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सिक्के



सिक्के

यद्यपि सिक्के विनिमय की आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्राचीनकाल से निर्मित किये जाते रहे हैं, तथापि इन मुद्राओं का ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्व है। अपने समय में विनिमय हेतु प्रयुक्त ये मुद्राएं उस समय के आर्थिक, व्यापारिक तथा कलात्मक स्थिति की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। ये अपने काल की समृद्धि के स्तर अथवा संपन्नता या विपन्नता के संकेतक हैं। भारतीय इतिहास लेखन में इन सिक्कों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि यदि इतिहास लेखन मे ये सिक्के प्रयुक्त न हुए होते तो प्राचीन भारतीय इतिहास का क्रमबद्ध स्वरूप निर्धारित करना कठिन होता। इनके महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि 200 ई. पूर्व से 200 ई. तक के उत्तर भारतीय इतिहास का लेखन इन सिक्कों के द्वारा ही संभव हो सका है, जिसे भारतीय इतिहास में अंधकार का युग कहा जाता है। क्रमिक लिखित ऐतिहासिक साहित्य के अभाव में इन सिक्कों के माध्यम से ही राजाओं एवं राजवंशों की राज्यावधि निर्धारित हो सकी है। सिक्के ऐसे पुरातात्विक साक्ष्य हैं, जिनकी ऐतिहासिकता शत-प्रतिशत स्वीकार की जाती है।

    भारत में सर्वप्रथम मुद्राओं की उत्पत्ति कब और किसने की, यह निश्चित रूप से स्थापित नहीं हो सका है। वैदिक काल में गाय को विनिमय के माध्यम के रूप में अपनाया गया था। उत्तरवैदिक काल में 'निष्क' का उल्लेख मिलता है. जो आभूषण होने के साथ विनिमय का माध्यम भी था। इसी काल में शतमान का उल्लेख मिलता है जो संभवतः सौ रत्तियों का धातु का टुकड़ा था। इसमें कोई चिन्ह होता था या नहीं, यह ज्ञात नहीं है।

     ईसा से लगभग आठ सौ वर्ष पूर्व, देश में अनेक छोटे-छोटे राज्य अथवा जनपद थे। इनमें से सोलह जनपद, दूसरों की अपेक्षा बड़े थे, इन्हें षोडषमहाजनपद' कहा जाता था। इनमें से अधिकांश जनपद मगध के उत्कर्ष के कारण, नन्द-मौर्य काल तक मगध-साम्राज्य में विलीन हो गए। ईसा से छ:-सात सौ वर्ष पूर्व इन्ही जनपदों में से कुछ में मुद्राओं की उत्पत्ति हुई। इन मुद्राओं का प्रचलन राजकीय सत्ता द्वारा किया गया अथवा व्यापारिक संस्थाओं द्वारा, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इन सिक्कों में धातु की शुद्धता एवं वजन को प्रदर्शित करने के लिए ठप्पे से कुछ चिन्ह लगा दिए जाते थे। इन सिक्कों को आहत-मुद्रा कहा जाता है। ये सिक्के सामान्यतः चांदी के होते थे। मौर्य काल में सिक्कों का वजन एवं चिन्ह निर्धारित कर दिया गया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि सिक्कों के निर्माण का सम्पूर्ण अधिकार अब राज्य के अधीन हो गया, निगम अथवा श्रेणियां भी सिक्कों का निर्माण राज्य से स्वीकृति पश्चात् करती थीं, जिसके लिये इन्हें राज्य को कर देना होता था।

छत्तीसगढ़ में प्राप्त सिक्के- अंचल के विभिन्न स्थलों से विभिन्न कालों के सिक्के प्राप्त हुए हैं। इनसे पता चलता है कि संबंधित शासक अथवा राजवंश या तो छत्तीसगढ़ में शासन करते थे, या छत्तीसगढ़ उनके राज्य के क्षेत्राधिकार की सीमा में रहा होगा, या ये सिक्के यात्रियों, व्यापारियों द्वारा अथवा बाह्य व्यापारिक संबंधों के कारण यहां पहुंचे होंगे। इनसे छत्तीसगढ़ के राजवंशों, राजाओं की जानकारी के साथ तत्कालीन समय की आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक अथवा परंपरागत विशेषताओं का पता लगता है। क्षेत्र में प्राप्त विभिन्न कालों के सिक्कों का विवरण निम्नानुसार है-
ईसा पूर्व के सिक्के-   रायपुर जिले के तारापुर, आरंग, उड़ेला आदि स्थानों से कुछ आहत मुद्राएं प्राप्त हुई हैं, जिनका वजन 12 रत्ती का है अतः इन्हें प्राक-मौर्य काल का माना जा सकता है, क्योंकि कौटिल्य के अनुसार मौर्य कालीन सिक्कों के वजन 32 रत्ती एवं पांच चिन्ह तय कर दिये गये थे। माप्त सिक्कों में चार चिन्ह-हाथी, बैल, बिन्दुओं के घेरे से युक्त नेत्र तथा हल सहित दो बैलों की जोड़ी अंकित हैं। मौर्यकाल के सिक्के मुख्यतः अकलतरा, ठठारी, वार एवं बिलासपुर से प्राप्त हुए हैं। इससे ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र मौर्य सत्ता के अन्तर्गत आ गया था।

  ईसा के पश्चात् प्राचीन कालीन सिक्के-  मौर्योत्तर काल में सातवाहन वंश के एक राजा अपीलक की मुद्राएं रायगढ़ जिले के बालपुर एवं मल्हार (बिलासपुर) से प्राप्त हुई हैं। इस राजा का नाम सातवाहन राजाओं की पौराणिक सूची मात्र में मिलता है। मल्हार से ही मघ वंश के शिव मघ एवं यमघ के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। सातवाहन सिक्कों के अनुकरण में स्थानीय राजाओं द्वारा ताम्बे के चौकोर सिक्के प्रचलित किए गए थे, जिसके अग्रभाग में हाथी की भद्दी तथा पृष्ठ भाग में नाग अथवा खड़ी हुई स्त्री की आकृति अंकित है। इस प्रकार के सिक्के मल्हार और बालपुर से प्राप्त हुए हैं।
कुषाण सिक्के- सातवाहनों के समकालीन कुषाण राजाओं के ताॅंम्बों के सिक्कों की प्राप्ति हुई है, जो इस क्षेत्र के इतिहास की एक समस्या है, क्योंकि यहां कुषाण राज्य के विषय में किसी भी स्रोत से कोई जानकारी नहीं मिलती संभवतः ये सिक्के दक्षिण भारतीय व्यापारियों अथवा बौद्ध यात्रियों द्वारा यहां लाये गये हों।
गुप्त कालीन सिक्के-  इसके पश्चात् छत्तीसगढ़ क्षेत्र में गुप्त अधिसत्ता की स्थापना हो गई। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने यहां के राजा महेन्द्र को पराजित किया था। छत्तीसगढ़ से गुप्त राजाओं की मुद्राए प्रारंभ में नहीं मिली थीं, सन् 1969 में दुर्ग जिले के बानबरद' नामक स्थान से गुप्त राजाओं के नौ सोने के सिक्के मिले हैं। इसमें से एक सिक्का काच' नामक राजा का है, जिसकी समानता ‘एलन' महोदय ने समुद्रगुप्त से की है।सात सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय के तथा एक कुमारगुप्त प्रथम का है। आरंग से एक कुमारगुप्त प्रथम का चांदी का सिक्का भी मिला है।