छत्तीसगढ़ की मुख्य फसलें
प्रदेश में सभी प्रकार की फसलें ली जाती है, किन्तु मुख्य कृषि खरीफ में होती है। रबी एवं जायद फसलें अपेक्षाकृत कम ली जाती हैं। इस तरह प्रदेश में अधिकांशतः कृषि एक फसली होती है।
खरीफ - खरीफ फसलें निम्नलिखित हैं.
अनाज चावल, कोदो-कुटकी, मकई, ज्वार।
दलहन अरहर, उड़द, कुल्थी।
तिलहन मूंगफली, तिल, सोयाबीन।
चावल - यह छत्तीसगढ की मुख्य फसल है। सर्वाधिक उपज (83.53% कुल खाद्यान्न उत्पादन का) भी इसी का होता है। प्रदेश में कुल कृषि योग्य भूमि के 60.10% भाग में चावल की खेती होती है एवं प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन लगभग 2160 कि.ग्रा. है। वर्ष 1999-2000 में प्रदेश में इसका कुल 50.55 लाख मी. टन प्राप्त हुआ था। यह फसल पर्याप्त नमी में होने के कारण उन्हीं भागों में अधिक होती है जहां औसत वार्षिक वर्षा 100 से 125 रो.मी. अधिक एवं मिट्टी हल्की लाल व पीली है। यह फसल वर्षा ऋतु के आरंभ में बोई जाती है एवं अक्टूबर-नवंबर माह में काटी जाती है।
छत्तीसगढ़ में दो विधियों छींटा एवं रोपा से चावल उगाया जाता है। रोपा विधि में पौधा तैयार करके उसे खेतों में लगाया जाता है, इस विधि से 15-20% उपज अधिक होती है। बुआई में लगी बीज की मात्रा छींटा विधि से उगायी जाने वाली मात्रा की एक-तिहाई होती है। छींटा विधि में बीज का सीधे छिडकाव किया जाता है। फसल की मात्रा को बढ़ाने के लिए अच्छी किस्मों के बीज R-2. क्रास -1.R-10.R-II इत्यादि नयी किस्में निकाली गयी हैं एवं फसल से संबंधित समस्याओं के अध्ययन तथा समाधान व विकास के लिए रायपुर में चावल अनुसधान केन्द्र स्थापित है। वर्षा के अलावा ग्रीष्म काल में भी धान की फसल ली जाती है तथा कहीं-कहीं 'ओलहा (शीत में) अर्थात ठण्ड में भी इसकी फसल ली जाती है।
प्रमुख उत्पादक क्षेत्र - छत्तीसगढ़ में चावल मुख्यतः छत्तीसगढ के मैदान में अधिक होता है। इसके क्षेत्र हैं-दुर्ग (71.67%), चांपा-जाँजगीर (64.97%), रायपुर (38.22%). बिलासपुर (37.748). राजनॉदगाँव (30.55%). कोरा (19.02%), सरगुजा (19.05%). के साथ जहाँ सिंचाई की अधिक सुविधा उपलब्ध है वहाँ वर्षा उपरांत भी फसल ली जाती है। धमतरी, रायपुर, दुर्ग, जाँजगीर-चांपा अदि में ठंड व ग्रीष्म कालीन फसल ली जाती है। आंकडे जिले के कुल कृषि भूमि के प्रतिशत में है।
कोदो - कुटकी (Little Millets) कोदो-कुटकी मोटे खाद्यान्न के अंतर्गत आते हैं। प्रदेश के लगभग 3 लाख हेक्टे. क्षेत्र में इसकी खेती होती है. जो प्रदेश की कुल कृषि भूमि का 5.31 प्रतिशत है। चावल के बाद यह सबसे अधिक क्षेत्र में बोयी जाती है। हल्की मिट्टी में यह अच्छी होती है अर्थात कम उर्वरता एवं असमतल भूमि वाले क्षेत्र जहाँ कम वर्षा होती है। इनकी बुवाई अगस्त माह में होती है तथा इनकी फसलों को विशेष रखरखाव जरूरत नहीं होती। कोदो 31 माह में काट क्षेत्र, उत्पादन एवं उपज ली जाती है, जबकि कुटकी 75 से 90 दिनों में काटी जाती है। राज्य में कोदो-कुटकी का क्षेत्र उत्पादन 66 हजार मि. टन तक होता है।
उत्पादक क्षेत्र - सबसे अधिक बस्तर में इसे बोया जाता है तथा उत्पादन भी इसका बस्तर में सबसे अधिक होता है, किंतु प्रति हेक्टे. उत्पादन सबसे अधिक रायगढ. जशपुर जिलों में होता है। इसकी फसल आदिवासी अंचलों प्रमुखतः दंतेवाड़ा, जगदलपुर, राजनांदगाव, कवर्धा, जशपुर, किस्में उत्पादन रायगढ़, कोरिया, सरगुजा में ली जाती है।
छत्तीसगढ़ : संभागवार कोदो-कुटकी के अंतर्गत की क्षेत्र उत्पादन एवं उपज
संभाग | (हजार हेक्टे) | उत्पादन हजार टन | उपज (कि.ग्रा.प्रति हेक्टे.) |
बस्तर संभाग | 139.1 | 26.3 | 189 |
रायपुर संभाग | 91.9 | 23.9 | 260 |
बिलासपुर संभाग | 69.1 | 19.7 | 285 |
कुल छत्तीसगढ़ | 300.1 | 69.9 | 233 |
ज्वार - ज्वार खरीफ एवं रबी दोनों की फसल है, लेकिन कोदो खरीफ के क्षेत्र अधिक हैं। ज्वार छत्तीसगढ़ में बहुत कम क्षेत्र 0.19 प्रतिशत में बोया जाता है एवं प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन लगभग 9.65 क्वि. है। यह जून-जुलाई में बोयी जाती है एवं सितंबर-अक्टूबर में काट ली जाती है। कम वर्षा (75 सें.मी. तक) एवं गर्म तथा सूखे भागों में भी हो जाती है। यह अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में नहीं होती, फिर भी अधिक वर्षा के आदिवासी बहुल क्षेत्र सरगुजा, बस्तर में इसकी फसल का क्षेत्र अधिक है। इसके लिए हल्की दोमट मिट्टी उपयुक्त है, किंतु काली एवं लाल मिट्टी में भी यह होती हैं
उत्पादक क्षेत्र - सबसे अधिक दंतेवाड़ा (4789 हे.). सरगुजा (1970 हे.). कोरिया (1005 हे.). बस्तर (954 हे.). तथा जाँजगीर-चांपा को छोड़कर प्रदेश के अन्य सभी जिलों में अत्यल्प मात्रा में ली जाती है।
मक्का - प्रदेश के कुल कृषि भूमि के 1.63% क्षेत्र में बोई जाती है। यह प्रदेश के सभी हिस्सों में बहुत छोटे पैमाने पर उगाई जाती है। अक्सर किसान अपनी बाड़ियों में इसकी फसल लेते हैं। कहीं-कहीं खेतों में भी फसल ली जाती है, किंतु व्यापक स्तर पर इसकी खेती नहीं होती है। इसका औसत उत्पादन 7.45 क्वि. प्रति हेक्टेयर होता है। उत्पादक क्षेत्र-सरगुजा (36442 हे.), बस्तर (13394 हे.) दंतेवाड़ा (7599 हे.). कोरिया (8112 हे.), जशपुर (6714 हे.). कोरबा (4960 हे.). बिलासपुर (4929 हे.) तथा अल्प मात्रा अन्य सभी जिलों में।
दलहन फसलें
अरहर - इसे तुवर भी कहते हैं। यह कुल कृषि भूमि के 0.72 प्रतिशत क्षेत्र (40938 हेक्टेयर) में बोयी जाती है एवं प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन 374 कि.ग्रा. है यह जुलाई-अगस्त में बोयी एवं मार्च-अप्रैल में काटी जाती है। इसे वर्षा के आरंभ में कपास एवं ज्वार के साथ बोया जाता है। यह दालों में प्रमुख फसल है।
उत्पादक क्षेत्र - सरगुजा, (9418 हे.), कवर्धा (5917 हे.). दुर्ग (5433 हे.), राजनांदगांव (4446 हे.). रायपुर (2850 है.), बिलासपुर (2824 है.), कोरिया (2166 हे.). जशपुर (2058 हे.) एवं अन्य सभी जिलों में अल्प मात्रा में ली जाती दलहन में चने के बाद उड़द का दूसरा स्थान है। यह लगभग 2.18 प्रतिशत भूमि में बोयी जाती है (कृषि भूमि का)। इसका औसत उत्पादन लगभग 3.0 क्वि. प्रति एकड़ होता है। इसके उत्पादन में अग्रणी जिले रायगढ़, कोरबा, धमतरी एवं महासमुंद हैं, जबकि आवश्यकतानुसार सभी जिलों में बोयी जाती है। यह एक खरीफ की फसल है। यह जुलाई में वर्षा के साथ बोयी जाती है एवं अक्टूबर में काटी जाती है।
कुल्थी - यह एक अन्य परंपरागत फसल है, जिससे दाल बनायी जाती है। यह अगस्त अंतिम या सितंबर के प्रथम सप्ताह में बोयी जाती है। कभी-कभी इसकी Niger के साथ Intercropping भी की जाती है। तालिका में कोदो, कुटकी, कुल्थी, रागी आदि की किस्मों को उनके उत्पादन स्तर के साथ दर्शाया गया है।
तिलहन फसलें
मूंगफली - इसका उपयोग तेल एवं भोज्य पदार्थ दोनों के लिए किया जाता है यह मुख्यतः खरीफ की फसल है। इसे तैयार होने में लगभग 10 माह लग जाते हैं, किंतु अब ऐसी किस्में भी हैं, जो 90-100 दिन में तैयार हो जाती हैं। इसे अपेक्षतया ऊंचे तापमान की आवश्यकता होती है। पाला अथवा कम तापमान में फसल को बहुत नुकसान होता है। व्यावसायिक रूप से यह अत्यंत महत्वपूर्ण नगदी फसल है। यह लेग्यूमिनोसी परिवार की एक सदस्य है तथा वायुमण्डल से नाइट्रोजन ग्रहण (Nitrozen fixation) करती है तथा भूमि की उर्वरता में वृद्धि करती है. अतः यह एक हरी खाद भी है। यही कारण है कि अन्य फसलों के क्रम में इसे बोकर खेतों की उर्वरता बढ़ायी जाती है। यह प्रदेश
के कुल बोये गये क्षेत्र के 0.6 प्रतिशत में बोयी जाती है तथा कुल तिलहन के 10.23% क्षेत्र में बोई जाती है। प्रदेश के रायगढ़ (8679 हे.). महासमुन्द (8221 हे.). सरगुजा (6933 हे.), बिलासपुर (6922 हे.) जांजगीर-चांपा (1525 है.). रायपुर (1245 हे.). जिलों में मुख्यतः बोयी जाती है। वैसे छोटे पैमाने पर प्रदेश के सभी जिलों में भी योयी जाती है।
तिल - यह छत्तीसगढ़ में खरीफ की एक महत्वपूर्ण तिलहन है। इसकी बोवाई अगस्त के आरंभ में तथा कटाई दिसंबर के अंत में (तिल संक्रान्ति के ठीक पहले) होती है, इस तरह यह रबी और खरीफ दोनों की ही उपज है। यह अधिकांशतः कम वर्षा तथा हल्की मिट्टी में होती है कुल कृषि भूमि के लगभग 0.5% तथा कुल तिलहन फसल के 20.03% क्षेत्र में बोयी जाती है। छत्तीसगढ़ में यह धान खेतों के मेड़ में बोयी जाती है। इसका प्रति एकड़ औसत उत्पादन 2.5 क्वि. के आसपास होता है। यहाँ यह परंपरागत तौर पर शरीर में लगाने व जलाने के उपयोग में ली जाती है। खरीफ की एक अन्य महत्वपूर्ण तिलहन सोयाबीन के आ जाने पर पिछले कुछ वर्षों से इसके खेती के क्षेत्र में कमी आई है। आदिवासी क्षेत्रों में तिल की खेती धान के साथ प्रमुखता से की जाती है।
उत्पादक क्षेत्र - सर्वप्रमुख सरगुजा (4802 हे.). रायपुर (3711 हे.), रायगढ़ (2864 हे.), दंतेवाड़ा(2030 हे.). कोरिया (1773 हे.), कवर्धा (1626 हे.). कोरबा (1520 हे.). आदि जिलों के साथ संपूर्ण प्रदेश में बोई जाती है।
सोयाबीन - मात्र दो दशक पूर्व प्रदेश में आई सोयाबीन अब यहाँ की सर्वाधिक लोकप्रिय तिलहन बन गई है। सोयाबीन मूलतः चीन की फसल है। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण खाद्य तेल है. क्योंकि इसमें वसा का अंश 18 से 20 % तथा प्रोटीन 40 से 45% तक होता है। इसके इस गुण के कारण स्वतंत्रता के बाद इसकी खेती को नीतिगत रूप में प्रोत्साहित किया गया है। पिछले 10-15 वर्षों में जब देश में खाद्य तेलों की कमी होने लगी तथा इसके आयात के कारण तेल के दामों में अधिक वृद्धि हुई, तो इसकी खेती लाभप्रद हो गई। प्रदेश में इसके अंतर्गत भूमि निरंतर बढ़ रही है। खरीफ के मौसम में यह सरलता से होती है। इसकी अधिक मांग के कारण किसानों के लिए यह एक नगद फसल है। इसके लिए काली मिट्टी की आश्यकता होती है जो प्रदेश में अपेक्षतया कम है। कन्हार (Clayey) मिट्टी के क्षेत्र में इसकी फसल ली जा रही है। यह प्रदेश की कुल कृषि भूमि के 0.85 प्रतिशत क्षेत्र (48311 हे.) में बोया जाता है। इस तरह यह खरीफ की प्रमुख तिलहन बन गई है। कुल तिलहन का 13.85 प्रतिशत उत्पादन इसी का होता है, जबकि यह कुल तिलहन फसल के 7.21% क्षेत्र में बोई जाती है। इसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन वर्ष 1998-99 में 504 कि.ग्राम (201.6 कि.ग्राम प्रति एकड़) अत्यंत कम है, जबकि सोया राज्य' म. प्र. में इसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1049 कि.ग्राम है। प्रदेश में वर्ष 1998-99 में इसका कुल उत्पादन 0.24 मीट्रिक टन हुआ, जबकि म.प्र. में 15.5 मी.टन हुआ था। कृषि विकास कार्यक्रम के द्वारा सोयाबीन की खेती के प्रोत्साहन के उपाय किये जा रहे है। राष्ट्रीय दलहन-तिलहन उत्पादन कार्यक्रम के द्वारा संपूर्ण प्रदेश में इसकी खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है। सोयाबीन की विभिन्न किस्में विकसित की गई हैं जो मिट्टी की प्रकृति के अनुसार प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होगी। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा प्रदेश के लिए सोयाबीन की विभिन्न किस्मों की पहचान की गई है इनमें गौरव, दुर्गा, MACS-58 आदि प्रमुख हैं। वर्ष 2000-2001 में 6.9 तथा 2001-2002 में 17.9 हजार मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ।
उत्पादक क्षेत्र - सर्वप्रमुख राजनांदगांव (21197 हे.), कवर्धा (12464 हे.). दुर्ग (10225 हे.), बिलासपुर (3329 हे.) आदि जिले हैं, जबकि अन्य जिलों में अत्यल्प मात्रा में इसकी खेती होती है।
रबी फसलें
स्वी की निम्न फसलें प्रदेश में ली जाती हैं।
खाद्यान्न - गेहूँ दलहन-चना; तिलहन - अलसी, सरसों।
गेहूँ - महत्वपूर्ण फसल होने के बाद भी छत्तीसगढ़ में इस फसल के प्रति आकर्षण कम है जिसका कारण सिंचाई का अभाव तथा मिट्टी की प्रकृति है। गेहूँ जलोढ़, कछारी तथा हल्की काली मिट्टी के क्षेत्रो में अच्छा होता है जबकि छत्तीसगढ़ की मुख्य मिट्टी लाल-पीली है, फिर भी जहाँ सिंचाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध है, गेहूँ की फसल ली जाती है। यह प्रदेश के 1.53 प्रतिशत (कृषि भूमि) में बोयी जाती है। इसका प्रति एकड़ उत्पादन राष्ट्रीय औसत उत्पादन से अत्यंत कम है तथा 1024 कि.ग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास है. किन्त इसके अंतर्गत भूमि में तेजी से वृद्धि हो रही है। हरित क्रांति का सबसे अधिक लाभ गेहूँ की फसल को होने के बावजूद यह फसल छत्तीसगढ़ में पिछड़ गई है, जबकि यह एक व्यापारिक फसल भी है, जिसके कारण स्पष्ट हैं। कुल अनाज उत्पादन में इसका हिस्सा केवल 1.95 प्रतिशत है। मुख्यतः छत्तीसगढ़ के मैदान में इसकी खेती होती है।
उत्पादक क्षेत्र - दुर्ग (16705 हे.), सरगुजा (16621 हे.). राजनांदगांव (14433 हे.). बिलासपुर (11060 हे.). रायपुर (8327 हे.) आदि प्रमुख जिले हैं, जबकि अल्प मात्रा में सभी जिलों में ली जाती है।
चना - दलहनों में प्रमुख यह एक अन्य खाद्यान्न है। यह अक्टूबर में बोया जाता है तथा मार्च-अप्रैल में काट लिया जाता है। चना बोते समय नमी की आवश्यकता होती है, किंतु उसके बाद सूखा मौसम उपयुक्त होता है। फूल के लगने के समय वर्षा होने से फसल को बहुत हानि होती है। ये इल्लियों एवं कीड़ों से प्रभावित होती है। वैसे अनु- संधान द्वारा कीट प्रतिरोधी तथा कम समय में तैयार होने वाली किस्में भी विकसित की गई हैं। प्रदेश में दलहन फसलों में चने का सर्वाधिक क्षेत्रफल (20.31 प्रतिशत) में उत्पादन होता है इसका प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन 714 कि. ग्राम है। यह रबी का प्रमुख खाद्यान्न है।
उत्पादक क्षेत्र - मुख्यतः दुर्ग (52010 हे.). कवर्धा (45718 हे.). बिलासपुर (22514 हे.). राजनांदगांव (20485 हे.). रायपुर (9283 हे.), आदि जिलों में सर्वाधिक है, जबकि सामान्य तौर पर सभी जिलों में बोयाजाता है।
अलसी - यह छत्तीसगढ़ की परंपरागत रबी तिलहन है, जिसका उपयोग प्राचीन समय से यहाँ के लोग खाद्य तेल के रूप में करते रहे हैं। प्रदेश में यह उत्तरा (Relay crop) फसल के रूप में बोई जाती है। अलसी सभी प्रकार की मिट्टी में होती है जहाँ पर्याप्त नमी उपलब्ध हो। अंचल में परंपरागत पद्धति से धान की कटाई के पूर्व (अक्टूबर में) इसके बीज का छिड़काव खड़े धान के खेतों में कर दिया जाता है। दूसरे तरीके से धान कटने के तुरंत बाद जुताई कर योया जाता है. इसे ओल (शीत) अलसी कहा जाता है। इसकी फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती, यह मार्च में काट ली जाती है। यह प्रदेश के कृषि भूमि के लगभग 1.95 प्रतिशत क्षेत्र में तथा कुल तिलहन फसल के 31.55 प्रतिशत क्षेत्र में बोई जाती है। इसका प्रति एकड़ औसत उत्पादन लगभग 4 विय. होता है। इसका उत्पादन प्रदेश के पहाड़ी व पठारी प्रदेशों में अधिक होता है। यह सम्पूर्ण प्रदेश की सर्वाधिक लोकप्रिय तिलहन है! 2000-2001 एवं 2001-2002 में क्रमशः 15.8 एवं 27.00 हजार मी. टन उत्पादक हुआ।
उत्पादक क्षेत्र - सर्वप्रमुख दुर्ग (29957 हे.), राजनांदगांय (29343 हे.). सरगुजा (10464 हे.). कवर्धा (8808 हे.). बिलासपुर (7008 हे.). रायपुर (4550 हे.) आदि जिलों के साथ औसतन संपूर्ण प्रदेश में बोई जाती है।
सरसों - यह भी यहाँ की एक लोकप्रिय तिलहन है। सरसों इसकी भाजी व फूल का यहाँ विशेष महत्व है। इसकी भाजी का साग यहाँ पसंद किया जाता है। यह यहाँ के कृषि भूमि के लगमग 0.91 प्रतिशत भूमि पर बोयी जाती है तथा कुल तिलहन फसल के 14.74 प्रतिशत क्षेत्र में बोई जाती है, जबकि इसका औसत उत्पादन 3 क्वि. प्रति एकड़ होता है। यह मोटे तौर पर पूरे प्रदेश में ली जाती है। इसकी खेती के लिए विशेष भूमि तैयारी या उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है। यह कम नमी में भी पर्याप्त वृद्धि प्राप्त कर लेती है। इसका फूल व इसका पीला रंग यहाँ की भाषा व संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसे गेहूं के साथ उसी खेत में भी बोने का भी प्रचलन है तथा अलग से भी बोयी जाती है। इसकी कटाई गेहूं से 15 दिन पूर्व कर ली जाती है। यह रबी की अलसी के बाद प्रदेश की दूसरी प्रमुख तिलहन है, वर्ष 2000-01 व 2001-02 क्रमशः 16.0 एवं 22.1 मी. टन उत्पादन हुआ।
उत्पादक क्षेत्र - सर्वप्रमुख सरगुजा (21335 है.). बस्तर (5215 है.). जरापुर (5039 है.). कोरिया (4079 हे.). दंतेवाड़ा (3047 है.). बिलासपुर (2488 है.). कोरवा (2284 हे.). कवर्धा (2256 है.). कांकेर (2030 है.) आदि जिलों
के साथ औसतन संपूर्ण प्रदेश में।
व्यापारिक या नगदी फसलें - छत्तीसगढ़ में व्यापारिक या नगदी फसलों के प्रति आकर्षण अत्यंत कम है तथा मध्य प्रदेश की तरह कपास, तम्बाकू, अफीम, सोयाबीन आदि की फसलें नहीं ली जाती हैं तथापि गन्ना. सोयाबीन आदि अल्प मात्रा में बोई जाती हैं। अलसी. तिल आदि यहाँ की प्रमुख नगदी फसलें है। अलसी. तिल आदि के संबंध में ऊपर बताया जा चुका है। सन तथा मेस्टा का उत्पादन जूट के विकल्प के रूप में किया जा रहा है। ज्ञात हो विभाजन के कारण अधिकांश जूट, उत्पादक क्षेत्र बंगलादेश चला गया, साथ ही गांग के अनुसार जूट, प्रदेश के केवल रायगढ़ जिले में होता है, क्योंकि यहाँ अंचल की एकमात्र जूट मिल स्थापित है। मेस्टा, जूट के समान ही रेशा पैदा करता है तथा कम नमी वाले क्षेत्रों में भी अच्छा होता है। इसका पांघा तीन से चार मीटर तक ऊँचा होता है और बोने के 5-6 माह के अंदर काट लिया जाता है। सनई भी मेस्टा की तरह रेशेदार पौधा जिसके रेशे सफेद व चमकीले होते हैं। यह कम उपजाऊ परती भूमि पर भी हो जाता है तथा जहा जूट उत्पन्न नहीं होता वहां यह उत्पन्न किया जा सकता है। इसका उत्पादन रायगढ़ जिले में यहां को जूट मिल को जूट के विकल्प के रूप में रेशे उपलध कराने के लिये किया जा रहा है।
गन्ना - प्रदेश में इसकी खेती यदा-कदा की जाती है। इसकी खेती रातनांदगांव. का. दुर्ग, रायपुर व इसके आस-पास के क्षेत्रों में प्रमुखता से की जा रही है। कवर्धा जिले के पंडरिया स्लाक में कृषि विभाग के द्वारा लगमग 2,000 हेक्टेयर में इसकी खेती हो रही है। सरगुजा. रायगढ़, बस्तर तथा बिलासपुर जिलों में इसकी खेती होती है यद्यपि कोरिया जिले को छोडकर प्रदेश के सभी जिलों में अत्यल्प मात्रा में की जाती है। गन्ने की खेती को कृषि विभाग द्वारा बढाने व प्रोत्साहित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। रायगढ में शक्कर मिल प्रस्तावित है जिसकी पहल सहकारिता विभाग द्वारा की जा रही है, अतः रायगढ़ जिले में गन्ने को खेती को विशेष प्रोत्साहन दिया जा रहा है। में सर्वाधिक गन्ना उत्पादक क्षेत्र पंडरिया में राज्य शासन एक शक्कर कारखाना स्थापित कर रही है। इसकी खेती दो अलग-अलग समय में होती है। प्रथम फरवरी में बोनी व अगले वर्ष जनवरी में काट ली जाती है अतः कुल 11 माह की फसल होती है जिसे शरदिया गन्ना कहते हैं। दूसरा सितंबर/अक्टूबर में बोनी व अगले वर्ष अक्टूबर में काट ली जाती है ये कुल 13 माह की फसल है, जिसे वर्ग कालीन गन कहा जाता है। कटाई के पश्चात् पुनः फसल ली जाती है जिसे (Ratooning) कहते हैं। इसकी दूसरी फसल को पेंड़ी गन्ना (coppice crop) कहा जाता है। इस तरह के दो पेंड़ी (coppice) तक ली जाती है। इस प्रकार एक कर बोवाई कर कुल तीन फसल ली जा सकती है। इसके बाद जमीन को एक वर्ष तक छोड़ दिया जाता है (जोतकर छोड़ते है). क्योंकि मिट्टी की संरचना में रासायनिक तत्व असंतुलित हो जाते हैं व जमीन जहरीली हो जाती है।
इस फसल को उच्च तापमान व अधिक वर्षा/नमी की आवश्यकता होती है। यह चिकनी दोमट मिट्टी में अच्छी होती है. अतः यहाँ इसके लिये उपयुक्त मिट्टी उपलध नहीं है। प्रदेश में गन्ने के क्षेत्रफल में लगातार वृद्धि हो रही है. इसका सर्वाधिक उत्पादन कवर्धा, सरगुजा एवं बस्तर जिलों में होता है। प्रदेश में वर्ष 1900-2000 में गन्ना (गई। के रूप में) 0.7 लाख मी. टन उत्पादित किया गया। वर्ष 2000-01 एवं 2001-02 में क्रमशः 8.6 एवं 102 मी. टन उत्पादन हुआ।
कपास - कपास का उत्पादन प्रदेश में नहीं होता है यद्यपि दंतेवाड़ा. बस्तर, सरगुजा एवं धमतरी जिलों में अत्यल्प क्षेत्र (कुल 52 है.) में इसकी खेती की जा रही है। केन्द्र पोषित सघन कपास विकास कार्यक्रम जगदलपुर. दंतेवाड़ा
और कांकेर जिलों में चलाया जा रहा है जिसका विस्तृत विवरण प्रदेश में कृषि विकास कार्यक्रम शीर्षक के अंतर्गत दिया गया है।
प्रदेश में साग-सब्जी, फल-फूल. मिर्च-मसाले आदि का भी उत्पादन होता है. जिनकी चर्चा प्रदेश में बागवानी' के अलग से अध्याय में की गयी है।