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छत्तीसगढ़ में कृषि



छत्तीसगढ़ में कृषि

भारत आरंभ से ही एक कृषि प्रधान देश रहा है। आज भी देश के लगभग 70% लोग कृषि से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से संलग्न है। देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 28% हिस्सा इस क्षेत्र का है. जबकि निर्यात में कृषिगत वस्तुएँ 20% तथा कृषि उत्पाद से नी वस्तुएँ 20% अर्थात कुल 40% हिस्सा इसी क्षेत्र का होता है। देश में जनता की कृषि पर निर्भरता तथा उनके लिये कृषि के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि जन साधारण के उपभोग बजट मे कृषि उत्पाद का हिस्सा लगभग 85% होता है। विश्व के मुख्य विकासशील देशो में अग्रणी होने के बाद भी भारत आज कृषि प्रधान देश है। स्पष्टत. छत्तीसगढ़ की स्थिति देश की औसत स्थिति से भिन्न नहीं हो सकती बल्कि यह राज्य कृषि क्षेत्र में देश के अत्यंत पिण्डे अंचलो मे से एक है।
  राज्य कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 136.03 लाख हे. क्षेत्र में अनुमानित कुल फसली क्षेत्र 56.44 लाख हेक्टेयर, निरा फसली क्षेत्र 4824 लाख हेक्टेयर तथा द्विफसली क्षेत्र 8.20 लाख हे. है। इस प्रकार राज्य में फसल की सघनता 117 प्रतिशत है। खरीफ प्रधान छत्तीसगढ़ में 83% खरीफ और मात्र 17% क्षेत्र में रबी की फसलें ली जाती है। राज्य के कुल कोये गये क्षेत्र का 75% खाद्यान्न. 15% दलहनी तथा 6% तिलहनी एवं शेष 4% क्षेत्र सब्जी, फल एवं अन्य फसलों से आच्छादित है।
  छत्तीसगढ को वर्तमान में पूर्णत. कृषि पर निर्भर प्रदेश कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी। यहाँ की लगभग 63% कार्यशील जनसख्या की आजीविका कृषि से संबद्ध है। प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 42.93%. (58.040 वर्ग कि.मी.) कृषि भूमि है। यहाँ कृषि पद्धति परपरागत तथा लगभग मानसून पर ही निर्भर है, अतः प्रदेश की कृषि को "मानसून का जुआ कहा जाता है. अर्थात मानसून की कृपा हुई तो अच्छा उत्पादन तथा वर्ष भर की खुशहाली अन्यथा अनावृष्टि की स्थिति मे अकाल. आर्थिक दुर्दशा, भुखमरी एवं पलायन जैसे अभिशाप ग्रामीण कृषकों का भाग्य बन जाते है। साथ ही अतिवृष्टि भी इसी प्रकार की स्थितियों निर्मित करती है। मानसून का धोखा एवं इससे उत्पन्न दुष्चक्र प्रत्येक कुछ वर्षों में घटित होते रहते है। सिंचाई की उपलध सुविधाएँ अपर्याप्त है। कृषि भूमि का लगभग 80% हिस्सा (सिंचित क्षेत्र 19.96% है) सिचाई की पहुच से दूर है। प्रदेश में एक मानसूनी फसल वह भी मुख्यतः चावल की ली जाती है। शायद यही कारण है छत्तीसगढ को धान का कटोरा' कहा जाता है। यहाँ कृषि में सर्वाधिक धान की फसल (लगभग 67.46%) ली जाती है किन्तु प्रति हेक्टेयर उत्पादन मांत्र 8 क्विटल प्रति एकड ही है, जोकि देश के औसत से कम है। इस बात से प्रदेश में कृषि के पिण्डपन की तस्वीर स्पष्ट हो जाती है। अन्य खाद्य फसलों में कोदो. कुटकी, गेहूँ, मक्का, ज्वार आदि (अनाज कुल 70.93% क्षेत्र में, धान को सम्मिलित कर) तथा दलहन जैसे-चना. तुअर, उड़द व अन्य दलहन (कुल 15.00% क्षेत्र में) तिलहन मे अलसी, सरसों, मूंगफली, तिल व अन्य तिलहन (6.17% क्षेत्र में) तथा अन्य फसलें जैसे गन्ना, फल-फूल. सग-सब्जी, मिर्च-मसाले (2.08% लगभग क्षेत्र में) आदि ली जाती है, जबकि कपास, चारा एवं अन्य अखाद्य फसलें (6% क्षेत्र में) कम ली जाती है। प्रति एकड़ उत्पादन निराशाजनक है. कारण-कृषि की पिछडी हुई परपरागत तकनीक, पर्याप्त सिंचाई सुविधाओं की अनुपलब्धता अर्थात् मानसून पर निर्भरता मुख्य है। साथ ही सिंचाई की जो सुविधा उपलब्ध है वह मुख्यतः छत्तीसगढ़ के मैदान में ही केंद्रित है, वह भी दुर्ग, रायपुर. धमतरी. विलासपुर चांपा-जॉजगीर जिलों में बघेलखण्ड में जशपुर (2.43%). कोरिया (4.76%). सरगुजा (4.48%). दण्डकारण्य मे दतवाड़ा (1.6%). जगदलपुर (1.38%) तथा छत्तीसगढ़ के मैदान में कोरवा (4.79%). आदि ऐसे जिले है जहां सिचित भूमि अत्यंत कम अर्थात कुल कृषि भूमि का 5% से भी कम है. जबकि अधिकतम सिंचाई के क्षेत्र धमतरी (55.9%). घांपा-जॉजगीर (44.6%), रायपुर जिला (40.4%). दुर्ग (28.3%) तथा बिलासपुर (26.5%) है एवं न्यूनमत सिंचाई का क्षेत्र बस्तर जिला (1.4% क्षेत्र) उल्लेखनीय है। प्रदेश का कृषि परिदृष्य तालिकाओं द्वारा भली-भांति समझा जा सकता है।
  प्रति हेक्टेयर अल्प उत्पादन प्रदेश की गंभीर समस्या है। विस्तृत प्रदेश में इसका कारण सिंचाई की समस्या तथा कृषि की प्राचीन पद्धति का पूर्व में उल्लेख किया जा घुका है। अच्छी गुणवत्ता के बीज, बीजोपचार, कीटनाशक, रासायनिक उर्वरक, उच्य तकनीक से बनी मशीनें तथा भूमि संरक्षण इत्यादि के आधुनिक ढंग यहुत सीमित क्षेत्रों में अपनाये गये हैं। यद्यपि शासन द्वारा संचालित कृषि विभाग के कार्यक्रम. कृषि अभियात्रिकी शाखा के प्रयास तथा इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय एवं इसके कृषि विभिन्न क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केंद्रों द्वारा विभिन्न विकासोन्मुख कृषि कार्यक्रम चलाये जा रहे है। साथ जलवायु ही कृषि की प्रगति एवं प्रोत्साहन हेतु केन्द्र एवं राज्य क्षेत्र सरकार द्वारा कृषि ऋण, फसल बीमा, रासायनिक उर्वरकों में ससिडी तथा उत्पादन के यथोचित लाम हेतु समर्थन मूल्य का निर्धारण आदि कार्य सराहनीय है। फिर भी इसका अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सका है. जिसका मुख्य कारण कार्यक्रमों का कृपकों तक न पहुंचना तथा कृषि कार्य के प्रति कृषकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव आदि है। प्रदेश में परिवहन के साधन भी अन्य राज्यों की तुलना में कम है। कई क्षेत्र आज भी मुख्य सड़को की परिधि से दूर हैं जिससे विस्तृत कृषि प्रदेशो में आधुनिक सुविधायें पहुंचाना एवं उत्पादन को बजार तक लाना एक अन्य समस्या है। अर्थात् प्रत्येक दृष्टिकोण से राज्य में कृषि विकास में बाधक तत्व मौजूद है और इनका निराकरण एक जटिल एवं गंभीर समस्या बना हुआ है। उपर्युक्त बाधाएं तो ऊपरी हैं जो विकास प्रक्रियाओं द्वारा, खत्म की जा सकती हैं, किंतु कुछ मौलिक कमियाँ, जैसे भौतिक बनावट, पर्वतों तथा पठारी भागों में मिट्टी की पतली परत तथा साथ में इनका कंकरीला होना आदि भी उत्पादन स्तर को कम तथा कृषि भूमि उपयोग में वृद्धि को हतोत्साहित करते हैं. का निराकरण प्रकृति के हाथ में है। छत्तीसगढ़ की अधिकांश मिट्टी लाल-पीली है जिसमें पोषक तत्वों की कमी है तथा ये उपजाऊ नहीं हैं। मृदा परीक्षण पश्चात् उर्वरकों का उपयोग करने की प्रवृत्ति आम नहीं हैं।
  उपरोक्त प्राकृतिक, आर्थिक. मनोवैज्ञानिक तथा पंरपरागत कारणों से छत्तीसगढ़ में कृषि काप्रादेशिक वितरण असमान है। कृषि भूमि का उपयोग तथा उत्पादन एवं जलवायु की दृष्टि से सम्पूर्ण प्रदेश को मुख्यतः तीन कृषि जलवायु क्षेत्रों (Agroclimatic zone) में विभाजित किया जा सकता है

क्र कृषि जलवायु क्षेत्र फसल जिले
1. छत्तीसगढ़ का मैदान चावल. कोदो. कुटकी. गेहूँअरहर, मूंग. चना. तिल.सोयाबीन, सब्जियों रायपुर. दुर्ग. राजनांदगांव. बिलासपुर. रायगढ, महासमुन्द.धमतरी. कवर्धा कोरबा,जाजगीर -चांपा एवं कांकेर .
2. बस्तर का पठार चावल, गेहूँ. कोदो. कुटकी मक्का अरहर चना Niger. कुत्थी. तिल. तिवरा. आलू एवं सजियों बस्तर एवं दंतेवाडा
3. उत्तर मैदानी क्षेत्र कोदो, कुटकी. चावल. गेहूँ अरहर, तिल, लेनतिल.Niger. मूंगफली. सरसों.बरसिम. आलू एवं सब्जियों

सरगुजा. जशपुर एवं कोरिया

1. उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र (Noriherm hill region) - यह ऐसा क्षेत्र है. जहाँ औसत निरा बोया गया क्षेत्र कुल भूमि का एक-तिहाई अथवा उससे भी कम (जशपुर 39.3%. सरगुजा 30.5% तथा कोरिया 18.58% औसत 29.45%) है. कुछ भाग में तो यह 20% के लगभग है. स्पष्ट है कि पठारी एवं पहाडी पनावट के कारण यहाँ कृषि की वर्तमान में कम संभावनाएं हैं। अधिकांश भाग पर छिछली, कंकरीली. पथरीली. लाल-पीली मिट्टी पाई जाती है जिसमें पोषक तत्वों की कमी होती है। ऐसी भौतिक दशाओं में कृषि कार्य कठिन हो जाता है. फलतः अधिकांश भूमि पर यन फैले हुए हैं तथा जन घनत्व कम है।
प्रमुख फसलें - घायल. ज्वार, मक्का. गेहूँ, जौ, दलहन मे-घना, तुअर, तिलहन में-मूंगफली, तिल, अलसी, सरसों तथा अन्य नगदी फसलो मे गन्ना, फल, सब्जियों एवं मिर्च-मसाले आदि है।
2 छत्तीसगढ़ का मैदान - यह अपेक्षतया समतल क्षेत्र है तथा यहाँ भूमि ढाल कम है एवं यहाँ की लाल-पीली व कछारी मिट्टी अपेक्षाकृत उपजाऊ है। ढाल कम होने से न केवल कृषि कार्य में सरलता होती है बल्कि यातायात के साधनों का विकास भी अधिक हो सका है. जो कृषि के विकास एवं विस्तार में सहायक है। यहाँ सिंचाई की सुविधा भी महानदी तथा हसदो-कांगो परियोजनाओं के कारण अन्य क्षेत्रों से अधिक है। स्पष्टतः यहाँ कुल ग्रामीण क्षेत्र के अनुपात में निरा बोया गया क्षेत्र 50% से अधिक है। इसी कारण इस जोन में जनसंख्या की सघनता है।
प्रमुख फसलें - यहाँ कृषि अपेक्षाकृत विकसित है। दो फसली क्षेत्र भी है। यहाँ मुख्य रूप से धान (60-80%) के पश्चात खरीफ में मूंगफली. अरहर, लाखडी. मकई आदि. रवी में गेहूं तथा तिलहन में अलसी व सरसों (रवी में). तिल (खरीफ में) आदि ली जाती है। नगदी फसलो के अंतर्गत गन्ने की फसल मुख्यतः बस्तर, बिलासपुर, रायगढ़, सरगुजा. कवर्धा: दुर्ग, रायपुर. जिलों मे ली जाती है। कपास की खेती का प्रचलन नहीं है केवल बस्तर, दंतेवाड़ा. सरगुजा एवं राजनांदगांव मे अत्यल्प क्षेत्र में की जाती है। रायगढ़ जिले में मेस्टा का उत्पादन किया जाता है जो जूट के समान रेशे पैदा करता है और उसी के विकल्प के रूप में अपनाया जा रहा है। साथ ही सनई भी रायगढ़ में पैदा किया जा रहा है जो जूट का एक अच्छा विकल्प है।
बस्तर का पठार - बधेलखण्ड की तरह यहाँ भी पहाड़ी एवं पठारी क्षेत्र होने तथा सघन वनों से आच्छादित होने के कारण कृषि कार्य कठिन है। यहाँ की मिट्टी लाल-रेतीली है जिसकी उर्वरता कम है। सिंचाई की अल्प सुविधा एवं निम्न कृषि भूमि उपयोग दर के कारण कृषि कार्य यहाँ अत्यंत पिछड़ा हुआ है अतः यहाँ अधिकांश मोटे अनाज ही किए जाते हैं।
प्रमुख फसलें - कोदो, कुटकी, ज्वार, चावल, मक्का, दलहन में चना. तुअर तथा तिलहन में तिल, अलसी एवं सरसों यहाँ की प्रमुख फसलें हैं। कहीं-कहीं सोयाबीन भी किया जाता है। आलू की खेती के लिए उपयुक्त भूमि होने के कारण इसकी खेती का प्रचलन इस क्षेत्र में तेजी से बढ़ रहा है।
विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों (ACZs) में स्थानीय मृदा के प्रकार - छत्तीसगढ़ क्षेत्र का विस्तृत मृदा मानचित्र उप- लघ नहीं है। राष्ट्रीय मृदा संरक्षण एवं भूमि उपयोग योजना न्यूरो, नागपुर के द्वारा क्षेत्र का विस्तृत मृदा सर्वेक्षण किया गया है एवं शीघ्र ही अंचल का मृदा मानचित्र उपलब्ध हो सकेगा। छत्तीसगढ़ के मैदान में चार पृथक प्रकार की मिट्टियाँ लगभग सभी क्षेत्रों में पाई जाती हैं। ये क्रमशः भाटा (lateritic), मटासी (Sandy loam), डोरसा (Clay loam) एवं कन्हार (Clayey) आदि हैं। ये मिट्टियाँ भू-सतह बनावट (Topography) का अनुसरण करते हुए सबसे ऊपर भाटा, उसके बाद नीचे की ओर मटासी, डोरसा, कन्हार के क्रम में मिलती हैं। कन्हारी मिट्टी भूमि सतह में सबसे नीचे होती है, जहाँ न्यून ढाल होता है। इस स्थिति में मानसून अवधि में छदम जल स्तर काफी ऊँचा हो जाता है, जिससे जल जमाव (Water logging) की स्थिति निर्मित हो जाती है (चित्र-1)। बस्तर के पठार में ढाल के साथ मिट्टी भी तेजी से परिवर्तित होती है स्थानीय लोग इन्हें टिकरा, मदार, माल, एवं गामर आदि नामों से पुकारते हैं  इसी प्रकार उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में पहाड़ी मिट्टी क्षरण के पश्चात टिकरा, गोदावर, वर एवं बाहरा के क्रम में मिलती हैं।
विमिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों (ACZs)में वर्षा का वितरण - प्रत्येक कृषि जलवायु क्षेत्र के अंतर्गत मुख्य जिलों में औसत वार्षिक एवं खरीफ वर्षा की प्रवृत्ति को तालिका में दर्शाया गया है जिससे स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ के मैदान में औसत वार्षिक वर्षा 1393 मि.मी. है जो क्षेत्र में 67 वर्षा दिवसों में वितरित होती है। बस्तर के मैदान में यह 1451 मि.मी. जो 72 वर्षा दिवसों में वितरित होती है इसी प्रकार उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा सबसे अधिक 1610 मि.मी. होती है, किन्तु यह मात्रा 83 वर्षा दिवसों में वितरित होती है। छत्तीसगढ़ के मैदान में लगभग 91 प्रतिशत वर्षा  जून-सितंबर के मध्य (Dur-ing mansoon) हो जाती है, जबकि बस्तर के मैदान एवं ना उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में यह मात्रा  क्रमशः 93 एवं 90 प्रतिशत है।यद्यपि तीनों ACZs में रबी/ शीत ऋतु में वर्षा की मात्रा अत्यंत कम है, फिर भी छत्तीसगढ़ के मैदान, एवं उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में यह क्रमशः 102.5. 106 तथा 162 मि.मी. तक हो जाती है।

वार्षिक वर्षा एवं इसका खरीफ माहों में वितरण

कृषि जलवायु क्षेत्र एवं जिला वार्षिक वर्षा   खरीफ वर्षा (जून-सितंबर  
  मात्रा मि.मी. वर्षा दिवस मात्रा मि.मी वर्षा दिवस
छत्तीसगढ़ का मैदान        
रायपुर 1384.9 62.3  55.2 1299.2
बिलासपुर

 
1391.7 70.9 62.1 1290.7
राजनांदगांव
 
1214.8 64.3 55.8 1102.9
रायगढ़ 1639.2  72.8 64.6 1533.7
दुर्ग 1308.8 62.5 54.6 1208.
सारंगढ़ (रायगढ़) 1445.8   68.1 59.4 1334.2
कांकेर 1371.0 68.7 59.0 1267.0
औसत   1393.74  67.08 58.87 1290.87
बस्तर के पठार(कांकेर को छोड़कर)        
औसत
 
1451.6  72.0 63.5 1345.6
उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र        
सरगुजा 1493.2 75.7 66.0 1371.9
जशपुर 1726.6 91.6 78.5 1523.8
औसत   1609.9 83.6 71.3 1440.9

विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों  (ACZs) में फसली स्वरूप - बस्तर का पठार सामान्यतः समूचे अंचल में एक फसल प्रमुखतः चावल की खरीफ में ली जाती है। साथ ही छोटी मिलेट (ज्वार, बाजरा.मक्का) भी ली जाती है। रीफ में चावल की खेती का आसत वितरण सम्पूर्ण प्रदेश में समान नहीं है। रायपुर जिले में 93 प्रतिशत से सरगुजा जिले में 64 प्रतिशत तक है. जबकि छोटी मिलेट का बस्तर जिले में 14 प्रतिशत होता है। हाल के वर्षों में सोयाबीन की खेती का क्षेत्र राजनादगाँव, दुर्ग, रायपुर बिलासपुर जिलों की गहरी काली मिट्टी (कन्हारी)में बढ़ रहा है। रबी में तिल, अलसी, चना सामान्यतः उत्तरा फसल (Relay crop) के रूप में ली जाती है। उत्तरा

जलवायु क्षेत्र (ACZS) मिट्टी फसल पद्धति (स्वरूप)
छत्तीसगढ़ का मैदान

हल्की

मध्यम

सिंचित

मध्यम से भारी

(मेड़दार)

भारी

चावल/कोदो./तिल/मूंग

वर्षा पर निर्भर : चावल/मूंगफली/तिल

चावल-गेहूँ/सरसों/चना/सब्जियाँ/चावल-चावल/ मूंगफली

 वर्षा पर निर्भर : चावल-तिवरा/अरहर/चना

सिंचित चावल-गेहूँ/राई एवं सरसों/चना/चावल-चावल/मूंगफली

वर्षा पर निर्भर : सोयाबीन-चना/अलसी/अरहर/कोदो/मूंग

बस्तर का पठार

हल्की

मध्यम

 

 

भारी

 वर्षा पर निर्भर : कोदो-कुटकी/नाइजर/कुत्थी/चावल/गक्का/सब्जियाँ

वर्षा पर निर्भर : चावल-नाइजर/कोदो-कुटकी/कुल्थी /अरहर/मक्का

सिंचित : चावल-गेहूँ/चना/आलू/सब्जियाँ

चावल-पड़त/चावल-चना/गेहूँ/अलसी/तुरिया

उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र

हल्की

मध्यम

 

 

भारी

कोदो-कुटकी/मूंगफली/तिल/नाइजर/आलू/अरहर

वर्षा पर निर्भर : चावल-पड़त/चावल-कुल्थी/सरसों/अलसी/मसूर दाल

सिंचित : चावल-गेहूँ/सरसों/बरसीम/चावल-आलू/सन्जियाँ

चावल-पड़त/चावल-गेहूँ/ चना


फसल अधिकतर भारी मिट्टी जिसमें नमी ज्यादा दिनों तक ठहरती है, में ली जाती है। रायपुर एवं विलासपुर जिलों में जहाँ अपेक्षतया सिंचित क्षेत्र अधिक है, में गेहूं की फसल ली जाती है। सामान्यतः प्रदेश के तीन कृषि जलवायु क्षेत्रों में मिट्टी की प्रकृति अनुसार फसली स्वरूप तालिका से समझी जा सकती है।