नाचा –
छत्तीसगढ़ के रायपुर, धमतरी, महासमुंद, दुर्ग, राजनांदगाँव आदि जिलों में नाचा व्यापक रूप से प्रचलित है। नाचा अपने आप में एक पूर्ण विद्या है नाचा का उद्भव खड़े साज़ की गम्मत से हुआ है जो मराठा छावनियों में सैनिकों के मनोरंजन का साधन थी। मराठी के तमाशा एवं छत्तीसगढी के नचा दोनों का ही उद्भव मराठा छावनियों कि गम्मत से हुआ है। तमाशा ने महाराष्ट्र की लोक परम्पराओं को अपना कर, अपने नाट्य स्वरूप का विकास किया है, तो वहीँ दूसारी ओर नाचा ने छत्तीसगढ़ क्षेत्र की लोक परम्पराओं को अपना कर अपने नृत्य स्वरूप का विकास किया। उड़ीसा पर आक्रमण करने जब नाट्य सेना जा रही थी तब मार्ग में पडने वाली छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर को भी उसने अपने आधीन कर लिया। मराठों ने अपने प्रशासन हेतु छत्तीसगढ़ में दो स्थानों पर अपने अधिकारी नियुक्त किये। एक बिलासपुर एवं दूसरा रायपुर में।
मराठों की सेना के मनोरंजन हेतु कुछ गम्मतिये भी हुआ करते थे, जो नाचने गाने के साथ ही कुछ हलके फुलके हास्य प्रधान प्रहसन भी प्रस्तुत किया करते थे। ये सभी गम्मातिये पुरुष होते थे और वे स्त्रियों के अभिनय हेतु साड़ी का पल्ला सिर पर डाल कर उनकी नाटकीय नकल उतारते थे। गम्मत में स्त्रियों की नक़ल करने वाला एक विशेष पात्र होता था जिसे नाच्या कहते थे। इसी पात्र के आधार पर छत्तीसगढ़ी नाट्य स्वरूप का नाम ‘नाचा’ पड़ा।’’नाच्या’’ मराठी तमाशे के एक अन्य पात्र सोंगाड्या से भिन्न है। वर्तमान में भी तमाशा में नाच्या और सोंगाड्या के समानांतर एक नए पात्र का उद्भव हुआ जो जोक्कड़ कहलाता है। आरंभ में तमाशा और नाच्या दोनों में ही पुरुष कलाकार ही स्त्री पात्रों का भी अभिनय करते थे कालांतर में मराठी तमाशा में स्त्री पात्रों का अभिनय करने हेतु कोल्हाटी जाति की लडकियाँ तमाशा में सम्मिलित हुईं, वहीं छत्तीसगढ़ी नाचा में देवार जाति की लडकियाँ सम्मिलित हुईं। कोल्हाटी एक प्राचीन जाति है, जो नटों की भांति करतब प्रदर्शित करके आजीविका चलाती है। इनमें नटों जैसी तीव्र गति एवं शारीरिक लोच के कारण तमाशा के नृत्य अत्यधिक तीव्रगति लिए हुए है। देवार बालाएँ गायन में अधिक कुशल हैं। दोनों ही जातियाँ परंपरागत रूप से नाचने गाने एवं करतब आदि प्रदर्शन करती रही हैं। इसलिए नाट्य क्षेत्