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प्रमुख संगीतज्ञों का परिचय



प्रमुख संगीतज्ञों का परिचय

संगीत सम्राट : राजा चक्रधर सिंह - छत्तीसगढ़ का जिला रायगढ़ इस सदी के प्रारंभ में नृत्य, संगीत का संगम स्थल था। बैरागढ़ के गोंड़ शासकों द्वारा लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व इस राज्य की स्थापना हुई थी. किंतु यहां का इतिहास इससे भी पुराना है। यहां की लोक संस्कृति अभी भी यहां अपने मूल रूप में सुरक्षित है। यहीं इस सदी मेंप्रारंभ से संगीत नृत्य जगत में एक क्रांतिकारी घटना हुई जिसके नियामक थे-राजा चक्रधर सिंह ।
  राजा चक्रधर सिंह का जन्म सन् 1904 में गणेश चतुर्थी के दिन हुआ। इन्हें संगीत पैतृक सम्पत्ति के रूप में मिला। इनके बाबा घनश्याम सिंह तथा पिता भूपदेव सिंह संगीत आदि कलाओं के पारखी और ज्ञाता थे। देश के प्रख्यात कलावन्तों का इनके दरबार में आना जाना लगा रहता था। इनके चाचा पीललाल एवं लाल नारायण सिंह और अग्रज नटवर सिंह ने विधिवत तबला और पखावत की शिक्षा प्राप्त की थी। संगीत की प्रेरणा और प्रारंभिक शिक्षा चक्रधर सिंह ने अपने चाचा लाल नारायण सिंह से प्राप्त की। नृत्य की शिक्षा उन्हें सीताराम जी और पखावज की राजा लक्ष्मण सिंह से मिली। इनके जन्म के बाद राजा भूपदेव सिंह ने गणेश चतुर्थी के अवसर पर एक महान आयोजन प्रारंभ किया था जिसमें भाग लेने दूर-दूर से अनेक कलाकार नृत्य-नाट्य व संगीत मण्डलियां आती थीं। इसमें शास्त्रीय संगीत और कलाकार सभी होते थे और अपनी कला का प्रदर्शन करते थे।
  इस तरह सांस्कृतिक वातावरण में चक्रधर सिंह का लालन-पालन व शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न हुई। इसका प्रभाव उनके अपने व्यक्तित्व और रुचि पर पड़ना स्वाभाविक था। बड़े भाई नटवर सिंह की अल्प आयु में अकस्मात मृत्यु के बाद ये (1924 ई.) ही गद्दी के वारिस चुने गये। अपने राज्यकाल में इन्होंने संगीत नृत्य आदि कलाओं को बहुत प्रोत्साहन दिया। ये स्वयं दो बार भारतीय संगीत सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये थे और इन्हें लखनऊ के एक संगीत सम्मेलन में संगीत सम्राट' की उपाधि भी प्रदान की गयी थी। उस समय के दिग्गज कलाकारों के बीच ऐसे सम्मान का हकदार होना साधारण बात नहीं थी। चक्रधर सिंह संगीत और नृत्य के केवल शौकीन ही नहीं उसके मर्मज्ञ विद्वान थे और उसकी बारीकियों को अच्छी तरह पहचानते थे। मुनीर खॉ, करीमतुल्ला खाँ, आबिद हुसैन, प्यारेलाल, इनायत खाँ, अहमद जान थिरकवा. कादरवक्श, अजीम खाँ, ठाकुरदास. पर्वत सिंह, हाजी मोहम्मद खाँ, गन्नू मिश्र, मगनलाल. बद्रीप्रसाद, सुखदेव प्रसाद, चुन्नीलाल जैन विख्यात गायक, सितार वादक, तबला तथा पखावज वादक न केवल इनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। इनसे राजा ने अनेक स्थानीय बालकों को शिक्षा भी दिलवायी, जिससे अनुराम, मुकुतराम ठाकुर, जगदीश सिंह, भीकम सिंह आदि अच्छे तबला व पखवाज वादक तैयार हुए। कथक के लगभग सभी श्रेष्ठ नृत्याचार्य व नर्तक यहां रहे। अपने इन छात्रों विशेषकर कार्तिकराम को राजा चक्रधर सिंह बड़े गर्व से गुणीजनों के सम्मुख प्रस्तुत करते थे। नृत्य के विविध पक्षों पर विशेष ताल अंग पर इनकी तैयारी बेजोड़ थी।
रचनाएं - राजा चक्रधर सिंह ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिनसे उनकी सर्वांगीण विद्वता और रूचि का पता चलता है। इनके नृत्य संगीत संबंधी ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं। नर्तन सर्वस्व कथक को ध्यान में रखकर हिन्दी में रचा गया इनका विशाल नृत्य ग्रंथ है। इसका आधार है आचार्य विशाखदत्त रचित संस्कृत का नर्तन रहस्य'। इसमें नृत्य संबंधी विस्तृत जानकारी है। लास्य-ताण्डव अंग का विवेचन, रस, भाव, गतभाव आदि से संबंधित अनेक रचनाएं और वर्णन इसमें हैं।
ताल तोय निधि, मुरज पर्ण पुष्पाकर, तालबल पुष्पाकर ताल अंग के ग्रंथ हैं। जिनमें तबला और पखावज की अनेक बन्दिशें भी संग्रहित हैं। ताल तोय निधि का वजन ही साढ़े तीस किलो है। इसमें अनेक तालों की व्याख्या तथा ताल चक्रों का वर्णन है जिनमें एक मात्रा से लेकर 380 मात्रा तक के चक्र शामिल हैं। कहा जाता है इसमें विविध कलावन्तों से प्राप्त बन्दिशों का भी संग्रह है। मुरज पर्ण पुष्पाकर में प्रायः इनकी अपनी रचनाएं संकलित हैं। राग रत्न मंजूषा संगीत विषयक ग्रंथ है जिनमें बंदिशो सहित 1200 राग-रागनियों का संग्रह, विवरण तथा व्याख्या है।
साहित्यिक रचनाएं - इनके अतिरिक्त अनेक साहित्यिक रचनाएं हैं जिनमें 'अलकापुरी, बैरागढ़िया राजकुमार, मायाचक्र (उपन्यास) तथा बैरागढ़िया राजकुमार, प्रेम के तीर आदि नाम से नाटक भी हैं। इन नाटकों का वहीं के लोगों से राजा ने मंचन भी कराया है। रत्न रास, रत्न मंजूषा, रलहार, काव्य-कानन हिन्दी में एवं जोरो-फरहत तथा निगारे-फरहत उर्दू काव्य रचनाएं हैं। इन्हें हिन्दी, उर्दू, संस्कृत. ब्रज. अंग्रेजी समी का अच्छा ज्ञान था। संगीतज्ञ, नर्तक, साहित्यकारों के अलावा अन्य कलाओं के अनेक छोटे बड़े कलाकार इनके दरबार में इनके समक्ष अपनी कला का प्रदर्शन करने उत्सुकता से आते और पुरस्कृत होते थे।
  रायगढ़ राजघराने में संगीत की लम्बी परम्परा थी, किंतु राजा चक्रधर सिंह के जमाने में वह अपने शिखर पर पहुँची। संगीत की विविधता को उन्होंने समझा, चाहे कथक हो या पखावज या गायन, उसे सहेजने संवारेन तथा समृद्ध करने का उन्होंने अनेक ढंग से प्रयास किया। उन्होंने अनेक नयी बन्दिशों की रचना करके उन्हें अपने युवा नर्तकों आदि के माध्यम से सामने रखा और एक नयी परंपरा की शुरूआत की। इस तरह गायन और नृत्य की बारीकियों से परिपूर्ण शिक्षा केवल परिवार अथवा घराने के सदस्यों तक सीमित न रहकर अन्य स्थानीय और योग्य छात्रों तक भी पहुंची।
  रायगढ़ उस समय के अनेक प्रधान नर्तकों के जमघट का केन्द्र था पर वह अन्ततः संक्षिप्त ही रहा। वहां तैयार नर्तक एवं कलाकार 1947 को 42 वर्ष की अल्पायु में राजा की मृत्यु के बाद असहाय और निराश से हो गये। राजा द्वारा निर्मित संगीत का साम्राज्य बिखरने लगा। फिर भी उसका प्रभाव अभी भी रायगढ़ के नर्तकों में और बहुत कुछ राजा के ग्रंथों में है, जिन्हें प्रकाशित कर कला मर्मज्ञों को उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।
पंडित कार्तिकराम - पंडितजी का जन्म बिलासपुर जिले के भंवरताल नामक गांव में 15 अक्टूबर, 1910 में हुआ था। नृत्य में उनकी रुचि देखकर उनके पिता कुंजराम ने अपने भाई गम्मत नृत्य में पारंगत कलाकार श्री लखनलाल से उन्हें गम्मत की शिक्षा दिलाई। गम्मत में निपुण पं. कार्तिकराम को रायगढ़ रियासत के प्रसिद्ध गणेश मेला में राजा चक्रधर सिंह के समक्ष नृत्य करने का मौका मिला। उनका नृत्य देखकर राजा इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपने पास रखकर पं. जयलाल जी, लच्छन महाराज, सुन्दर प्रसाद जी तथा शम्भु महाराज से शिक्षा दिलाई। श्री कार्तिकराम अपने समय के असाधारण नृत्यकार थे। रायगढ़ परंपरा की एक विलक्षण अतिविलम्बित लय पर श्री कार्तिकराम को असाधारण अधिकार प्राप्त था। विभिन्न संगीत सम्मेलनों में उन्हें स्वर्ण एवं रजत पदक प्राप्त होते रहे। इन्हें 1936 में दिल्ली ऑल इंडिया म्युजिक कांफ्रेंस में विशेष सम्मान एवं नृत्य प्रोफेसर की ख्याति प्राप्त हुई। मध्य प्रदेश शासन केद्वारा 1981 में वे शिखर सम्मान से अलंकृत किये गये। इनका निधन 29 जनवरी, 1992 को हो गया।
पं. पचकौड़ प्रसाद पांडेय : बाजा मास्टर - इनका जन्म 18 अप्रैल, 1894 को ग्राम नंदेली, पामगढ, जिला जांजगीर में हुआ था। इनके पिता बहुत बड़े भजन गायक एवं रासधारी थे। आरंभ में ये ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर द्वारा अकलतरा में जनजागरण हेतु कराये जाने वाले रामलीला के नाटकों में संगीत निर्देशक का कार्य करते थे। ठाकुर छेदीलाल के द्वारा ही इन्हें बाजामास्टर नाम दिया गया। वे पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर शैली के वादक एवं गायक थे। धुपद एवं धमार पर उनका एकाधिकार था। सारंगढ़ एवं रायगढ़ दरबार द्वारा वे प्रतिष्ठित थे। वे देश के अपने समय के चोटी के हारमोनियम वादक थे। 1939 के ऐतिहासिक त्रिपुरी कांग्रेस में वे संगीत समिति के अध्यक्ष बनाये गये थे। उनका संगीत भक्ति प्रधान था। वे रामचरित मानस, विनय पत्रिका का अनेक रागों में गायन करते थे। उनसे शिक्षा लेने उत्तर प्रदेश एवं उड़ीसा से भी छात्र यहां आते थे। उन्होंने संगीत में रचनाएं भी की, जिसमें प्रमुख संगीत भास्कर (संगीत के प्रारंभिक छात्रों के लिये) तथा जयदेव कृत गीत-गोविंद के संपूर्ण पदों की स्वर रचना आदि हैं, किंतु ये प्रकाशित नहीं हो सकी हैं। वे तत्कालीन बिलासपुर डिस्ट्रिक्ट काउंसिल में सदस्य भी रहे। इनका निधन 15 मई, 1975 को हुआ।
विमलेंदु मुखर्जी - प्रख्यात सितार वादक एवं भारतीय याद्य संगीत के विशेषज्ञ श्री मुखर्जी का जन्म 1926 को हुगली (प. बंगाल) में हुआ था। स्वतंत्रता आंदोलन में इन्होंने सक्रिय भागीदारी की थी। आरंभ में भारतीय भू-गर्भ सर्वेक्षण विभाग में नौकरी की. फिर खनन विभाग में प्रथम श्रेणी के अधिकारी बने एवं कुछ दिनों महाप्रबंधक के पद पर रहे। वे 1983, 1983-85 एवं 1988-92 तक इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के कुलपति रहे। इन्हें कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
बुधादित्य मुखर्जी - इनका जन्म 7 दिसंबर, 1955 को भिलाई में हुआ था। ये प्रख्यात सितार वादक विमलेंदु मुखर्जी के पुत्र हैं। इन्होंने रायपुर से अभियांत्रिकी शिक्षा प्राप्त की थी एवं संगीत विशारद की उपाधि खैरागढ़ से। ये हाउस ऑफ कामन्स, लंदन में कार्यक्रम देने वाले प्रथम भारतीय एवं सितार पर टप्पा बजाने वाले प्रथम कलाकार हैं। म. प्र. कला परिषद, भोपाल के सदस्य हैं। इन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय उत्सवों में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। इन्हें 1977 में उस्ताद अलाउद्दीन खान फैलोशिप तथा कुमार गंधर्व सम्मान, 1993 के साथ अनेक सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
सेन दंपत्ति - छत्तीसगढ़ में शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में सेन दंपत्ति डॉ. अरुण कुमार सेन एवं डॉ. अनिता सेन का नाम अग्रणी है। श्री सेन का जन्म 6 जून, 1928 को राजिम, जिला रायपुर में हुआ था। इन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों-लखनऊ से संगीत निपुण, ग्वालियर से संगीत रत्न, इलाहाबाद से साहित्य रत्न एवं दिल्ली रो धर्म विशारद की उपाधियां प्राप्त की थीं। भारतीय संगीत रचना पर इनकी अनेक पुस्तकें, आडियो कैसेट. कांपेक्ट डिरक एवं ग्रामों फोन रिकार्ड निकल चुके हैं। ये पूर्व में म. प्र. फिल्म विकास निगम के अध्यक्ष. 1977-80 के मध्य खैरागढ संगीत विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। ये कमला देवी संगीत महाविद्यालय, रायपुर के संस्थापक प्राचार्य 1950-57 के मध्य रहे। इन्होंने संगीत नाटक अकादमी में म.प्र. का प्रतिनिधित्व भी किया। इन्हें श्रेष्ठ कला आर्य पुरस्कार, महाकाल सम्मान एवं सारंगदेव फैलोशिप प्राप्त हुए हैं। जनवरी, 2002 को इनका दुःखद निधन हो गया। जून 2003 में डॉ. अनिता सेन का भी देहांत हो गया।
  डॉ. अरुण सेन की पत्नी डॉ. श्रीमती अनिता सेन का जन्म 1 सितंबर, 1933 को पिथौरा, जिला महारामुंद में हुआ था। इन्होंने खैरागढ़ विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ म्यूज, संगीत विशारद एवं संगीत रत्न की उपाधियां प्राप्त की। इन्हें प्रमुखतः खयाल, दुमरी, कजरी, दादरा, टप्पा, तराना आदि शास्त्रीय गायन में विशिष्टता हासिल है। ये गजन भी गाती हैं। लंबे समय तक ये कमला देवी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रायपुर की प्राचार्या, खैरागढ संगीत विश्वविद्यालय के संगीत संकाय की विभागाध्यक्ष, भातखंडे इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक रायपुर/ मुंबई की निदेशक आदि पदों पर रह चुकी हैं एवं दूरदर्शन व ऑल इंडिया रेडियो की श्रेणी ए की गायिका हैं। इन्होंने देश-विदेश में संगीत के अनेक कार्यक्रमों की प्रस्तुति किये हैं। संगीत पर इनकी कुछ पुस्तकों के प्रकाशन के साथ अनेक कैसेट, डिरक. रिकॉर्ड आदि जारी हो चुके हैं। इन्हें सुर सिंगार संसद मुंबई द्वारा राजेश्वर पुरस्कार, मधुवन भोपाल द्वारा श्रेष्ठ कला आचार्य सम्मान, महाराज सम्मान एवं भैरवी कला सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैं।
  अभी भी श्रीमती सेन व इनका परिवार संगीत सेवा में लगा हुआ । इन्होंने देश के संगीत मानचित्र पर रायपुर का नाम अंकित कराया है। निश्चय ही छत्तीसगढ़ की माटी से उपजे ये संगीत मर्मज्ञ छत्तीरागढ़ के गौरव हैं।
मंजुला दासगुप्ता - दुर्ग की प्रसिद्ध गायिका का जन्म 24 जनवरी, 1939 को बिहार में हुआ. किंतु इनकी कर्मभूमि छत्तीसगढ़ रही है। आरंभ में इन्होंने कलकत्त आकाशवाणी में गायन के साथ 1958 की बंगला फिल्म 'मानूपेलो लोट्टरी' में भी पार्श्व गायन किया। इनका छत्तीसगढ़ी में एकल एलवम एच.एम.वी. द्वारा निकाला गया। आकाशवाणी व दूरदर्शन में भी इनके गायन का प्रसारण होते रहता है। आर्केस्ट्रा पार्टी गीतों भरी रात का संचालन इनके द्वारा किया जाता रहा। प्रधानमंत्री निवारा और राष्ट्रपति भवन में इनके कार्यक्रम हो चुके हैं। इन्हें म. प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री श्री वोरा द्वारा 'छत्तीसगढ़ की लता का सम्मान तथा रूस के राजदूत द्वारा रसियन गीतों के लिए सम्मानित किया जा चुका है।
सुलक्षणा पंडित - प्रख्यात पार्श्व गायिका सुलक्षणा पंडित का जन्म रायगढ़ में हुआ था। इन्होंने पंडित जसराज से संगीत की शिक्षा प्रप्त की। 9 वर्ष की उम्र में बैशाखी की रात का मंचन करने, अनेक हिन्दी फिल्मों में अभिनय के साथ सफल पार्श्व गायन भी इन्होंने किया है। इन्हें 1994 का कलाभूषण अवार्ड मिला है।
सेन बंधु - प्रख्यात संगीतकार एवं गायक जोडी रायपुर के सेन बंधु- शेखर एवं कल्याण सेन. सेन दंपत्ति के पुत्र हैं। वर्तमन में ये बंबई की ख्यातलब्ध संगीतकार जोडी हैं। इन्होंने अनेक फिल्मों एवं धारावाहिकों में अपना संगीत दिया है। इनके भजन एवं गीतों के अनेक एलबम निकल चुके हैं। हाल ही में इन्होंने छत्तीसगढ़ी फिल्म 'नैना में संगीत दिया है।