पंडवानी -
छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परंपराओं से मेरा मोह बचपन से रहा है। इसी मोह से पंडवानी और दूसरे लोकरंजन में मेरी रूचि पैदा हुई है। हम बचपन से विभिन्न लोक कलाकारों से पंडवानी सुनते आये हैं एवं उनकी प्रस्तुतियों को प्रत्यक्षत: या टीवी आदि के माध्यमों से देखते आये हैं। पद्मभूषण श्रीमती तीजन बाई तो अब पंडवानी की पर्याय बन चुकी है और हममें से ज्यादातर लोगों नें तीजन बाई की प्रस्तुति ही देखी हैं, लोक स्मृति के मानस पटल पर जो छवि पंडवानी की उभरती है वो तीजन की ही है। तीजन की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए श्रीमती रितु वर्मा नें भी पंडवानी गायकी को भली भांति साधा है। उसकी प्रसिद्धि भी काफी उंचाईयों पर है, पर इन दोनों की प्रस्तुतिकरण में अंतर है और इसी अंतर को वेदमति व कापालिक शैली का नाम दे दिया गया है। हम पंडवानी के इन शैलियों के संबंध में छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परंपराओं के मर्मज्ञों की लेखनी को पढ़ कर अपने स्वयं की संतुष्टि चाहते रहे हैं कि क्या सचमुच इन शैलियों नें समयानुसार परंपरा का रूप ले लिया है या शैलियों को कतिपय विद्धानों नें पूर्व पीठिका में लिखकर स्थापित कर दिया है।
युग आते हैं और चले जाते हैं, पर मनुष्य जीवन की कुछ ऐसी सच्चाईयां हैं, जो कथा की शक्ल में शेष रह जाती हैं । पंडवानी महाभारत की ऐसी ही कथा का छत्तीसगढी रूपान्तरण हैं । छत्तीसगढ के आम लोगों की सहज सरल जीवन शैली से, उनके भोले हृदय की धडकनों से संगीत का अविराम स्त्रोत बहता है । ग्रामीण जीवन की हर सांस, गीत और नृत्य की लयकारी में बंधी होती है । नाचा, करमा, ददरिया, सुआ, बांस गीत, चंदैनी, पंथी, गौरा जंवारा जैसी अनेक लोक विधाएं छत्तीसगढ की सांस्कृतिक बगिया के महकते हुए फूल हैं – उनमें सर्वोपरि सुगंधित सुमन का नाम है – पंडवानी । पंडवानी छत्तीसगढ अंचल के मनोरंजन का पारंपरिक साधन ही नहीं, श्रद्धा, भक्ति, शौर्य और पराक्रम के प्रति ललक की मोहक अभिव्यक्ति है । यह एक मौलिक गायन, वादन एवं आंगिक अभिव्यक्ति की बहुचर्चित लोक-तात्विक विधा है । देश में ही नहीं विदेशों में भी विख्यात पंडवानी ऐसी विशुद्ध एवं अनूठी लोक वाचिक परंपरा है जो मूलत: छत्तीसगढ की देन है । छत्तीसगढ में सर्वाधिक प्रचलित, परिचित और चर्चित हैं ।
पंडवानी स्वांग