माओपाटा- बस्तर नृत्य नाट्य
छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित बस्तर भू-भाग आदिवासी बहुल क्षेत्र है जो सांस्कृतिक रूप से बहुत ही समृद्ध है। आदिवासियों में गोंड, भतरा, हलबा, मुरिया, झोरिया, घुरवा(परजा), दंडामी माड़िया, दोरला तथा अबुझमाड़िया जनजाति प्रमुख हैं। बस्तर के घोटुल मुरिया जनजाति में एक नृत्य नाट्य विद्यमान है जिसे माओपाटा कहते है। गोंडी भाषा में माओ का अर्थ गौर (बाइसन) तथा पाटा का अर्थ है नृत्य। इन दोनों से मिलकर माओपाटा बना है जिसमे गौर के आखेट कथा नृत्य एवं नाट्य द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। यह नृत्य-नाट्य लगभग 2 घंटे का होता है जिसे आवस्यकतानुसार बढ़ाया-घटाया जा सकता है।
बस्तर में फसल बोने से पूर्व तीन से चार गावों के लोग सामूहिक आखेट पर निकलते है जिसे पादर कहते है। माओपाटा नृत्य का आयोजन सामान्यतः घोटुल गुड़ी के प्रांगण में किया जाता है। वैसे तो माओपाटा किसी भी ऋतु में किया जा सकता है, परन्तु अधिकतम पारद के दिनों में इस नृत्य का आयोजन किया जाता है। इस नृत्य में युवक युवतियां दोनों भाग लेते है परन्तु दोनों के कार्य पृथक-पृथक रूप से विभाजित है। मुरिया युवकों का एक दल विशाल आकार के मांदर अपने गले में लटकाये हुए और ढोल बजाते हुए घोटुल प्रांगण में प्रवेश करते है और दूसरा दल अपने अश्त्र-शस्त्रों के साथ प्रवेश करता है। युवक मांदर की ताल में अपने हथियार हवा में उछालकर अपने शौर्य का प्रदर्शन करते है और बीच-बीच में किलकारियां भी भरते है मानो वे हिंसक पशुओ को ललकार रहे हों या उनका हांका कर रहे हों। धीरे-धीरे नर्तक एवं वादक एक अर्धवृत्त या पूर्ण वृत्त बना लेते है जिसके बीच में एक वादक अपने गले में कोटोड़की नामक वाद्य लटकाये हुए उसे लकड़ी के दो डंडों से बजाता जाता है। यह वाद्य कोटोड़ की काठ के पांच से छह इंच मोटी और दस इंच लम्बी टुकड़े को पोला करके बनाई जाती है जिसे छप या ताशे की तरह बजाया जाता है। एक या दो युवक भैंस की सींगो अथवा उसी आकार की पीतल की बनी तोड़िया (तुरही) को बजाते है। मांदर खम्हार की लकड़ी का बना होता है जिन पर बकरे की खाल मढ़ी जाती है। परन्तु गड़बेंगाल का घोटुल ही नारायणपुर क्षेत्र का एकमात्र घोटुल है जहाँ के नर्तक पकाई हुई मिट्टी के डमरू के आकार के ढोल का प्रयोग करते है जिसे परई कहते है। ये