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छत्तीसगढ़ में आधुनिक रंगकर्म



छत्तीसगढ़ में आधुनिक रंगकर्म
  नाट्य. कला की एक बहुरंगी विधा है. इसीलिये नाट्य का दर्शन जिस स्थल अथवा मंच में होता है, उसे रंगभूमि अथवा रंगमंच कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे थियेटर' कहा जाता है। नाट्य उतना ही प्राचीन है, जितनी हमारी सभ्यता। आदिकाल से मानव किसी न किसी रूप में अपने समुदाय में नाट्य का आयोजन करता रहा है। भले ही ऐसे आयोजनों के अभिप्राय में न्यूनाधिक भिन्नताएं हो, पर भावाभिव्यक्ति प्रमुख तत्व आरंभ से रहे है। शास्त्रों में नाट्य को पांचवें वेद की संज्ञा दी गई है। कला के समस्त रूपों में नाट्यकला को सर्वाधिक सुंदर माना गया है। नाट्य शास्त्र के रचयिता भरत मुनि के अनुसार-"ससार मे कोई ऐसी कला विद्या, शिल्प. शास्त्र. योग और कर्म नहीं जे नट्य में न दिखाया जा सके।" नाट्य की उत्पत्ति के विषय में भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में लिखा है - ऋग्वेद से वक्ष्य, सामवेद से गीत. यजुर्वेद से अभिनय एवं अथर्ववेद से रस लेकर इस पाँचवें वेद की रचना हुई है। महाकवि कालीदास ने अपने विश्व प्रसिद्ध नाटक 'मालविकाग्निमित्रम् के प्रथम अंक में लिखा है "नाट्य भिन्न-भिन्न रुचियों के व्यक्तियों के लिये एकमात्र माध्यम है, जिससे जन-जन का मनोरंजन होता है।
  वस्तुतः आधुनिक रंगमंच का उद्भव लोक नाट्यों से ही हुआ है. भारत में जिसकी अत्यंत समृद्ध परंपरा रही है। इसके प्रमाण हमें भास. विशाखादत्त एवं कालीदास जैसे महान नाटककारों के संस्कृत नाटकों से मिलते हैं, किंतु विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर भारतीय रंगमंच के इतिहास में एक ऐसा युग आया. 'जिसे अंधायुग' अभिहित किया गया है। विदेशी आक्रमणों के कारण 10वीं शताब्दी के पश्चात् सब छिन्न-भिन्न हो गया था। वस्तुतः मुस्लिम आक्रमणों और लंबे प्रभुत्व ने अत्यंत समृद्ध मूल भारतीय संस्कृति की अपूरणीय क्षति की है। ईसा की दूसरी सहस्त्राब्दी के प्रथमा का काल भारतीय संस्कृति के हास और नैतिक मूल्यों के पतन का काल था। इस अवधि में यर्वर आक्रांताओं ने अपेक्षाकृत अत्यंत निम्न और अस्वीकार्य सांस्कृतिक परंपराओं को थोपने का प्रयास किया, किंतु लोक से उपजी परंपरागत तत्व दबा भले ही दिये जायें, पूर्णतः नष्ट नहीं होते। ठीक यही बात भारतीय रंगमंच के लिये लागू
होती है। लगभग नौ सौ वर्षों तक विलग व लुप्तप्राय यह समृद्ध विधा अचानक राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में उभरकर सामने आई। स्वतंत्रता आंदोलन ने जैसे सुसुप्त इस विधा में प्राण वायु फूंक दिये। आंदोलन को प्रखर करने रंगकर्म श्वांस लेने लगा और रंगमंच पुनः कंपन कर उठे। आंदोलन की विचारधारा से प्रभावित नाटकों का मंचन समस्त राष्ट्र में होने लगा। अब पूर्णतः परिवर्तित परिवेश में रंगमंच अपने स्वरूप को गढ़ने लगा। बंगाल के दीनबंधु मित्र का 'नील दर्पण (1959), बंकिमचंद्र का आनंद मठ, महाराष्ट्र का कीचक वध एवं भारतेंदू की 'भारत दुर्दशा जैसे नाटक इसी विचारधारा से प्रभावित एवं उद्भत थे।
  1943-44 में भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा के उदय से देश के विभिन्न क्षेत्रों के रंगकर्म में कुछ चेतना आयी एवं उसे नई शक्ति एवं दिशा मिली इप्टा में भारतीय नाट्य जगत् के सत्यजीत रे, बलराज साहनी जैसी सर्वोच्च हस्तियाँ थीं। बाद में इसी के सदस्य बड़े नाट्यकारों ने अपनी पृथक मंडलियां बना लीं।
छत्तीसगढ़ में आधुनिक रंगकर्म - छत्तीगसढ़ की नाट्य परंपरा जितनी समृद्ध है, उतनी देश के अन्यत्र किसी अंचल की नहीं। अंचल में नाट्य परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इस बात का पुख्ता साक्ष्य रामगढ़ का विश्व का प्राचीनतम प्रेक्षागृह है। यहां ईसा के तृतीय-द्वितीय शताब्दी पूर्व एक विकसित नाट्य विधा के प्रचलन का पता चलता है। यहां प्राप्त लेख एवं भित्तिचित्रों के अध्ययन के बाद विद्वानों का मत है कि कालीदास ने 'मेघदूत' की रचना यहीं की होगी एवं नाट्य मंचन भी। छत्तीगसढ़ की नाट्य परंपरा का विस्तृत विवरण लोक संस्कृति के अध्याय में दिया जा चुका है, जहां तक छत्तीगसढ़ में आधुनिक रंगमंच के आरंभ का प्रश्न है इसने शेष राष्ट्र के साथ ही अपनी विकास यात्रा आरंभ की।
  छत्तीगसढ़ में आधुनिक रंगमंच की प्रवृत्तियों के आरंभ का श्रेय निर्विवाद रूप से रायपुर के रंगकर्मी पद्मभूषण हबीब तनवीर को है। इन्होंने इप्टा से पृथक होकर पहले 1954 में हिन्दुस्तान थियेटर, दिल्ली की स्थापना और फिर 1959 में छत्तीगसढ़ी कलाकारों को लेकर नया थियेटर बनाया। इस थियेटर ने 'शुद्रक के नाटक मृच्छकटिकम' को हिन्दी में प्रस्तुत किया। इसी शैली के कई और नाटक जैसे-चरणदास चोर', 'माटी की गाड़ी', 'आगरा बाजार आदि के मंचन ने भारतीय नाट्य समीक्षकों को यह स्वीकार करने को बाध्य किया कि छत्तीसगढ़ में रंगमंच एक स्थापित एवं पूर्ण विकसित विधा है।
  दूसरी ओर दाऊ रामचंद्र छत्तीगसढी लोककला के संवर्धन, संरक्षण व विकास के लिये तन-मन और धन से समर्पित व सक्रिय थे। वस्तुतः श्री देशमुख के चंदैनी गोंदा (1971) जैसे नाट्य मंच से तैयार हुए कलाकारों का श्री तनवीर ने 'नया थियेटर में बखूबी उपयोग किया। श्री तनवीर के प्रयासों से ही छत्तीसगढ अपने स्वतंत्र और विशिष्टरंगमंच के लिये जाना जाने लगा।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख नाट्य कर्मियों एवं नाट्य गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण यहां दिया जा रहा है-
श्री तनवीर ने लोक भाषाओं में कई देशी-विदेशी नाटकों का निर्देशन व मंचन किया. कई नाटक लिखे व अनुवाद किया। इन्हें पदमश्री, पदमभूषण व अनेक अन्य सम्मानों के साथ इनका राज्य सभा हेतु मनोनयन भी हुआ। रायपुर के ही अशोक मिश्र ने निर्देशन और अभिनय के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। इन्होंने भारत एक खोज, सुरभि और अन्य अनेक धारावाहिकों की पटकथा लिखी है। इन्हें अनेक पुरस्कारों के साथ वर्ष 2000 में समर पर राष्ट्रीग पुरस्कार भी मिला है। रायपुर के ही श्री जयंत शंकर देशमुख एक उत्कृष्ट रगकर्मी है। इन्होंने बिरसा मुंडा, मृत्युंजय, अंधेर नगरी जैसे नाटकों के निर्देशन के साथ बी.बी. कारत. जॉन मार्टिन, फ्रिट्स बेनेविटज, बशी कौल समेत अनेक प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ कार्य किया। रायपुर के ही श्री विमु कुमार एक लम्बे अरसे से हस्ताक्षर. 'अग्रगामी एवं 'प्रयास' नामक अपनी संस्थाओं के साथ सक्रिय रहे है। हस्ताक्षर संस्था के अन्तर्गत इन्होंने बाकी इतिहास निर्देशित किया। उन्होंने बहुत से नाटक लिखे और नुक्कड़ नाटकों की परंपरा को आगे बढाया। इनके साथ ही विनय अवरथी, प्रो. जोगलेकर आदि भी इस क्षेत्र के उल्लेखनीय व्यक्तित्व है। इन दिनों राजकमल, दिनेश दीक्षित और निर्जा मसूद जैसे युवा कलाकार इनकी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
  बिलासपुर के मूर्धन्य रंगकर्मी सत्यदेव दुबे ने अभिनय, निर्देशन व निर्माण में राष्ट्रव्यापी ख्याति अर्जित की। इन्होंने हिन्दी में दो एवं एक मराठी फिल्म के निर्माण के साथ कुछ नाटक भी लिखा तथा लगभग 40 नाटकों का प्रदर्शन किया है। बिलासपुर के ही स्व. डॉ. शंकर शेष ने भी रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है। उन्होंने उत्कृष्ट टकों की रचना के साथ फिल्म 'दूरियां एवं घरादा की कहानी लिखी। दूरियां को सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार तथा घरौदा को अशीर्वाद पुरस्कार प्राप्त हुए।
  भिलाई के सुब्रतो बोस यहां के प्रख्यात नाम हैं। इनके अलावा शक्तिपद चक्रवर्ती, राजकुमार सोनी, गोपाल राजू आदि निरंतर अच्छा काम कर रहे हैं। दुर्ग के सोमेश अग्रवाल भी रंगकर्म से जुड़े हुए हैं। इन्होंने धारावाहिक. नुक्कड़ में भावप्रणय अभिनय के साथ अनेक फिल्मों में काम किया।
राजनांदगांव के भैय्यालाल हेड़ाऊ एक शिक्षक थे. पर रंगमंच के लिये उनका समर्पण प्रशंसनीय है। चंदैनी गोंदा और सोनहा बिहान के इस कलाकार ने फिल्मों व अनेक धारावाहिकों में अभिनय किया।
प्रमुख नाट्य संस्थाएं - रायपुर में हिन्दी नाटकों की तुलना में मराठी मटकों की परंपरा अधिक पुरानी और नियमित है। यहां हिन्दी नाटकों हेतु काम करने वाले नाटय दल अपेक्षाकृत नये हैं। प्रयास. 'अग्रगामी तथा 'हस्ताक्षर इत्यादि नाट्य संस्थाओं ने हिन्दी नाटकों का सफल मंचन किया है। बाद में कमला कला संगीत महाविद्यालय का प्रेक्षागृह रंग मंदिर बनने से रंगदृश्य में तेजी आई। राज्य में पहली बार भिलाई के सुब्रतो बोस ने रायपुर में नुक्कड़ नाटक खेला था। रायपुर का महाराष्ट्र रंगमंडल भी रंगकर्म के क्षेत्र में एक सक्रिय संस्था है।
बिलासपुर में हिन्दी नाटक प्रस्तुत करने वाली छोटी-छोटी रंग मण्डलियां हैं। यहां कला परिषद द्वारा रंग-शिविर भी आयोजित किया गया, लेकिन अभी भी सब कुछ व्यवस्थित होना शेष है। पिछले कई वर्षों से बिलासपुर रेलवे इंस्टीट्यूट में मराठी नाट्य महोत्सव आयोजित किया जा रहा है। मिलाई में प्रदेश की सबसे अधिक लगभग 40-50 रंग संस्थाएं कार्यरत हैं।