छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का इतिहास , देश के अन्य भागों की तरह मानव सभ्यता के विकास से संबंधित अतः इस छेत्र इतिहास को समझने के लिए राष्ट्रीय - ऐतिहासिक परिवेश को समझना आवश्यक है । साथ ही ऐतिहासिक निकटस्थ भू - भागों के गतिविधियों को भी सम्मिलित करना आवश्यक है क्योंकि अचल का इतिहास भौगोलिक एवं राजनीतिक दृष्टि से सदैव सीमावर्ती क्षेत्रों से प्रभावित एवं समय - समय पर सम्बद्ध रहा है । छत्तीसगढ़ का ना विभिन्न स्रोतों से पुष्ट हो सका है मौर्य काल से प्राचीन नहीं है , किंतु किंवदंतियों एवं महाकायों महाभारत से प्राप्त तथ्यों को मान्य करें तो यह उतना ही प्राचीन है जितनी राम कथा , अर्थात छत्तीय त्रेता युग से ही भारतवर्ष की राजनीतिक , सांस्कृतिक गतिविधियों से किसी न किसी रूप से . पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि छत्तीसगढ़ प्रागैतिहासिक मानव की क्रीड़ा स्थली रहा है । इस खण्ड में । के काल से बीसवीं सदी तक के ज्ञात घटनाओं का विवरण उपलब्ध साहित्य के आधार पर कालक्रा करने का प्रयास किया गया है । संबंधित है , । साथ ही मगढ का ज्ञात इतिहास से महाकाव्यों यथा रामावर त छत्तीसगढ़ कम से कम न किसी रूप से संबद्ध रहा है । इस खण्ड में मानव विकास या के आधार पर कालक्रमानुसार रेखांकित किया गया है ।
प्रागैतिहासिक काल
सभ्यता के आरंभिक काल में मानव की आवश्यकताएं न्यूनतम थीं जो उसे प्रकृति से प्राप्त हो जाती थीं । पशुओं की भांति जंगलों , पर्वतों और नदी के तटों पर अपना जीवन व्यतीत करता था । नदियों की घाटियां पर रूप से मानव का सर्वोत्तम आश्रय स्थल थीं । इस काल में मानव कंद - मूल खोदने और पशुओं के शिकार के पत्थरों को नकीले बनाकर औजार के रूप में प्रयोग करने लगा । पाषाण के प्रयोग के कारण यह यग पाषाण - या के नाम से ज्ञात है । विकास की अवस्था के आधार पर इस युग को चार भागों में विभाजित किया गया है - पूर्व पाषाण युग , मध्य पाषाण युग , उत्तर पाषाण युग तथा नव - पाषाण युग ।
पूर्व - पाषाण युग के औजार महानदी घाटी तथा रायगढ़ जिले के सिंघनपुर से प्राप्त हुए हैं । मध्य युग के लम्बे फलक , अर्द्ध चंद्राकार लघु पाषाण के औजार रायगढ़ जिले के - ' कबरा पहाड़ ' से , चित्रित शैलाश्रय के निकट से प्राप्त हुये हैं । उत्तर - पाषाण युग के लघुकृत पाषाण औजार महानदी घाटी , बिलासपुर जिले के धनपुर तथा रायगढ़ जिल के सिंघनपुर के चित्रित शैल - गृहों के निकट से प्राप्त हुये हैं । छत्तीसगढ़ से लगे हुए उड़ीसा के कालाहांडी . बलागीर एवं सम्बलपुर जिले के तेल नदी एवं उसकी सहायक नदियों के तटवर्ती क्षेत्र के लगभग 26 स्थानों से इस काल में औजार प्राप्त हुये हैं ।
इसके पश्चात ' नव - पाषाण युग आता है । इस काल में मानव सभ्यता की दृष्टि से विकास कर चुका था तथा उसने कृषि कर्म , पशुपालन , गृह निर्माण तथा बर्तनों का निर्माण कपास अथवा ऊन कातना आदि कार्य सीख लिया । था । इस युग के औजार दुर्ग जिले के अर्जुनी , राजनांदगांव जिले के चितवा डोंगरी तथा रायगढ़ जिले के टेरम नान्स स्थानों से प्राप्त हुए हैं । धमतरी - बालोद मार्ग पर लोहे के उपकरण आदि प्राप्त हुए हैं । ये गुफाओं में चित्रकारा कर की कला जानते थे ।
पाषाण युग के पश्चात ताम्र और लौह युग ' आता है । दक्षिण कोसल क्षेत्र में इस काल की सामग्री का है , किंतु निकटवर्ती बालाघाट जिले के ' गुंगेरिया ' नामक स्थान से तांबे के औजार का एक बड़ा संग्रह प्राप्त लौह युग में शव को गाड़ने के लिये बड़े - बड़े शिलाखण्डों का प्रयोग किया जाता था । इसे ' महापाषाण का नाम से संबोधित किया जाता है । इन समाधियों को ' महापाषाण पटटतम्भ ' ( डॉलमेन ) भी कहा जाता है । 37 के करहीभदर , चिरचारी और सोरर में पाषाण घेरों के अवशेष मिले हैं । इसी जिले के करकाभाटा सपा साथ लोहे के औजार और मृद भाण्ड प्राप्त हुये हैं । धनोरा नामक ग्राम से लगभग 500 महापाषाण स्मारक हैं जिसका व्यापक सर्वेक्षण प्रोफेसर जे . आर . कांबले एवं डॉ . रमेन्द्रनाथ मिश्र ने सर्वप्रथम किया है । कालाहाण्डी जिले की नवापारा तहसील में स्थित सोनाभीर नामक ग्राम में पाषाण का घेरा मिलता है ।
प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य पर्वत कन्दराओं में निवास करता था तब उसने इन शैलाश्रयों में अनेक चित्र बनाये । अलंकरणप्रिय एवं कलाप्रिय होने का प्रमाण है । रायगढ़ जिले के सिंघनपर तथा कबरा पहाडी में अंकित इसके उदाहरण है । कबरा पहाड़ में लाल रंग से छिपकिली . घडियाल सांभर अन्य पशुओं तथा पंक्तिबद्ध का चित्रण किया गया है । सिंघनपुर में मानव आकृतिया , सीधी , दण्ड के आकार की तथा सीढ़ी के आकार की गई हैं । अभी हाल के वर्षों में राजनांदगांव जिले में चितवा डोंगरी , रायगढ़ जिले में बसनाझर , ऑगना . तथा लेखाभाडा में शैलचित्रों की एक श्रृंखला प्राप्त हुई है । चितवा डोंगरी के शैलचित्रों को सर्वप्रथम श्री । सिंह बघेल एवं डॉ . रमेन्द्रनाथ मिश्र ने उजागर किया । छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण शैल गहों का विस्तत विवरण जल परिचय स्थल परिचय ' नामक अध्याय में दिया गया है ।
वैदिक काल एवं अनुश्रुत इतिहास
पारंभिक वैदिक अथवा पूर्व वैदिक सभ्यता की जानकारी देने वाले ग्रंथ ' ऋग्वेद ' में छत्तीसगढ़ से संबंधित कोई नहीं मिलती । इसमें विन्ध्य पर्वत एवं नर्मदा नदी का उल्लेख भी नहीं है । उत्तर वैदिक काल में देश के भण भाग से संबंधित विवरण मिलने लगते हैं । ' शतपथ ब्राम्हण में पूर्व एवं पश्चिम में स्थित समुद्रों का उल्लेख लता है । कौशीतिक उपनिषद् में विन्ध्य पर्वत का नामोल्लेख है । परवर्ती वैदिक साहित्य में नर्मदा का उल्लेख रेवा । रूप में मिलता है । महाकाव्यों में इस क्षेत्र का पर्याप्त उल्लेख मिलता है ।
रामायण काल
' रामायण ' से ज्ञात होता है कि राम की माता कौशल्या राजा भानुमन्त की पुत्री थीं । कोसल खण्ड नामक एक अप्रकाशित ग्रंथ से जानकारी मिलती है कि विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में नागपत्तन के पास कोसल नामक एक शक्तिशाली राजा था । इसके नाम ही इस क्षेत्र का नाम ' कोसल ' पड़ा । राजा कोसल के वंश में भानुमन्त नामक राजा हुआ . जिसकी पुत्री का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ से हुआ था । भानुमन्त का कोई पुत्र नहीं था , अतः कोसल छत्तीसगढ़ ) का राज्य राजा दशरथ को प्राप्त हुआ । इस प्रकार राजा दशरथ के पूर्व ही इस क्षेत्र का नाम कोसल होना ज्ञात होता है । ऐसा माना जाता है कि वनवास के समय संभवतः राम ने अधिकांश समय छत्तीसगढ़ के आस - पास व्यतीत किया था । स्थानीय परम्परा के अनुसार ' शिवरीनारायण , " खरौद ' आदि स्थानों को रामकथा से सम्बद्ध माना जाता है । लोक विश्वास के अनुसार श्री राम द्वारा सीता का त्याग कर देने पर तुरतुरिया ( सिरपुर के सनीप ) में स्थित महर्षि बाल्मीकि ने अपने आश्रम में शरण दी थी और यहीं लव और कुश का जन्म हुआ माना जाता है । श्री राम के पश्चात् ' उत्तर कोसल के राजा उनके ज्येष्ठ पुत्र लव हुए , जिनकी राजधानी श्रावस्ती थी और अनुज श को दक्षिण कोसल मिला , जिसकी राजधानी कुशस्थली थी ।
महाभारत काल
महाभारत में भी इस क्षेत्र का उल्लेख सहदेव द्वारा जीते गये राज्यों में प्राक्कोसल के रूप में मिलता है । बस्तर अरण्य क्षेत्र को ' कान्तार कहा गया है । कर्ण द्वारा की गई दिग्विजय में भी कोसल जनपद का नाम मिलता है । जा नल ने दक्षिण दिशा का मार्ग बनाते हुये भी विन्ध्य के दक्षिण में कोसल राज्य का उल्लेख किया था । हाभारतकालीन ऋषभतीर्थ भी बिलासपुर जिले में सक्ती के निकट ' गुंजी ' नामक स्थान से समीकृत किया जाता है । थानीय परम्परा के अनुसार भी मोरध्वज और ताम्रध्वज की राजधानी ' मणिपुर ' का तादात्म्य वर्तमान रतनपुर से कया जाता है । इसी प्रकार यह माना जाता है कि अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन की राजधानी सिरपुर थी । पौराणिक साहित्य से भी इस क्षेत्र के इतिहास पर विस्तत प्रकाश पडता है । इस क्षेत्र के पर्वत " ल्लेख अनेक पुराणों में उपलब्ध है । इस क्षेत्र में राज्य करते हुये इक्ष्वाकु वशियों का वर्णन मिलता है । इसके साथ यह भी माना जाता है कि वैश्वत मनु के पौत्र तथा सुद्युम्न के पुत्र विनताश्व को यह क्षेत्र प्राप्त हुआ था ।
महाजनपद काल / बुद्ध काल ( छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व )
भारतीय इतिहास में छठवीं शताब्दी ईसवी पूर्व का विशेष महत्व है क्योंकि इसी समय से भारत का व्या तहास मिलता है । इसके साथ ही यह बुद्ध एवं महावीर का काल है । इसमें देश अनेक जनपदों एवं महा । विभक्त था । छत्तीसगढ़ का वर्तमान क्षेत्र भी ( दक्षिण ) कोसल के नाम से एक पथक प्रशासनिक इकाइ था अवदान शतक ' नामक एक ग्रंथ है उन्होंने प्रवास किया मौर्यकाल से पूर्व के सिक्कों की प्राप्ति से इस अवधारणा की पुष्टि होती है । ' एक अनुसार महात्मा बुद्ध दक्षिण कोसल आये थे तथा लगभग तीन माह तक यहां की राजधानी में उन्होंने जो था । ऐसी जानकारी बौद्ध यात्री व्हेनसांग के यात्रा वृत्तांत से भी मिलती है ।
नन्द - मौर्य काल
दक्षिण कोसल का क्षेत्र संभवतः नन्द - मौर्य साम्राज्य का अंग था , इसकी पुष्टि चीनी यात्री ( व्हेनसांग ) के यात्रा विवरण से होती है , जिसके अनुसार साम्राट अशोक ने यहां बौद्ध स्तूप का निर्माण अशोक के साम्राज्य के अंतर्गत आंध , कलिंग एवं रूपनाथ ( जबलपुर ) के होने की जानकारी यहां पास अभिलेखों से होती है अतः मध्य का यह भाग भी उनके साम्राज्य के अंतर्गत रहा होगा । रायपुर जिले के आरंग , उडेला आदि स्थानों से कुछ आहत मुद्राएं प्राप्त हुई हैं , जिनका वजन 12 रत्ती का है अतः इन्हें तकनी से प्राक - मौर्य काल का माना जाता है । मौर्य काल मुख्यतः अकलतरा , ठठारी , बार एवं बिलासपर हुए हैं । इसी काल के परातात्विक स्थल सरगुजा जिले के रामगढ़ के निकट जोगीमारा और सीताबेगम गुफाएं हैं । जोगीमारा से अशोक कालीन लेख , भाषा एवं लिपि - पाली एवं ब्राम्ही , में ' सुतनुका नामक देवदासी । उसके प्रेमी ' देवदत्त ' का उल्लेख है । सीताबेंगरा विश्व की प्राचीन नाट्यशाला मानी गई है ।
सातवाहन काल
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् दक्षिण भारत में सातवाहन राज्य की स्थापना हुई । पूर्वी क्षेत्र में चेदिवंश का उदय हआ । दक्षिण कोसल का अधिकांश भाग सातवाहनों के प्रभाव क्षेत्र में था । इसका पूर्वी भाग र गि संभवतः चेदिवश के राजा खारवेल के अधिकार के अंतर्गत रहा होगा । सातवाहन राजा अपीलक की एकमात्र मुद्रा - रायगढ़ जिले के ' बालपुर नामक स्थल से प्राप्त हुई है । अपीलक का उल्लेख सातवाहन वंश के अभिलेखों में नहीं मिलता , कित पौराणिक विवरणों से इसके सातवाहन राजा होने की पुष्टि होती है । सक्ती के निकट ' गुंजी ( ऋषभतीर्थ ) से प्राप्त शिलालेख में कुमार वरदत्तश्री नामक राजा का उल्लेख है , जो संभवतः सातवाहन राजा था । इसी काल का एक काष्ठस्तंभ लेख जांजगीर जिले के किरारी ( चन्द्रपुर ) नामक स्थान से प्राप्त हुआ है । अंचल के अनेक स्थलों से तांबे के आयताकार सिक्के प्राप्त हुये हैं जिनमें एक ओर हाथी तथा दूसरी ओर स्त्री अथवा नाग का अंकन है , जो सातवाहन कालीन है । बुढीखार नामक स्थान में लेख युक्त एक प्रतिमा प्राप्त हुई है , जो इसी काल की है । मल्हार में उत्खनन से दूसरे स्तर पर ( जो मौयसातवाहन - कुषाण काल का माना गया है ) प्राप्त मिट्टी की मुहर में ' वैदसिरिस ' ( वेदश्री ) लेख अंकित मिलता है । प्रसिद्ध चीनी यात्री युवान - च्चांग ने उल्लेख है कि दक्षिण कोसल की राजधानी के निकट एक पर्वत पर सातावाहन राजा ने एक सुरंग खुदवाकर प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु नागार्जुन के लिए एक पांच मंजिला भव्य संघाराम बनवाया था । सातवाहनों के समकालीन कुषाण राजाओं के ताँबे के सिक्कों की प्राप्ति भ्रम उत्पन्न करती है , क्योंकि यहां कुषाण राज्य के विषय में किसी भी स्रोत से कोई जानकारी नहीं मिलती । इसी काल में रोम की स्वर्ण मुद्राएं भी मिलती है । जो संभवतः व्यापारियों द्वारा लाई गई थीं ।
मेघ वंश
सातवाहनों के पश्चात् संभवतः दक्षिण कोसल में ' मेघ ' नामक वंश ने राज्य किया । पुराणों के विवरण से ज्ञात होता । है कि गुप्तों के उदय के पूर्व कोसल में मेघ वंश के शासक राज्य करेंगे । संभवतः इस वंश ने यहा द्वितीय शताब्द ईस्वी तक राज्य किया ।
वाकाटक काल
सातवाहन के पतन के पश्चात् वाकाटकों का अभ्युदय हुआ । डॉ मिराशी के अनुसार - वाकाटक प्रवरस ने दक्षिण - कोसल के समूचे क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था । इस शासक की मृत्यु के बाद राज होने लगा और गुप्तों ने दक्षिण - कोसल पर अधिकार कर लिया । यह घटना 3 - 4वीं सदी के बीच के काल वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन द्वितीय के बालाघाट ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उसके पिता नरेन्द्रसेन ने कोसल के मालवा और मैकल और मैकल में अपना अधिकार स्थापित कर लिया था । नरेन्द्रसेन और पृथ्वीसेन द्वितीय का संघर्ष बस्तर क्षेत्र में राज्य करने वाले नल शासकों से होता रहा । नल शासक भवदत्त वर्मा ने नरेन्द्रसेन की राजधानी नि ( नागपुर ) पर आक्रमण कर उसे पराजित किया था . किंत उसके पुत्र पृथ्वीसेन द्वितीय ने इसका बदला लिया जटत्त के उत्तराधिकारा अथपात को पराजित किया । संभवतः इस यद्ध में अर्थपति की मत्य हो गई थी । कालातर काटकों के वत्सगुल्मशाखाका राजा हरिसेन ने दक्षिण कोसल क्षेत्र में अपना अधिकार स्थापित कर लिया । इसक वाकाटक साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था । संभवतः त्रिपरी के कलचरियों ने वाकाटकों का अंत कर दिया . किंतु कोसल में संभवतः नल राजा स्कंदवर्मन द्वारा नल वंश की पुनःस्थापना कर बस्तर के पुष्करी ( भोपालपट्टनम ) को राजधानी बनाया । वाकाटक प्रवरसन क आश्रय में कुछ समय भारत के प्रसिद्ध कवि कालीदास ने व्यतीत किया था ।
गुप्त काल
उत्तर भारत में शुग एवं कुषाण सत्ता के पश्चात् गुप्त वंश ने राज्य किया तथा दक्षिण भारत के सातवाहन शक्ति राभव के पश्चात वाकाटक राज्य की स्थापना हुई । गप्त वंश के सम्राट समद्र गप्त की प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात कि इसने दक्षिणापथ की दिग्विजय के समय सर्वप्रथम दक्षिण कोसल के राजा महेन्द्र को पराजित किया था । पश्चात महाकान्तर के व्याघ्रराज का उल्लेख है । महेन्द्र के उत्तराधिकारियों के विषय में जानकारी नहीं मिलती . कित दर्ग जिले के ' बानबरद ' नामक स्थान से गुप्त मुद्राओं की प्राप्ति तथा यहां के अभिलेखों में गुप्त संवत् के प्रयोग स्पष्ट है कि यहां गुप्तों की अधिसत्ता स्थापित हो गई थी । व्याघ्रराज का संबंध संभवतः नल वंश से रहा होगा । राजर्षितुल्य कुल दक्षिण कोसल क्षेत्र में इस वंश के राज्य करने के विषय में भीमसेन द्वितीय के आरंग ताम्रपत्र ( गुप्त संवत् 182 या 282 ) से जानकारी मिलती है । इस ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि राजर्षितुल्य के छह राजाओं क्रमशः शूरा , दयित , विभीषण , भीमसेन ( प्रथम ) , दयित ( द्वितीय ) तथा भीमसेन ( द्वितीय ) ने राज्य किया था । गुप्त संवत् के प्रयोग से स्पष्ट होता है कि इस वंश के शासक गुप्त अधिसत्ता स्वीकार करते थे । इस लेख में तिथि संवत् 182 अथवा 282 अंकित है जो अस्पष्ट है । यदि इसे संवत् 182 माना जाये तो इस वंश का उदय पांचवीं शताब्दी में एवं तिथि 282 मानने पर छठवीं शताब्दी माना जा सकता है ।
पर्वतद्वारक
महाराज तुष्टिकर के तेराशिंघा ताम्रपत्र से तेल घाटी में राज्य करने वाले एक वंश के विषय में जानकारी मिलती है । इस ताम्रपत्र से दो शासकों के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है । पहले राजा सोभन्नराज की माता कौस्तुभेश्वरी जब दाहज्वर से बीमार पड़ गई थी तब सोमन्नराज ने देभोक ( रायपुर जिले के देवभोग ) क्षेत्र का दान किया था । दूसरे राजा तुष्टिकर द्वारा तारभ्रमक से पर्वतद्वारक नामक ग्राम दान में दिया गया था । इस लेख से ज्ञात होता है कि इस वंश के लोग स्तंभेश्वरी देवी के उपासक थे , जिसका स्थान पर्वतद्वारक में था , जिसकी समानता कालाहाण्डी जिले के ' पर्थला ' नामक स्थान से की जाती है । पर्वतद्वारक वंश का नाम इसी आधार पर रखा गया है जिसके अधिकार क्षेत्र में रायपुर का दक्षिणी भाग आता था ।
नलवंश
इस वंश से संबंधित परातात्विक सामग्री अत्यंत अल्प है । समुद्र गुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित महाकांतर के राजा व्याघ्रराज का संबंध कुछ इतिहासकारों ने बस्तर - कोरापुट के नल वंश से स्थापित किया है , किंतु अन्य स्रोतों से इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है । इस वंश के कुल पांच अभिलेख - भवदत्त वर्मा का ऋद्धिपुर ( अमरावती ) ताम्रपत्र तथा पाड़ागढ़ ( जैपर राज्य ) शिलालेख , अर्थपति का केशरिबेढ ताम्रपत्र एवं पाडियपाथर लेख ( उड़ीसा ) तथा विलासतुंग का राजिम शिलालेख ज्ञात है । इसके अतिरिक्त एडेंगा तथा कुलिया से प्राप्त मुद्रा भाण्डों में इस वंश के राजाओं के सिक्के मिलते हैं । अन्य अभिलेखों में समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति , प्रभावती गुप्त ( वाकाटक ) का ऋद्धिपुर ताम्रपत्र , पालुक्य पुलकेशिन प्रथम की ऐहोल प्रशस्ति एवं पल्लव नंदीवर्धन के उदयेन्दिरम् ताम्रपत्र आदि से नलों के संबंध में ।जानकारी मिलती है । नलवंशीय अपना संबंध पौराणिक नल से स्थापित करते हैं , किंतु ऐसे कोई साक्ष्य नहीं मिलते है । अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस वंश का सर्वप्रथम शासक वराहराज था । एडेंगा के मुद्राभाण्ड में वराहराज ( 400 - 440 ई . ) की 29 स्वर्णमुद्रायें प्राप्त हुई हैं । मिराशी का मत है कि यह भवदत्त का पूर्ववर्ती तथा संभवतः उसका पिता था । अभिलेखीय साक्ष्यों से नल - वाकाटक संघर्ष की जानकारी मिलती है । इसके उत्तराधिकारी भवदन वर्मा ( 440 - 460 ई . ) ने बस्तर तथा कोसल क्षेत्र में वाकाटकों को पराजित कर अपने साम्राज्य का विस्तार नागपर तथा बरार तक कर लिया था । इसके पश्चात अर्थपति उत्तराधिकारी हुआ । अर्थपति के केसरिबेड़ ताम्रपत्र से विदित होता है कि अर्थपति नलों की प्राचीन राजधानी पुष्करी में वापस आ गया था । इसी के समय वाकाटकों द्वारा पुनः शक्ति प्राप्त कर लेने पर आक्रमण कर नागपुर तथा विदर्भ का क्षेत्र नलों से न केवल वापस ले लिया गया , अपितु नलों की राजधानी पुष्करी को नष्ट - भ्रष्ट कर दिया गया । अर्थपति की शासन अवधि को डॉ . हीरालाल शुक्ल ने 460 - 475 ई निरूपित किया है । इसने अपने पिता भवदत्त की भांति सोने के सिक्के चलाये । एडेंगा निधि में अर्थपति के दो सिक्के प्राप्त हुए हैं । अर्थपति के बाद उसका अनुज स्कंदवर्मा शासक बना । इसके पोड़ागढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने नष्ट - भ्रष्ट पुष्करी को पुनःस्थापित किया । स्कंदवर्मा के पश्चात् नल राजाओं के विषय में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती । विलासतुंग के राजिम शिलालेख से उसके पिता विरूपाक्ष और पितामह पृथ्वीराज के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है । स्कंदवर्मा और पृथ्वीराज के मध्य के इतिहास पर अभिलेखों से कोई जानकारी नहीं मिलती । उसके उत्तरा धिकारियों ने संभवतः दक्षिण कोसल के पाण्डुवंशीय शासकों की सत्ता समाप्त की थी । दुर्ग जिले के कुलिया नामक स्थान से प्राप्त मुद्राभाण्ड से नंदनराज और स्तंभ नामक दो राजाओं के विषय में जानकारी मिलती है । संभवतः ये नल वंशी शासक ही थे जिन्होंने स्कंदवर्मा के पश्चात् और पृथ्वीराज के पूर्व शासन किया होगा । इसी समयावधि में पूर्वी चालुक्य ( वेंगी के ) राजा कीर्तिवर्मन प्रथम 567 - 97 ई . ने नलों पर आक्रमण किया था । कालांतर में शक्ति अर्जित कर नल राजा दक्षिण कोसल के दक्षिण - पूर्वी भाग में स्थानांतरित हो गये । राजिम से प्राप्त विलासतुंग के प्रस्तर अभिलेख के अध्ययन एवं पुरालिपीय प्रमाणों के आधार पर विलासपुंग की राज्यावधि 700 - 740 ई . रखी जा सकती है । यह विष्णु उपासक था । राजिम का प्रसिद्ध राजीवलोचन मंदिर विलासतुंग द्वारा ही बनवाया गया था ।
पल्लव नंदीवर्धन के उदयेन्दिरम् दानपत्र से विलासतुंग के पश्चात् पृथ्वीव्याघ्र नामक नल राजा के उत्तराधिकार प्राप्त करने का पता चलता है । इसके डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् एक अन्य नलवंशी राजा भीमसेन का पता चलता है , संभवतः वह शैव था । इसका एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसके विश्लेषण से इसकी राज्यावधि 900 - 925 ई . मानी जा सकती है । भीमसेन के पश्चात् नलवंशी राजाओं के संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती । संभवतः दंडकारण्य में नाग एवं मध्य छत्तीसगढ़ के सोमवंशियों ने इनका स्थान ले लिया । इस प्रकार चौथी से बारहवीं शताब्दी के मध्य लगभग 800 वर्षों तक शासन करने के पश्चात् इनका अंत हो गया ।
शरभपुरीय वंश
लगभग 5वीं सदी ईस्वी के अंत में दक्षिण कोसल में एक नये राजवंश की स्थापना हुई । इसकी राजधानी शरभपुर थी जिसका नामकरण इस वंश के संस्थापक शरभ के नाम पर हुआ था इस वंश के अधिकांश ताम्रपत्र शरभपुर से प्रचलित किये गये थे , इसलिये इस राजवंश को शरभपुरीय वंश के नाम से संबोधित किया जाता । है । भानुगुप्त के एरण स्तंभ लेख ( गुप्त संवत् 191 अथवा 510 ई . ) में शरभराज का उल्लेख है , जो संभवतः शरभपुराय । वंश का संस्थापक था । शरभपुर की स्थिति अभी तक अतिम रूप से तय नहीं हो पाई है । कुछ विद्वानों ने इसे सारंगढ़ से समीकृत किया है तो कुछ इसे उड़ीसा के संबलपुर से जोड़ते हैं । शरभ का उत्तराधिकरी नरेन्द्र था । इसके तीन ताम्रपत्र प्राप्त हये हैं लेकिन इसके काल के किसी महत्वपूर्ण घटना की जानकारी नहीं मिलती । इसके पश्चात् प्रसन्नमात्र नामक एक शक्तिशाली राजा हुआ । परवर्ती अभिलेखों में वंशावली इसी नरेश से प्रारंभ की गई है । इसन । अपने नाम से प्रसन्नपुर नामक नगर की स्थापना की थी , जो निडिला नदी के किनारे स्थित था । विद्वानों ने इसका पहचान मल्हार के पास लीलागर नदी से की है । यदि इसे माना जाये तो प्रसन्नपर का तादात्म्य मल्हार से स्थापित । होता है । प्रसन्नमात्र ने भारी मात्रा में स्वर्ण तथा रजत् मुद्रायें प्रचलित की थी जिसमें गरुड , शख तथा चक्र अंकित हैं । स्वर्ण सिक्कों के प्रचलन से इसके वैभव का पता लगता है । इसके पश्चात् जयराज , मानमात्र , दुर्गराज , सुदेवराज , प्रवरराज आदि राजा हुये । प्रवरराज प्रथम अत्यंत महत्वाकांक्षी राजा था , अतः उसने श्रीपुर ' में अपनी राजधान स्थापित की थी । इतिहासकार अजय मित्र शास्त्री के अनुसार देवराज का भाई प्रवरराज द्वितीय इस वंश का आतला राजा हुआ , जिसके दो ताम्रपत्र लेख ठाकुरदिया और मल्हार से प्राप्त हुये हैं । सुदेवराज के महासमंद और कौआताल लेखों में उल्लेखित सर्वाधिकरणाधिकृत ' इंद्रबल राज , उसका सामंत था , जो पाण्डुवंशी शासक शिवतीवरदेव के तामह के रूप में समीकृत किया जाता है । सुदेवराज की मृत्यु के पश्चात वह प्रवरराज द्वितीय के काल में अवसर पाकर दक्षिण कोसल के उत्तर - पूर्वी भाग पर आधिपत्य स्थापित करके शरभपुरीय शासन को समाप्त कर स्वयं राजा बन गया और श्रीपुर के पाण्डुवंश की स्थापना की ।
श्रीपुर के पाण्डुवंश अथवा सोमवंश
शरभपुरीय - वंश की समाप्ति के बाद पाण्डुवंशियों ने दक्षिण - कोसल में अपने वर्चस्व की स्थापना की । उन्होंने सिरपर को अपनी राजधानी बनाया । ये अपने को सोमवंशी पाण्डव कहते थे । अभिलेखों में उन्हें पाण्डुवंश का भी कहा गया है । वस्तुतः सोनपुर - बलांगीर क्षेत्र में राज्य करने वाले परवर्ती सोमवशियों से भिन्नता प्रकट करने के लिये इनका उल्लेख पाण्डुवंश के रूप में किया जाता है । साथ ही मैकल में इस राजवंश को पाण्डुवंश तथा दक्षिण - कोसल में इन्हें सोमवंशी कहा गया है ।
कालंजर के एक शिलालेख में इस वंश के आदिपुरुष का नाम उदयन मिलता है । इसका पुत्र इंद्रबल था जो शरभपीय शासक सुदेवराज का सामंत था । इसी ने शरभपुरियों को सत्ताच्युत कर पाण्डुवंश की स्थापना की थी ।
नन्नराज प्रथम - इंद्रबल के चार पुत्र थे इसमें सबसे बड़ा पुत्र नन्नराज | प्रथम था । यही इंद्रबल का उत्तराधिकारी हुआ । इसी काल में पाण्डुवंश का राज्य विस्तार एक बड़े भू - भाग में हो चुका था । इसने अपने शेष तीनों | भाइयों को मण्डलाधिपति के रूप में स्थापित किया । दूसरे पुत्र का नाम सुरबल था । तीसरे पुत्र इशानदेव का उल्लेख खरोद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के शिलालेख में हुआ है । चौथे पुत्र भवदेव ' रणकेशरी ' के विषय में जानकारी उसके भादक शिलालेख से प्राप्त हैं।
छत्तीसगढ़ का स्वर्ण - युग
सोमवंश के शासक , महाशिवगुप्त बालार्जुन का लगभग तेरह सौ साल पुराना इतिहास छत्तीसगढ़ का स्वर्ण - युग माना जाता है । इस मान्यता पर मुहर तब लगी , जब सिरपुर से इस शासक के 27 ताम्रपत्रों ( 9सेट ) की निधि एक साथ मिली । किसी एक ही शासक के इतने प्राचीन ताम्रलेख इस तादाद में अब तक कहीं प्राप्त नहीं हुए हैं ( महाशिवगप्त की जानकारी के अनुसार इस निधि में ताम्रपत्रों की संख्या इससे भी अधिक थी ) । यह प्राप्ति केवल संख्या की दृष्टि से ही उल्लेखनीय नहीं है बल्कि यह तत्कालीन छत्तीसगढ़ के स्वर्ण युग की गौरव - गाथा का अमूल्य अभिलेख है । महाशिवगुप्त बालार्जुन , सोमवंश में उत्पन्न हुआ और वंशानुगत वैष्णव धर्म से भिन्न शैव धर्म के सोम सम्प्रदाय का अनुयायी बनकर , अपने पूर्वजों के विपरीत स्वयं को परम भागवत के बदले परम माहेश्वर कहने लगा , किंतु उसके राजत्व काल में माता वासटा द्वारा बनवाया गया विष्णु मंदिर , जो अब सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर के नाम से जाना जाता है और बौद्ध आचार्यों को उसके द्वारा दिये गये दान से , उसकी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय मिलता है ।
वासटा के सिरपुर शिलालेख की प्रशस्ति , अतिशयोक्ति पूर्ण होगी , किंतु उससे इस महान शासक के सदगुणों , क्षमता और शक्ति का साफ अनुमान जरूर होता है । महाशिवगुप्त बालार्जुन के सिरपुर ताम्रपत्र निधि के अलावा बरदुला . बोंडा , लोधिया से एक - एक तथा मल्हार से तीन ताम्रलेख सेनकपाट और मल्हार शिलालेख के साथ - साथ सिरपुर से विभिन्न शिलालेख प्राप्त हुए हैं । मल्हार ( वस्तुतः जुनवानी ) से प्राप्त अब तक ज्ञात उसके अंतिम 57वें राज्यवर्ष के ताम्रलेख में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सूचनाओं सहित , अत्यंत रोचक विवरण आता है , जिसमें भूमिदान , हाथ के माप के पैमाने से दिया गया है ।
सिरपुर ताम्रपत्र निधि से मिलने वाली ऐतिहासिक जानकारी के साथ ही तत्कालीन राजधानी श्रीपुर में राज परिवार के सदस्यों द्वारा दिये गये दान का जिक्र है और यहां शैव सम्प्रदाय की अत्यंत महत्वपूर्ण शाखा का पता चलता है । निःसंदेह महाशिवगुप्त बालार्जुन इन्ही शैव - सोम सम्प्रदाय के आचार्यों से दीक्षित होकर ' परम् महेश्वर की उपाधि का धारक बना होगा ।
महाशिव तीवरदेव - नन्नराज के पुत्र एवं उत्तराधिकारी महाशिव तीवरदेव इस वंश का प्रतापी राजा था । इसका काल पाण्डुवंशी सत्ता का उत्कर्ष काल कहा जा सकता है । इसने कोसल , उत्कल और अन्य राज्यों तक अपने राज्य का विस्तार कर सकल | कोसलाधिपति ' की उपाधि धारण की । इसके तीन ताम्रपत्र प्राप्त हये हैं । राजिम और बालोद में प्राप्त ताम्रपत्र इसके पराक्रम का संकेत देते हैं ।
नन्नदेव अथवा नन्न दितीय - तीवरदेव का उत्तराधिकारी उसका पुत्र नन्नदेव हुआ । इसका एक मात्र ताम्रपत्र अड़भार से प्राप्त हुआ है । इसमें इसे कोसल मण्डलाधिपति कहा गया है । इसके शासन की कोई अन्य जानकारी नहीं मिलती । इसकी राज्यावधि अल्प थी ।
चन्द्रगुप्त - संभवतः नन्नदेव संतानविहीन था अतः उसकी मृत्यु पर उसका चाचा अर्थात तीवरदेव का - द्रगुप्त सोमसत्ता का उत्तराधिकारी हआ । सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर स्थित शिलालेख में राजा चन्द्रगुप्त का उ कया गया है ।
हर्षगुप्त - सिरपर लेख के अनसार चन्द्रगप्त का पत्र एवं उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ जिसका विवाह मगर खरी राजा सूर्यवर्मा की पुत्री वासटादेवी से हुआ था । इसके दो पुत्र महाशिवगुप्त एवं रणकेशरी थे । हर्ष की पश्चात उसकी रानी वासटा ने उसकी स्मृति में सिरपुर में हरि ( विष्णु ) का एक भव्य मंदिर बनवाया । इंटों से नि ह मंदिर आज लक्ष्मण मंदिर के नाम से विद्यमान है जो इस क्षेत्र में उत्तर गुप्त वास्तुकला का श्रेष्ठ उदाहरण है । यह भारतीय शिल्प का अद्वितीय उदाहरण है । |
महाशिवगुप्त - बालार्जुन - हर्षगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र महाशिवगुप्त राजा हुआ । बाल्यावस्था में यह धनुर्विद्या में पारंगत हो गया था । अतः यह बालार्जुन भी कहलाता है । इसने दीर्घकाल , लगभग 60 वर्षों तक शासन किया । विद्वानों ने इसकी राज्यावधि 595 - 655 ई . निर्धारित की है । इसके राजत्व काल के 57वें वर्ष के तीन अभिलेख हुये हैं । यह शैव धर्मावलंबी होने के बाद भी अन्यों के प्रति उदार एवं सहिष्णु था । इसके समय राजधानी श्रीपुर व अन्य स्थलों में शैव , वैष्णव , बौद्ध और जैन धर्मों से संबंधित अनेक स्मारकों एवं कृतियों का निर्माण हआ । इस कार की धात प्रतिमायें कला की दृष्टि से अद्वितीय कही जा सकती है । श्रीपुर इस काल में बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण केट । के रूप में प्रख्यात था । यह बात कन्नौज के हर्ष के दरबार में आये चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रावृत्तांत से प्रकट होती है । हवेनसांग महाशिवगुप्त के काल में ही लगभग 635 - 640 ई . के मध्य ( संभवतः 639 ई . में ) श्रीपुर अपने दक्षिण भारत यात्रा के दौरान पहुंचा था । वेनसांग ने अनेक बौद्ध विहार , स्तूप एवं बुद्ध की विशाल मूर्तियों का उल्लेख किया है , जिसकी पुष्टि पुरातात्विक अवशेषों से होती है । ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र को किया - स - लो के नाम से उल्लिखित किया है किंतु यहां की राजधानी का नामोल्लेख नहीं किया । उसका कहना है यहां राजा क्षत्रिय है तथा बौद्ध धर्म में श्रद्धा रखता है । उसने लिखा है राज्य में सौ संघाराम ( बिहार ) थे जहां दस हजार महायानी बौद्ध भिक्ष निवास करते थे एवं सत्तर देव मंदिर भी थे । वेनसांग द्वारा वर्णित अशोक द्वारा निर्मित स्तूप का पता नहीं चल सका है । ।
महाशिवगुप्त कन्नौज के हर्ष का समकालीन था । इसके शासन काल में श्रीपुर की बहुत उन्नति हुई । इसके शासनकाल को दक्षिण कोसल अथवा छत्तीसगढ़ के इतिहास का स्वर्ण काल कहा जाता है ।
वातापि नरेश पुलकेशिन द्वितीय के एहोल प्रशस्ति के अनुसार ईसवीं 634 में कोसल नरेश उसके द्वारा पराजित किया गया था और संभवतः उसने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी । स्पष्टतः रेवा के निकट सकलोत्तरपथनाथ हर्ष को पराजित करने के पूर्व वह दक्षिण कोसल से गुजरा था और इस समय बालार्जुन ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली हो । अतः इसके काल में दक्षिण कोसल दक्षिणी राजवंशों के प्रभाव में आ चुका था ।
महाशिवगुप्त बालार्जुन के 27 ताम्रपत्र सिरपुर में एक व्यक्ति के दाड़ी में खुदाई के दौरान प्राप्त हुये थे जिसका सर्वप्रथम अध्ययन डॉ . विष्णु सिंह ठाकुर एवं डॉ . रमेन्द्रनाथ मिश्र ने किया था । बालार्जुन के बाद के शासक महत्वपूर्ण सिद्ध नहीं हुये । इसके बाद इस वंश का पतन आरंभ हो गया । संभवतः पाण्डुवंशियों के पतन में नलवंशी विलासतुग ( 700 - 740 ई . ) तथा बाणवंशी विक्रमादित्य ( 870 - 895 ई ) की भूमिकाय थीं । सोमवंशी राजाओं की सभा में अत्यंत सुशिक्षित और धुरंधर पंडित रहते थे . उनकी शासन प्रणाली भी तत्कालीन समय में उत्कृष्ट थी ।
नल . बाण और कलचूरियों द्वारा छत्तीसगढ़ क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के कारण श्रीपर के पाण्डवशीय शासका । को पूर्व की ओर जाना पड़ा तथा उन्होंने उड़ीसा के सोनपुर क्षेत्र में सोमवंश के नाम से राज्य स्थापित किया । इस वंश का सर्वप्रथम राजा शिवगुप्त हुआ । चूंकि यह क्षेत्र वर्तमान में छत्तीसगढ़ की सीमा से बाहर है अतः यहां इस पर चर्चा नहीं की जा रही है ।
मेकल का पाण्डव वंश
अमरकंटक के आसपास का क्षेत्र मैकल के नाम से जाना जाता था । यहां पाण्डवशियों की एक शाखा क । करने के विषय में भरतबल के बम्हनी ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है । प्रारंभिक दो राजाओं जयबल और वन किया गया के साथ कोई राजकीय उपाधि प्रयुक्त नहीं हुई है । इसके बाद नागबल के लिये महाराज उपाधि का प्रयोग कि है । इसके पुत्र भरतबल के समय का ऊपर उल्लेखित ताम्रपत्र में इसकी रानी लोकप्रकाशा का उल्लेख जो नरेन्द्र की बहन थी । इस नरेन्द्र को शरभपरीय शासक नरेन्द्र से समीकृत किया जाता है । मल्हार से इस वंश का एक और ताम्रपत्र मिला है जिसमें भरतबल के पुत्र शूरबल का उल्लेख मिलता है । यद्यपि पुराणों में मेकल के राजाओं के संबंध में उल्लेख मिलता है तथापि इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास के संबंध में कोई जानकारी नहीं मिलती । अभिलेखों से ज्ञात होता है कि पांचवीं शताब्दी में मैकल क्षेत्र में पाण्डुवंशियों की एक शाखा राज्य करती थी । इस शाखा का दक्षिण कोसल के पाण्डववंश के साथ प्राचीन संबंध क्या था इस संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
बाणवंश
छत्तीसगढ़ में पाण्ड्वंशी सत्ता की समाप्ति में बाणवंशीय शासकों का भी योग था । कोरबा जिले के ‘ पाली ' नामक स्थल में मंदिर के गर्भगृह के द्वार में उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि इस मंदिर का निर्माण महामण्डलेश्वर मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा किया गया था । विक्रमादित्य को बाणवंश का राजा माना गया है , जिसका काल 870 से 895 ई . माना गया है । बाणवंशी शासकों ने संभवतः दक्षिण - कोसल के सोमवंशियों को बिलासपुर क्षेत्र से हटाया था । कालान्तर में कलचुरि शासक शंकरगण द्वितीय मुग्धतुंग ने इनसे पाली का क्षेत्र जीत लिया और अपने भाइयों को इस क्षेत्र में मण्डलेश्वर बना कर भेजा जिन्होंने दक्षिण कोसल में कल्चुरि राजवंश की स्थापना की ।