छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था
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छत्तीसगढ़ का नामकरण
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छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास
मराठा शासन में ब्रिटिश - नियंत्रण
छत्तीसगढ़ में पुनः भोंसला शासन
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव
1857 की क्रांति एवं छत्तीसगढ़ में उसका प्रभाव
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन
राष्ट्रीय आन्दोलन (कंडेल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (सिहावा-नगरी का जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (प्रथम सविनय अवज्ञा आन्दोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (महासमुंद (तमोरा) में जंगल सत्याग्रह, 1930 : बालिका दयावती का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आन्दोलन का द्वितीय चरण)
राष्ट्रीय आन्दोलन (गांधीजी की द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा (22-28 नवंबर, 1933 ई.))
राष्ट्रीय आन्दोलन (व्यक्तिगत सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर षड्यंत्र केस)
राष्ट्रीय आन्दोलन (भारत छोड़ो आंदोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर डायनामाइट कांड)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता दिवस समारोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर में वानर सेना का बाल आंदोलन बालक बलीराम आजाद का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रियासतों का भारत संघ में संविलियन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में मजदूर एवं किसान आंदोलन 1920-40 ई.)
छत्तीसगढ़ के प्रमुख इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता
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छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन



 छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन
1857 ई. का विद्रोह भारतीय इतिहास की असाधारण घटना थी। इसके परिणामस्वरूप नवंबर 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने भारत मे कम्पनी के शासन का अन्त कर इसे अपने हाथों में ले लिया। लेकिन सत्ता केन्द्र के इस परिवर्तन से भारतीय जनता के कष्टों में कोई कमी नहीं हुई। 1857 ई. की क्रांति को अंग्रेजों ने अपने सैन्य बल से दबा तो दिया, पर अंग्रेज विरोधी भावनाएं खत्म न हुईं और इसी ने आगे चलकर देश में राष्ट्रीय आन्दोलन को जन्म दिया।

राष्ट्रीय चेतना का अम्युदय-

     अंग्रेजों की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई साम्राज्यवादी एवं शोषणवादी नीति ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय जनमानस में एक अभूतपूर्व जागृति को जन्म दिया। परिणामतः सम्पूर्ण देश में सुधारवादी सामाजिक, धार्मिक आन्दोलनों का आरंभ हुआ। यद्यपि मोटे तौर पर भारत में राष्ट्रीयता का उदय काँग्रेस की स्थापना के साथ माना जाता है, तथापि इसका बीजारोपण लॉर्ड डलहौजी के शासन काल (1848-1856 ई.) में हो चुका था। शताब्दी के आरंभ से ही अंग्रेज नीतियां भारतीय समाज एवं धार्मिक विषयों में हस्तक्षेप कर रही थीं। अंग्रेजी शिक्षा एवं पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार भारतीय भाषा एवं संस्कृति के ऊपर एक अघोषित हमला था, जिसे समय रहते भारतीय शिक्षित मध्यम वर्ग एवं बुद्धिजीवी वर्ग ने मांप लिया। इस वर्ग ने देशी संस्कृति की रक्षा हेतु भारतीय समाज एवं धर्म में व्याप्त रूढ़ियों एवं आडम्बरों के उन्मूलन एवं इसमें सकारात्मक तत्वों की पुनर्स्थापना हेतु अपने-अपने स्तर पर प्रयास आरंभ कर दिये । परिणामतः ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज जैसे अनेक सुधारवादी संस्थाओं का जन्म हुआ जिसने पाश्चात्य हमले के विरुद्ध कवच का काम कर न केवल भारतीय संस्कृति का परिरक्षण किया अपितु इससे राष्ट्रव्यापी पुनर्जागरण का अभ्युदय हुआ, जिसने क्रमशः राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप ले लिया। इस राष्ट्रीय चेतना के अभ्युदय के मूल में कोई एक या दो तत्व नहीं थे बल्कि ये तो अनेक अपमानजनक, उत्पीड़नकारी तथा भारतीय स्वाभिमान को नष्ट करने वाले तत्वों का सम्मिलित प्रभाव था जिसमें पाश्चात्य संस्कृति एवं शिक्षा का प्रसार व भारतीय संस्कृति, साहित्य, धर्म, परम्परा एवं समस्त हिन्दू प्रणाली का अपमान, जाति एवं नस्ली भेदभाव, अंग्रेजों द्वारा स्वयं को शासक एवं भारतीयों को निम्न समझना, औपनिवेशिक शोषण और इसके वशीभूत साम्राज्यवादी नीतियों का अवलम्बन, राष्ट्रीय प्रेस की स्थापना एवं राष्ट्रीय साहित्य का विकास आदि अनेकानेक कारण थे। एक ओर अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीयों को पाश्चात्य साहित्य सुलभ किया जिससे उन्हें बर्क, मिल, ग्लैडस्टोन, मैकाले जैसे लोगों के विचारों को सुनने-समझने का अवसर मिला तो दूसरी ओर जॉन मिल्टन, पी.बी. शेली, लॉर्ड बायरन जैसे महान कवियों की रचनाओं को पढ़ने एवं वॉलटेयर, रूसो आदि के विचारों को जानने का अवसर मिला। लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाकर, शिक्षित मध्यमवर्ग जिसकी भूमिका राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण रही, को जन्म दिया। भारतेन्दु, बंकिमचन्द्र, चिपलोणकर, नर्मद सुब्रमण्यम् भारती ने एक ओर अपनी रचनाओं से देश प्रेम की भावना जागृत की, तो दूसरी ओर दादाभाई नौरोजी और रमेशचन्द्रदत्त जैसे अर्थशास्त्रियों ने 'धन के बहिर्गमन का सिद्धांत समझाकर अंग्रेजों के शोषण का खाका शींचा। रेल, डाक, तार जैसे तीव्र परिवहन एवं संचार के साधनो ने भी राष्ट्रवाद की जड़ों को मजबूत किया। रेलवे ने इसमें मुख्य भूमिका का निर्वाह किया। बौद्धिक पुनर्जागरण ने राष्ट्रवाद के उदय में भूमिका निभाई। दयानंद, विवेकानंद और राजा राममोहन ने भारतीयों के अंतःमन को झकझोरा। दूसरी ओर मोनियर विलियम्स, मैक्समूलर, रॉथ, सस्सन, मैकडानल्ड, चार्ल्स विल्किंस, जेम्स प्रिंसेप आदि ने शोध के द्वारा भारत की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर से हमारा परिचय कराया। अलेक्जेन्डर कनिंघम एवं विलियम जोंस ने भी इस कार्य को आगे बढ़ाया। डलहौजी की साम्राज्यवादी और लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने भी राष्ट्रवाद के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। इन सभी तत्वों के सम्मिलित प्रभाव से कांग्रेस रूपी राष्ट्रवादी मंच की स्थापना हुई और इसी मंच से आगे चलकर राष्ट्रीय आंदोलन संचालित हुआ।
     दिसम्बर 1885 में लम्बी कवायद के बाद, ए. ओ. ह्यूम के प्रयासों से जो भारतीय सिविल सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी थे, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने जन्म लिया। ऐसा माना जाता है कि कांग्रेस डॅफरिन एवं ह्यूम के मस्तिष्क की उपज थी और इन्होंने इस संस्था को भारतीय जनता एवं ब्रिटिश शासन के मध्य एक 'सुरक्षा कवच' के रूप में स्थापित किया था। आरम्भ में कांग्रेस ब्रिटिश शासन एवं नीतियों पर पूर्ण आस्था एवं सद्भावनापूर्ण दृष्टिकोण रखतेहुए ब्रिटिश शासन के साथ सहयोगपूर्ण रवैया अपनाया, किंतु शीघ्र ही यह राष्ट्रवादी धारा की ओर विमुख हुआ। परिणामस्वरूप कांग्रेस व ब्रिटिश शासन में टकराव आरम्भ हो गया और यह टकराव अतिशीघ्र आंदोलन के रूप में परिवर्तित हो गया। यह आदोलन जिसे राष्ट्रीय आदोलन की संज्ञा दी गई है, अनवरत चलता रहा एवं भारत की स्वतंत्रता के साथ ही पूर्ण हुआ। आरभ मे आदोलन, ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता एवं बंगाल, बम्बई एवं मद्रास जैसे बड़े एवं जागृत क्षेत्रों में ही प्रभावी रहा, कितु 20वीं शताब्दी के आरम्भ में ही यह राष्ट्रव्यापी हो गया। स्वभाविकतः छत्तीसगढ भी इससे अछूता न रहा और यहां पर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान पर्याप्त राष्ट्रवादी घटनायें घटित हुई। छत्तीसगढ के मामले में एक महत्वपूर्ण तथ्य विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि अशिक्षित, पिछडा एवं शेष राष्ट्र से अलग-थलग होने के बावजूद भी यहां राष्ट्रीय आन्दोलन में सभी वर्ग के लोगो ने समान रूप से भागीदारी की, जिसमें मजदूर, किसान, जनजातिया, व्यापारी, शिक्षित, धनाढ्य एवं महिलायें भी सम्मिलित थीं। यहां सर्वप्रथम किसानों ने ही ब्रिटिश शासन की गलत नीतियों के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई।
छत्तीसगढ़ में आंदोलन की पीठिका-  यद्यपि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की स्थापना के पूर्व ठीक उसी तरह पुनर्जागरण का कार्य आरंभ हो चुका था जिस तरह समूचे राष्ट्र में यह धार्मिक-सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा चल रहा था। यहां के बुद्धिजीवियों ने छत्तीसगढ़ क्षेत्र मे जागृति लाने के लिए टॉऊन स्कूलों में निबन्ध लेखन, वाद-विवाद समिति (1857 ई.), वैज्ञानिक तथा साहित्यिक समिति रायपुर (1870 ई.). रीडिंग क्लब रायपुर, मालिनी रीडिंग क्लब रायपुर, कवि समाज राजिम (1899 ई.) आदि की स्थापना की। इन संस्थाओ के माध्यम से जनजागृति हेतु वातावरण निर्मित हुआ।
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आंदोलन
कांग्रेस की स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ की राष्ट्रवादी गतिविधियां कांग्रेस से जुड गईं और आगे चलकर इसी से प्रेरित हो संगठित होती रहीं। सम्भवतः छत्तीसगढ़ के निवासियों का कांग्रेस से सम्बन्ध (1891 ई.) के नागपुर अधिवेशन  से हुआ। इस अधिवेशन में यहां के प्रतिनिधियो ने भाग लिया, किंतु कांग्रेस की गतिविधियों का छत्तीसगढ़ में सीधा प्रभाव (1905 ई.) नागपुर में आयोजित प्रथम प्रान्तीय राजनीतिक परिषद् के माध्यम से हुआ। 1906 ई. में द्वितीय प्रांतीय राजनैतिक परिषद का आयोजन जबलपुर में हुआ। इसमें दादा साहेब खापर्डे का स्वदेशी आंदोलन' विषयक प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। इसी समय रायपुर में कांग्रेस की शाखा स्थापित हुई। इसकी स्थापना में बैरिस्टर सी. एम. ठक्कर का योगदान महत्वपूर्ण था।
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय जागरण एवं पं. सुन्दरलाल शर्मा-    जिस प्रकार देश में राष्ट्रीय जागरण का अग्रदूत राजा राममोहन राय को माना जाता है। उसी तरह छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय जागरण के प्रणेता पं. सुन्दरलाल शर्मा थे। उन्होंने इस अंचल में सामाजिक और राष्ट्रीय आन्दोलन का सूत्रपात किया। वे राजिम के निकट चमसूर गांव के रहने वाले थे। इसके बावजूद उन्होंने सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व किया। वे 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बने एवं आजीवन काग्रेस से जुड़े रहे। 1907 में प्रथम बार कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में भाग लेने के उपरान्त जीवन पर्यन्त उन्होंने कांग्रेस के सभी प्रांतीय सम्मेलनों में भाग लिया। पं. शर्मा अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से क्षेत्र के विचारकों और देशभक्तों को एक सूत्र में बाधने में सफल हुए। 1906 में इन्होंने सम्मित्र मण्डल की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सामाजिक सुधारों के साथ-साथ लोगों में राष्ट्रीय जागृति का विकास करना था। 1907 में सूरत में सम्पन्न अखिल भारतीय कांग्रेस के सम्मेलन में इन्होंने छत्तीसगढ का प्रतिनिधित्व किया। वे स्वदेशी आंदोलन के समर्थक थे और इसी भावना से उन्होंने खादी आश्रमों की स्थापना की जिसका संचालन वे अनेक आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद भी करतेरहे। इसके लिए उन्हें अपना पैतृक गांव भी छोड़ना पड़ा। इस कार्य में श्री मेघावाले इनके सहयोगी थे। पं. शर्मा अपने लेखन के द्वारा भी जनजागृति का कार्य करते रहे। इनके कार्यों में संस्कृत पाठशाला की स्थापना (राजिम में), अछूतोद्धार हेतु रायपुर में सतनामी आश्रम की स्थापना, गौ वध विरोध, मंदिरों में हरिजन प्रवेश एवं विभिन्न अवसरों पर सत्याग्रह का संचालन शामिल हैं। कण्डेल सत्याग्रह ने तो छत्तीसगढ़ को राष्ट्रीय मानचित्र पर स्थापित कर दिया जिसका संचालन पं. शर्मा ने स्वयं किया एवं गांधीजी को इसमें सम्मिलित होने हेतु आमंत्रित भी किया था, किंतु गांधीजी के आगमन के पूर्व ही सत्याग्रह ने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया था। अपने राष्ट्रवादी कारणों के कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। जेल में भी वे सक्रिय रहे और वहां से 'जेल पत्रिका का संचालन किया। पं. शर्मा जीवन पर्यन्त राष्ट्र सेवा में लगे रहे और अचल में एक प्रेरणा स्तम्भ की तरह खड़े रहे।

समाचार पत्रों की भूमिका-  देश के अन्य भागों की तहर छत्तीसगढ़ में भी समाचार पत्र जनजागृति का माध्यम बने। इस ग्रथ के राष्ट्रीय चेतना के विकास में छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता का योगदान' नामक अध्याय में इस संबंध में विस्तृत चर्चा की गई है। सन् 1900 में सप्रे जी द्वारा आरंभ 'छत्तीसगढ़ मित्र (1900-1903 ई.) से आरंभ होकर पदुमलाल पुन्नलाल बक्शी की सरस्वती (1900 ई.), सप्रे जी का हिन्दी ग्रंथ प्रकाशन मंडली (1905 ई.) एवं 'हिन्दी केसरी' (1907 ई.), ठाकुर प्यारेलाल सिंह का अरूणोदय (1921-22 ई.), पं. शर्मा का कृष्ण जन्म स्थान समाचार पत्र- जेल पत्रिका' (1922-23 ई.), रायपुर कांग्रेस कमेटी की कांग्रेस पत्रिका (1937 ई.) आदि ने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया, किंतु सबसे अधिक उत्तेजक एवं विवादास्पद पत्र सप्रे जी का हिन्दी केसरी' थी।
सप्रे जी को कारावास-    जब तिलक ने 'मराठा' और 'केसरी नामक पत्रिकाओं को राष्ट्रीय स्तर पर आरम्भ किया तो इससे प्रेरित हो माधवराव सप्रे ने 13 अगस्त, 1907 को 'केसरी' का हिन्दी में प्रकाशन आरंभ किया। इस समाचार पत्र में दो लेख प्रकाशित हुए जिनके शीर्षक थे 'देश का दुर्देव' और 'बम्ब गोले का रहस्य । ये दोनों लेख देश सेवक में प्रकाशित 'काला पानी एवं दो अन्य मराठी लेखों के अनुवाद थे। ये क्रांतिकारी लेख थे और इसमें ब्रिटिश शासन की उद्दण्डता और नृशंसता की आलोचना की गई थी। इन लेखों में भारतीय जनता का आह्वान किया गया थाकि वे अपनी मातृभूमि के लिये अपने कर्तव्यों को समझे एवं उसे निभाएं। सप्रे जी की क्रांतिकारी भावना और साहसी कृत्य अंग्रेजों को कानूनी कार्यवाही करने हेतु पर्याप्त थी। इस प्रकार इस पत्र में ब्रिटिश शासन के विरोध में प्रकाशित लेखों के कारण 21 अगस्त, 1908 को इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सप्रे जी को कहा गया कि वे लिखित रूप से माफी मांगें। इस कार्य के लिये शासन व सप्रे जी के बीच मध्यस्थता हेतु वामनराव लाखे आगे आये तथा जेल में सप्रे जी से भेंटकर उन्हें क्षमापत्र पर हस्ताक्षर करने को कहा और उन्हें बताया कि "यदि वे नहीं मानेगे, तो उनके भाई ने आत्म हत्या करने का निर्णय लिया है।" अंत में सप्रे जी ने हताशा और मजबूरी में कांपते हाथों से क्षमापत्र पर हस्ताक्षर कर दिया। पारिवारिक विवशता और शुभचिंतकों के परामर्श पर इन्होंने शासन के समक्ष माफीनामा पेश किया जिससे उन्हें बिना ट्रायल के 2 नवंबर, 1908 को मुक्त कर दिया गया। इस कार्य से उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा। सप्रे जी के इस कार्य से रायपुर की जनता अत्यंत उत्तेजित हुई एवं जिले में सप्रे जी की अत्यधिक आलोचना हुई। रायपुर शहर के विभिन्न भागों में उनकी तस्वीरे जलाई गई। सप्रे जी आत्मग्लानि में स्वयं एक माह तक जनता के समक्ष आने का साहस न कर सके।
     सप्रे जी को अपने इस प्रकाशन के लिये ठीक उसी प्रकार दंडित कर जेल में डाल दिया गया जिस प्रकार तिलक को केसरी में 'शिवाजी और अफजल खाँ' के संबंध में लेख प्रकाशित करने एवं प्लेग कमिश्नर की आलोचना करने के कारण 1897 ई. में 18 माह एवं 1908 में केसरी में देश का दुर्भाग्य' नामक शीर्षक पर, जिसमें उन्होंने सरकार की गलत नीतियों पर प्रकाश डाला, 6 वर्ष के कठोर कारावास में डाल दिया गया था। वस्तुतः सप्रे जी के प्रेरणा स्रोत तिलक ही थे तथा नागपुर से उनके द्वारा प्रकाशित 'हिन्दी केसरी तिलक के 'केसरी' (मराठी में) से ही प्रेरित थी। सप्रे जी के जीवन में सबसे अधिक प्रभाव तिलक एवं उनके विचारों का था। छत्तीसगढ़ के पत्रों में जबलपुर से प्रकाशित कर्मवीर जिसके संपादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी थे, ने भी छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान होने वाली घटनाओं को बड़ी रोचकता के साथ प्रकाशित किया। चतुर्वेदी जी स्वयं असहयोग आंदोलन के दौरान छत्तीसगढ़ में सक्रिय रहे, इसके लिये उन्हें कुछ समय के लिये बिलासपुर जेल में बंदी रहना पड़ा। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान यहां की स्थानीय संस्थाओं अर्थात् जिला परिषदों, जो कि प्रतिनिधि संस्थाएं थीं, ने भी सक्रिय एवं ठोस भूमिका का निर्वाह किया। रायपुर व बिलासपुर के जिला परिषदों ने क्रमशः 'उत्थान (1935-37 ई.) एवं विकास' (1920-30 ई.) नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जिससे लोगों में राष्ट्रीय चेतना का विकास होता रहा। सूरत विमाजन और छत्तीसगढ़-  1907 में सूरत अधिवेशन के पश्चात् कांग्रेस दो दलों-गरम व नरम दल में विभाजित हो गया। छत्तीसगढ़ में भी इसका प्रभाव पड़ा यहां के अधिकांश लोग बाल गंगाधर तिलक और गरम दल के समर्थक थे। 1907 में रायपुर के टाऊन हाल में कांग्रेस का प्रांतीय सम्मेलन आयोजित हुआ। यह अखिल भारतीय
कांग्रेस के सूरत अधिवेशन के पश्चात् 29 मार्च, 1907 को हुआ था। इस सम्मेलन की अध्यक्षता डॉ. हरिसिंह गौर द्वारा की जानी थी। इसमें सूरत के सम्मेलन की प्रतिक्रिया देखी गई और जिस प्रकार देश में कांग्रेस के दो भाग हुये थे यहां रायपुर जिला कांग्रेस भी दो दलों-नरम एवं गरम में विभक्त हो गया। गरम दल के सक्रिय सदस्य दादा साहेब खापर्डे, माधवराव सप्रे, डॉ. मुंजे आदि थे जबकि पं. रविशंकर शुक्ल, डॉ. हरिसिंह गौर, डॉ. मघोलकर नरम दल के समर्थक थे। रायपुर सम्मेलन में दादा साहब खापर्डे ने यह सुझाव दिया कि सम्मेलन की कार्यवाही का प्रारम्भ वन्दे मातरम्' से हो, किंतु डॉ. हरिसिंह गौर, डॉ. मघोलकर इस सुझाव से सहमत नहीं हुए और इस पर दादा साहब खापर्डे नाराज हो गए तथा डॉ. मुंजे एवं अपने समर्थकों के साथ गरम वातावरण में सम्मेलन स्थल छोड़कर चले गए। इस अप्रिय घटना के बाद पं. शुक्ल ने गभीरतापूर्वक लोगो को समझाया तथा लोगों को सम्मेलन का प्रारंभ वन्दे मातरम्' से करने हेतु सहमत कर लिया. कितु फिर भी खापर्डे सम्मेलन स्थल पर वापस नहीं आए। इसका परिणाम यह हुआ कि सम्मेलन में नरम दल का ही वर्चस्व दिखाई देने लगा। उल्लेखनीय है कि उन दिनों वन्दे मातरम' बोलने पर कैद की सजा दी जाती थी। दूसरी ओर इसी दिन दादा साहब खापर्डे ने रायपुर में हनुमान मंदिर के सामने पृथक से एक बड़ी जनसभा को सम्बोधित किया। इसमे इन्होने स्वदेशी के महत्व पर प्रकाश डाला और जनता को इस बात से अवगत कराया कि उन्होंने सम्मेलन का बहिष्कार किस कारण से किया था। लोगो ने इनके संबोधन से प्रभावित होकर विदेशी वस्त्रो की होली जलाना प्रारभ कर दिया। पुनः दूसरे दिन खापर्डे जी ने एक दूसरी जनसभा को संबो- धित किया जो बूटी के बाडे में आहूत की गई थी ।
     रायपुर सम्मेलन में नरम एवं गरम दलों ने जो दृष्टिकोण अपनाया और उनमें जो आपसी विरोधाभास देखा गया उससे यह प्रकट होता है कि ये भावनाएं 1907 ई. में सूरत काग्रेस में प्रकट हुई विरोधी भावनाओं का ही प्रतिविम्ब थी। मध्यप्रात में भी देश के अन्य हिस्सो की भाति राष्ट्रीय कांग्रेस में हुई फूट का प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ जिसके परिणामस्वरूप गरम दल के अग्रदूत बाल गंगाधर तिलक एवं उनके समर्थकों को इस प्रांत एवं रायपुर जिले में बहुतायत से समर्थन प्राप्त हुआ। कालांतर में राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने विवाद का अंत करने का निर्णय लिया और नवंबर 1915 में मध्य प्रात एवं बरार प्रातीय परिषद का गठन किया गया। इस प्रांतीय परिषद की कार्यकारिणी में रायपुर जिले के सी. एम. ठक्कर ने प्रतिनिधित्व किया। इस समय तिलक जेल से 1914 में छूट गए थे और राष्ट्रीय स्तर पर वे भी काग्रेस के दो घडों मे समझौता हेतु प्रयासरत थे। छत्तीसगढ में भी उल्लेखनीय प्रयास हुए और परिषद का गठन हुआ।
बिलासपुर में जागृति-  बिलासपुर में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बहुत पहले से ही राष्ट्रीय जागृति और उसके प्रसार का कार्य आरभ हो चुका था। इसके लिये यहां बुद्धि प्रकाश सभा. रीडिंग क्लब, चाटापारा क्लब, बंगाल-नागपुर रेलवे इस्टीट्यूट आदि संगठन अस्तित्व में आकर क्रियाशील हो चुके थे, किंतु बिलासपुर का राष्ट्रीय आंदोलन में सही तौर पर प्रवेश 20वीं सदी के आरंभ में ही हो सका। बिलासपुर जिले में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख स्तम्भ ई. राघवेन्द्र राव, कुंजबिहारी अग्निहोत्री, बैरिस्टर छेदीलाल ठाकुर थे। ठाकुर साहब बैरिस्टर की डिग्री इंग्लैंड से पास कर 1913 ई. में बिलासपुर आए. वे 'अकलतरा के राजस्थानी सिसोदिया राजपूत परिवार के थे | उन्होंने जनता में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने हेतु रामलीला को माध्यम बनाया, किंतु शीघ्र ही वे कांग्रेस से जुड़ गए और राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया।

     ई. राघवेन्द्र राव अल्प आयु में ही कांग्रेस की गतिविधियों में भाग लेने लगे। ये तिलक के विचारों से प्रभावित थे। 1906 के कलकत्ता काग्रेस में इन्होने भाग लिया था। 1907 के सूरत अधिवेशन में बिलासपुर का प्रतिनिधित्व किया। इस समय इनकी उम्र केवल 18 वर्ष की थी। राव साहब 1914 ई. मे बैरिस्टरी पास कर स्वदेश लौटे। इनका परिवार आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा जिले से व्यापार के उद्देश्य से बिलासपुर आकर यहीं बस गया। बिलासपुर को इन्होंने अपनी कर्मभूमि बना लिया और वकालत त्याग कर सक्रिय राजनीति में आ गए। वे इंग्लैंड में इंडिया हाऊस' से सम्बद्ध रहे जिसकी स्थापना श्याम जी कृष्ण जी वर्मा ने 1905 में लंदन में की थी। राव साहब ने नवंबर 1915 में नागपुर में नरम एवं गरम दल के सयुक्त अधिवेशन में मध्यस्थ के रूप में कार्य किया. वे केवल 26 वर्ष की आयु में बिलासपुर नगर पालिका के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और कौसिल का उपयोग राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रसार हेतु किया। साथ ही वे बिलासपुर जिला परिषद के सचिव भी निर्वाचित हुए। इन्होंने इन दिनों संस्था के कमर्चारियों का खादी पहनना अनिवार्य कर दिया। तिलक और गांधी जयंती पर छुटिया घोषित की गई। स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं के इमारतों पर राष्ट्रीय झण्डा लहराने लगा। स्कूलों में वन्दे मातरम्' का गीत गाया जाने लगा। कुजबिहारी अग्निहोत्री यहां स्थापित होमरूल की शाखा के माध्यम से जागृति के कार्य में संलग्न रहे। यदुनन्दन प्रसाद वर्मा ने 'बालसमाज पुस्तकालय एवं ठाकुर छेदीलाल ने सेवा समिति बनाकर यहां के युवकों में राष्ट्रीय जागृति के संचार का कार्य किया। इस तरह गांधी युग के पूर्व से ही बिलासपुर राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय हो चुका था।

राजनांदगांव में जागृति-    राजनांदगांव में राष्ट्रीय जागृति के अग्रदूत ठाकुर प्यारेलाल सिंह थे। यहां इस कार्य में उनके सहयोगी शिवलाल और शंकर खरे जैसे अनेक यशस्वी लोग थे। 1909 ई. में ठाकुर साहब ने 'सरस्वती पुस्तकालय जो यहां की राष्ट्रवादी गतिविधियों का केन्द्र था, की स्थापना की। युवावस्था में यहां छात्रों का जुलूस एवं वन्दे मातरम्' के उद्घोष से राष्ट्रीय जागृति का कार्य आरंभ किया। अपने अन्य साथियों श्री छविराम चौवे और गज्जूलाल शर्मा के साथ मिलकर राष्ट्रीय आन्दोलन को क्षेत्र में पुख्ता बनाया और खादी का प्रचार-प्रसार करते रहे । छत्तीसगढ़ में सहकारिता आंदोलन का सूत्रपात इन्होंने ही किया। वे मजदूर, किसानों के अनन्य समर्थक थे। इनके आह्वान पर 1920 में मजदूरो ने 36 दिनों की सफल हड़ताल की। आगे चलकर इन्होंने असहयोग आंदोलनो में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इसके लिए इन्हें जेल जाना पड़ा और इन्हें राजनादगाव रियासत से निर्वासित भी किया गया। यहा राष्ट्रीय आंदोलन में इनकी केन्द्रीय भूमिका थी।

धमतरी में जागृति-   छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आंदोलन में धमतरी की भूमिका बताये बिना छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आदोलन की कहानी अपूर्ण होगी। वर्तमान धमतरी तत्कालीन रायपुर जिले का एक तहसील था। छत्तीसगढ़ में सत्याग्रह का आरंभ तथा इसके माध्यम से समस्त राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का श्रेय धमतरी के कंडेल ग्राम को है। इस गांव के मालगुजार बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव ने राष्ट्रीय आंदोलन में धमतरी का सफल प्रतिनिधित्व किया। धमतरी के राष्ट्रवादी आंदोलनकर्ता जिसमें बाबू छोटेलाल, नारायण राव मेघावाले. नत्थूजी जगताप आदि प्रमुख थे। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान अंचल की गतिविधियों में रायपुर के साथ बराबरी से भागीदारी की। इस क्षेत्र में सिहावा, माड़मसिल्ली, रूद्री-नवांगाव में जंगल सत्याग्रह हुए। कंडेल सत्याग्रह के अवसर पर गाधीजी 21दिसंबर, 1920 को धमतरी पहुंचे थे। ये सदैव यहा के लिये गौरव की बात रहेगी।
दुर्ग जिले में जागृति-  दुर्ग जिले में राष्ट्रीय जागृति का कार्य यद्यपि पूर्व से ही होता रहा, पर यहां के राष्ट्रवादी व्यक्तियों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौर में सक्रियता दिखाई. इसमें वालोद के नरसिंह प्रसाद अग्रवाल, दुर्ग के घनश्याम सिंह गुप्ता, राम प्रसाद देशमुख, वाय.व्ही. तामस्कर, रत्नाकर झा आदि प्रमुख थे। इस दौर में उदयराम ने किसान सभा का गठन किया। गंगा प्रसाद चौबे, गणेश प्रसाद सिगरौल, चंद्रिका प्रसाद पांडेय ने विद्यार्थी काग्रेस की स्थापना की। दुर्ग में ही श्री रघुनंदन सिंगरौल क्रांतिकारी गतिविधियों के लिये जाने जाते हैं। ये देश में हो रहे द्वितीय पीढ़ी (1925-35 ई.) की क्रांतिकारी गतिविधियों से प्रभावित थे, कितु पचास के दशक के आरंभ में अपनी गतिविधियों से इन्होने अंग्रेजी शासन को दहशत में डाल दिया था। इस प्रकार लगभग केन्द्रीय छत्तीसगढ़ किसी न किसी रूप में आदोलित था। राष्ट्रीय स्तर पर हो रही गतिविधियों से प्रेरणा प्राप्त कर यहां के राष्ट्रवादी स्वराज की प्राप्ति हेतु अंग्रेजी शासन से जूझते रहे, तब तक जब तक कि देश में स्वतंत्रता का अरुणोदय न हुआ।

छत्तीसगढ़ में होमरूल आन्दोलन-     छत्तीसगढ के राजनीतिज्ञ तिलक से विशेष रूप से प्रभावित ये। उनके 6 वर्ष के कारावास के पश्चात् रिहाई पर छत्तीसगढ़ में उत्सव मनाया गया जिस समय देश मे काग्रेस का आन्दोलन क्षीण पड़ गया था उस समय तिलक ने ऐनी बेसन्ट के सहयोग से होमरूल लीग की स्थापना की। छत्तीसगढ होमरूल लीग के तिलक वाले क्षेत्राधिकार में आता था। अतः उसकी शाखाए छत्तीसगढ़ में भी स्थापित हुई। यहां इसकी सफलता के लिए मूलचंद बागड़ी, माधवराव सप्रे और लक्ष्मणराव उदयगीरकर के प्रयास उल्लेखनीय थे। 1918 मे रायपुर में होमरूल लीग की शाखा का सम्मेलन आयोजित हुआ। होमरूल लीग योजना में रायपुर जिले का प्रतिनिधित्व रायबहादुर ठक्कर द्वारा किया गया। बिलासपुर में भी लीग की शाखा स्थापित की गई एव यहां लीग के कार्यक्रमों का प्रचार कुंजबिहारी अग्निहोत्री, नागेन्द्रनाथ डे, मुन्शी अकबर खाँ, ठाकुर मनमोहन सिंह, त्रयंबकराव डेहनकर, मुन्नीलाल स्वामी, गजाधर साव, गोविन्द प्रसाद तिवारी एवं अंबिका प्रसाद वर्मा आदि ने किया।
  इस बीच पं. सुन्दरलाल शर्मा ने 1915 में राजिम में किसानों के एक सम्मेलन का संगठन किया एवं इसका संचालन विष्णुदत्त शुक्ला द्वारा किया गया। इससे इस क्षेत्र के किसानो की जागरूकता का पता लगता है। 1916 में प्रान्तीय सभा की स्थापना हुई जिसमें पं. शुक्ल. श्री लाखे आदि रायपुर से एव ठाकुर मनमोहन सिंह तथा कुंजबिहारी अग्निहोत्री आदि सम्मिलित हुए।

गोखले का रायपुर आगमन-    मई 1918 को गोपालकृष्ण गोखले रायपुर आये। उनके आगमन का उद्देश्य बुद्धि- जीवियों को देश की राजनीति मे जागृत एवं सक्रिय करना था। उन्होंने वामन राव लाखे के निवास मे एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें रायपुर से पं. शुक्ल, लक्ष्मणराव उदयगीरकर, श्री लाखे, राजनांदगांव से ठाकुर प्यारेलाल सिंह एवं धमतरी से नारायण राव मेघावाले, नत्थु जी जगताप, बाबू छोटेलाल, राजिम से पं. सुन्दरलाल शर्मा आदि जागरूक कार्यकर्ता उपस्थित हुए। इस सभा में यह योजना बनाई गई कि "स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" का प्रचार गांव-गांव किया जाय। इस योजना का क्रियान्वयन करते हुए गांव में भाषण दिए गए, पर्चे वितरित किए गए तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को प्रचारित किया गया।

रौलेट एक्ट और छत्तीसगढ़-   फरवरी, 1919 में पारित रौलेट एक्ट के विरोध में संपूर्ण छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के नेतृत्व में प्रदर्शन हुये। रायपुर मे काग्रेस व होमरूल लीग की तदर्थ बैठक हुई। बिलासपुर में मुस्लिग लीग का अधिवेशन हुआ। इन काले कानूनों (इडियन क्रिमिनल लॉ एमेंडमेट बिल और इडियन क्रिमिनल लॉ एजेसी विल) के विरोध में जुलूस निकाला गया। इसी सदर्भ में आयोजित सभा में 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग हत्याकांड अमृतसर में घटित हुआ। इस रोमांचकारी दुर्घटना से भारत का सपूर्ण जनमानस कांप उठा। देशव्यापी सभाएं हुई एवं इस कृत्य की भर्त्सना की गई। दूसरी ओर छत्तीसगढ़ के धमतरी मे मई 1919 ई. में आयोजित द्वितीय तहसील राजनैतिक परिषद श्री गणेश कृष्ण (दादा साहेब खापर्डे) के सभापतित्व में हुई। शोभाराम देवांगन के अनुसार परिषद में माधराव सप्रे, पं. शुक्ल. श्री लाखे, महत लक्ष्मीनारायण एवं महत पुरुषोत्तम दास आदि नेता रायपुर से थे। बिलासपुर से राघवेन्द्र राव. कुंजबिहारी अग्निहोत्री, पं. द्वारका प्रसाद तिवारी आदि उल्लेखनीय थे। इन सभी नेताओं ने जलियांवाला बाग हत्याकांड की भर्त्सना कर अपने ओजस्वी भाषणों से अंग्रेज शासन के इस दुष्कृत्य पर रोष प्रकट किया।
खिलाफत और छत्तीसगढ़-   जलियांवाला बाग हत्याकांड के पश्चात् 1919 ई. का कांग्रेस अधिवेशन अमृतसर मे विशेष तौर पर रखा गया। इसकी अध्यक्षता मोतीलाल नेहरू ने की। इसमें खिलाफत (इस्लामिक धर्मगुरु खलीफा के पद को बनाये रखने हेतु - प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पेरिस में हुये शांति सम्मेलन में पराजित पांच राष्ट्रों के साथ अलग-अलग संधियां की गई थीं जिसमें से एक 10 अगस्त, 1920 ई. को ब्रिटेन (मित्र राष्ट्रों) एवं तुर्की के बीच होने वाली 'सेवर्स की संधि' थी, से तुर्की के सुल्तान के समस्त अधिकार छिन गये और एक तरह से तुर्की राज छिन्न-भिन्न हो गया। संसार भर के मुसलमान तुर्की के सुल्तान को अपना खलीफा (धर्मगुरू) मानते थे। प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के खिलाफ अंग्रेजों को इस शर्त पर सहायता की थी कि वे भारतीय मुसलमानों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करें परंतु युद्ध में इग्लैंड की विजय के बाद सरकार अपने वायदे से मुकर गई। इस पर भारतीय मुसलमान ब्रिटिश सरकार से नफरत करने लगे। ऐसी रिथति में भारतीय मुस्लिमों द्वारा खलीफा के अधिकारों की वापसी हेतु खिलाफत आंदोलन चलाया गया। 1924 में यह आंदोलन उस समय समाप्त गया जब तुर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में बनी सरकार ने खलीफा के पद को समाप्त कर दिया।  )  को उचित ठहराते हुए खिलाफत आंदोलन को काग्रेस का समर्थन देने की नीति पर सहमति हुई। अली बंधुओ द्वारा आरंभ इस आदोलन मे मुस्लिमों के साथ समस्त हिन्दू जनता और कांग्रेस ने सहयोग दिया। गांधी जी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को ध्यान में रखते हुए खिलाफत के मामले में पूर्ण-सकारात्मक और सहयोगात्मक रुख अख्तियार करने हेतु कांग्रेस के मंच से अपील की। छत्तीसगढ मे भी खिलाफत आंदोलन का प्रभाव पड़ा। 1920 मे रायपुर जिला काग्रेस का सम्मेलन हुआ एवं 17 मार्च को एक जनसभा हुई जिसमें खिलाफत उपसमिति गठित की गई। इस समय असगर अली ने हिन्दू भाइयों को मुसलमानों से सहानुभूति रखने पर धन्यवाद दिया। इस पर पं. शुक्ल ने प्रत्युत्तर में कहा “अब हम लोग हिन्दू और मुस्लिम नहीं रहे. बल्कि अब सही अर्थो में हिन्दुस्तानी हैं। इससे तत्कालीन राष्ट्र प्रेम व कौमी एकता का परिचय मिलता है। इस समय 1920 ई. में बिलासपुर में जिला कांग्रेस का सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता डॉ. मुंजे ने की। इसमें खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया गया ।
बी. एन. सी. मिल मजदूर हड़ताल-  राजनांदगांव में ठाकुर प्यारेलाल सिंह स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। इसके साथ ही उन्होंने बंगाल-नागपुर कॉटन मिल (बी.एन.सी.) मजदूरों को भी संगठित करना प्रारंभ किया था। उन्होंने अप्रैल 1920 ई. में बी.एन.सी. मिल के मजदूरो की ऐतिहासिक हड़ताल कराई जो 36 दिनों तक चली। मजदूर आंदोलन के इतिहास में ये पहली और सबसे लंबी हड़ताल थी। इस आंदोलन के सिलसिले में प्रसिद्ध श्रमिक नेता व्ही.व्ही. गिरी (जो बाद में भारत के राष्ट्रपति हुए) राजनांदगांव आये। अन्त मे मजदूरो के हितो में समझौता हुआ। राजनांदगांव के रियासत के अधिकारियों को ठाकुर साहब और उनके साथियों की लोकप्रियता पसन्द नहीं आई अतः उन्हें रियासत से निष्कासन का आदेश दिया गया जो राज्यपाल के हस्तक्षेप से निरस्त कर दिया गया।