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छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन
राष्ट्रीय आन्दोलन (कंडेल सत्याग्रह)
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राष्ट्रीय आन्दोलन (प्रथम सविनय अवज्ञा आन्दोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (महासमुंद (तमोरा) में जंगल सत्याग्रह, 1930 : बालिका दयावती का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आन्दोलन का द्वितीय चरण)
राष्ट्रीय आन्दोलन (गांधीजी की द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा (22-28 नवंबर, 1933 ई.))
राष्ट्रीय आन्दोलन (व्यक्तिगत सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर षड्यंत्र केस)
राष्ट्रीय आन्दोलन (भारत छोड़ो आंदोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर डायनामाइट कांड)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता दिवस समारोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर में वानर सेना का बाल आंदोलन बालक बलीराम आजाद का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रियासतों का भारत संघ में संविलियन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में मजदूर एवं किसान आंदोलन 1920-40 ई.)
छत्तीसगढ़ के प्रमुख इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता
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राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में मजदूर एवं किसान आंदोलन 1920-40 ई.)



छत्तीसगढ़ में मजदूर एवं किसान आंदोलन 1920-40 .
छत्तीसगढ़ में मजदूर आंदोलन का एकमात्र केन्द्र राजनांदगाँव का बंगाल-नागपुर कॉटन मिल्स था, क्योंकि अंचल में तत्कालीन समय में केवल एक ही बड़ा औद्योगिक उपक्रम था, जिसमें बड़े पैमाने पर श्रमिक कार्य करते थे। ब्रिटिश काल में शोषण जीवन के प्रत्येक पहलू में आम बात थी। स्वाभाविकतः उपक्रम में कार्यरत् श्रमिको का शोषण इसके स्वामियों द्वारा किया जाता रहा। फलस्वरूप मजदूरों के असंतोष ने इस मिल में आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। इस आंदोलन में केन्द्रीय भूमिका ठाकुर प्यारेलाल सिंह की थी जिन्होंने इस क्षेत्र में सहकारिता को जन्म दिया और स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित की। इस कार्य में उनके सहयोगी थे -शिवलाल मास्टर और शंकर खरे। ठाकुर साहब ने क्षेत्र में एक संगठित श्रमिक आंदोलन का सूत्रपात किया जो सफल तो रहा ही, साथ ही इसने स्वतंत्रता आंदोलन को अंचल में तेज किया। औद्योगिक श्रमिकों के हितों की रक्षा हेतु ठाकुर साहब ने ऐसे समय में आवाज उठाई थी जब देश में श्रमिक आंदोलन अपने आरम्भिक चरण में था। उनकी इस उल्लेखनीय सफलता के कारण ठाकुर साहब की गणना देश के गिने-चुने लोगों में की जाती है। मजदूर आंदोलन की चर्चा के पूर्व इस कपड़ा मिल के विषय में जान लेना आवश्यक है।
इस मिल की स्थापना 23 जून, सन् 1890 में राजनांदगाँव रेलवे स्टेशन के समीप की गई थी। आरम्भ में इसका नाम सी. पी. मिल्स था। मिल द्वारा उत्पादन कार्य नवम्बर 1894 में प्रारम्भ हुआ। राजनांदगाँव रियासत के शासक राजा बलरामदास मिल के संचालक बोर्ड के अध्यक्ष थे। इसके निर्माता बम्बई के मि. जे. वी. मैकवेथ थे। कुछ समय पश्चात् मिल को हानि हुई, फलस्वरूप 1897 में इसे कलकत्ता के मि. शॉवालीश कंपनी ने खरीदा जिसने इसका नाम बदलकर बंगाल-नागपुर काटन मिल्स कर दिया।

प्रथम मजदूर आंदोलन- इस आंदोलन के प्रणेता ठाकुर प्यारेलाल सिंह थे। पूर्व से ही वे राजनांदगाँव रियासत में राजनीतिक चेतना के केन्द्र बने हुये थे। रोलेट एक्ट एवं जलियाँवाला बाग कांड ने सारे देश को आंदोलित कर रखा था। वर्ष 1919 में ठाकुर साहब ने मिल मजदूरों को एकता के सूत्र में बाँधकर जागृति का मंत्र फूंका। 1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान ठाकुर साहब ने मिल प्रबंधन से असंतुष्ट मजदूरों को संगठित कर 36 दिनों की लम्बी हड़ताल करवा दी। इतने लम्बे समय तक चलने वाली देश की यह पहली हड़ताल थी। मजदूरों ने हडताल अपनी माँगों के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित किया था। इन मजदूरों को प्रतिदिन 12-13 घंटे कार्य करना होता था। जो असंतोष का मुख्य कारण था। मजदूर एकता के समक्ष एवं ठाकुर साहब के कुशल नेतृत्व के आगे प्रबंधन को झुकना पड़ा और मजदूरों के कार्य करने के घंटे कम कर दिये गये। 36 दिनों की लम्बी हड़ताल से राजनांदगाँव को देशभर में प्रसिद्धि तो मिली ही, यह नगर राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से जुड़ गया। आंदोलन तो सफल रहा, किंतु ठाकुर साहब को दण्डस्वरूप राजनांदगाँव रियासत की सीमा से निष्कासित कर दिया गया। इसे चुनौती देते हुये ठाकुर साहब ने मध्यप्रांत के गवर्नर से शिकायत की, जिन्होंने उनके निष्कासन को रद्द कर दिया। यह ठाकुर साहब की जीत थी, जिससे वे मजदूरों के विश्वासपात्र बन गये और उन्हें जनता की अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई।
द्वितीय मजदूर आंदोलन- 1924 में मिल मजदूरों ने ठाकुर साहब के नेतृत्व में दोबारा आंदोलन छेड़ दिया। इस बार भी मजदूरों ने लम्बी हड़ताल की। संघर्ष के दौरान अनेक मजदूरों को गिरफ्तार किया गया, किंतु ठाकुर साहब मजदूरों का आत्मबल बढ़ाते हुये डटे रहे। हड़ताल की अवधि में मजदूरों ने एक भोज का आयोजन किया, जिसमें रियासत के एक सिपाही द्वारा बर्तनों को जूते से ठोकर मारने की घटना से संयमित मजदूर उत्तेजित हो उठे। मजदूरों ने इसकी शिकायत रियासत के अधिकारियों से की। लौटते वक्त मजदूरों को रियासत का भ्रष्ट बाबू गंगाधरराव दिखाई पड़ा, जिसे एक मजदूर ने थप्पड़ मार दिया। इस घटना पर पुलिस ने 13 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया एवं इनके खिलाफ मुकदमा चलने लगा। मजदूरों ने न्यायालय को चारों ओर से घेर लिया, जब मजदूरों को जेल ले जाया जा रहा था तब उनके साथियों ने हमला कर उन्हें छुड़ा लिया, किंतु पुलिस ने उन्हें फिर से पकड़ लिया और एक मजदूर के न मिलने पर पुलिस ने ठाकुर साहब के मकान को चारों ओर से घेर लिया। जब इसकी सूचना जनता को मिली तब वे उत्तेजित होकर पोलिटिकल ऐजेन्ट का पीछा करने लगे, जिस पर शासन ने बल प्रयोग कर गोलियाँ चलवायीं, एक मजदूर मारा गया और बारह घायल हुये। ठाकुर साहब ने इस घटना की भर्त्सना करते हुये इसकी शिकायत गवर्नर से की, किंतु शासन ने उन्हें दोषी ठहराते हुये रियासत से निष्कासन का आदेश दिया। अतः वे रायपुर चले आये तथा जीवनपर्यंत रायपुर उनकी गतिविधियों का केन्द्र रहा।
तृतीय मजदूर आंदोलन- रायपुर जाने के बाद भी वे मिल मजदूरों से जुड़े रहे। इस बीच मिल प्रबंधन ने मजदूरों के वेतन में 10 प्रतिशत की कटौती कर दी। इस पर मजदूर पुनः हड़ताल की तैयारी करने लगे। ठाकुर साहब मजदूर हित में पुनः सक्रिय हो उठे। वे राजनांदगाँव रेलवे स्टेशन के विश्रामगृह में रहकर हडताल का संचालन करते रहे। अंततः अधिकारियों ने मजदूरों के प्रतिनिधि श्री रूईकर के नेतृत्व में समझौता किया, किंतु यह मजदूरों के लिये लाभप्रद सिद्ध न हो सका, 600 मजदूर बेकार हो गये और मजदूरों को 4 लाख रुपयों की आर्थिक क्षति हुई। अतः मजदूरों ने ठाकुर साहब को अपने हित में सामने आने हेतु निवेदन किया। तदनुसार ठाकुर साहब ने नया समझौता प्रस्ताव प्रस्तुत किया. जिसे समझौता बोर्ड ने मूलतः स्वीकार कर लिया। निकाले गये मजदूरों को वापस ले लिया गया एवं ठाकुर साहब का निष्कासन आदेश भी रद्द कर दिया गया। इस प्रकार यह आंदोलन पूर्णतः सफल रहा। ठाकुर साहब ने 1919 से 1940 तक मजदूरों का न केवल सफल नेतृत्व किया अपितु स्वतंत्रता आंदोलन में उनका भरपूर उपयोग भी किया, जिससे क्षेत्र में नई जागृति आयी। छत्तीसगढ़ में श्रमिक आंदोलन का सूत्रपात करने और जन-संगठनकर्ता के रूप में अंचल के इतिहास में उनका विशेष स्थान है। छत्तीसगढ़ में सहकारिता आंदोलन को आरम्भ करने एवं उसे सुदृढ़ रूप देने का श्रेय उन्हीं को है। 1940 में गांधीजी ने ठाकुर साहब से अंचल में हुये मजदूर आंदोलन की जानकारी सविस्तार ली, जिससे उनके इस सफल प्रयास के महत्व का पता चलता है।
छत्तीसगढ़ में किसान आंदोलन
छत्तीसगढ़ आरम्भ से ही एक कृषि प्रधान क्षेत्र है। यहाँ की समस्या मूलतः किसानों से सम्बन्धित रही है। अंग्रेजी शासन में पहली बार यहां भूमि व्यवस्थापन किया गया और इसी के साथ इस क्षेत्र में सामन्तीय शोषण की प्रक्रिया का आरम्भ हुआ। इस सामन्तीय व्यवस्था ने बेगार प्रथा को भी जन्म दिया। उन दिनों बेगार की प्रथा अनेक स्तरों पर प्रचलित थी। इस वेगार प्रथा के खिलाफ छत्तीसगढ़ के किसानों ने आवाज उठायी। राजनांदगाँव इस दिशा में अग्रणी रहा। बेगार-प्रथा के खिलाफ सेवता ठाकुर ने प्रथम बार बगावत की थी। उसी तरह सरगुजा और बस्तर के किसानों ने भी आवाज उठाई थी। बेगार की समाप्ति, मालगुजारी प्रथा की समाप्ति, लगान की माफी, महाजनों के शोषण से मुक्ति एवं भूमिहीनों हेतु भूमि आदि की मांग किसानों द्वारा इन आदोलनों के माध्यम से की गई। पण्डित सुन्दरलाल शर्मा, बाबू छोटेलाल, नत्थूजी जगताप (धमतरी), नरसिंह प्रसाद अग्रवाल (दुर्ग) आदि ने किसान आंदोलन को नई दिशा दी।
कंडेल ग्राम का नहर सत्याग्रह किसानों का ही आदोलन था, जिसने 1920 ई. में पं. शर्मा के नेतृत्व में सफलता प्राप्त की थी, जिसमें किसानों ने गांधीवादी नीति का पालन किया था। अपनी इस सफलता के लिये कंडेल ग्राम को राष्ट्रव्यापी प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा राष्ट्रीय आंदोलन के अध्याय में की गई है। इसके बाद किसानों ने 1920 एवं 40 के मध्य अनेक जगल सत्याग्रहों में भाग लिया, जो जंगल में अपने निस्तार अधिकार प्राप्त करने हेतु किसानों द्वारा चलाये गये, जिनके संबंध में विस्तृत चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। इन आंदोलनों के माध्यम से किसानों ने अंचल में स्वतंत्रता आंदोलन को मुखर किया ।
दुर्ग-डांडी का प्रसिद्ध किसान आंदोलन- किसान आंदोलन का संगठित रूप सन् 1937 में डांडी लोहारा और दुर्ग में दिखाई पड़ा, जहा इसका नेतृत्व बालोद के गाधीवादी नेता श्री नरसिंह प्रसाद अग्रवाल ने किया। इस समय डांडी लोहारा के जमींदार के दीवान श्री मनीराम पाण्डेय का विशेष आतंक था। 28 अगस्त, 1937 को जमींदारों के समक्ष किसानों ने मालीथोड़ी के बाजार में आम सभा का आयोजन किया, जिसमें दीवान के खिलाफ शिकायतें की गई. किंतु उसका कोई प्रभाव जमींदार पर नहीं हुआ। फलस्वरूप किसानों ने श्री अग्रवाल के नेतृत्व में सत्याग्रह आरम्भ कर दिया। श्री अग्रवाल लगातार तीन वर्षों तक घूम-घूम कर भाषण देते रहे। यह आंदोलन आसपास की सभी जमींदारियों, जैसे-अंबागढ़ चौकी, पानाबरस आदि में फैल गया। दुर्ग के श्री वासुदेव देशमुख, श्री अग्रवाल के अनुज श्री सरयू प्रसाद अग़वाल, पं. रत्नाकर झा आदि ने इसमें अपना सहयोग दिया।
इसी अवसर पर डांडी लोहारा में श्री वली मुहम्मद ने सत्याग्रह आरम्भ किया. जिसमें 94 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। अग्रवाल बंधुओं को भी सिवनी जेल भेज दिया गया। दीवान मनीराम ने सत्याग्रहियों पर मुकदमा दायर किया। इस पर किसानों की ओर से रायपुर के वकील श्री त्रिवेणीलाल श्रीवास्तव ने अदालत में पैरवी की। राजधानी नागपुर के बैरिस्टर श्री जकातदार ने भी किसानों का साथ दिया।
जिस समय यह आंदोलन प्रारम्भ हुआ था. पं. शुक्ल मध्यप्रांत के शिक्षामंत्री थे एवं श्री द्वारिका प्रसाद मिश्र गृहमंत्री थे। इन दोनों ने आंदोलन में मध्यस्थता करने की दृष्टि से अग्रवाल बंधुओं को नागपुर बुलवाया, परन्तु समझौता नहीं हो सका। फलस्वरूप श्री सरयू प्रसाद अग्रवाल ने सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया। 5 मई. 1939 को कुसुमकसा नामक गाँव में विराट सभा हुई। श्री सरयू प्रसाद अग्रवाल ने 9 रोज तक उपवास किया। चूंकि उस समय प्रांत में कांग्रेस का शासन था और कांग्रेस के नेता इस आंदोलन को तोड़ना चाहते थे अतः श्री सरयू प्रसाद गिरफ्तार कर लिये गये। जेल यातना के कारण उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा। अंततः इस आंदोलन का एक बड़ा लाभ यह हुआ कि शासन ने ग्रामीणों के निस्तारी अधिकार को एक सीमा में स्वीकार किया और इस सम्बन्ध में कानून निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। कालांतर में 'निस्तार नियम' बनाये गये।

इसी प्रकार छुई-खदान जमींदारी में किसानों ने 1938 में 'कर न पटाओ आंदोलन आरम्भ किया। सरकार ने इनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही कर अनेक गिरफ्तारियाँ की, किंतु जनता वहाँ के तत्कालीन जमींदार का विरोध करती रही।
इस प्रकार अंचल में आदिवासियों, श्रमिकों के अलावा एक तीसरे बड़े वर्ग किसानों द्वारा सफलतम् आंदोलन चलाया गया, जो तीसरे एवं चौथे दशक में प्रभावी रहा। किसान आंदोलन के माध्यम से क्षेत्र में जन-जागृति में असाधारण सफलता प्राप्त हुई।