धारा 377: क्यों
आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिकता पर पिछले 15 साल से बहस चल रही हैण् इस बहस के विभिन्न पहलू बताते हैं कि धारा 377 का समाप्त हो जानाए इसके बने रहने से ज्यादा तर्कसंगत हैण्
भारतीय दंड संहिता ;आईपीसीद्ध की धारा 377 एक बार फिर चर्चाओं में हैण् इस धारा की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी जिसकी सुनवाई के लिए मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय ने हामी भर दी हैण् न्यायालय ने इसके लिए पांच जजों की संवैधानिक पीठ के गठन की बात कही हैण् धारा 377 ष्अप्राकृतिक यौन सम्बन्धोंष् को परिभाषित करती है और ऐसे संबंध बनाने वालों को आजीवन कारावास तक की सजा दिये जाने की बात कहती हैण् 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस धारा को उस हद तक समाप्त कर दिया थाए जिस हद तक यह सहमति से बनाए गए ऐसे संबंधों पर रोक लगाती थीण् लेकिन दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए दोबारा इस धारा को इसके मूल स्वरुप में पहुंचा दियाण् इसके बाद से ही इस फैसले के पुनर्विचार की मांगें उठती रही हैंण्
आम तौर पर यौन अपराध तभी अपराध माने जाते हैं जब वे किसी की सहमति के बिना किए जाएंण् लेकिन धारा 377 की परिभाषा में कहीं भी सहमति.असहमति का जिक्र ही नहीं हैण् इस कारण यह धारा समलैंगिक पुरुषों के सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को भी अपराध की श्रेणी में पहुंचा देती हैण् इस धारा के विवादास्पद होने का प्रमुख कारण भी यही है और दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी इसी कमी के चलते इसे असंवैधानिक करार देते हुए इसमें संशोधन किया थाण्
आम तौर पर यौन अपराध तभी अपराध माने जाते हैं जब वे किसी की सहमति के बिना किए जाएंण् लेकिन धारा 377 की परिभाषा में कहीं भी सहमति.असहमति का जिक्र ही नहीं है
धारा 377 की संवैधानिकता को पहली बार 2