का उल्लेख आता है। छत्तीसगढ़ी लोक गाथा रसालू में गंगाराम तोता संदेश वाहक के रूप में विदेशी शासक को पराजित करने में सहायता करता है वहीं वह अपने बुद्धि विवेक से पठान की आंखों से ओझल हो कर भाग निकलने में सफल होता है। छत्तीसगढ़ के कवियों के द्वारा भी सुवा लोक छंद को आधार मानकर एवं उसके लोक धुनों को अंगीकार कर गीत लिखे गए हैं। आरंभिक कवियों में पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र ने अपने कविता संग्रह सुराजी गीत में सुवा लोक छंद का प्रयोग किया है। इसके बाद के कवियों में स्व. कपिल नाथ कश्यप, स्व. बृजलाल शुक्ल, स्व. हेमनाथ यदु, स्व. परमानंद यदु, पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, पं. दानेश्वर शर्मा, पं. विद्याभूषण मिश्र, डॉ. विनय पाठक, मोहित राम, एवं लखन लाल गुप्त आदि अन्यान्य छत्तीसगढ़ी कवियों ने सुवा लोक छंद का सफल प्रयोग किया है। सारंगढ़ निवासी मदन मोहन तंबोली ने तो संस्कृत के मेघदूत का सुवा लोक छंद में छत्तीसगढ़ी अनुवाद प्रस्तुत किया है। डॉ. विनय कुमार पाठक ने भी सीता के दुख नामक छत्तीसगढ़ी खंडकाव्य के प्रथम सर्ग में भोजली लोक छंद एवं द्वितीय सर्ग सुवा लोक छंद युक्त है। कवियों के द्वारा प्रयुक्त यह लोक छंद श्रृंगार रस के लिए उपयुक्त तो है ही विरह वर्णन के लिए भी अत्यंत सार्थक सिद्ध हुआ है। सुआ गीत सहित छत्तीसगढ़ी के प्रायरू सभी लोकगीत शास्त्रीय छंद नहीं हैं बल्कि लोक छंद हैं, ये लोक छंद वार्णिक ना होकर मात्रिक हैं। यानी कि इसमें शास्त्रीय छंदों की तरह मात्राओं की समानता भी प्रायः नहीं मिलती और ना ही तुक योजना का पूरी तरह निर्वाह होता है, कई गीतों में तो तुक भी नहीं मिलते। इसी कारण गीत के पदों की मात्राओं में घट-बढ़ कर मिलती है। इस घट-बढ़ के बावजूद इसकी संगीतात्मकता के कारण लयात्मकता बनी रहती है। इसी संगीतात्मकता और लयात्मकता के चलते अनगढ़ लोक गीतों का महत्व भी स्थापित होता है। सुवा लोकगीत नर्तकियों की सँख्या अधिक होने पर वे गीतों को द्रुतगति में और सँख्या कम होने पर मंद गति से गाती हैं। इससे संगीत का प्रवाह स्वमेव नियंत्रित होता रहता है। यह सहजता व बंधन हीन स्वाभाविकता ही इस लोक गीत-नृत्य की खासियत है।



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