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छत्तीसगढ़ के प्रमुख प्राचीन कला केन्द्र



छत्तीसगढ़ के प्रमुख प्राचीन कला केन्द्र

प्राचीनकाल में छत्तीसगढ़ में सिरपुर, मल्हार, रतनपुर तथा राजिम कला के प्रमुख केन्द्र थे। इसी श्रृंखला में भोरमदेव की कला भी है। रतनपुर कलचुरि कला का केन्द्र था तो सिरपुर में सोमवंशी नरेशों की देख-रेख में कला फलती-फूलती रही। मल्लार में कलचुरि और सोमवंशी कलाएं एक साथ विकसित होती रहीं। राजिम में सोमवंश. नलवंश और कलचुरि वंश से संबंधित कलाए विकसित होती रहीं। भोरमदेव में नागवंशी और कलचुरि कलाओं का मिश्रित रूप दिखाई पड़ता है। सोमवंशियों के शासनकाल में मल्लार राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था। सिरपुर सोमवंशी शासकों की राजधानी रही है। इसके कारण मल्लार और सिरपुर की मूर्तिकला में शैली एवं अभिव्यक्ति की दृष्टि से समानता रही है। राजिम का शिल्प सिरपुर के स्थापत्य शैली और मूर्ति शिल्प से प्रभावित प्रतीत होती है। भोरमदेव की कला कलचुरियों से प्रभावित जान पड़ती है. क्योंकि कवर्धा के शासक कलचुरियों के माण्डलिक थे। अतः स्पष्टतः भोरमदेव की कला कलचुरियों की विशेषताओं को आत्मसात् करती रही। वस्तुतः भोरमदेव के मंदिर का स्थापत्य चंदेलों की खजुराहो-शैली के अधिक निकट है। यह मंदिर मध्य युगीन मंदिरों की विशेषताओं के अनुरूप है।
सिरपुर की कला की विशेषता यह थी कि उनकी अधिकांश मूर्तियाँ हल्के लाल भूरे रंग की बलुआ पत्थर से बनी हैं तथा मूर्तियों की आकृति गोल, अंडाकार है जो गुप्तकालीन कला-शैली से प्रभावित जान पड़ती है। मूर्तियों की यही विशेषता मल्लार और राजिम में भी देखने को मिलती है। सोमवंशी मूर्तियों के मुखमण्डल गोलाई लिये हुये हैं जबकि कलचुरि कालीन मूर्तियाँ कुछ लंबी और अण्डाकार होती है। जिस प्रकार सिरपुर की कला सोमवंशियों द्वारा मुखरित हुई है, उसी प्रकार रतनपुर की कला की वृद्धि कलचुरियों ने की।