मुख्यपृष्ठ > विषय > सामान्य ज्ञान

छत्तीसगढ़ में वनों पर आधारित उद्योगों के विकास की संभावनाएं



छत्तीसगढ़ में वनों पर आधारित उद्योगों के विकास की संभावनाएं
छत्तीसगढ़ प्रदेश के निवासी मुख्यतः आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग के हैं। यहां अशिक्षा, आर्थिक, पिछड़ापन, विपणन व्यवस्था तथा अन्य मूलभूत सुविधाओं का अभाव इनकी जीवन शैली में प्रतिबिम्बित होता है। आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए वन आधारित उद्योग विशेषकर कुटीर उद्योगों की यहां अपार संभावनाएं हैं। इन उद्योगों के होने से जहां एक ओर गरीब और कमजोर वर्ग का उत्थान होगा तथा वनवासियों को रोजगार उपलब्ध होगा वहीं वनों का विनाश भी रुकेगा। इस प्रदेश में वन आधारित अग्रलिखित लघु एवं कुटीर उद्योग सफलता पूर्वक चलाए जा सकते हैं -
बांस आधारित कुटीर उद्योग - बॉस आधारित कुटीर उद्योग जैसे-सूपा. टोकरी, चटाई, चन्द्रिका, छावड़ा, फर्नीचर, खिलौने, शो-पीस, अगरबसी, कांड़ी आदि के निर्माण की स्थापना की जा सकती है जिससे धनवार एवं बंसोड़ जैसे कमजोर वर्ग के लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। प्रदेश के बाँस वन अत्यधिक जैविक दबाव के कारण बिगड़े स्वरूप में हैं। संयुक्त वन प्रबंधन के माध्यम से इन वनों को पुनर्स्थापित कर बाँस आधारित कुटीर उद्योग हेतु लोगों को कच्चा माल निरन्तर प्रदाय किया जा सकता है। गैर वन क्षेत्र में भी बाँस रोपण को अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है।
पैकिंग केस एवं फोटो फ्रेम उद्योग - प्रदेश के वनों में सलई मोयन, केकट, भंवरमाल आदि प्रजातियों के वृक्ष काफी संख्या में उपलब्ध हैं। इनके उपयोग से पैकिंग केस एवं फोटो फ्रेम उद्योग. पनपने की.प्रबल संभावना है।
का खिलौना उद्योग - छत्तीसगढ़ के वनों में दूधी, हल्दू, मुंडा, खम्हार आदि प्रजातियों के वृक्ष काफी संख्या में उपलब्ध हैं। इनके उपयोग से काष्ठ खिलौना उद्योग के विकास की प्रबल संभावनाएं हैं।
त्रिफला एक्सट्रेक्ट - प्रदेश के वनों में आंवला, बहेरा तथा हर्रा प्रजातियों के वृक्ष उपलब्ध हैं जिनके फलों का उपयोग करके त्रिफला एक्सट्रेक्ट निर्मित किया जा सकता है।

ऑक्जेलिक एसिड उत्पादन - ऑक्जेलिक एसिड के उत्पादन में साजा छाल का प्रयोग कच्चे माल के रूप में होता है प्रदेश के वनों में साल के बाद साजा प्रमुख प्रजाति है। अतः ऑक्जेलिक एसिड के उत्पादन हेतु कच्चे माल की उर्फ लधता अच्छी है। फलस्वरूप ऑक्जेलिक एसिड निर्माण की इकाई सुगमता से चलाई जा सकती है।
लाख उद्योग - प्रदेश के वनों में कुसुम, पलाश, तथा बेर के वृक्ष बहुतायत में हैं। इन वृक्षों पर लाख के कीड़े का पालन करके लाख का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। लाख से निर्मित दाई तथा चूड़ी आदि के उद्योग के विकास की काफी संभावनाएं हैं।
कोसा उत्पादन - छत्तीसगढ़ के वनों में अर्जुन एवं साजा प्रजाति के वृक्षों की प्रचुरता के कारण कोसा का उद्योग आसानी से कुटीर उद्योग के रूप में विकसित किया जा सकता है। यद्यपि चांपा-जांजगीर, बिलासपुर, बस्तर, में कोसा उत्पादन होता है लेकिन संभावनाओं से कम है। रेशम विभाग द्वारा वन भूमि पर कई स्थानों पर कोसा कृमि पालन के केन्द्र स्थापित किये गए हैं, जहां पर कोसा कृमि पालन का कार्य किया जा रहा है। तथा ग्रामीणों को कोसा कृमि पालन हेतु प्रशिक्षण दिया जा रहा है। वन विभाग द्वारा वन क्षेत्रों में कोसा कृमि पालन हेतु अर्जुन रोपण किया गया है। वैसे अंचल में कोसा उत्पादन चांपा, रायगढ़ तथा बस्तर जिलों में परंपरागत तौर पर किया जाता रहा है. तथा शासन के प्रयासों से इसे और अधिक विकसित किया जा सकता है।
बीड़ी निर्माण उद्योग - प्रदेश में तेंदूपत्ता संग्रहण ग्रामीण आदिवासी परिवारों की आय का प्रमुख साधन है। चूंकि इस क्षेत्र में तेंदूपत्ता प्राकृतिक रूप में उत्कृष्ट गुणवत्ता का होता है अतः यहां पर बीड़ी निर्माण उद्योग स्थापना की भी प्रबल संभावनाएं हैं। यद्यपि रायपुर, धमतरी आदि नगरों में बीड़ी निर्माण कार्य निजी तौर पर होता है. पर यहां का अधिकतर बीड़ीपत्ता बाहर चला जाता है, और इसका प्रमुख केन्द्र जबलपुर में है। बीड़ी उद्योग वर्ष भर चलने वाला उद्योग है। इससे ग्रामीणों आदिवासियों की बेराजगारी की समस्याओं को खत्म किया जा सकता है।
टैनिन उद्योग - हर्रा से टेनिन बनाने का कारखाना।
साल तेल एवं कोको बटर उद्योग - साल बीज से तेल प्राप्त होता है तथा तेल से कोको बटर प्राप्त होता है जिसकी मांग देश-विदेश में अधिक है।
स्सी निर्माण उद्योग - प्रदेश के वनों में सवई घास प्राकृतिक रूप से मिलती है साथ ही सवई के रोपण भी आसानी से किये जा सकते हैं। वन विभाग द्वारा विगत वर्षों से रोपणों की खन्ती के मेढ़ों पर रोपित किये जा रहे हैं जिसका कच्चेमाल के रूप में उपयोग करके रस्सी निर्माण का उद्योग सफलतापूर्वक चलाया जा सकता है।
साल एवं माहुल पत्ते से दोना, पत्तल निर्माण - यहां के वनों में साल तथा माहुल प्रजाति के वृक्ष प्रपुर संख्या में हैं। इन वृक्षों के पत्तों का उपयोग करके क्षेत्र में दोना, पत्तल निर्माण का कुटीर उद्योग आसानी से स्थापित किया जा सकता है।
   छत्तीसगढ़ में वनाधारित कुटीर उद्योगों की विपुल संभावनाएं हैं। अधिकांश उद्यागों के लिए कच्चेमाल का स्त्रोत प्राकृतिक वन हैं। विगत कई वर्षों में आबादी के प्रसार से जहां वन क्षेत्रों में कमी आयी है, वहीं वनोपजों की उप-लता में भी गिरावट आयी है। अतः संयुक्त वन प्रबंध के अंतर्गत गठित ग्राम वन समिति एवं वन सुरक्षा समितियों को इस प्रकार प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता है कि उनको आवंटित वन क्षेत्रों से प्राप्त होने वाली वनोपजों का विदोहन इस प्रकार प्रबंधित हो कि वनों को बिना नुकसान पहुंचाये ही वनोपज निरंतरता में उपलब हो सके। साथ ही बिगड़े वन क्षेत्रों की सुरक्षा एवं संवर्धन करके उनको भविष्य में वनोपज उत्पादन योग्य बनाया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ : हर्बल स्टेट - गत 4 जुलाई, 2001 को मुख्यमंत्री द्वारा छत्तीसगढ़ को हर्बल स्टेट के रूप में विकसित करने की घोषणा की गई। प्रदेश के वनों से प्राप्त जड़ी-बूटियों से उपचार के लिये प्रदेश के दस स्थानों पर वन औष-धालय खोलने का निर्णय भी लिया गया है, साथ ही वन औषधियों की खेती को प्रोत्साहन करने की नीति का अवलंबन करने की भी घोषणा की गई। वनौषधि से कृषकों को अतिरिक्त आय की पर्याप्त संभावना है। वनौषधि के साथ वनोपज पर आधारित वस्तुओं का उत्पादन संबंधित क्षेत्रों में ही किये जाने की नीति पर जोर दिया जा रहा है, ताकि वनोपज संग्रहणकर्ता समुदाय तथा वनोपज देने वाले क्षेत्र के लोगों को उनके क्षेत्रों से प्राप्त नैसर्गिक संपदा का पूर्णलाम प्राप्त हो सके। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में लगभग 1200 प्रजातियों ऐसी हैं, जिनमें औषधीय गुण मौजूद हैं।
हर्बल वन मण्डलों का गठन - प्रदेश जैव विविधता से परिपूर्ण क्षेत्र है। यहां के वनों में पायी जाने वाली विविध वनस्पति देश की महत्वपूर्ण जैव संपदा है, जो न केवल पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, अपितु इनके औषधीय गुण चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं । इसी दृष्टि से प्रदेश शासन ने छत्तीसगढ़ के विशेष क्षेत्रों , जहां के वनों में विशिष्ट गुणों से युक्त पौधे प्राप्त होते हैं , को सुरक्षित करने व उनका वैज्ञानिक पद्धति से दोहन करने हेतु चयनित ऐसे क्षेत्रों में ' हर्बल डिवीजन ' आरम्भ करने की घोषणा की है । इन वन मण्डलों का कार्य उन क्षेत्रों में पूर्व से ही कार्यरत सामान्य वन मण्डलों द्वारा किया जायेगा । चयनित सात वनमण्डल - मरवाही , बिलासपुर , धरमजयगढ़ , कोरिया , धमतरी , भानुप्रतापपुर , जगदलपुर , दुर्ग व सरगुजा आदि हैं ।

मगरमच्छ संरक्षण पार्क - बिलासपुर जिले के ' कोटमी सुनार ' गांव में प्राकृतिक रूप से मगरमच्छ पाये जाने के कारण यहाँ जुलाजिकल अथॉरिटी ऑफ इंडिया ' द्वारा मगरमच्छ संरक्षण पार्क स्थापित करने हेतु विचार किया जा रहा है । वर्तमान में यहां लगभग दो दर्जन मगरमच्छ मौजूद हैं । इसके लिए जुलाई 2003 में विशेषज्ञों के जांच दल ने सर्वे किया है ।