राष्ट्रीय वन नीति
वन प्रबंधन के इतिहास में देश में तीन बार राष्ट्रीय वन नीति निर्धारित की गई प्रथम राष्ट्रीय वन नीति सन् 1894 में लार्ड एल्गिन द्वितीय ब्रिटिश वायसराय के काल में घोषित की गई थी जिसका उददेश्य जनसाधारण की सुविधा एवं हित साधन एवं पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के लिए पर्याप्त क्षेत्रों में वनों का संरक्षण करना था साथ ही अधिकतम राजस्व की प्राप्ति को प्राथमिकता दी गई थी। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत शासन के खाद्य एवं कृषि मंत्रालय के संकल्प द्वारा मई 1952 में 1894 की वन नीति को पुनरीक्षित किया गया। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भूमि की उत्पादक क्षमता का हास किये बगैर अत्यधिक उत्पादन, निर्वनीकरण पर रोक तथा भूमि अपक्षरीकरण, वन उत्पादों की आपूर्ति सुनिश्चित करना, रक्षा संचार एवं उद्योग के लिए आवश्यक वनोपज प्रदाय करना तथा इन आवश्यकताओं से सामन्जस्य रखते हुये अधिक से अधिक वार्षिक आय प्राप्त करने के लिए वनों का प्रबंध किया जाना था। यह भी निर्धारित किया गया कि पहाड़ी क्षेत्रों में 60 प्रतिशत तथा मैदानी क्षेत्रों में 20 प्रतिशत वन होने चाहिये जिससे न्यूनतम राष्ट्रीय औसत वन क्षेत्र 33 प्रतिशत रहे।
राष्ट्रीय वन नीति, 1988 - वर्ष 1952 के बाद देश में बहुत से आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन हुए जिससे पुरानी वन नीति के पुनर्निरीक्षण एवं संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई। वर्ष 1988 में भारत शासन द्वारा नई राष्ट्रीय वन नीति घोषित की गई इस नीति के अंतर्गत वन प्रबंधन के सारभूत तत्व निम्नानुसार हैं-
1. मौजूदा वनों/वन भूमि को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करना एवं उसकी उत्पादकता में सुधार लाना। पहाड़ी ढालों नदियों. झीलों व जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्रों, सागर तटों तथा | शुष्क, शुष्क व रेगिस्तानी भूखण्डों की वन तथा वन वनस्पति आवरण में तेजी से बढ़ोतरी करना।
2. बढ़ती हुई खाद्य उत्पादन की आवश्यकता को देखते हुए वानिकी के लिए अच्छी तथा उत्पादक कृषि भूमि को हतोत्साहित करना।
3. कुल जैव विविधता के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय उद्यानों. अभयारण्यों, जीव मंडल रिजर्व (Biosphere) तथा अन्य संरक्षित क्षेत्रों को मजबूत करना और इनका पर्याप्त रूप विस्तार करना।
4. वनों के हास को रोकने के लिए विशेष रूप से समीपस्थ क्षेत्रों में समुचित चारा, इंधन व घास की व्यवस्था करना। चूंकि ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत जलाऊ लकड़ी है अतः तेजी से बढ़ने वाले पौधों के वन रोपण में तेजी लाना जिससे ग्रामीणों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ईंधन की लकड़ी के उत्पादन में वृद्धि करने पर विशेष बल दिया जा सके।
राज्य वन नीति, 2001
राज्य विभाजन के पहले पूर्ववर्ती म.प्र. सरकार द्वारा बनाये वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदला जायेगा।
राज्य को हर्बल स्टेट बनाने की अवधारणा को मूर्तरूप देने के लिए लघु वनोपज और औषधीय पौधों को संरक्षित एवं संवर्धित किया जायेगा।
वनों को आर्थिक लाभ का स्रोत न मानकर राज्य के पर्यावरणीय स्थायित्व और पारिस्थितिकीय संतुलन कोप्राथमिकता दी जायेगी।
वन क्षेत्रों में कृषि वानिकी कार्यों को बढ़ावा दिया जायेगा,।.
वनों के नजदीक रहने वाले लोगों के अधिकारों और सुविधाओं का ध्यान रखते हुए उन्हें खेतों में वृक्ष लगाकर अपनी जरूरत की जलाऊ लकड़ी और छोटी इमारती वनों के लकड़ी के उत्पादन को बढ़ावा दिया जायेगा।
वन अपराध रोकने के लिए वन अपराध न्यूरो और (विशेष न्यायालय का गठन किया जायेगा।
5. लघु वनोपज वनों तथा आस-पास के रहने वाले जनसमुदायों एवं जनजातियों को पोषण प्रदान करती है, रोजगार के अवसर तथा आय में बढ़ोतरी का ध्यान रखते हुये ऐसे उत्पादों की सुरक्षा एवं उत्पादन में वृद्धि तथा सुधार करना।
स्पष्टतः अब वन प्रबंध संरक्षण के साथ उत्पादन के मार्गदर्शक सिद्धांत पर कार्य कर रहा है, अर्थात कुल भूमि का लगभग एक-तिहाई या अधिक वन क्षेत्र के लक्ष्य की पूर्ति होनी चाहिये। यह नीति वनों के प्रबंध में वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रणाली के उपयोग पर बल देती है जिसका उद्देश्य प्राकृतिक वनों को बिना नष्ट किये मांग तथा पूर्ति के अंतर को कम करना, गैर वानिकी कार्यों हेतु वन भूमि के उपयोग वाली योजनाओं का सामाजिक तथा पर्यावरणीय मूल्य/लाभ (Cost/benifit) विश्लेषण कर क्षतिपूर्ति वनीकरण की उपयुक्त व्यवस्था का प्रावधान करना, योजनाओं में वन्य प्राणी संरक्षण तथा प्रबंध हेतु प्रधान सुनिश्चित करना आदि है। इस नीति में एक महत्वपूर्ण निर्देशक सिद्धांत यह स्थापित किया गया है कि समुचित रोजगार तथा आय के अवसर उपलब्ध कराने के साथ-साथ वनों के संरक्षण, पुनरोत्पादन तथा विकास में जनजातियों/जनसामान्य की क्रियाशील भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिये। ठेकेदारी वन संरक्षण हेतु संवैधानिक प्रावधान प्रथा के स्थान पर सहकारी समितियों अथवा शासकीय नियमों द्वारा कार्य किया जाना चाहिये। इस सिद्धांत से वन प्रबंधन में हेतु भारत के संविधान में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से वन तथा पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करने एक नवीन व्यवस्था का जन्म हुआ अर्थात् संयुक्त वन प्रबंध, प्रावधान किये गये हैं यह वन प्रबंध की दिशा में एक क्रांतिकारी परिवर्तन है।