शहीद पंकज विक्रम
शहीद राजीव पांडेय
शहीद विनोद चौबे
महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव
नगर माता बिन्नीबाई सोनकर
प्रो. जयनारायण पाण्डेय
बिसाहू दास महंत
हबीब तनवीर
चंदूलाल चंद्राकर
मिनीमाता
गजानन माधव मुक्तिबोध
दाऊ रामचन्द्र देशमुख
दाऊ मंदराजी
महाराजा रामानुज प्रताप सिंहदेव
संत गहिरा गुरु
राजा चक्रधर सिंह
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र
पद्यश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय
पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
यति यतनलाल
पं. रामदयाल तिवारी
ठा. प्यारेलाल सिंह
ई. राघवेन्द्र राव
पं. सुन्दरलाल शर्मा
पं. रविशंकर शुक्ल
पं. वामनराव लाखे
पं. माधवराव सप्रे
वीर हनुमान सिंह
वीर सुरेंद्र साय
क्रांतिवीर नारायण सिंह
संत गुरु घासीदास
छत्तीसगढ़ के व्यक्तित्व
मुख्यपृष्ठ > विषय > सामान्य ज्ञान

दाऊ मंदराजी



छत्तीसगढ़ी नाचा के जनक दाऊ मंदराजी का जन्म 1 अप्रैल सन् 1910 को राजनांदगाँव के समीपस्थ ग्राम रवेली में हुआ था। उनके पिता दाऊ रामाधीन एक संपन्न मालगुजार थे। उनकी चार-पाँच गाँवों की मालगुजारी थी। मालगुजारों को छत्तीसगढ़ में सम्मान के साथ ‘दाऊ’ कहा जाता है। दाऊ मंदराजी का वास्तविक नाम दुलार सिंह साव था। इनके नाम के संबंध में कहा जाता है कि बचपन में एकदम गोल-मटोल तथा स्वस्थ सुंदर थे। एक बार वे अपने नानाजी के घर के आँगन में खेल रहे थे। वहीं तुलसी चैरा में किसी गोल-मटोल मद्रासी की मूर्ति रखी हुई थी। उसे देखकर बालक दुलार सिंह ने अपने नानाजी से पूछा कि ‘ये कौन हैं’ तो नानाजी ने अपने हँसमुख स्वभाव के कारण मजाक-मजाक में कह दिया कि ‘ये बिलकुल तेरी तरह है। अब से हम तुझे मद्रासी कहेंगे।’’ नानाजी का यह मद्रासी संबोधन आगे चलकर मंदराजी में बदल गया और लोग उनको मंदराजी कहने लगे। दुलार सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सन् 1922 ई. में पूरी की। उनके माता-पिता उन्हें खूब पढ़ाना-लिखाना चाहते थे किंतु गीत, संगीत और नाचा के प्रति विशेष लगाव होने के कारण वे अपना अधिकांश समय नाच-गाना में बिताने लगे। उनके गाँव रवेली में कुछ लोक कलाकार थे। उनसे ये चिकारा और तबला बजाना सीख लिए। वे आस-पास के गाँवों के सभी धार्मिक एवं सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेते थे। जहाँ कहीं भी ऐसा कोई कार्यक्रम होता वे अपने पिताजी के मना करने पर भी जाते और रात-रात भर नाचा आदि के कार्यक्रम देखते तथा उसमें भाग लेते। इनके व्यवहार में बदलाव की उम्मीद से उनके पिताजी ने मंदराजी का विवाह भोथली-तिरगा गाँव की एक सुंदर कन्या राम्हिन बाई से करवा दिया पर इसका कोई प्रभाव उन पर नहीं पड़ा। नाचा पहले राजा-रजवाड़ों के मनोरंजन का साधन था। इसीलिए इसका प्रचार-प्रसार कम था। दाऊ मंदराजी ने इसके प्रचार-प्रसार का जिम्मा उठाया। अपना तन-मन और धन लगा कर उन्होंने नाचा को जन-जन में लोकप्रिय बना दिया। उन दिनों गाँव-गाँव में खडे़ साज का बोलबाला था। मंदराजी ने नया प्रयोग किया और खडे़ साज को बैठकी साज में बदला। अब सभी कलाकार बैठकर बजाते थे। वे हारमोनियम के साथ-साथ चिकारा, तबला वादन एवं गायन में भी सिद्ध हस्त थे। दाऊ मंदराजी ने नाचा को तत्कालीन समय में व्याप्त कई प्रकार विकृति से बचाते हुए परिष्कृत करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने मदन निषाद, लालू, ठाकुर राम, बोड़रा, भुलवा दास, फिदाबाई मरकाम, जयंती, नारद, सुकालू और फागूदास जैसे सक्षम कलाकारों के साथ मिलकर रवेली नाचा पार्टी का गठन किया। वे इसके संचालक थे। यह समूचे छत्तीसगढ़ की सबसे लोकप्रिय तथा पहली संगठित नाचा पार्टी थी। दाऊ मंदराजी ने नाचा में कई प्रयोग किए और उसे नई ऊँचाई तक पहुँचा दिए। सन् 1940 से 1952 ई. तक के समय को रवेली नाचा पार्टी का स्वर्णिम युग माना जाता है। उन्होंने अपने नाचा और गम्मत के माध्यम से बेमेल विवाह, ऊँच-नीच, अस्पृष्यता, बाल विवाह, दहेज, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास एवं साहूकारों के शोषण जैसी सामाजिक बुराइयों का समाज के सामने उजागर करना चाहते थे। पोंगवा पंडित के माध्यम से उन्होंने समाज से अस्पृष्यता को दूर करने की कोषिष की। ईरानी के माध्यम से उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित की। मोर नाँव दमाद अऊ गाँव के नाँव ससुरार में उन्होंने बाल विवाह की बुराइयों को समाज के सामने रखा। इसी प्रकार मरारिन में उन्होंने देवर भाभी के रिश्ते को माता-पुत्र के समान बताया। उनकी नाचा पार्टी ने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में लोगों में देशभक्ति की भावना जगाने का कार्य किया। यही कारण है कि अंग्रेज सरकार ने उस पर रोक लगा दी थी। दाऊ मंदराजी की नाचा पार्टी के कार्यक्रम रायपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, जगदलपुर, अंबिकापुर, रायगढ़, बिलासपुर, संबलपुर, टाटा नगर के कई छोटे-बड़े शहर एवं गाँव में हुए तथा लोगों ने पसंद किया। नाचा के माध्यम से छत्तीसगढ़ अंचल की लोक संस्कृति को जीवंत रखने और उनके समुचित संरक्षण के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। दाऊ मंदराजी ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गुमनामी तथा गरीबी में गुजारा किया। 24 सितम्बर सन् 1948 को दाऊ मंदराजी का निधन हो गया। वे अपने व्यक्तिगत लाभ या प्रशंसा की चाहत न रखते हुए जीवनभर नाचा को समृद्ध करने में लगे रहे। छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में लोककला के क्षेत्र में दाऊ मंदराजी सम्मान स्थापित किया है