शहीद पंकज विक्रम
शहीद राजीव पांडेय
शहीद विनोद चौबे
महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव
नगर माता बिन्नीबाई सोनकर
प्रो. जयनारायण पाण्डेय
बिसाहू दास महंत
हबीब तनवीर
चंदूलाल चंद्राकर
मिनीमाता
गजानन माधव मुक्तिबोध
दाऊ रामचन्द्र देशमुख
दाऊ मंदराजी
महाराजा रामानुज प्रताप सिंहदेव
संत गहिरा गुरु
राजा चक्रधर सिंह
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र
पद्यश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय
पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
यति यतनलाल
पं. रामदयाल तिवारी
ठा. प्यारेलाल सिंह
ई. राघवेन्द्र राव
पं. सुन्दरलाल शर्मा
पं. रविशंकर शुक्ल
पं. वामनराव लाखे
पं. माधवराव सप्रे
वीर हनुमान सिंह
वीर सुरेंद्र साय
क्रांतिवीर नारायण सिंह
संत गुरु घासीदास
छत्तीसगढ़ के व्यक्तित्व
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संत गहिरा गुरु



संत गहिरा गुरु एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक एवं तपस्वी संत थे। उनका जन्म सन् 1905 ई. में गहिरा ग्राम में हुआ था। गहिरा छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के लैलूँगा विकासखंड में स्थित है। उनके पिताजी श्री बुड़की कँवर एक संपन्न किसान तथा गाँव के मुखिया थे। माताजी का नाम सुमित्रा देवी था। गहिरा गुरु का असली नाम रामेश्वर कँवर था। अन्य बनवासी बच्चों की तरह ही रामेश्वर का बचपन बीता। वे हमउम्र बच्चों में सबसे तेज, चंचल एवं साहसी थे। आसपास के जंगल में पालतू पषुओं को चराना उनका मुुख्य कार्य तथा पेड़ों पर चढ़ना, पानी में तैरना, लुकाछीपी खेलना व ढोल पीटकर नृत्य करना मनोरंजन के साधन थे। वे गायों की सेवा मन लगाकर करते थे। रामेश्वर अपने पिता और बडे़ भाई के कार्यों में पूरा सहयोग करते थे। सबके प्रति उनके मन में अपार करुणा एवं दया थी। जानवरों का कष्ट देख उनकी आँखों में आँसू आ जाते। उन्होंने अपने भाईयों के साथ मिलकर एक विशाल गौशाला बनाई थी। रामेश्वर के गाँव में कोई पाठशाला नहीं थी। यही कारण हैं कि वे विद्याध्ययन हेतु कभी पाठशाला नहीं गए। कभी कोई साधु-संन्यासी घूमते हुए गाँव में आकर लोगों को जो कुछ भी अच्छी बातें बताते वही इन वनवासियों के लिए ब्रह्मवाक्य था। ऐसे ही किसी साधु से रामेश्वर ने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। किशोरावस्था में पहुँचते तक रामेश्वर गंभीर और मौन रहने लगे। रामेश्वर वनवासियों की दयनीय स्थिति से बहुत दुःखी थे। उन्होंने इन्हें स्वावलंबी बनाने का प्रयास किया। वे रात-रात भर जंगलों में भटकते। कभी-कभी समाधिस्थ हो जाते। समाधि टूटने पर वे साथी चरवाहों को प्रवचन सुनाते। वे रात भर जंगल में भटकने के बावजूद दिन निकलने से पहले घर आकर अपने काम में लग जाते थे। कालांतर में रामेश्वर जी का विवाह क्रमश: पूर्णिमा देवी तथा गंगा देवी के साथ हुआ। भरापूरा परिवार रहने के बाद भी उनकी साधना में कोई असर नहीं पड़ा। उनका जीवन धीरे-धीरे अंतर्मुखी होता चला जा रहा था। रामेश्वर जी की स्वच्छता, अनुशासन, समाधि लगाना, तुलसी के पौधे में जल चढ़ाना देखकर लोग उनसे दूरी बनाए हुए थे। रामेश्वर ने टीपाझरन नामक स्थान पर लगातार आठ दिन साधना की। अब वे पूर्ण भक्त बन गए। उन्होंने गहिरा में महाषिवरात्रि के दिन एक मंदिर का निर्माण कर उसमें शिवलिंग की प्रतिष्ठा की। रामेश्वर जी अपने समाज के लोगों को पूजा-पाठ, साफ-सफाई एवं सात्विक जीवन व्यतीत करने का संदेश देते। वे मंदिर तथा अपने घर के बरामदे में प्रतिदिन संकीर्तन करते। इसे सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। वे स्वयं बाँसुरी बजाते तथा भाव-विभोर होकर नृत्य करते तो भक्तगण भी भक्ति-सागर में डूब जाते। इस तरह से उन्होंने लोगों को संगठित करना शुरु किया। अब उन्हें लोग गहिरा गुरुजी कहने लगे। रामेश्वर गुरुजी की बातों को कुछ लोग अमल में लाने लगे परंतु ज्यादातर लोग स्वच्छता का महत्व समझ ही नहीं पाते। स्वच्छता अभियान में तेजी लाने के लिए गुरुजी ने अपने विश्वस्त 20 युवकों का दल बनाया जो घर-घर जाकर लोगों को स्वच्छता का महत्व समझाता। उनके रात्रिकालीन भजन कीर्तन में महिलाएँ भी षामिल होती थीं। वे उन्हें समझाते कि हम लोग भूत-प्रेत या दैवीय प्रकोप से बीमार नहीं पड़ते बल्कि हमारी बीमारी का प्रमुख कारण अस्वच्छता है। रामेश्वर जी के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि लोग उनसे सहज ही प्रभावित हो जाते। उन्होंने अपने साथियों के साथ पूरे गाँव की सफाई की ओर दो ही दिन में गाँव के सभी पेडों के चारों ओर चबूतरा बनाया। संत गहिरा गुरु के भक्तों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। वे चाहते थे कि लोग एक व्यक्ति से न जुड़कर संगठन से जुडे़ं। इस हेतु उन्होंने 1943 में गहिरा में सनातन धर्म संत समाज की स्थापना की। उनके सभी भक्त इसके सदस्य बन गए। समाज के लोगों की अपनी एक अलग पहचान हो इसके लिए वे सभी गहिरा गुरुजी के आदेश पर ष्वेत वस्त्र धारण करते, सुबह-षाम परिवार के बडों केा ‘शरण’ (प्रणाम) करते, प्रत्येक गुरुवार को एक परिवार में सामूहिक रामचरित मानस का पाठ करते। प्रतिदिन एक मुठ्ठी चावल और चार आना समाज के लिए निकालते। साल में तीन दिन निःषुल्क श्रमदान करते। गहिरा गुरु के हजारों स्वयंसेवी अनुयायियों ने घूम-घूमकर संत समाज के आदर्शों का जगह-जगह प्रचार प्रसार किया। परिणामस्वरुप रायगढ़, सरगुजा, बिलासपुर, जषपुर, झारखण्ड, उड़िसा एवं उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र के लाखों दलित एवं पिछडे़ वर्ग के लोग संस्था से जुड़ते गए। सामरबार, कैलाश गुफा, श्रीकोट, चम्पाक्षेत्र, अंबिकापुर, विश्रामपुर, सुपलगा, ककना, पत्थलगाँव, राजपुर, लैलूंगा, गहिरा में संस्था के आश्रमों की स्थापना की गई। 5 जनवरी सन् 1985 ई. में सनातन संत समाज संस्था का पंजीयन कराया गया। शासकीय अनुदान प्राप्त होने से उनके कल्याणकारी कार्यों के क्रियान्वयन में तेजी आ गई। वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय से संस्था को महाविद्यालय संचालित करने की संबद्धता मिल गई। सामरवार में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय एवं महाविद्यालय प्रारंभ किया गया। कालांतर में अनेक विद्यालय एवं छात्रावास भी खोले गए जहाँ सैकड़ों विद्यार्थी पढ़ाई करने लगे। यहाँ विद्यार्थी शिक्षा के साथ-साथ उत्तम संस्कार भी ग्रहण करते हैं। संस्था को स्थापित करने में उन्हें कई प्रकार की कठिनाइयों का सामाना करना पड़ा। सन् 1947 ई. में भारत की स्वतंत्रता के समय जब नौआखली मे भीषण दंगे हुए तो गहिरा गुरु जी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी के साथ लोगों को शांति व्यवस्था बनाए रखने की अपील कर रहे थे। आदिवासी समुदाय के कल्याण के लिए गुरुजी द्वारा किए गए उल्लेखनीय योगदान हेतु उन्हें सन् 1986-87 ई. के इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय समाज सेवा पुरस्कार के लिए चुना गया। तात्कालीन राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैलसिंह ने उन्हें यह पुरस्कार दिया। मध्यप्रदेश शासन ने भी गहिरा गुरुजी को आदिवासी समाज सेवा कार्य में विशिष्ट योगदान के लिए मरणोपरांत बिरसा मुण्डा पुरस्कार तथा शहीद वीर नारायण सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया। 21 नवम्बर, 1996 को गुरुजी का देहावसान हो गया। छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में गहिरा गुरु पर्यावरण पुरस्कार स्थापित किया है। -00-