विश्व के अद्वितीय उत्पीड़ितांक अथवा ठप्पांकित मुद्राएं
छत्तीसगढ़ व इसके सीमावर्ती क्षेत्र से मिलने वाले ठप्पाकित या उभारदार सिक्के प्राप्त हुए हैं जो सम्पूर्ण विश्व के मुद्राशास्त्री इतिहास में अद्वितीय हैं। गुप्त और गुप्तोत्तर काल में छत्तीसगढ़ में विभिन्न राजवंशों का राज्य रहा है। इस काल में एक विशिष्ट शैली के सिक्कों का प्रचलन इस क्षेत्र में हुआ था। मुद्राशास्त्री डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम जिन्होंने इन उभारदार सिक्कों पर गहन शोध किया है, के अनुसार ये लगभग छठी सदी के हैं। इन सिक्कों की प्राप्ति रायपुर जिले के खैरताल, पितई गांव, रीवा (आरंग के समीप), महासमुंद जिले के महासमुंद, सिरपुर, बस्तर के एडेंगा, दुर्ग के कुलिया, रायगढ़ के साल्हेपाली, बिलासपुर के मल्हार, ताला, नंदौर और जाँजगीर के तलवा से मिले हैं। छत्तीसगढ़ की सीमाओं पर उड़ीसा के बहरामपुर, नहना, मारागुड़ा, मदनपुर-रामपुर, महाराष्ट्र के मण्डारा, झारखण्ड के शाहाबाद एवं अन्य स्थलों में प्राप्त हुए हैं। ये सिक्के उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। इन सिक्कों में महेन्द्रादित्य (कुमारगुप्त) के 215, क्रमादित्य (स्कंदगुप्त) के 4 तथा प्रसन्नमात्र के 127 (शरभपुरीय), वराहराज के 29, भवदत्त के 3, नन्दनराज के 1, स्तंभ के 1 (सभी नलवंशीय) सिक्के प्राप्त हुये हैं। इनमें संख्या की दृष्टि से जांजगीर-चांपा जिले के बाराद्वार के निकट तलवा ग्राम से प्राप्त 81 से भी अधिक स्वर्ण सिक्के अंचल के प्राचीन इतिहास से संबद्ध महत्वपूर्ण घटना है।
लगभग एक-डेढ़ ग्राम वजन के ये सिक्के पतले सोने के चादर के बने हैं जिसमें पीछे से ठप्पा लगाया जाता था, जिससे सामने की ओर उभार उत्पन्न हो जाता था। इन सिक्कों को उभारदार सिक्के अथवा उत्पीडितांक मुद्राएं कहा जाता है। मुद्राशास्त्री इसके लिये “Repousse Coins" शब्दों का प्रयोग करते हैं। ये सिक्के बीच में एक आड़ी रेखा द्वारा दो भागों में विभाजित हैं। ऊपरी भाग में गरुड़ अथवा नन्दी का अंकन मिलता है, जबकि नीचे भाग में राजा का नाम, पेटिकाशीर्ष ब्राह्मी लिपि में मिलता है। गरुड़ चिन्ह युक्त सिक्के महेन्द्रादित्य, क्रमादित्य एवं प्रसन्नमात्र नामक राजाओं के मिले हैं। इसमें से प्रसन्नमात्र शरभपुरीय वंश का प्रसिद्ध राजा है। महेन्द्रादित्य एवं क्रमादित्य के अभिज्ञान के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान इन्हें स्थानीय राजा स्वीकार करते हैं, जबकि ये क्रमशः गुप्तवंश के कुमारगुप्त प्रथम एवं स्कंदगुप्त प्रतीत होते हैं।
चांदी व तांबे के ठप्पांकित सिक्के- इस शैली के नन्दी प्रकार की मुद्राएं. बस्तर के नल वंश के राजाओं यथा-वराहराज, भवदत्त, अर्थपति, नन्दराज एवं स्तंभ द्वारा प्रचलित की गई हैं। प्रसन्नमात्र का इस शैली का एक चांदी का सिक्का ताला से तथा ताम्बे का सिक्का मल्हार से मिला है। शेष सभी सिक्के सोने के हैं। ये सिक्के चूंकि अधिकतर छत्तीसगढ़ एवं इससे लगे क्षेत्रों में प्राप्त हुए हैं अतः ऐसा प्रतीत होता है ये यहीं ढाले गये हैं भले ही इसमें गुप्तवंशी राजाओं के नाम मिलते हैं। संभवतः हो सकता है समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करने के पश्चात् दक्षिण कोसल लंबे समय तक गुप्तों का करद बना रहा हो और यहां के तत्कालीन शासक गुप्तों की अधीनता एवं उनके प्रति सम्मान प्रकट करने हेतु सिक्कों में उनके नाम डालते रहे हों। वास्तविकता जो भी हो एक महत्वपूर्ण विचारणीय तथ्य यह है कि सिक्के छत्तीसगढ़ में ही प्राप्त हुये हैं और ये अत्यंत दुर्लभ एवं निश्चित समयावधि के हैं। अतः इन्हें यहां की मौलिक और असमानान्तर कृति माना जा सकता है।
सोमवंशी सिक्के- शरभपुरीय एवं नल वंश के पश्चात् छठी शताब्दी में छत्तीसगढ़ में पाण्डुवंशियों का शासन स्थापित हुआ, जिनकी राजधानी सिरपुर थी। इस वंश से संबंधित पुरातात्विक सामग्री प्रचुर मात्रा में मिली है, किंतु इससे संबंधित मुद्राओं का अभाव है। बालपुर से 'केशरी' लेखयुक्त एक स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई है। स्व. पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय का कथन है कि यह महाशिवगुप्त बालार्जुन के भाई की मुद्रा प्रतीत होती है, किंतु इस संबंध में निश्चित निष्कर्ष निकाला जाना कठिन है।
इसके पश्चात् कलचुरि वंश की स्थापना तक इस क्षेत्र की मुद्राओं के विषय में कोई महत्वपूर्ण जानकारी नहीं मिलती. किंतु अन्य क्षेत्र के कुछ राजाओ एवं विदेशी सिक्के अवश्य मिले हैं, जिसमें बस्तर से 'आदिवराह' की चांदी की मुद्राएं प्राप्त हुई हैं, जिसे नल वंशीय वराहराज से समीकृत नहीं किया जा सकता। यह संभवतः कन्नौज के प्रतिहार मिहिरभोज (836-889 ई.) से संबंधित हो सकता है।
मध्यकालीन अथवा कलचुरि कालीन सिक्के– मध्यकाल में छत्तीसगढ़ के प्रमुख राजवंश कलचुरि एवं इनके समकालीन बस्तर के नागवंशी राजाओं द्वारा जारी सिक्के प्राप्त होते हैं, जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है-
कलचुरि सिक्के- इस वंश में सर्वप्रथम सिक्के प्रचलित करने का श्रेय, महिष्मती शाखा के कृष्णराज को जाता है, किन्तु इसके आधिपत्य में छत्तीसगढ़ का भू–भाग नहीं था, अतः इसके सिक्के यहां से प्राप्त नहीं हुए हैं। इसके पश्चात् त्रिपुरी शाखा के गांगेयदेव ने स्वर्ण, रजत एवं ताम्र मुद्राएं प्रचलित कराई। छत्तीसगढ़ का क्षेत्र इसकी अधिसत्ता के अंतर्गत आता था। इसके सिक्के सोनसारी. गेजी एवं टेंगामाली नामक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इसकी मुद्रा के अग्रभाग में चतुर्मुजी बैठी लक्ष्मी का चित्रण मिलता है तथा पृष्ठभाग में राजा का नाम अंकित है। छत्तीसगढ़ में स्थित कलचुरियों की रतनपुर शाखा ने कालान्तर में त्रिपुरी की अधिसत्ता स्वीकार करना बंद कर दिया और जाजल्लदेव प्रथम ने अपने नाम के सिक्के प्रचलित करना प्रारंभ कर दिया। इसके पश्चात् इस वंश के अन्य शासकों यथा-रत्नदेव द्वितीय, पृथ्वीदेव द्वितीय तथा प्रतापमल्ल ने सिक्के प्रचलन की परंपरा को जारी रखा। जाजल्लदेव प्रथम ने स्वर्ण एवं ताम्र मुद्राएं निर्मित कराई थी, जबकि रत्नदेव द्वितीय एवं पृथ्वीदेव द्वितीय ने स्वर्ण, रजत एवं ताम्र तीनों धातुओं में सिक्के जारी किए। प्रतापमल्ल ने सिर्फ ताम्बे के सिक्के प्रचलित कराये। इन राजाओं की स्वर्ण मुद्राएं दो मूल्यों की थीं। इसके अग्रभाग में हाथी पर आक्रमण करते हुए सिंह का चित्रण मिलता है। पृष्ठभाग में राजा का नाम अंकित किया गया है। चांदी के सिक्के, स्वर्ण मुद्राओं के अनुकरण में बनाये गये थे, किंतु ताम्बे के सिक्के सर्वथा भिन्न हैं। इसमें उड़ते हुए अथवा राक्षस पर आक्रमण करते हुए हनुमान का अथवा सिंह या कटार का चित्रण मिलता है। पृष्ठभाग में राजा का नाम अंकित है।
उड़ीसा के सोनपुर क्षेत्र में इसी समय 11वीं शताब्दी में तेलुगु-चोड़ गंग वंश का राज्य था। इस वंश की रतनपुर के कलचुरियों से शत्रुता थी, अतः दोनों वंशों में संघर्ष होता रहता था। रायपुर से अनन्तवर्मन चोड़गंग की 32 स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुई हैं, जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती है।
नागवंशी सिक्के - कलचुरियों के समकालीन बस्तर में राज्य करने वाले नागवंश के एक राजा सोमेश्वर की मुद्राभाण्ड से प्राप्त हुई है, जिसके अग्रभाग में दहाड़ता हुआ सिंह, कटार तथा सूर्य-चंद्र का अंकन मिलता है। पृष्ठभाग में राजा का नाम है।
अन्य सिक्के- उपरोक्त राजवंशों के अतिरिक्त प्राप्त सिक्कों में छत्तीसगढ़ अंचल से देवगिरि के यादव वंश के सिंघण एवं रामचन्द्र के भी सोने के सिक्के प्राप्त हुए है। वस्तुतः प्रतापमल्ल के पश्चात् इस क्षेत्र में नियमित मुद्रा का प्रचलन कम हो गया था. फिर भी यदा-कदा कुछ मुद्राएं अवश्य मिलती हैं। इसमें से बालपुर से विक्रमसाय नामक एक राजा की मुद्रा के विषय में जानकारी मिली है, किंतु इसका विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त रायपुर जिले के सोन्ड्रा ग्राम से महाराज श्री सतीमदेव की एक स्वर्ण मुदा भी प्राप्त हुई है, किंतु इसका समुचित अभिज्ञान नहीं हो सका है।
मराठा और ब्रिटिश कालीन सिक्के- कलचुरियों का शासन समाप्त होने के पश्चात् यह क्षेत्र मराठा और बाद में ब्रिटिश प्रशासन के अधीन हो गया और इस क्षेत्र में उनकी मुद्राएं चलने लगीं। मराठों ने अनेक प्रकार के सिक्कों का प्रचलन किया। यहां चलने वाले प्रमुख सिक्कों में नागपुरी रुपया, जबलपुरी रुपया और रघुजी का रुपया प्रमुख थे। अन्य प्रचलित सिवकों के बारे में 'छत्तीसगढ़ में मराठा प्रशासन' अध्याय में चर्चा की गई है। मराठा सिक्कों मे धातुओं के अनुपात एवं वजन में असमानता होती थी। ब्रिटिश काल में कंपनी का रुपया और कालातर में ब्रिटिश शासन के सिक्के और कागजी नोटों (1860 ई. से) का प्रचलन हुआ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र में कलचुरियों के काल तक एक स्वतंत्र मुद्रा प्रणाली प्रचलित थी। इस क्षेत्र में अनेकानेक राजवंशों द्वारा विभिन्न धातुओं तथा मूल्यों के सिक्के प्रचलित कराये गये। इनमें से कुछ मुद्राओं को मुद्रा-निर्माण कला के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में स्वीकार किया जाता है।
विदेशी सिक्के- सातवाहन काल के बिलासपुर जिले के चकर बेडा से 2 और बिलासपुर से 4 रोम की स्वर्ण मुद्राएं तथा कुषाण राजाओं की मुद्राएं विभिन्न स्थलों से प्राप्त हुई है, ऐसा प्रतीत होता है कि ये सिक्के व्यापारियों अथवा यात्रियों द्वारा इस क्षेत्र में लाए गए थे। सिरपुर में उत्खनन से कई युवान (713-714 ई.) नामक एक चीनी राजा का सिक्का मिला है, जो संभवतः यात्रियों द्वारा लाया गया होगा। दुर्ग जिले के सिरसा ग्राम से ताम्बे के ससेनियन सिक्के प्राप्त हुए हैं।