पं. माधवराव सप्रे
पं. माधवराव सप्रे मध्य भारत में राष्ट्रीय चेतना एवं साहित्यिक जागरण के पितामह कहे जाते हैं। वे एक महान पत्रकार, विचारक, लेखक तथा स्वतंत्रता सेनानी थे। आधुनिक हिन्दी साहित्य को पहली मौलिक कहानी देने का श्रेय पं. माधवराव सप्रे को प्राप्त है।
माधवराव सप्रे का जन्म वर्तमान मध्य प्रदेश के दमोह जिले के पथरिया नामक ग्राम में 19 जून सन् 1871 ई. को हुआ था। उनके पिताजी का नाम कोडोपंत तथा माताजी का नाम श्रीमती लक्ष्मीबाई था। जीविका की खोज में उनके पिताजी बिलासपुर आकर बस गए। यहीं पर उनकी प्रारंभिक शिक्षा संपन्न हुई।
हाईस्कूल की शिक्षा के लिए पं. माधवराव सप्रे जी रायपुर आए। यहाँ के गवर्नमेंट हाईस्कूल में पढ़ाई करते समय उनके हिन्दी शिक्षक श्री नंदलाल दुबे की प्रेरणा से उनमें हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। उन्होंने ग्वालियर से एफ.ए. तथा नागपुर से बी.ए. की शिक्षा ग्रहण की।
पं. माधवराव सप्रे प्रतिभावान और कुषाग्र बुद्धि के थे। उनकी प्रतिभा और योग्यता से प्रभावित होकर ब्रिटिश शासन द्वारा उन्हें कई बार शासकीय नौकरी में उच्च पदों पर नियुक्ति हेतु आमंत्रित किया गया पर उन्होंने सरकारी नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्होंने आजीवन देश, साहित्य तथा समाज सेवा का संकल्प लिया था।
सन् 1899 ई. में सप्रेजी 50 रुपए मासिक वेतन पर पेण्ड्रा राजकुमार के शिक्षक नियुक्त हो गए। उसी धन से उन्होंने सन् 1900 ई. में अपने मित्र पं. वामनराव लाखे तथा रामराव चिंचोलकर के सहयोग से मासिक पत्र ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन प्रारंभ किया जो इस क्षेत्र का पहला पत्र था। इसके संपादक एवं प्रकाषक स्वयं सप्रे जी थे। इसकी की देशभर में प्रशंसा हुई परंतु अर्थाभाव के कारण यह तीन वर्ष ही चल सका और सन् 1902 ई. में बंद हो गया। अल्प समय में ही इसने ने स्वस्थ पत्रकारिता के मानदण्ड कायम किए।
हिन्दी साहित्य में समालोचना का प्रांरभ छत्तीसगढ़ मित्र के माध्यम से पं. माधवराव सप्रे ने ही किया। उनकी लिखी हुई कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ संभवतः हिन्दी की पहली मौलिक तथा श्रेष्ठ कहानियों मे से एक है। यह कहानी छत्तीसगढ़ मित्र में ही सर्वप्रथम प्रकाशित हुई थी।
सन् 1900 में ही पं. माधवराव सप्रे की प्रेरणा से कंकालीपारा, रायपुर में आनंद समाज वाचनालय की स्थापना हुई। वस्तुतः यह वाचनालय उस समय राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक विचार-विमर्श का एकमात्र केन्द्र था। सन् 1905 ई. में सप्रे जी ने नागपुर में ‘हिन्दी ग्रंथ प्रकाशन मंडली’ की स्थापना की।
पं. माधवराव सप्रे ने सन् 1906 में ‘हिन्दी ग्रंथमाला’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया जो सन् 1908 में ब्रिटिश सरकार प्रेस एक्ट में बंद करवा दिया गया। इसके एक अंक में ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट’ शीर्षक से एक लंबा निबंध प्रकाशित हुआ। इसने महात्मा गांधीजी से भी पहले स्वदेशी को अपनाने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की भावना देशभर में फैलाई। इसमें पं. माधवराव सप्रे ने ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा भारत के लघु एवं कुटीर उद्योगों को समाप्त करने के षड्यंत्र का खुलासा किया था। सन् 1908 में यह पुस्तिका के रुप में प्रकाशित किया गया। देखते ही देखते इसकी हजारों प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक गईं। इसे अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया।
सन् 1905 ई. के बनारस अधिवेशन में पं. माधवराव सप्रे ने प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया। यहीं उनकी भेट लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से हुई। वे तिलक जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे। सप्रे जी उनकी विचारधारा का हिन्दी में प्रचार प्रसार करना चाहते थे। बाल गंगाधर तिलक ने सप्रे जी को अनुमति दे दी कि वे उनके मराठी के प्रखर पत्र ‘केसरी’ का नागपुर में हिन्दी संस्करण निकालें।
पं. माधवराव सप्रे ने अपने मित्रों की सहायता से पूँजी का प्रबंध किया और 13 अप्रैल सन् 1907 ई. से साप्ताहिक ‘हिन्दी केसरी’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। यह उग्र विचारधारा का पत्र था। शीघ्र ही यह प्रदेश का सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला पत्र बन गया। हिन्दी केसरी में काला पानी, सरकार की दमन नीति और भारत माता के पुत्रों का कर्तव्य, बम गोले का रहस्य जैसे राजद्रोहात्मक लेख लिखने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया।
पारिवारिक दबाव में आकर पं. माधवराव सप्रे ने क्षमा माँगी और तीन माह बाद जेल से रिहा हो गए। इससे उन्हें अत्यंत ग्लानि हुई। पश्चाताप की अग्नि में जलकर उनका व्यक्तित्व तपस्यामय हो गया था। उन्होंने सन् 1909 ई. में रायपुर में रामदास मठ की स्थापना की। सन् 1910 ई. से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके ओजस्वी लेखों का पुनः प्रकाशन प्रारंभ हो गया।
उस समय की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में से एक ‘सरस्वती’ में पं. माधवराव सप्रे के कई लेख छद्म नामों से प्रकाशित हुए। उन्होंने गुरु रामदास के ‘दासबोध’ का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया तथा श्रीराम चरित्र, एकनाथ चरित्र, आत्म विद्या, भारतीय युद्ध नामक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक के मराठी में लिखे ‘गीता रहस्य’ का हिन्दी में अनुवाद किया। नई पीढ़ी के लिए उन्होंने प्रेरक साहित्य की रचना की।
पं. माधवराव सप्रे शिक्षा का माध्यम हिन्दी को बनाने के पक्षधर थे। उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के दोषों को सामने रखा। वे भारत को एक स्वतंत्र संपन्न एवं आत्मनिर्भर राष्ट्र के रुप में देखना चाहते थे। इसके लिए वे स्वदेशी परंपरा, विचार व वस्तुओं को अपनाने पर जोर देते और विदेशी के बहिष्कार की अपील करते थे। वे देशवासियों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत करने के लिए पे्ररित और कर्तव्यों के निर्वाहन के लिए जागरुक करते थे। वे अस्पृष्यता को एक सामाजिक कलंक मानते थे।
पं. माधवराव सप्रे लड़कियों की शिक्षा तथा स्त्री-स्वातंत्र्य के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने सन् 1912 ई. में रायपुर में जानकीदेवी कन्या पाठशाला की स्थापना की। सन् 1921 में गाँधीजी के आह्वान पर सरकारी स्कूल छोड़ने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा-दीक्षा हेतु उन्होंने रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय तथा अनाथ बच्चों हेतु हिन्दू अनाथालय की स्थापना करवायी।
सन् 1918 ई. में रायपुर में प्रांतीय हिन्दी सम्मेलन की स्थापना में सप्रे जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सन् 1920 में सप्रे जी के अथक प्रयासों से ही जबलपुर में साप्ताहिक ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसके संपादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी थे। सप्रे जी के प्रयासों से ही नागपुर से ‘संकल्प’ नामक पत्र का प्रकाशन हुआ। इसके संपादक पं. प्रयागदत्त शुक्ल थे।
पं. माधवराव सप्रे उच्चकोटि के प्रवचनकर्ता थे। वे छत्तीसगढ़ के कई नगरों में अपने प्रवचन के माध्यम से राजनीतिक जागृति उत्पन्न करते रहे। सन् 1924 में सप्रे जी देहरादून में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वे जीवन पर्यंत साहित्य साधना में लीन रहे।
23 अप्रैल सन् 1926 ई. को पं. माधवराव सप्रे जी का रायपुर में देहावसान हो गया।
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