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विविध स्मारक



विविध स्मारक

छत्तीसगढ़ में प्राचीन स्मारकों यथा महल, किले. विहार, स्तूप, गुहाएं आदि के अवशेष अपेक्षाकृत कम प्राप्त होते हैं। इन स्मारकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रामगढ़ स्थित प्राचीन नाट्य शाला है, जो सीताबेंगरा के नाम से जाना जाता है। इसी के निकट जोगीमारा गुफा है, जो संभवतः देवदासी सुतनुका एवं नाट्य शाला की नृत्यांगनाओं का विश्राम स्थल था। विद्वानों ने इन्हें ई.पूर्व तृतीय-द्वितीय शताब्दी का स्वीकार किया है। यहां पाली भाषा का मौर्य कालीन लेख भी प्राप्त हुआ है साथ ही इसी काल के भित्ति चित्र भी प्राप्त हुए हैं, जो संभवतः भारत के सर्वाधिक प्राचीन उपलब्ध चित्रांकन हैं, जो विद्वानों के अनुसार तृतीय शताब्दी ई.पू. के हैं।
दूसरा महत्वपूर्ण स्मारक सिरपुर में बौद्ध धर्म से संबंधित है। यहां दो विहार प्राप्त हुये हैं। इनमें से एक अपनी भू-योजना के कारण स्वस्तिक विहार' कहा जाता है। दूसरा विहार जहां आनंद प्रभु नामक बौद्ध भिक्षु से संबंधित शिलालेख प्राप्त हुआ है. आनंद प्रभु कुटी विहार' के नाम से जाना जाता है। ये दोनों ईंटों निर्मित हैं, जिनमें भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं भी स्थित हैं, जो पाषाण निर्मित हैं।

इसके अलावा मध्यकालीन स्मारकों के अवशेष रतनपुर एवं भोरमदेव के निकट हरमो नामक ग्राम से प्राप्त हुए है। जो क्रमशः कलचुरियों एवं उनके सामंत कवर्धा के नागवंशियों के हैं।

बस्तर के मोंगापाल में बौद्ध स्तूप (बुद्ध प्रतिमा भी) के अवशेष प्राप्त हुए हैं, यह अत्यंत महत्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य है, जो अरण्यांचल में बौद्ध धर्म के विस्तार का साक्षी है। यहां के कोंडागांव एवं नारायणपुर अनुविभाग के मध्य 1978 में पुरातात्विक सर्वेक्षण के दौरान भोंगापाल, बंडापाल, मिश्री एवं बड़गई ग्रामों के मध्य बियावान वन में ध्वंस टीले से गौतम बुद्ध एवं सप्तमातृकाओं की प्रतिमा प्राप्त हुई है। 1990-91 में इन टीलों की मलवा सफाई का कार्य राज्य शासन के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के उपसंचालक के निर्देशन में किया गया। अनुमानतः यह ध्वंस ईट निर्मित स्थल मौर्य युगीन है। अवस्थित सप्तमातृका की प्रतिमा मध्यकुषाण कालीन तथा गौतम बुद्ध की प्रतिमा गुप्तकालीन है। भोंगापाल का चैत्य मंदिर संपूर्ण म. प्र. एवं छत्तीसगढ़ में प्राप्त ईंट निर्मित यह एकमात्र विशाल चैत्य मंदिर है। अनुमानतः बौद्ध धर्म से संबंधित यह स्थल दक्षिण कोसल से महाकांतर तथा अन्य दक्षिणी राज्यों को जोड़ने वाले मार्ग पर अवस्थित रहा हो। संभवतः यह वही राजमार्ग हो सकता है, जिसका उपयोग गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने चौथी सदी ई. में दक्षिणापथ अभियान के समय किया था।
     इसके अलावा इस क्षेत्र से अनेक मिट्टी के निर्मित प्राचीन दुर्गों के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनके चारों ओर गहरी खाई होती थी। छत्तीसगढ़ में ऐसे दुर्गों की एक लंबी श्रृंखला है। इन दुर्गो में अकलतरा के निकट स्थित कोटगढ़ उल्लेखनीय है। इसी प्रकार दुर्ग शहर के निकट एवं रायपुर की पुरानी बस्ती में किले के अवशेष प्राप्त हुये हैं। परवर्ती काल के भी अनेक दुर्गों के अवशेष वर्तमान में उपलब्ध हैं, जिसमें कोसगई. रतनपुर, तुम्मान, धमधा, भैरमगढ़, रायपुर, मारो, पाटन आदि उल्लेखनीय है। पुरातात्विक सामग्रियां-समय-समय पर उत्खनन अथवा अन्य माध्यमों से छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थलों से उपभोग की अनेक वस्तुयें भी प्राप्त हुई हैं, जिससे यहां के प्राचीन सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति का पता चलता है। इन अवशेषों में मृण्मूर्तियां, खिलौने, मिट्टी एवं धातु के बर्तन एवं धातु की अन्य सामग्रियां प्राप्त हुई हैं। सिरपुर से उत्खनन पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण मृण्मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें बुद्ध धर्म प्रवचन की मुद्रा में पद्मासन बैठे हुये हैं। यहीं से तत्कालीन लोक जीवन एवं उद्योग धंधों पर प्रकाश डालने वाली विविध सामग्रियां प्राप्त हुई हैं. जिनमें सुनार, लुहार एवं मछुआरों के प्रयोग की वस्तुएं हैं। इन वस्तुओं में हथौडी, तिपाही, संडसी, चिमटी, कैची, फूंकनी, तवा, कढ़ाई, झारी, चमचा, करछुल, चाकू, हसिया, ताले एवं तराजू आदि उल्लेखनीय हैं।
     इस प्रकार छत्तीसगढ़ न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में पुरातत्व के विभिन्न क्षेत्र यथा-कला, स्थापत्य, मुद्राशास्त्र, अभिलेख, भित्ति चित्रकारी आदि की दृष्टि से विशिष्ट स्थान रखता है।