ददरिया - ( प्रेमगीत )
प्रेम और अनुराग का लोक स्वर : ददरिया
लोक का नाम जब भी हमारे सामने आता है, तब वह हमारी वाणी और हृदय को रससिक्त कर जाता है। हमारे अंतस में भावात्मक और रसात्मक आनंद की हिलोरे पैदा करता है और हमारी आंखों के सामने रूपायित होता है-सहज, सरल, भोले-भाले, परिश्रमी, झूमते, नाचते-गाते लोगों का समूह जो अपनी परम्परा, सभ्यता, और संस्कृति को अपनी लोक कलाओं के माध्यम से पोषित करता है। यही वह लोक है जो कोयल की तरह गाता है, मोर की तरह नाचता है तथा श्यामल मेघ की तरह सबकी प्यास बुझाता है।
शिष्ट जन इस लोक को अशिष्ठ कहते हैं। शायद शिष्टता का उन्हें ज्यादा भान हो। पर मुझे लगता है कि किसी को अशिष्ट कहना ही ज्यादा अशिष्टता है। किसी को अशिष्ट कहकर हम शिष्ट नहीं हो सकते। शिष्ट का संसार भौतिकता ही चकाचांैध से आप्लावित, स्वप्रिल, काल्पनिक और जीवन के सत्य से दूर होता है। वहां केवल दिखावा ही दिखावा, छलावा ही छलावा होता है। न शांति होती है न प्रेम। केवल आपाधापी, और तनाव, कुंठा का बोलबाला होता है। भला ऐसे में क्या तथाकथित शिष्ट सुखी हो सकता है? कदापि नहीं। लोक का अपना सहज, सरल परंतु सुखद और यथार्थ परक संसार होता है। भले ही लोक सुविधाओं से वंचित होता है। पर प्रेम, शांति, सद्भाव और साहचर्य से परिपूरित रहता है। इसकी अनुभूति तो लोक कला का सानिध्य प्राप्त कर ही किया जा सकता है। इसकी प्रतीति तो इनके साहित्य का अध्ययन और मनन कर ही किया जा सकता है। हां साहित्य, लोक का भी अपना साहित्य होता है। लोक का साहित्य 'लोक साहित्यÓÓ कहलाता है। लोक साहित्य लोक की निधि है। इस निधि में है लोक-गीतों के हीरे-मोती, लोक कथाओं और लोक गाथाओं के नीलम, लोकोक्तियों और पहेलियों के पन्ना-जवाहरात। यदि संपत्ति शिष्टता का सूचक है, तो भला इतनी संपत्तियों का मालिक 'लोकÓÓ अशिष्ट कैसे हो सकता है? हां निरीहता, अभाव ग्रस्तता, गरीबी, सहजता और सरलता अशिष्टता का बोध है तो 'लोकÓÓ जरूर अशिष्ट है, असभ्य है पर अपनी संस्कृति के संरक्षण और संर्वधन में इनकी यह अशिष्टता व असभ्यता कला-संस्कृति व प्रेम और प्रकृति के मामले में शिष्ट से भी विशिष्ट है। लोक की यही विशिष्टता लोक जीवन का माधुर्य है। लोक जीवन तो सदानीरा नदी की तरह आदिम काल से लोक मंगल के हित प्रवाहित हो रहा है। यदि कोई इस नदी से दूर रहकर प्यासा है तो गलती नदी की नहीं उस प्यासे की है, जो शिष्ट का आचरण कर, दंभ के कारण नदी के पास जाने में भी अपनी तौहीन समझता है। नदी का जल कंठ की प्यास बुझाता है और लोक गीत कंठ से निसृत हो श्रवणेन्द्रिय से प्रवेश कर मन और आत्मा की प्यास बुझाते हैं।
लोक गीत जहां जीवन में रस घोलते हैं, वही श्रम की क्लांति को भी मिटाते हैं। लोक गीत लोक के लिए ऊर्जा और प्रेरणा का कार्य करते हैं। लोक में लोक गीतों की महत्ता कभी कम हुई है, न होगी। लोग गीतों के उद्गम और अंत के विषय में डॉ. श्याम परमार ने लिखा है-'लोक गीतों के प्रारंभ के प्रति एक संभावना हमारे पास है। पर उसके अंत की कोई कल्पना नहीं। यह वह धारा है, जिसमें अनेक छोटी-मोटी धाराओं ने मिलकर उसे सागर की तरह गंभीर बना दिया है। सदियों के घातों-प्रतिघातों ने उसमें आश्रम पाया है। मन की विभिन्न परिस्थितियों ने उसमें अपने मन के ताने-बाने बुने हैं। स्त्री पुरूष ने थक कर इसके माधुर्य में अपनी थकान मिटाई है। इसकी ध्वनि में बालक सोये हैं। जवानों में प्रेम की मस्ती आई हैं। बूढ़ों ने अपने मन बहलाए हैं। वैरागियों ने उपदेशों का पालन कराया है। विरही युवकों ने मन की कसम मिटाई है। किसाने ने अपने बड़े-बड़े खेत जोते, मजदूरों ने विशाल भवनों पर पत्थर चढ़ाए हैं और मौजियों ने चुटकुले छोड़े हैं। कहने का आशय यह है कि लोक गीत जीवन को स्पंदित करते हैं। लोक जीवन के सुख-दुख को अपने में समेट कर लोक में आश्रय पाते हैं। लोक के हर वर्ग और जीवन के हर रंग के चितेरे हैं-लोक गीत।ÓÓ
छत्तीसगढ़ तो लोक गीतों का कुबेर है। छत्तीसगढ़ मेहनतकश इंसानों की धरती है। किसान और बसुंधरा की धरती है। यहां न जंगल जमीन की कमी है, न डोली डांगर की ना ही 'जांगरÓÓ की। हरे-भरे खेत-खार, जंगल-पहाड़, धन-धान्य से भरे कोठार जैसे इस धरती के श्रृंगार हैं। इस रत्नगर्भा धरती की कला और संस्कृति भी ठीक इन्द्र-धनुष की तरह बहुरंगी है। इसकी अलौकिक आभा लोक जीवन को आलोकित करती है। यहां लोक गीतों का अक्षय भण्डार है। इस अक्षय भण्डार का अनमोल हीरा है 'ददरियाÓÓ। ददरिया श्रम की साधना और प्रकृति की आराधना में रत किसानों और श्रमिकों का गीत है। यह प्रेम और अनुराग की लोक अभि-व्यक्ति है। लोक साहित्य विद्वानों का कथन है कि 'दादरÓÓ यानी ऊंचा स्थान। जंगल पहाड़ में गाये जाने के कारण इसका नाम 'ददरियाÓÓ पड़ा। यदि ददरिया के नामकरण के पक्ष में इस तथ्य को सही माना जाए तो यह भी सच है कि ददरिया केवल ऊंचे स्थानों अर्थात् जंगलों-पहाड़ों में नहीं गाया जाता। यह मैदानी इलाकों के सपाट खेतों में भी गाया जाता है। कुछ विद्वान 'दादराÓÓ से साम्यता के कारण दादरा गीत/ ताल में इसके नामकरण का सूत्र तलाशते हैं। यह भी सत्य है कि ददरिया में वाद्य का प्रयोग नहीं होता। तब ताल के नाम पर नामकरण का सवाल ही नहीं उठता। विद्वानों ने ददरिया के चार भेदों का भी निरूपण किया है। ठाढ़ ददरिया, सामान्य ददरिया, साल्हों और गढ़हा ददरिया। बैल गाड़ी हांकते गाड़ी वानों द्वारा गाये जाने वाले ददरिया गढ़हा ददरिया कहलाता है। संभवत: इसी आधार पर साल वनों में गाये जाने वाले ददरिया को साल्हो कहा गया हो?
तो क्या नांगर जोतते हलावाए द्वारा गाये जाने वाले ददरिया को नंगारिहा ददरिया कहां जाएगा? इस प्रकार ददरिया का भेद उचित नहीं जंचता। जो भी हो पर ददरिया है गीतों की रानी। ठाढ़ ददरिया और सामान्य ददरिया को खेतों में काम करते ग्रामीणों से सुना जा सकता है। इसकी स्वर लहरी बड़ी मीठी होती है।
पारंपरिक रूप में ददरिया खेतों में फसलों की निंदाई-कटाई करते, जंगल पहाड़ में श्रम में संलग्र लोगों द्वारा गाया जाता है। यह और बात है कि अब मंच पर ददरिया वाद्यों के संगत में गाया जाता है। लड़के-लड़कियों को नचाया जाता है। इसलिए शहरी परिवेश में जीने वाले लोक कला मर्मज्ञ ददरिया को लोक गीत न कहकर लोक नृत्य कहते हैं पर यह कला का विकास नहीं है। यह पारंपरिकता के साथ खिलवाड़ है। उसके मूल रूप को विकृत करने का प्रयास है। मेरी दृष्टि में ऐसा कोई भी प्रयास ना लोक कला के हित में हैं न लोक कलाकार के।
ददरिया का सामूहिक स्वर सुनकर जिसने उसका माधुर्य पान किया होगा, वही व्यक्त कर सकता है ददरिया के आनंद और अनुभूति को। इसे अकेले-दुकेले भी गाया जाता है, सवाल जवाब के रूप में। साथ देने वाला हो तो माधुर्य द्विगुणित हो जाता है-
बटकी मा बासी, अऊ चुटकी का नून।
मैं गावत हंव ददरिया, तैं कान देके सुन।
ददरिया मुक्तक श्रेणी का लोक काव्य है। यह दोहे की शैली में होता है। इस प्रभाव दोहे की ही तरह मर्मस्पर्शी होता है। ददरिया की श्रृंखला बड़ी लम्बी होती है। ये परस्पर भिन्न होते हैं। इनका परस्पर संबंध विच्छेदित रहता है। सतसई के दोहे के बारे में जिस प्रकार कहा जाता है-
सतसईया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर,
देखन में छोटे लगे, घाव करत गंभीर।
निष्ठुर निर्दयी और निर्माेही व्यक्ति को भी ददरिया मोम की तरह पिघला देता है। पत्थर में भी प्रसून खिला देता है लोक कंठ में गूंजने वाले ददरिया का माधुर्य मंदिर में गूंजती घंटियों की तरह मन को शांति देता है। काम करते-करते जब काया थकने लगती है, तब ददरिया की तान थकान मिटाती है या यूं भी कहा जाता सकता है कि ददरिया गाते-गाते काम करने से थकान आती ही नहीं बल्कि शरीर में ऊर्जा और मस्तिष्क में चेतना का संचार करता है। इसलिए कि यह लोक गीत का स्वभाव है और गीत मनुष्य का स्वभाव है। लोक जीवन में कोई भी कार्य गीत के बिना संपन्न नहीं होता। हल चलाने वाला हल चलाते-चलाते गीत गाता है। गाडीवान भी गीत गाता है। नाव चलाने वाला गीत गाता है। घर में चक्की चलाती, धान कूटती स्त्रियाँ गीत गाती हैं। लोक जीवन में लोक गीत का ही साम्राज्य है।
ददरिया में दोहे की तरह दो पक्तियाँ ही होती हैं। प्रथम पंक्ति में लोक जीवन के व्यवहृत वस्तुओं का उल्लेख है या कहें कि प्रकृति व परिवेश का समावेश और दूसरी पंक्ति में होता है अंतर मन की व्यथा-कथा, सुख-दुख, हास-परिहास और हर्ष-विषाद का प्रकटीकरण। कथ्य का भाव, क्रिया-प्रतिक्रिया, मनोदशा और पारस्परिक प्रभावों का चित्रण। 'तुकांतताÓÓ ददरिया की विशेषता है। स्वाभाविक रूप से दोनों पंक्तियों के तुक मिलते हैं। किसी-किसी ददरिया में दोनों पक्तियों में पारस्परिक प्रभाव तादात्मय स्थापित रहता है। यथा-
करिया रे हडिय़ा के, उज्जर हावय भात।
निकलत नई बने, अंजोरी हावय रात।।
ददरिया में विषयों की विविधता है पर मूलत: विषय श्रृंगार है। इसमें कृषि संस्कृति और आदिवासी संस्कृति पूर्णत: प्रतिबिम्बित होती है क्योंकि यही लोक जीवन का मूलाधार है। लोक व्यवहार के शब्द ददरिया के श्रृंगार हैं। फलस्वरूप ददरिया की पंक्तियों के भाव का हृदय में अमिट छाप पड़ता है-
आमा ला टोरे खाहूंच कहिके।
तैं दगा दिये मोला, आहूँच कहिके।।
प्रेम और अनुराग इसका मूल स्वर है। प्रेम तो जीवन का सार है, श्रृंगार है। प्रेम के बिना सारा संसार निस्सार है। युवा-हृदय में जब प्रेम की कोपलें फूटती हैं, तो वह किसी का प्रेम पाकर पल्लवित होता है। ददरिया प्रेमी हृदय की अभिव्यंजना है आकुल प्राण की पुकार, भोले भाले मन की काव्य सर्जना है। ददरिया के विषय में डॉ. पालेश्वर शर्मा कहते हैं-छत्तीसगढ़ी लोक गीत ददरिया यौवन और प्रणय का उच्छवास है। यौवन जीवन का वासंती ओज है, तो सौंदर्य उसका मधुर वैभव और प्रेम वह तो प्राणों का परिजात है, जिसके पराग से संसार सुवासित हो उठता है। प्रेम का पराग ददरिया की इन पंक्तियों में दृष्टव्य है-
एक पेड़ आमा, छत्तीस पेड़ जाम।
तोर सेती मयारू, मैं होगेंव बदनाम।।
आमा के पाना, डोलत नई हे।
का होगे मयारू, बोलत नई हे।।
ददरिया में प्रेम और अनुराग का ही वर्चस्व होता है। प्रेम गंगा जल की तरह पवित्र होता है। प्रेमी हृदय जिस छवि को अपनी आँखों में बैठा लेता है, वही उसका सर्वस्व होता है। उस प्रेम मूर्ति को वह अपनी कोमल भावनाएं पुष्प की तरह अर्पित करता है। मरने पर ही प्रीत छूटने की बात कहता है-
माटी के मटकी फोरे म फूट ही।
तोर मोर पिरित मरे में छुट ही।।
लोक मन का यह अनुराग, लोक मन की यह प्रेमाभिव्यक्ति और विश्वास धरती की तरह विस्तृत आकाश की तरह ऊंचा और सागर की तरह गहरा है। भला कोई प्रेम की ऊंचाई और गहराई को नाप सका है? प्रेमी हृदय की ललक और प्रिय की तलाश को कितनी सार्थक करती है, ददरिया की ये पंक्तियाँ-
बागे-बगीचा, दिखे ला हरियर।
झुलुप वाला नई दिखे, बदे हँव नरियर।।
लोक जीवन के क्रिया व्यवहार का यथार्थ भी प्रस्तुत करता है ददरिया। जब मुद्रा का प्रचलन नहीं था, तब लोक वस्तु-विनिमय द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे तथा परस्पर वस्तुओं को अदल-बदल कर अपनी रोजमर्रा की चीजों की पूर्ति करते हैं। छत्तीसगढ़ के लोक-जीवन में भी छुट-पुट प्रथा देखने में आता है। जैसे रऊताईन कोदो या धान के बदले मही देती है। गाँवों में लोग बबूल बीज के बदले नमक ले लेते हैं-
ले जा लान दे जँवारा,
कोदो के मिरचा ओ, ले जा लान दे हो।
धाने रे लुवे, गिरे ला कांसी।
भगवान के मंदिर म बाजथे बंसी।।
नवा रे मंदिर कलस नई हे।
दू दिन के अवईया, दरस नई हे।।
ददरिया के शाब्दिक अर्थ सौन्दर्य, अर्थ गांभीर्य और इसके माधुर्य के कारण इसे गीतों की रानी कहा जाता है। यह सम्मान इसे इसकी सहजता, सरलता और सरसता के कारण भी मिला है। ददरिया वह गीत है जिसके रचनाकार का पता नहीं है। यह वाचिक परम्परा द्वारा एक कंठ से दूसरे कंठ तक पहुंचता है। कुछ छुटता है, कुछ जुड़ता है। इस छुटने और जुडऩे के बाद भी यह कभी निष्प्रभावी नहीं हुआ है। इसका तेज और लालित्य बढ़ता ही गया है। लोक गायक जो देखता है, उसे ही गीत के रूप में कर गढ़ कर गाता है और समूह कें कंठ में जो बस जाता है वही लोक गीत कहलाता है। ददरिया लोक को गाने वाला गीत है-
संझा के बेरा, तरोई फूले।
तोर झूल-झूल रंगना, तोहि ला खुले।।
बगरी कोदई, नदी मा धोई ले।
तोर आगे लेवईहा, गली मा रोई ले।।
तिली के तेल, रिकोयेंव बिल मा।
रोई-रोई समझायेंव नई धरे दिल मा।।
ददरिया की कडिय़ाँ एक दूसरे के साथ पिरोई जाती है। ददरिया की धुनें अलग-अलग होती है। पर एक ही कड़ी को भिन्न-भिन्न धुनों में भी गाया जाता है। ददरिया की यह भी विशेषता है। ददरिया गाने वाले चाहे वह स्त्री हों या पुरूष वे इतने कुशल होते हैं कि अपनी कल्पना शक्ति से तत्काल ददरिया की पंक्तियाँ जोड़ लेते हैं। यदि इन्हें आशु कवि कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। परंतु इस सृजन में इनका कोई व्यक्तिगत प्रभाव नहीं होता। उनकी अभिव्यक्ति लोकमय हो जाती है। लोक तो निष्पृह और निराभिमानी होता है। वह केवल अपने स्मृतियों के सहारे आगे बढ़ता है तथा लोकमंगल का पथ गढ़ता है।
ददरिया की एक सुनिश्चित गायन शैली नहीं है। भिन्न-भिन्न धुनों, भिन्न-भिन्न रागों में यह लोककंठ से फूटता है। राग का आशय यहां शास्त्रीय रागों से कतई नहीं है। लोक में सुर को राग कहा जाता है। शास्त्रीय राग मेें बंधन होता है। लोक को बंधन स्वीकार्य नहीं। वह तो फूल की खुशबू के मानिंद है जो सबको सुवासित करता है। ददरिया की कडिय़ाँ को जोडऩे के लिए 'घोरÓÓ का प्रयोग किया जाता है जिसे हम टेक भी कहते हैं। ये पँक्तियाँ ददरिया की कडिय़ों के बीच-बीच में दुहराई जाती है-
हवा ले ले रे, पानी पिले रे गोला।
नई छोडंव तोला का रे, हवा ले ले।
का साग रांधे, महि म कुँदरू।
गाड़ी भागथे दबोल म, नई बाजय घुंघरू। हवा ले ले......
रस्ता म रेंगे, हलाय कोहनी,
तोर आँखी म सलोनी, खोप म मोहनी। हवा ले ले.....
कांचा लिमऊ के रे, रस चुचवाय।
भौजी बिना देवर के, मन कचुवाय। हवा ले ले......
ददरिया में धुनों के विविधता के कारण इसके गायन में किसी प्रकार की दुहरूता नहीं आती बल्कि इस विविधता के कारण इसकी एकरसता समाप्त होती है। अक्सर गीतों की एकरसता श्रोता के मन में ऊब पैदा करती है। ददरिया से तो ऊबने का सवाल ही नहीं है-
ये भागबो पल्ला का गा,
जाम झिरिया में...हवा म कलगी डोले।(घोर)
एक पेड़ आमा, झऊर करे।
मया वाली दोसदारी बर, दऊंड़ करे।।
सायकिल चलाए, हेंडिल धरिके।
तोला बइठे ल बलायेंव, कंडिल धरिके।
बाँस के लाठी, चुने ला भइगे।
तोर खातिर मयारू, गुने ला भइगे।
नांगर के मुठिया, दबाय नहीं।
तोर दिए खुरहोरी, चबाय नहीं।।
नवा रे हडिय़ा, भेर ला मडिय़ा।
निकलत नई बने, रांधत हडिय़ा।।
ददरिया सबाल-जवाब के रूप में अभिव्यक्त होता है। एक समूह सवाल करता है, दूसरा समूह जवाब देता है। या ऐसा भी कह सकते हैं कि दो प्रेमी हृदय परस्पर सवाल-जवाब करते हैं। ददरिया हृदय में अंकुरित प्रेम को अपनी स्वर लहरी से सींचता है उसे अनुराग का आश्रय देता है-
ये दे संझा के बेरा, बगइचा में डेरा
तोला कोन बन खोजंव रे.....
ये दे संझा के बेरा.......।
गहूं के रोटी, जरोई डारे।।
मोला बोली बचन में, हरोई डारे।।
बासी ल खाए, अढ़ई कौंरा।
तोला बईठे ल बालयेंव, बढ़ई चौंरा।।
चंदा रे उवे, सुरूज लाली ओ।
बखरी ले ढेला मारे, पिरित वाली ओ।।
ददरिया छोटे पद का गीत है। थोड़ी शब्द सीमा में बहुत अधिक कह देना, लोकगीतों की विशेषता है। यह सामथ्र्य ददरिया के पास अधिक है। लोक जिव्हा में रचे-बसे शब्द, हीरे मोती की तरह शोभा पाते हैं। इसमें मात्राओं की कमी-बेसी को गायक अपनी लयात्मकता से पूर्ण कर लेते है। शब्दों की कमी पडऩे पर संगी, संगवारी, दोस मयारू, जहुंरिया आदि शब्द जोड़ लिए जाते हैं। यह उनकी गायकी का कमाल होता है। लोक गायक तो वैसे भी स्वर-पूर्ति में कुशल व परिपक्व होते हैं। ददरिया गायन में कभी-कभी स्वर सन्तुलन के अतिरिक्त पंक्ति भी जोड़ी जाती है-
फूल रे फूले, धवई के र वार,
कोन गलियन में होबे, मोर जीव के आधार,
तुक-तुक के गोटी मारे, गिंजर के आना।
खाल्हे बाहरा म रे.......
खाए कलिन्दर रे, फोकला बधार,
इही गलियन में आबे, मोर जीव के आधार।
तुक-तुक के गोटी मारे, गिंंंंंंंंंंजर के आना।।
खाल्हे बाहरा म रे.....
घर के निकलती रे, कुरिया के टोंक।
मैं बोलन नई तो पायेंव रे, आदमी के झोंप।।
ओली के हरदी, कुचर जल्दी।
तुक-तुक के गोटी मारे, गिंजर के आना।।
खाल्हे बहरा म रे.......
ओली के हरदी, कुचर जल्दी।
देरी होगे पतरेंगी, निकल जल्दी।।
लोक की अपनी मर्यादा है, अपनी सीमा है। लोक मर्यादा का उल्ल्रंघन नही करता। ददरिया गांव की गलियों में नहीं गाया जाता। इसे खेत खार, जंगल-पहाड़ में ही गाया जाता है। वहां भी लोक समूह की उपस्थिति इसे मर्यादित रखती है। प्रेम और अनुराग का यह गीत यदा-कदा अश्लीलता को छूने का प्रयास भी करता है। यह प्रयास कुछ हम उम्र मित्रों के हास-परिहास के रूप में होता है, सार्वजनिक नहीं। समूह इस प्रयास को अस्वीकार करता है। नदी यदि तट का उल्लंघन करे तो वह अहितकर ही होता है-
करे मुखारी, जामुन डारा ग।
बइठे ल आबे तैं बइहा, हमर पारा।।
ददरिया में बही-बईहा का सम्बोधन, प्रगाढ़ प्रेम को प्रदर्शित करता है। बही अर्थात पगली, बईहा माने पागल। प्रेम में तो आदमी पागल ही होता है। जो अतिप्रिय उसे ही पागल कहने का अधिकार दिया है प्रेम ने। भला कोई दूसरा पागल कह सकता है?
चांदी के डबिया, सोने के ढकना।
नानपन के संगवारी, देवथे सपना।।
आधू नंगारिहा, बईला हे टिकला।
डोली म उतरहूं, हो जही चिखला।।
ददरिया की पंक्ति-पंक्ति कानों को सुकुन देती है और आत्मा को तृप्ति। यूं तो ददरिया में प्रेम का रंग गाढ़ा है। ददरिया में प्रेम के दोनेा रूप संयोग और वियोग का समन्वय मिलता है। इसके साथ ही ग्रामीण रीति-रिवाज, धार्मिक आस्था और लोक विश्वास तथा समकालीन परिस्थितियां भी इसमें आकार लेती है-
सिया राम भज ले संगी,
चरदिनिया जिनगी ग......
सिया राम भज ले।
चारे रे खुरा के चारे पाटी।
कंचन तोर काया, हो जही माटी।।
इधर छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों ने भी ददरिया छंद में गीत लिखना प्रारंभ िकया है। ये गीत लोकप्रिय भी हुए हैं। पर पारम्परिक ददरिया का सौन्दर्य और माधुर्य उनमें नहीं आ पाया। शायदा इसका कारण मौलिक प्रयास हो। व्यक्ति विशेष की छाप हो। जबकि दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि इनमें गा्रमीण जीवन के शब्दों का अभाव रहता है। इसीलिए लोक मन में ये गीत गहराई से उतर नहीं पाते। छत्तीसगढ़ के कुछ गायक कलाकारों व रचनाकारों के नाम लिप्सा के कारण ददरिया की गरिमा के साथ मजाक किया है। या तो इन्हें पारम्परिक ददरिया को अपनी रचना बताकर रचनाकार के रूप में अपना नाम जोडऩे का कुत्सित प्रयास किया है या पंक्तियों को इधर-उधर कर इसके मूल स्वरूप को क्षति पहुंचाई है। जिन पारम्परिक ददरियों को हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। जिन ददरियों को एक पैसठ वर्षीय लोक कलाकार अपनी किशोरावस्था से गाते आ रहे हैं, उन गीतों के साथ 30 वर्षीय कलाकार, रचनाकार के रूप में अपना नाम जोड़ता है। यह कितनी हास्यापद स्थिति है। पारम्परिक गीतों को, पारम्परिक ही रहने दें तो क्या हर्ज है? पारम्परिक गीतों को अपनी मौलिक रचना बताना अच्छी बात नहीं है। नाम ही चाहिए तो नाम के लिए अच्छे काम की जरूरत होती है।
कुल मिलाकर ददरिया मेहनतकश लोगों के हृदय की अभिव्यक्ति है। पसीने की बूंदों से सिंचित लोक की गर्जना है। प्रेम आतुर मन का मादक स्वर है, लोककंठ से झरता निर्झर है। जिसकी धारा कभी न क्षीण होगी न मलिन। ददरिया लोक मानस की शक्ति है। उसके प्रेम और अनुराग की अभिव्यक्ति है। लोक की अभिव्यक्ति का यह सिलसिला अनवरत जारी रहे। लोकगीतों की रानी ददरिया का स्वरूप लोक हाथों में सजता रहे, संवरता रहे। यह लोक स्वर अतृप्त आत्मा को संतृप्त करता रहे। लोकगीतों का लोकमंगल स्वरूप बना रहे। यहीं मंगल कामना है-
छोटे हे केरी, बड़े हे केरा।
राम-राम ले लव, जाये के बेरा।
जुन्ना लुगरा, कथरी के खिलना।
जिनगी रही त, फेर होही मिलना।