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छत्तीसगढ़ की नाट्य परंपरा

अभिनय मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। हर्ष, उल्लास और खुशी से झूमते, नाचते-गाते मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है अभिनय। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की झांकी गांवों के खेतों, खलिहानों, गली, चैराहों और घरों में स्पष्ट देखी जा सकती है। इस ग्रामीण अभिव्यक्ति को ‘लोक नाट्य‘ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में लोक नाट्य की प्राचीन परंपरा रही है। यही आगे चलकर नाटक के रूप में विकसित हुआ। ‘नाट्य शास्त्र‘ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ का प्रणयन दूसरी सदी में हुआ। भरत मुनि ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय, और अथर्ववेद से रस लेकर इसकी रचना की। भरत मुनि के समक्ष लोकधर्म का आदर्श सर्वोपरि था। कदाचित् इसी कारण उन्होंने लोकधर्म के प्रति अपना अनुराग दर्शाया है। नाट्यशास्त्र में भी उल्लेख है ः- तद्ध्यात्माभिसंभूतं छन्दः शब्द समन्वितम्। लोकसिद्धं भवेत्सिद्धं नाट्यं लोकात्मकंत्विदम्।। छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य की प्राचीन परंपरा सरगुजा के रामगिरि और सीता बोंगरा गुफा में स्थित नाट्यशाला से सिद्ध होती है। यहां के शिलालेख में भी इसका उल्लेख है - आदि पयंति हृदयां सभावगरूकवयों यं रातयंदुले। अवसंतिया हांसानुभूते कुदस्पीसं एवं अलंगेति।। इन गुफाओं में स्थित नाट्य शालाओं की तुलना प्राचीन ग्रीक थियेटर से की जाती है। रंगशाला यानी थियेटर और लोकनाट्य के बारे में लोगों में अनावश्यक भ्रम होता है। थियेटर अपेक्षाकृत व्यापक शब्द है और यूनानी शब्द ‘थिया‘ से लिया गया है। इसका अर्थ है ‘दृश्य‘ और विशेषकर ‘देखने‘ के अर्थ में यूनानी भाषा के ‘थडमा‘ से साम्य रखता है। इसका अर्थ है-‘ऐसी वस्तु जो घूर घूरकर देखने को बाध्य करे‘ दूसरी ओर ‘ड्रामा‘ शब्द भी यूनानी शब्द ‘ड्रान‘ से लिया गया है जिसका अर्थ है-‘अभिनय करना।‘ भारतीय परिवेश में ‘थियेटर‘ शब्द को ‘रंगभूमि‘ का और ड्रामा को नाट्य के नजदीक माना गया है। अविक्य कियोपतेम तिसत्वातिभाष्िातम्। लोलांगहारभियं नाट्य लक्ष्मण लक्षितम्।। स्वरालंकार संयुक्तमस्वर्भूरूषाश्रयम्। यदोधशं भवेन्नाट्यं नाट्यधर्मोतुसास्मृता।। अर्थात् नाट्य प्रकृत स्थिति भिन्न कलात्मक और विशिष्ट उद्देश्य का अग्रणी होता है, जबकि लोकनाट्य प्राकृतजन की अभिव्यक्ति को लोक रंजन के लिए कृतिम रूप से प्रस्तुत करता है। क

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