प्रदेश में लघु वनोपज संग्रहण
प्रदेश में लघु वनोपज का दोहन एवं संग्रहण परंपरागत पद्धति द्वारा किया जाता है। वन संरक्षण को ध्यान में रखते हुए लघु वनोपज की गुणवत्ता में सुधार एवं उत्पादन में बढ़ोतरी सुनिश्चित करते हुए वन विभाग द्वारा यह कार्य सहकारी समितियों/ग्राम वन समिति/वन सुरक्षा समिति के माध्यम से कराया जाता है। अराष्ट्रीयकृत वनोपजों के संग्रहण की. छूट ग्रामीण जनों को है, किंतु वन संपदा को इससे किसी प्रकार की क्षति न हो। परंतु संग्रहण में वैज्ञानिक पद्धति न अपनाये जाने से वन संपदा को पर्याप्त क्षति होती है जैसे-ग्रामीणों द्वारा बांस के करील की प्राप्ति हेतु बॉरा भिरा को क्षतिग्रस्त करना. अनियंत्रित तरीके से बांस का दोहन, तेंदूपत्ता संग्रहण के समय तेंदू वृक्षों की शाखाओं को काटना, फलदार वृक्षों से फल प्राप्त करने हेतु वृक्ष की शाखाओं या पेड़ को काट लेना, कंद प्रजातियों के दोहन के समय पौधों को नष्ट कर पूरा कंद निकाल लेना, अपरिपक्व वनोपज का संग्रहण करना (जिससे वनोपज की गुणवत्ता में कमी आती है). संकटापन्न प्रजातियों का संग्रहण आदि तरीके वनों के विकास तथा वनोपज के सतत आपूर्ति के सिद्धांत के विपरीत है।
अतः वनोपज सग्रहण वैज्ञानिक पद्धति से होना चाहिये। इसके लिए संग्रहणकर्ताओं को यथोचित प्रशिक्षण दिया जाना आवश्यक है। साथ ही दोषपूर्ण विधि से लघुवनोपज संग्रहण पर रोक लगाई जानी चाहिये ताकि लघु वनोपज प्रजातियों का उचित संरक्षण हो सके एवं इनकी सतत् उपलब्धता बनी रहे।
तेंदूपत्ता संग्रहण - तेंदूपत्ता प्रदेश के वनों से प्राप्त होने वाली वनोपजों में महत्वपूर्ण है। इसके संग्रहण हेतु सर्वप्रथम वन क्षेत्र के बाहर स्थित मैदानों में जहां तेंदू झाड़ियों का घनत्व अधिक होता है, शाखकर्तन या बूटा कटाई (Drunning) की जाती है। उक्त कार्य फरवरी माह में आरंभ होकर 15 मार्च के पूर्व तक पूर्ण कर लिया जाता है। शाखकर्तन के 45 से 50 दिनो पश्चात् अर्थात् मई माह में तेंदूपत्ते का संग्रहण आरंभ होता है। शाखकर्तन का उद्देश्य उत्तम श्रेणी के पत्तों का अधिक मात्रा में उत्पादन करना है। पत्तों का संग्रहण प्राथमिक वनोपज सहकारी समितियों के माध्यम से होता है, जिनकी प्रदेश में कुल संख्या 893 है। शाखकर्तन पश्चात् आये नये परिपक्व एवं स्वस्थ पत्तों (जो बीड़ी बनाने हेतु उपयुक्त हों) की तोड़ाई कर 50 पत्तों की गड्डी तैयार की जाती है। गड्डियों को संग्रहण केन्द्रों (फड़) पर रखा जाता है। जहां इसकी खरीदी विभाग द्वारा की जाती है। इसके पश्चात् इसका उपचार किया जाता है।
उपचार के पश्चात 1000 गड्डियों का मानक बोरा तैयार किया जाता है। प्रत्येक बोरे पर जिले का नाम, समिति का नाम. इकाई क्रमांक एवं नाम, संग्रहण केन्द्र, बोरा क्रमांक, गड्डियों की संख्या आदि लिखा जाता है। संग्रहण के समस्त कार्यों में फड़ मुन्शी. फड़ अधिरक्षक, पोषक अधिकारी एवं पर्यवेक्षक अधिकारी/कर्मचारी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। तैयार बोरों का परिवहन ठेके पर विभिन्न गोदामों तक किया जाता है। तत्पश्चात् इन पत्तों की वृत्तवार नीलामी बंद निविदा के माध्यम से की जाती है।
वनोपज संग्राहकों की सुरक्षा - वनोपज संग्राहकों के हितों एवं जीवन की सुरक्षा हेतु शासन द्वारा योजनाएं लागू
समूह जीवन बीमा योजना - तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाले सभी लोगों के लिए अविभाजित म.प्र. शासन द्वारा लघु वनोपज संघ के तत्वावधान में वर्ष 1991 से भारतीय जीवन बीमा निगम के माध्यम से एक सामाजिक सुरक्षा बीमा योजना प्रारंभ की गई थी जो नवीन छत्तीसगढ़ राज्य में भी यथावत जारी है। इसके अंतर्गत संग्राहकों का निःशुल्क बीमा किया जाता है। यह एक समूह बीमा योजना है। जिससे 24 लाख से अधिक परिवारों को सुरक्षा मिल रही है। यह योजना तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाले उन सभी लोगों पर लागू है जिनकी उम्र 18 वर्ष से 60 वर्ष के बीच की है। इस योजना के तहत किसी भी तेदूपत्ता इकट्ठा करने वाले व्यक्ति को कोई प्रीमियम (बीमे की किस्त) नहीं देना पड़ेगा। बीमा करने के लिए उसकी ओर से हर साल से अधिक की रकम छत्तीसगढ़ सरकार देती है। योजना का क्रियान्वयन छत्तीसगढ़ लघु वनोपज सहकारी संघ द्वारा किया जाता है। सामान्य मृत्यु के मामले में बीमे की रकम 3500 रु. होगी लेकिन दुर्घटना के कारण आंशिक रूप से विकलांग होने पर 12,500 यदि मृत्यु दुर्घटना में हुई हो तो बीमे की रकम 7000 रु. होगी। दुर्घटना पूर्णतः विकलांग अथवा मृत्यु की दशा में बीमे की रकम 25000 रु. होगी।
जनजातियों के जीवन में लघु वनोपज का महत्व - आदिवासियों एवं वनों का अन्योन्याश्रित संबंध है, जिसमें एक से दूसरे को अलग नहीं किया जा सकता। छत्तीसगढ़ एक आदिवासी बहुल राज्य है जहां आदिवासियों की वार्षिक आय का लगभग एक-तिहाई लघु वनोपज के संग्रहण से प्राप्त होता है। उनकी आय का शेष दो-तिहाई भाग कृषि तथा मजदूरी एवं अन्य कार्यों से प्राप्त होता है। लघुवनोपज के अंतर्गत आय के अतिरिक्त अधिकांश लघु वनोपज उनके लिए खाद्य पदार्थ के रूप में भी उपयोग की जाती है। जैसे-महुआ फूल, महुआ डोरी से निकला हुआ तेल, गोंद, महुआ फल, चार, तेंदू का फल इत्यादि। वन क्षेत्रों में पायी जाने वाली अनेकानेक वन औषधियां आदिवासियों की प्रारंभिक चिकित्सा में प्रयोग की जाती है। अनेक दिव्य औषधियां हैं, जिन्हें आयुर्वेदिक दवा के उपयोग में प्रयोग किया जाना अनुसंधान एवं खोज का विषय है। लघु वनोपज केवल आदिवासियों की आय का ही स्रोत नहीं है, अपितु उनके सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है।
कृषि से उनकी आय को और अधिक बढ़ाना कठिन कार्य है क्योंकि उनके खेती करने का तरीका आधुनिक नहीं है और न ही उनके पास इसके लिए मजबूत आर्थिक आधार है। घटता हुआ जल स्तर एवं जल संकट को देखते हुए कृषि के विकास में अनेक बाधाएं हैं। जबकि लघु वनोपज से आय को 2 से 3 गुना तक थोडे प्रयासों से ही बढ़ाया जा सकता है। यदि लघु वनोपज का व्यावसायिक विपणन सहकारी समितियों के माध्यम से संचालित किया जाने लगे तो व्यापारियों (बिचौलियों) के द्वारा जो आदिवासियों के उपज का कम मूल्य पर क्रय कर शोषण किया जाता है उसे दूर कर वनोपज का न केवल उचित मूल्य दिलाया जा सकता है, बल्कि उनके वनोपज का प्रसंस्करण कर और अधिक कीमत प्राप्त की जा सकती है। अधिकांश आदिवासी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। इस तरह यह सुस्पष्ट है कि लघु वनोपज के व्यावसायिक विपणन का उचित प्रबंधन आदिवासियों की आर्थिक सुदृढ़ता के लिए मजबूत आधार प्रदान कर सकता है। अतः समय की मांग है कि शासन लघु वनोपज के उचित विपणन की व्यवस्था करे।