मुख्यपृष्ठ > विषय > सामान्य ज्ञान

मंदिर वास्तु



मंदिर वास्तु

भारत में मंदिर के रूप में वास्तुकला का एक उत्कृष्ट स्वरूप प्राप्त होता है। साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से मंदिर वास्तु की प्राचीनता तृतीय-द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व तक ज्ञात है। पुरातात्विक उत्खननों तथा प्राचीन स्तूपों में प्राप्त अकन से मदिर वास्तु के प्रारंभिक स्वरूप की जानकारी मिलती है, किंतु मंदिर वास्तु का स्वतंत्र विकास चौथी शताब्दी ईसवी अर्थात् गुप्त काल में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। भारतीय इतिहास के इस काल में समतल छतों से आच्छादित गर्भगृह तथा उसके सम्मुख स्तंभों पर आधारित मंडपों का निर्माण किया जाता था। कालांतर में मंदिरों की तीन प्रमुख शैलियां विकसित हुई, जो नागर शैली-उत्तर भारत में हिमालय से विध्य तक. द्रविड शैली- -कृष्णा नदी के दक्षिण में एवं बेसर शैली (मिश्रित शैली)-विध्याचल एवं कृष्णा के मध्य । इन तीन प्रमुख शैलियों के अनेक आंचलिक उपभेद प्राप्त होते हैं। छत्तीसगढ़ क्षेत्रीय विभाग की दृष्टि से बेसर शैली के अंतर्गत आता है। इस क्षेत्र में एक विशिष्ट मंदिर स्थापत्य शैली का विवरण कुछ प्राचीन ग्रंथों में मिला है, जिससे यहां प्रचलित कोसली मंदिर स्थापत्य शैली की जानकारी मिलती है।
छत्तीसगढ़ का प्राचीनतम् मंदिर- छत्तीसगढ़ में मंदिर वास्तु का प्रारंभ लगभग पांचवीं शताब्दी में हो गया था। इस समय यहां शरभपुरीय वंश का शासन था। अब तक के ज्ञात प्राचीन मंदिरों में अंचल का प्राचीनतम् मंदिर बिलासपुर जिले में बिलासपुर से लगभग 30 कि.मी. दक्षिण की ओर मनियारी नदी के तट पर ताला ग्राम के निकट स्थित है, जिसे देवरानी एवं जेठानी मंदिर के नाम से जाना जाता है।

इस मंदिर में पाषाण के प्रयोग में इतनी परिपक्वता दिखाई देती है कि इसे इस काल की कला का अनुपम उदाहरण कहा जा सकता है। इसके संबंध में विस्तृत विवरण स्थल परिचय नामक अध्याय में दिया गया है। इसमें गुप्त कालीन कला का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसी काल के एक मंदिर का प्रवेश द्वार अड़भार से भी प्राप्त हुआ है। वास्तुगत विशेषताओं के आधार पर छत्तीसगढ़ में मंदिर स्थापत्य को निम्नानुसार तीन कालो में विभाजित किया जा सकता है
(1) इंटों के मंदिर का काल (6वीं से 9वीं शताब्दी)
(2) पाषाण निर्मित कलचुरि कालीन अथवा मध्यकालीन मंदिर वास्तु
(3) कलचुरि काल के पश्चात् मंदिर वास्तु

इंटों के मंदिर का काल (6वीं से 9वीं शताब्दी)-छत्तीसगढ़ अंचल में छठवीं शताब्दी से लेकर लगभग नवीं शताब्दी तक ईंटों के मंदिरों के निर्माण की एक श्रृंखला दिखाई पड़ती है। इस काल में सिरपुर में सोमवंशी तथा बस्तर- कोरापुट में नलवशियों का शासन था।

इस काल के अंतर्गत सिरपुर के लक्ष्मण एवं राम मंदिर, खरौद का शवरी मंदिर तथा इन्दल देवल. पुजारीपाली का केवटीन मंदिर, पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर तथा धोबिनी का चितावरी मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं। राजिम का राजीवलोचन मदिर भी मूलतः ईंटों से निर्मित है। बस्तर जिले के केशकाल के निकट गढ़ धनोरा नामक स्थान से ईंटों के मंदिरो की एक श्रृंखला प्राप्त हुई है। इसी काल के अपवाद स्वरूप पाषाण निर्मित मल्हार का देउर मंदिर है, जो ताला के मंदिर की कला शैली के अनुकरण में निर्मित प्रतीत होता है। इसके पश्चात ईंटों के मंदिर की निर्माण परम्परा समाप्त प्रायः हो गई। अपवाद रूप में भोरमदेव के मंदिर के निकट एक ईंटों का मंदिर परवर्तीकाल का मिलता है। ईंटों के मंदिरों के भू-विन्यास में गर्भगृह, अन्तराल एवं स्तंभों पर आधारित मंडप सामान्य रूप से मिलते हैं। इसमें अधिकांश मंदिरों के मंडप नष्ट हो गये है। उर्ध्वाधर विन्यास की दृष्टि से मंदिर का निर्माण एक जगती पर किया गया है। इसके पश्चात् अधिष्ठान, जंघा एवं शिखर वास्तु के मुख्य अंग के रूप में मिलते हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार, स्तंभ एवं चबूतरे के लिए ही प्रस्तर का प्रयोग किया गया है। शेष निर्माण कार्य ईंटों से किया गया है।
सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर-

छत्तीसगढ़ के ईंटों के मदिर में सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, भारतीय स्थापत्य कला की एक अनुपम कृति मानी जाती है। उसमें ईंटों को तराशकर मंदिर की बाह्य भित्तियों में विविध अलंकरण अभिप्राय यथा कूट वातायान (नकली खिड़किया). चैत्य, कीर्तिमुख आदि का अंकन किया गया है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार गुप्तोत्तर कला का सुन्दर उदाहरण हैं। इसमें विष्णु के विभिन्न अवतारों तथा कृष्ण लीला का अंकन है। इसके ललाट-बिम्ब में अनन्तशेषथायी विष्णु का अंकन इसे निर्विवाद रूप से विष्णु का मंदिर सिद्ध करता है। सिरपुर से प्राप्त एक अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि सोमवंश के राजा महाशिवगुप्त वालार्जुन की माता वासटादेवी द्वारा निर्मित यह मंदिर श्री हरि (विष्णु) का है। सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर शिखरवास्तु के निर्माण की दृष्टि से संक्रमण काल का माना गया है। गुप्त कालीन समतल छतों के मंदिरों तथा मध्ययुगीन उन्नत शिखर युक्त मंदिरों के बीच अर्घ विकसित शिखर वाले मंदिर का यह अत्यंत महत्वपूर्ण उदाहरण है। इसका निर्माण छठवीं शताब्दी के अंत में (595 ई. के बाद) हुआ था।

ईंटों के मंदिर की परम्परा समाप्त होने के पश्चात मंदिर निर्माण की दृष्टि से एक अन्तराल दिखाई पड़ता है। वस्तुतः सोमवंशीय शासकों के पतन के उपरांत और कलचुरि सत्ता की स्थापना तक इस क्षेत्र में किसी शक्तिशाली राजवंश की सत्ता नहीं थी। इसका प्रभाव साहित्य, संस्कृति के साथ-साथ कला में भी पड़ा।

पाषाण निर्मित कलचुरि कालीन अथवा मध्यकालीन मंदिर वास्तु- छत्तीसगढ़ कलचुरियों के शासन काल में पाषाण निर्मित मंदिरों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। कलचुरियों के समकालीन छत्तीसगढ़ क्षेत्र में राज्य करने वाले प्रमुख अन्य राजवंश कवर्धा के फणीनागवंश, चक्रकोट (बस्तर) के नांगवंश तथा कांकेर के सोमवंश थे। कलचुरियों की प्रारंभिक राजधानी तुम्माण (1000 से 1045 ई. तक) थी और कालांतर में रत्नपुर (1045 ई. के बाद) स्थानांतरित हो गई। छत्तीसगढ़ का अधिकांश भू–भाग कलचुरियों के प्रभुत्व में था। इस काल के अभिलेखों से अनेक मंदिरों के निर्माण का विवरण मिलता है। कलचुरिकालीन मंदिर-स्थापत्य रायपुर जिले के राजिम, नारायणपुर, आरंग, खल्लारी; विलासपुर जिले के तुम्माण, रतनपुर, मल्हार, सारागांव, जाँजगीर जिले के शिवरीनारायण, किरारीगोड़ी, जाजगीर; कोरवा जिले के पाली; दुर्ग जिले के देव बलौदा, देवरबीजा, कवर्धा जिले के गंडई, बिरखा व घटियारी में मिलते हैं।

कवर्धा के फणी नागवंशीय राजाओं से संबंधित भोरमदेव का प्रसिद्ध. मंदिर है, जिसका निर्माण 1089 ई. में इस वंश के 6वें राजा गोपालदेव द्वारा किया गया था

भोरमदेव का प्रसिद्ध. मंदिर

यह खजुराहो के चंदेल शैली (नागर शैली) के निकट है एवं खजुराहो के मंदिरों से प्रेरित प्रतीत होता है। इसी वंश के 24वें राजा रामचंद्र द्वारा 1349 ई. में निर्मित मड़वामहल, जिसे दुल्हादेव भी कहा जाता है, उल्लेखनीय है। इनका विस्तृत विवरण स्थल परिचय' नामक अध्याय में किया गया है।

चक्रकोट के नागवंशीय राजाओं द्वारा निर्मित मंदिरों में वारसुर के शिवमंदिर, मामा-भांजा मंदिर, गणेश मंदिर; काकतीयों द्वारा निर्मित दन्तेवाड़ा का दन्तेश्वरी अथवा मणिक्येश्वरी देवी मंदिर, नारायणपाल का विष्णु मंदिर तथा भैरमगढ के मंदिर उल्लेखनीय हैं।
कांकेर के सोमवंशीय शासकों के मंदिर धमतरी जिले के सिहावा तथा कांकेर में स्थित हैं। सरगुजा जिले में त्रिपुरी के कलचुरियों की एक शाखा का राज्य था। इस जिले के डीपाडीह, महेशपुर, सतमहला आदि स्थलों में प्राचीन मंदिर स्थित हैं।

इस काल के मंदिरों की सामान्य विशेषता वर्गाकार गर्भगृह है, जो बाह्यभित्ति में प्रोन्नत दीवारों के कारण, पंच अथवा सप्तरथ शैली में हैं। इस प्रकार कुछ मंदिरों की भू-योजना बाह्य दिशा से अष्टकोणिक हो जाती है। गर्भगृह के प्रवेशद्वार अत्यंत अलंकृत तथा अनेक शाखों से निर्मित हैं। इसमें सामान्यतः दोनों पार्यो में गंगा-यमुना तथा पुष्पलता वल्लरियों एवं पूर्ण कुंभ आदि का अलंकरण मिलता है। ऊपरी ललाट बिम्ब पर ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव का अंकन मिलता है। जिस देवता को मदिर समर्पित किया जाता था, उसकी प्रतिमा मध्य में स्थापित की जाती थी। गर्भगृह तथा मंडप के बीच अंतराल का निर्माण किया जाता था। क्षेत्र के प्राप्त मंदिरों में अधिकांशतः मंडप भग्न हो चुके हैं। केवल भोरमदेव, देव बलौदा और राजिम के मंदिरों के मंडप सुरक्षित हैं। इस काल के मंदिर एक शिखर अथवा बहुशिखर युक्त हैं। जाजगीर के विष्णु मंदिर का शिखर नहीं है।

दुर्लभ सूर्य मंदिर- देश के अन्य क्षेत्रों में स्थित गिनती के सूर्य मंदिरों यथा कोणार्क; राजस्थान के बर्मान और ओसियां; गुजरात का मोढेरा; कश्मीर का मार्तन्ड; दक्षिण का त्रिकुट; खजुराहो का चित्रगुप्त मंदिर आदि की कड़ी में छत्तीसगढ़ भी सम्मिलित है. यह अत्यंत कम लोगों को ज्ञात है। छत्तीसगढ़ में सरगुजा जिले के डीपाडीह तथा रायपुर जिले के नारायणपुर में सूर्य-आदित्य के मंदिर विद्यमान हैं। बिलासपुर जिले के मल्हार से प्राप्त समान आकार की विविध सूर्य प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिससे वहां द्वादश आदित्य मंदिर होने की संभावना दिखाई देती है।

रेवन्त (सूर्यपुत्र) का अद्वितीय मंदिर- अकलतरा के शिलालेख में एक अत्यंत दुर्लभ उल्लेख प्राप्त होता है, जो पूरे भारतीय स्थापत्य में अद्वितीय है-वह है रेवन्त का मंदिर रेवन्त के एकमात्र मंदिर के निर्माण का विवरण इस शिलालेख में मिलता है. जिसमें रेवन्त को सप्ताश्रव् अथवा सूर्य का पुत्र कहा गया है। मंदिर निर्माता के रूप में कलचुरि शासकों के सामंत हरिगण के पुत्र वल्लभराज का नाम मिलता है। शिलालेख में उल्लिखित इस रेवन्त मंदिर का मूल स्थान संभवतः कोटगढ़ अथवा महमंदपुर में रहा होगा। मंदिर के प्रवेश द्वार. शिखर एवं अन्य स्थापत्य खण्डों के साथ कोटगढ़ के द्वार पर देव-कोष्ठ में स्थापित सूर्य की प्रतिमा एकमात्र ज्ञात रेवन्त मंदिर का मुख्य अवशेष है।

कलचुरि और इनके समकालीन राजवंशों द्वारा निर्मित मंदिरों में पाली, जांजगीर. रतनपुर, भोरमदेव, आरंग तथा बाणसुर (बारसुर) के मंदिर कला और स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं। ये मंदिर मध्यकालीन भारतीय वास्तुकला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

कलचुरि काल के पश्चात् यहां मंदिर वास्तु में हास दिखाई पड़ता है। यह स्थिति सिर्फ छत्तीसगढ़ की ही नहीं है बल्कि 13वीं-14वीं शताब्दी के पश्चात् संपूर्ण उत्तर भारत में कलात्मक मंदिर वास्तु के यही लक्षण देखने को मिलते हैं, फिर भी परवर्ती कलचुरि एवं मराठा काल में मंदिर निर्माण की परंपरा जारी रही। इस काल के अनेक मंदिर छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थलों में विद्यमान हैं।

मराठा काल में भी इस क्षेत्र में निर्माण कार्य हुये, किंतु औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त मराठे स्थापत्य को समुचित संरक्षणं न दे सके. फिर भी छत्तीसगढ़ के प्रथम मराठा शासक बिंबाजी (1758-87 ई.) द्वारा निर्मित रतनपुर का रामटेकरी (राम मंदिर)

तथा इन्हीं के काल में इनके सहयोग से निर्मित रायपुर का दूधाधारी मठ विद्यमान है जो इस काल की मंदिर कला को प्रदर्शित करते हैं।

इस प्रकार छत्तीसगढ़ क्षेत्र में मंदिरों के प्रादुर्भाव तथा विकास का क्रम उत्तर भारत के मंदिरों के साथ-साथ हुआ। वस्तुतः यहां के मंदिर किसी क्षेत्र विशेष के मंदिरों के अनुकरण में निर्मित नहीं किये गये हैं, बल्कि इनकी अपनी कुछ वास्तुगत विशेषताएं भी हैं। वास्तु कला की दृष्टि से भारतीय मंदिर स्थापत्य के इतिहास में छत्तीसगढ़ के मंदिरों का अपना विशिष्ट स्थान है, इसमें कोई दो मत नहीं है।