वन संरक्षण एवं विकास हेतु योजनायें/कार्यक्रम
वर्तमान वन प्रबंध उत्पादन के साथ वन विकास एवं संरक्षण पर अधिक बल दे रहा है। सत्तर के दशक के पश्चात् वन क्षेत्र तेजी से कम हुए हैं। यद्यपि राष्ट्रीय औसत से प्रदेश में अधिक वन हैं पर प्रदेश की वन संपदा तेजी से विलोपित हो रही है। अतः विभाग द्वारा चलायी जा रही.समी योजनाएं वनों के विकास एवं संरक्षण पर केन्द्रीभूत हैं। सुधार के साथ उत्पादन में वृद्धि के प्रयास किये जा रहे हैं। विभाग द्वारा वनविकास के अंतर्गत मात्र वन का विकास ही नहीं किया जाता है. अपितु इससे जुड़े हुए ग्रामीणों की मूलभूत सुविधाओं पर भी ध्यान दिया जाता है। इन विकास कार्यों हेतु राशि आयोजना, आयोजनेत्तर, आदिवासी उपयोजना, हरिजन विशेषांक, वानिकी परियोजना, विश्व खाद्य कार्यक्रम, विशेष केन्द्रीय सहायता. वित्त आयोग, आदि से प्राप्त होती है। इन योजनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है-
बिगड़े वनों का सुधार-प्रदेश के लगभग 20% क्षेत्र का घनत्व 40% से कम है, तथा इन्हें बिगड़े वनों की परिभाषा में रखा गया है। इन क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ाने हेतु बिगड़े वनों के सुधार का कार्य प्रति वर्ष किया जाता है।
बिगड़े वनों को तीन वर्गों (1) ऐसे क्षेत्र जहां जड़ भंडार पर्याप्त है (2) ऐसे क्षेत्र जहां जड़ भंडार अपर्याप्त तथा साइट पोटेन्शियल भी कमजोर है तथा (3) ऐसे क्षेत्र जहां जड़ भंडार अपर्याप्त किंतु साइट पोटेंशियल रोपण के अनुकूल है, में विभाजित कर उपचार किया जाता है। प्रथम वर्ग में जड़ भंडारों को तराशने, रिक्त स्थानों पर आवश्यकतानुसार रोपण के साथ पांच वर्षों तक रखरखाव व सुरक्षा का कार्य, द्वितीय वर्ग में केवल चारागाह विकास तथा तृतीय वर्ग में ग्रामीण समुदाय की आवश्यकता एवं साइट की उपयुक्तता के अनुसार विभिन्न प्रजातियों का रोपण किया जाता है। इसके अंतर्गत क्षतिपूर्ति रोपण, जलाऊ रोपण एवं चारागाह विकास, ANR-सहायता प्राप्त प्राकृतिक पुनरुत्पादन आदि कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। कार्य कराने हेतु संयुक्त वन प्रबंध के अंतर्गत पंजीकृत समितियों की भागीदारी सुनिश्चित की जाती है। यदि
समितियां रखरखाव एवं सुरक्षा का कार्य स्वयं करती हैं तो इस हेतु आबंटित समस्त राशि समितियों के खाते में जमा कर दी जाती है। कुछ क्षेत्रों में जन भागीदारी के अच्छे परिणाम परिलक्षित हुए हैं।
बिगड़े बाँस वनों का सुधार- छत्तीसगढ़ प्रदेश में बाँस बहुतायत में पाया जाता है, किंतु पूर्व के बाँस क्षेत्रों में से कुछ क्षेत्र में बाँस के भिरों से उत्पादकता प्रायः नगण्य हो गई है। ऐसे क्षेत्रों में सुधार के कार्य के बड़े उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त हुए हैं। यह निर्णय लिया गया कि बाँस के रोपण के बदले यदि बाँस के बिगड़े वनों में पुनरोद्धार का कार्य बड़ी मात्रा में कराया जाए तो प्रदेश में बाँस की उत्पादकता में आशातीत वृद्धि होगी। बाँस में एक अन्तराल के बाद सामूहिक पुष्पन होता है एवं इस सामूहिक पुष्पन के बाद भिरे सूख जाते हैं। अतः ऐसे क्षेत्रों में पुष्पन के गिरे बीजों से निकले बाँस के पौधों का उपचार एवं रखरखाव अत्यंत आवश्यक है।
ग्राम विकास कार्यक्रम- वनग्रामों तथा वनक्षेत्र की सीमा से 5 कि.मी. की परिधि के भीतर स्थित ग्रामों में वन विभाग की विभिन्न योजनाओं से प्राप्त राशि के माध्यम से विभिन्न कार्य ऐसे ग्रामों में कराएं जाते हैं। जैसे पीने के पानी की सुविधा-कुआं, हैंडपंप, ट्यूबवेल आदि; सिचाई सुविधा-स्टापडेम, उदवहन सिंचाई योजना, तालाब, ट्यूबवेल आदि, पहुंचमार्ग एवं रपटा निर्माण, सामुदायिक भवन, स्कूल भवन एवं आंगनवाड़ी भवन निर्माण; स्वास्थ्य सुविधायें- अस्पताल भवन/चिकित्सा भवन निर्माण एवं एम्बुलेंस वाहन का प्रदाय; ग्राम रोपणी; ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोत; कृषि एवं उद्यामिता का विकास; लाख पालन, कोसा पालन, बाँस आधारित कुटीर उद्योगों एवं मछली पालन; अकाष्ठीय वनोपज संग्रहण आदि कार्य।
वन ग्राम विकास योजना- छत्तीसगढ़ राज्य के अंतर्गत कुल 425 वनग्राम है। वनग्रामों में रह रहे अधिकांश ग्रामीण आदिवासी एवं अन्य कमजोर वर्ग के होते है. जो अत्यधिक गरीब श्रेणी के हैं एवं जीवन-यापन के लिए वनों पर संपूर्ण रूप से आपित है। इन्ही वन ग्रामो मे ग्रामीणो को मूलभूत सुविधगए जैसे-पेयजल व्यवस्था हेतु कुंआ, टयूबवेल निर्माण, निस्तार एवं सिचाई हेतु तालार एव स्टापडेम निर्माण, पहुचमार्ग. शिक्षा हेतु आंगनबाडी तथा शाला भवन निर्माण, स्वास्थ्य हेतु स्वास्थ्य केन्द्र एव अन्य कार्य. सामुदायिक भवन का निर्माण आदि के अतिरिक्त उनके आय में वृद्धि करने हेतु रोजगार मूलक कार्य भी किये जाते है। इस प्रयोजन हेतु वर्ष 2000-2001 में विशेष केन्द्रीय सहायता के अंतर्गत आदिवासी क्षेत्र उपयोजना के अतर्गत 86 लाख रुपए का आबंटन हुआ।
विशेष पिछड़ी जनजातियों का विकास - प्रदेश में 5 विभिन्न पिछड़ी जनजातियों का समूह है जो दुर्गम वन क्षेत्र में निवास करती है। ये लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते है तथा वनो पर पूर्ण रूप से आश्रित रहते हैं। इन जनजातियों के विकास हेतु विभाग द्वारा विकास मूलक कार्य कराये जाते है जिसमे मूलभूत सुविधाएं मुहैया करायी जाती हैं।
उच्च तकनीक रोपण- वनक्षेत्रो में उत्पादन बढाने तथा निजी क्षेत्रो के रोपण को कृषि के समान लाभदायक बनाने हेतु उच्च तकनीक रोपण का उपयोग किया जाता है. जिससे वर्तमान में प्राप्त होने वाली औसत वार्षिक वृद्धि (एम. एआई) 060 एमी /हे. / वर्ष से बढकर 101.मी./हे./वर्ष तक होने की संभावना है। उच्च तकनीक वृक्षारोपण वर्तमान में छोटे-छोटे क्षेत्रो मे (लगभग 5 से 10 हे.) में ही किया जा रहा है। यह रोपण ऐसे क्षेत्रों में किया जाता है जहा सिचाई की सुविधा उपलय हो एव अधिक से अधिक ग्रामीण ऐसे क्षेत्रो को देख सकें। उद्देश्य यह है कि यह क्षेत्र प्रदर्शन प्रक्षेत्र के रूप में निर्मित हो एव ग्रामीण ऐसे क्षेत्रो से तकनीकी ज्ञान प्राप्त कर उनकी पड़त भूमि पर उपयुक्त प्रजातियो का रोपण कर सके. तथा कृषि से अधिक लाभ अर्जित कर सकें।
अनुसंधान एवं विस्तार कार्यक्रम- वनो के अतर्गत अधिक भू-भाग लाने, इनकी गुणवत्ता में वृद्धि करने एवं वन विकास में आने वाले अवरोधो व समस्याओ के समाधान हेतु अनुसंधान एवं विस्तार केन्द्रों की स्थापना की गई है।
अनुसंधान एवं विस्तार केन्द्र- विश्व वानिकी परियोजना के अंतर्गत ऐसे तीन केन्द्र जगदलपुर, बिलासपुर तथा रायपुर में स्थापित है।
उदेश्य-1. उन्नत तकनीक से उन्नत गुण तथा श्रेणी के बीज तथा पौध तैयार करना।
2 भूमि जलवायु के अनुसार अनुकूल प्रजातियों का निर्धारण।
3. उन्नत तकनीक का प्रचार, प्रसार, प्रदर्शन एवं प्रोत्साहन।
कार्य योजना- एग्रो क्लाइमेटिक जोन को आधार मानते हुए प्रदेश में 3 स्थानों पर क्रमशः बिलासपुर, जगदलपुर एवं रायपुर में विस्तार एव अनुसधान केन्द्र स्थापित है, जिनके द्वारा उत्तमगुण श्रेणी के बीज उत्पन्न करने के लिए बीज उत्पादन क्षेत्र एवं बीज उचान स्थापित किये गये है। केन्द्रों द्वारा उच्च गुणवत्ता के क्लोनल पौधे तैयार कर रोपण हेतु इनका अधिकाधिक उपयोग किया जा रहा है। इन केन्द्रों में 3 मॉडल रोपणियां स्थापित हैं. जहां उत्तम गुणवत्ता के पौधे तैयार कर रोपण एव वितरण के साथ कर्मचारियों, कृषकों तथा जन प्रतिनिधियों को नई तकनीक.पर प्रशिक्षण एवं प्रदर्शन कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
वनौषधियों का विकास- छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज संघ के द्वारा बिलासपुर एवं रायगढ़ जिलों में लगभग नौ हजार हेक्टेअर क्षेत्र में दोषधि के संरक्षण, सवर्धन एवं प्रसंस्करण हेतु वनस्पति वन योजना स्वीकृत की गई है। बिलासपुर जिले में अमरकटक से लगे हुए केवची, लमनी क्षेत्र में स्थानीय वनौषधि के संग्रहण एवं रोपण हेतु योजना का क्रियान्वयन प्रारभ किया जा रहा है। इसी योजना के अंतर्गत गौरेला में प्रसंस्करण क्षेत्र स्थापित किया जा रहा है। रायगढ जिले में धरमजयगढ वन परिक्षेत्र में भी वनौषधि विकास कार्यक्रम को प्रारंभ करने की योजना है। ऐसे ही कार्यक्रम सरगुजा एव बस्तर जिलो में भी चलाये जा रहे है।
इंदिरा हरेली- सहेली योजना-छत्तीसगढ शासन द्वारा प्रदेश में अनुपयोगी भाटा (lateritic) जमीन पर फलदार वृक्ष लगाकर विशेष वर्ग के ग्रामीणो, सीमात कृषको को पट्टे पर निश्चित प्रावधानों के तहत दिये जा रहे हैं। ताकि इन्हें अतिरिक्त आय हो एवं भूमि उपयोग के साथ हरियाली में वृद्धि हो। लगभग 1200 हे. से अधिक भूमि कृषकों को
पट्टे पर दी जा चुकी है।