पं. रामदयाल तिवारी
पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र में हिंदी समालोचना की बुनियाद रखी थी किंतु उनके पास समालोचना के मानदंडों पर विस्तार-पूर्वक विचार करने का अवसर नहीं था। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कार्यों को पूरा करने का कार्य पं. रामदयाल तिवारी ने किया। मुंशी प्रेमचंद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे शीर्षस्थ साहित्यकार तिवारी जी की समालोचना का लोहा मानते थे। यही कारण है कि ‘माधुरी’ जैसी उत्कृष्ट पत्रिका ने तिवारी जी को ‘समर्थ समालोचक’ की उपाधि से विभूषित किया था।
रामदयाल तिवारी का जन्म 23 जुलाई सन् 1892 को रायपुर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम रामबगस तिवारी तथा माता का नाम गलाराबाई था। रामदयाल तिवारी मेधावी विद्यार्थी थे। अध्ययन उनके लिए व्यसन था। जब वे हाईस्कूल में पढ़ रहे थे तब उनके पिताजी सेवानिवृत्त हो गए। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने से रामदयाल ट्यूशन करके पढ़ाई का खर्च निकालते। वे रात को नगर पालिका के लैम्प के नीचे सड़क के किनारे बैठकर पढ़ाई करते। प्रतिभा कभी परिस्थितियों की मोहताज नहीं रही। घोर दरिद्रता भी रामदयाल तिवारी के अध्ययन के मार्ग में बाधा नहीं बन सकी। निबंध लेखन तथा वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में वे सदैव प्रथम स्थान प्राप्त करते। वे किशोरावस्था से ही काव्य रचना करने लगे थे। पढ़ाई-लिखाई में तो वे तेज थे ही, सामाजिक गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेते। मोहल्ले के गणेशोत्सव में सजावट का दायित्व उन्हीं पर होता था।
मेघावी छात्र होने से रामदयाल को छात्रवृत्ति भी मिलती थी। सन् 1907 में उन्होंने गवर्नमेण्ट हाईस्कूल रायपुर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद चले गए। 1911 में उन्होंने बी.ए. की परीक्षा पास की। इसी वर्ष उनके पिताजी की मृत्यु हो जाने से वे आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सके। गृहस्थी का बोझ उनके सिर पर आ गया तो वे रायगढ़ में शिक्षक बन गए। वे पं. मुकुटधर पांडेय के शिक्षक थे। तिवारी जी ने उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया। बाद में पांडेय जी छायावाद के प्रवर्तक कवि तथा समीक्षक के रूप में प्रसिद्ध हुए।
सन् 1915 में पं. रामदयाल तिवारी ने वकालत की शिक्षा पूरी की और रायपुर में वकालत करने लगे। वकालत करते हुए वे सार्वजनिक जीवन में भी सक्रिय रहे। सन् 1918 में रायपुर में प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन हुआ। तिवारी जी इसके प्रमुख आयोजकों में से एक थे।
पं. माधवराव सप्रे के संपर्क में तो पं. रामदयाल तिवारी विद्यार्थी जीवन में ही आ चुके थे। आनंद समाज पुस्तकालय में इनकी गोष्ठी जमती थी। सप्रेजी को हिंदी में आधुनिक समालोचना का प्रवर्तक माना जाता है। समालोचना के क्षेत्र में तिवारी सप्रेजी के सच्चे उत्तराधिकारी थे। हितवाद, माडर्न रिव्यू, हिंदू आदि पत्र-पत्रिकाओं में उनके सम सामयिक समस्याओं पर विचारोत्तेजक लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। तिवारी जी गंभीर चिंतक और प्रखर लेखक ही नहीं ओजस्वी वक्ता भी थे। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, उड़िया, मराठी एवं उर्दू पर उनका समान अधिकार था।
पं. रामदयाल तिवारी ने राष्ट्रकवि मैथिलीषरण गुप्त की महाकाव्य ‘यशोधरा’ एवं खंडकाव्य ‘साकेत’ की समीक्षा की। उस समय तक न तो मैथिलीशरण गुप्त प्रसिद्ध हुए थे और न ही उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि मिली थी फिर भी तिवारी जी ने उसकी समीक्षा की। गुप्त जी को इससे प्रसिद्धि मिली साथ ही तिवारी जी की पहचान एक समर्थ आलोचक के रूप में होने लगी।
सन् 1930 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी की अध्यक्षता में नागपुर में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ। इसमें गांधीजी भी उपस्थित थे। पं. रामदयाल तिवारी उस सम्मेलन के आयोजकों तथा प्रमुख वक्ताओं में से एक थे।
पं. रामदयाल तिवारी स्वाधीनता आंदोलन सें भी घनिष्ठ रूप जुड़े रहे। सन् 1930 ई. में ठा. प्यारेलाल सिंह सहित कई नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में उन्होंने दस हजार लोगों का जुलूस निकाला और सभा की। धारा 144 लागू होने पर भी उन्होंने इस सभा को संबोधित करते हुए अंग्रेज सरकार के दमन की भत्र्सना की। इसी वर्ष रायपुर प्लेटफार्म पर बंदी सत्याग्रहियों के स्वागत के लिए एकत्र भीड़ पर पुलिस ने अंधा-धुंध लाठियाँ बरसाई थीं। इस बर्बरतापूर्ण कार्यवाही की जाँच के लिए प्रबुद्ध नागरिकों की एक समिति गठित की गई। तिवारी समिति के प्रमुख सदस्य थे। उन्होंने मोहल्लों में घूम-घूमकर पचासों घायलों के बयान लिए, उनकी चिकित्सा का प्रबंध किया और विस्तृत रिपोर्ट समिति को सौंपीं। यह सच है कि पं. रामदयाल तिवारी कभी जेल नहीं गए किंतु स्वाधीनता आंदोलन में उनकी भूमिका किसी से कम नहीं थी। लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए उन्होंने अपनी वाणी और लेखनी का भरपूर उपयोग किया।
सन् 1935 में पं. रामदयाल तिवारी एक दुर्घटना में घायल हो गए। उन्हें कई माह अस्पताल में रहना पड़ा। इसी अवधि में उन्होंने ‘गांधी-मीमांसा’ की रचना की। बाद में उन्होंने ‘गांधी एक्सरेड’ नामक एक विशाल ग्रंथ अंग्रेजी में लिखा। इसके अलावा उन्होंने विद्यालयोपयोगी पुस्तकें ‘हमारे नेता’ तथा ‘स्वराज्य प्रश्नोत्तरी’ की रचना की। ये दोनों पुस्तकें कई वर्षों तक मध्यप्रदेश शासन के शिक्षा विभाग द्वारा विद्यालयों के लिए स्वीकृत की गई थीं।
पं. रामदयाल तिवारी ने उमर खय्याम की रूबाइयों पर भारतीय दृष्टिकोण से समीक्षा की। इसे पढ़कर मुंशी प्रेमचंद जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने तिवारी जी की मौलिक समीक्षा दृष्टि की प्रशंसा की।
अगस्त सन् 1942 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का महाधिवेशन मुंबई में आयोजित हुआ। इसमें ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसी सम्मेलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने देशवासियों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए तिवारी जी मुंबई गए थे। वहाँ अचानक उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। लौटने के बाद वे और भी अस्वस्थ हो गए। 21 अगस्त सन् 1942 को उनका निधन हो गया।
पं. रामदयाल तिवारी की स्मृति में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के आमापारा चौक के पास एक विद्यालय की स्थापना उनके नाम पर की गई है।
-00-