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चित्रकला



चित्रकला
     शैल चित्र-  छत्तीसगढ़ में प्रागऐतिहासिक काल के अनेक शैलगृहों के उदाहरण मिलते हैं। इस काल में जब मनुष्य पर्वत कंदराओं में निवास करता था तब उसने इन शैलाश्रयों में चित्रांकन का कार्य किया था, जो उसके अलंकरण एवं कला प्रिय होने का प्रमाण है। प्राचीनतम् ज्ञात निवासी जिन्होंने इस अंचल में अपने उद्योग के कुछ चित्र छोड़े हैं, वे नवपाषाण समूह के लोग हैं। ये खेती करते थे, घरेलू जानवर पालते थे, अग्नि से परिचित थे एवं कपास या ऊन कातते थे। रायगढ़ जिले में कबरा पहाड़, सिंघनपुर में अंकित शैल चित्र इसके अनुपम उदाहरण हैं, जो भारतीय चित्रकला की प्राचीनतम् उपलब्धियाँ हैं। कबरापहाड़ में लाल (गेरूआ) रंग से छिपकली, मानव समूहों का चित्रण किया गया है। सिंघनपुर में मानव आकृतियाँ सीधी, डंडे के आकार की तथा सीढी के आकार में अंकित की गई हैं। यहां मनुष्य को आखेट करते हुए दिखाया गया है। हाल ही में महाकोशल इतिहास परिषद द्वारा राजनांदगांव के चितवाडोंगरी तथा रायगढ़ के बसनाझार, ओंगना, कर्मागढ़ तथा लेखामाड़ा में शैल चित्र के अवशेष प्राप्त हुए हैं। चितवाडोंगरी में मानव एवं पशु आकृति चित्रित है। इसका विस्तृत विवरण पर्यटन अध्याय में किया गया है। श्री भगवान सिंह बघेल एवं डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र ने सर्वप्रथम इन चित्रों को उजागर किया था। प्रो. जे. आर. कांबले एवं डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र ने सर्वप्रथम इसका व्यापार सर्वेक्षण किया था। इन चित्रों को देखने से चित्रकला के आरंभिक अवस्था का पता चलता है। इन्हें रंगों की जानकारी थी और ये इनके तात्कालिक जीवन स्वरूप को प्रतिबिम्बित करते हैं। इन चित्रों के साथ अनेक सांकेतिक चिन्ह यथा हाथ के पंजों के निशान,गोल या चौकोर अथवा अन्य चिन्ह मिलते हैं, जो सम्भवतः विशेष अर्थों के लिये प्रयुक्त होते रहे होंगे।
ऐतिहासिक काल की चित्रकला-

     रामगढ़, जिला अंबिकापुर को लोग विश्व की प्राचीनतम् नाट्य शाला के लिए जानते हैं, जिसे सन् 1848 में कर्नल आउस्ले ने प्रकाश में लाया था, किंतु यहां उपलब्ध दुर्लभ भित्ति चित्रों के संबंध में बहुत कम प्रकाश पड़ सका है। रामगढ़ पहाड़ी के जोगीमारा गुफा, जो कि सम्भवतः नृत्यांगनाओं का विश्राम स्थल था, में ये चित्र सुरक्षित हैं। ये भित्ति चित्र अजंता और बाघ के विश्व प्रसिद्ध भित्ति चित्रों से भी अधिक पुराने हैं। चित्रों की रेखाएं एवं रंग घूमिल हो जाने से उन्हें उचित प्रतिष्ठा एवं महत्व प्राप्त नहीं हो सका है। ये चित्र आज भी विद्यमान हैं। कैप्टन टी. लाश ने सन् 1904 में इन चित्रों का अवलोकन कर इन्हें दो हजार साल से भी अधिक पुराना एवं संमवतः भारत के प्राचीनतम् मित्ति चित्रों का प्रमाण माना है। लेखक आर. ए. अग्रवाल ने भारतीय चित्रकला का विकास में इन्हें ईसा पूर्व 300 में निर्मित बताया है। प्राचीनता के प्रमाण स्वरूप इनमें चैत्य, गवाक्ष आकृतियां, दो पहियों वाली तथा तीन या चार घोड़ों द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी और चालक (सारथी) एवं प्राचीन मानव चित्रित हैं। एक चित्र में खजूर के समान दिख रहे वृक्ष के नीचे विश्राम करता मानव है। सामने का हिस्सा दो भागों में बंटा है, जिसके एक भाग में नर्तकी अपने वाद्यवृंद के साथ चित्रित हैं तथा दूसरे भाग में हाथी के साथ लोगों का जुलूस है। ये चित्र सफेद पृष्ठ भूमि पर सिंदूरी जैसे रंग (Red on white base) से बनाये गये हैं। मानव, हाथी और वृक्ष के लिए समान रंग प्रयोग में लाया गया है, जबकि रेखांकन काले रंग से किया गया है। आंख के स्थान सफेद छोडे गये हैं जबकि बाल काले रंग से बने हैं और कहीं-कहीं बाल को बायीं ओर जूड़ा बंधा दिखाया गया है। वस्त्राभरण सफेद रंग के लाल रेखांकन से प्रदर्शित है। विभिन्न दृश्यों से अर्द्धवृत्त में लाल रेखाओं से विभक्त अस्पष्ट दृश्य हैं। इन भित्ति चित्रों को दीवारों पर उत्कीर्ण करने के पूर्व संभवतः उन पर गाढे-चिकने पदार्थ का लेप कर चिकना किया गया एवं सतह गीली रहने के दौरान ही चित्र उकेरे गये हैं।
      सीताबेंगरा की गुफा की छत को लाल रेखाओं से पांच खण्डों में विभक्त कर अलग-अलग विषय के चित्र उकेरे गये हैं।
      रामगढ़ की इस पहाड़ी में पाली से उत्कीर्ण है-सुतनुका व कायदक्ष की गाथा। विश्व में भारतीय कला को प्रतिष्ठा दिलाने वाले कला मर्मज्ञ आनंद कुमार स्वामी ने इन चित्रों की कलात्मकता और प्राचीनता को स्वीकृति देते हुए इन्हें प्रतिष्ठित किया है।