छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
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छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप
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छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव
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छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप



छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप

हैहयकालीन प्रशासनिक व्यवस्था केंद्रीय थी, किंतु 18 वीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध तक यह कमजोर व नियंत्रणहीन हो गया था । आर्थिक स्थिति जर्जर थी । अधिकारी स्वेच्छाचारी हो गये थे । मराठों को अत्यंत दयनीय स्थिति में छत्तीसगढ प्राप्त हुआ । छत्तीसगढ़ में आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात् यह क्षेत्र मराठा राजकुमारों के अधीन कर दिया गया । यद्यपि पूर्व के हैहयकालीन शासन व्यवस्था में मराठों ने कोई बड़ा मौलिक परिवर्तन नहीं किया तथापि मराठे अपनी आवश्यकता एवं लाभ हेतु समय - समय पर यहां की प्रशासनिक व्यवस्था में फेर - बदल करते रहे । मराठा शासन स्वरूप की संक्षिप्त विवेचना यहां की जा रही है ।

प्रशासनिक व्यवस्था – भोंसला राजकुमार बिम्बाजी यहां के प्रथम मराठा शासक हुये । इन्होंने रतनपुर आकर यहां अपना प्रत्यक्ष शासन (1757-87 ई.) स्थापित किया । इस काल में शासन व्यवस्था हैहयकालीन शासन व्यवस्था के अनुरूप ही चलती रही । राजकुमार व्यंकोजी ने अपने काल (1787-1815 ई.) में यहां का शासन प्रतिनिधि शासक सूबेदारों के माध्यम से चलाना आरंभ किया जिसे ' सूबा शासन ' की संज्ञा दी गयी । इस काल में आंतरिक व्यवस्था में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, किंतु कार्य पद्धति में एक उल्लेखनीय परिवर्तन 1790 ई . में द्वितीय मराठा सूबेदार विट्ठल दिनकर के आगमन के बाद हुआ । इन्होंने राजस्व व्यवस्था में परिवर्तन करते हुये परगना पद्धति लागू की । इन्होंने पुरानी प्रशासनिक इकाई गढ़ों को समाप्त कर दिया एवं इन इकाइयों में हैहय् शासकों द्वारा पदस्थ दीवानों और दाउओं को हटा दिया गया । गढ़ों के स्थान पर समूचे छत्तीसगढ़ को परगनों में विभाजित किया गया । यह नवीन व्यवस्था नागपुर राज्य के अन्य हिस्सों में प्रचलित व्यवस्था के अनुरूप थी । यह व्यवस्था यहां सन् 1790 ई. से लेकर 1818 ई. तक विद्यमान रही । मराठों द्वारा गठित परगनों की संख्या 27 थी ।

संपूर्ण प्रशासन को दो भागों में विभाजित किया गया । प्रथम - खालसा क्षेत्र में मराठों ने अपना प्रत्यक्ष शासन रखा, किंतु जमींदारी के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों को विभिन्न जमींदारों के अधीन रहने दिया गया । जमींदार अपने क्षेत्र में शासन हेतु स्वतंत्र थे, किंतु मराठों द्वारा निर्धारित राशि जो जमींदारी टेक्स अथवा टकोली के नाम से जाना जाता था, जमींदारों को प्रति वर्ष पटानी पड़ती थी । इस प्रकार मराठा कालीन छत्तीसगढ़ में जमींदारों के अनेक स्वायत्त करद द्वीप स्थापित हो गये । इस तरह मराठे जमींदारी क्षेत्र के दायित्व से तो मुक्त थे, किंतु नियमित आय उन्हें प्राप्त होती रही । एगन्यू एवं जेनकिंस के अनुसार मराठों द्वारा यह परिवर्तन राजस्व व्यवस्था को व्यवस्थित कर अधिका धिक लाभ हेतु किया गया । इस परिवर्तन के द्वारा राजस्व की वसूली नियमित हुई एवं उसका लेखा - जोखा व्यवस्थित तरीके से होने लगा । इसके अलावा राजस्व अथवा प्रशासनिक व्यवस्था पूर्ववत् रही और उसमें कोई मूल - भूत परिवर्तन नहीं किया गया ।

भोंसला शासन के प्रमुख अधिकारी - भोंसलों ने छत्तीसगढ़ में शासन संचालन हेतु अपनी सुविधानुसार प्रशासनिक व्यवस्था का विकास किया जो नागपुर में चल रही व्यवस्था के अनुरूप थी । वस्तुतः कुछ परिवर्तन के साथ यह हैहयकालीन व्यवस्था ही थी अर्थात मराठों ने यहां की पूर्व प्रचलित व्यवस्था में कोई बड़ा मौलिक परिवर्तन नहीं किया । फिर भी प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुरूप मराठों ने अनेक नवीन पदों का सृजन किया । साथ ही पुराने कर्मचारियों के अधिकारों एवं कर्तव्यों में परिवर्तन भी किया ।

सूबेदार - मराठों के समय छत्तीसगढ़ के शासन को सुचारू रूप से चलाने के ध्येय से उच्चाधिकार प्राप्त एक अधिकारी की नियुक्ति की जाती थी, जिसे सूबेदार कहते थे । राजकुमार व्यंकोजी ने छत्तीसगढ़ का प्रभार लेते ही यहां स्वयं न आकर नागपुर से ही शासन संचालन का निर्णय लिया तद्नुसार उन्होंने अपने सूबे में सूबेदारों की नियुक्ति कर यहां पर शासन किया । सूबेदारों की नियुक्ति इस अंचल के प्रशासन के लिए अधिकृत भोंसला राजकुमार ( जिसके अधिकार में छत्तीसगढ़ का प्रदेश होता था ) द्वारा की जाती थी । सूबेदार खालसा और जमींदारी दोनों क्षेत्रों में भोंसला राजकुमार के प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था और अपने कार्यो के लिए वह उसी के प्रति उत्तरदायी भी होता था । सूबेदार यहां सैनिक, असैनिक, दीवानी, फौजदारी तथा माल विभाग का प्रमुख अधिकारी होता था । जो व्यक्ति छत्तीसगढ़ सूबा पर निर्धारित राशि को पटाने का आश्वासन देता था उसी की नियुक्ति सूबेदार के पद पर की जाती थी । क्षेत्र में प्रशासन से संबंधित अन्य अधिकारी सूबेदारों के अधीन होते थे और उसी के निर्देशानुसार कार्य करते थे ।

फड़नवीस - फड़नवीस का कार्य आय और व्यय का हिसाब रखना था । उसका एक सहायक होता था . जिसे नायब - फड़वीस कहते थे । वरिष्ठ फड़नवीस सूबेदार के कार्यालय में होता था ।

पोतदार - यह राजधानी में स्थित खजाने में जमा होने एवं निकलने वाली राशि का हिसाब - किताब रखता था ।

परगना के अधिकारी - परगना स्तर पर राजस्व, सैनिक एवं असैनिक प्रशासन के संपादन हेतु परगनों में निम्न अधिकारी पदस्थ होते थे ।

कमाविंसदार - मराठों द्वारा 1790 ई. में शासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण क्षेत्र को अनेक परगनों में विभाजित किया गया था । परगने के प्रमुख अधिकारी को कमाविसदार कहा जाता था । उसे अपने क्षेत्र में सैनिक, असैनिक दीवानी, फौजदारी और माल संबंधी सभी अधिकार प्राप्त थे । कमाविसदार, सूबेदार के प्रति जिम्मेदार होते थे । उसे अपने क्षेत्र में शांति और सुव्यवस्था की स्थापना करने के साथ - साथ राजस्व की वसूली और सरकार के हितों का भी दायित्व वहन करना पड़ता था । कमाविसदार का वार्षिक वेतन 200 रुपये से लेकर 500 रुपये तक होता था ।

फड़नवीस - कमाविसदारों के साथ प्रत्येक परगनों में भी फड़नवीस पदस्थ होते थे जो परगनों के आय - व्यय का हिसाब रखते थे । गनों में पदस्थ फड़नवीसों को राजधानी के फड़नवीसों से कम वेतन मिलता था ।

बड़कर यह परगने में कमाविंसदार के अधीन पदस्थ होता था । बड़कर को कमाविसदार के पास परगने की सामान्य स्थिति, फसल की दशा एवं अन्य मामलों की सूचना भेजनी पड़ती थी ।

बरारपाण्डे - यह प्रत्येक गांव का दौरा कर उचित रूप से उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार वहां के लगान संबंधी दस्तावेज तैयार करता था, इसी दस्तावेज के आधार पर गांव के कर का निर्धारण होता था । यह गांव का लगान विवरण एकत्र कर कमाविसदार को भेजता था जिसके आधार पर वह परगने का लगान निर्धारित करता था ।

पंडरीपण्डे - यह अधिकारी ग्रामों में मादक द्रव्यों से होने वाली आमदनी का हिसाब रखता था । पोतदार - यह खजान्ची होता था जो परगने में जमा होने वाली राशि का हिसाब - किताब रखता था ।

माल - चपरासी - ये कमाविंसदार के अधीन कार्य करते थे । शासकीय संपत्ति/ माल की सुरक्षा चौकीदारी का कार्य इनके द्वारा किया जाता था । ये माल चपरासी समय - समय पर संबंधित क्षेत्रों में घूमकर अपराधियों की खोज - खबर किया करते थे । यह कमाविसदार के निर्देशानुसार कर वसूली का कार्य भी करता था ।

ग्राम स्तर के अधिकारी - मराठों ने ग्राम स्तर पर चल रही पूर्व की व्यवस्था को यथावत् रहने दिया. किंतु राजस्व व्यवस्था की दुरूस्ती हेतु पटेल एवं सुरक्षा हेतु चौहान नामक कर्मचारियों की व्यवस्था होती थी । संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है

गोंटिया - गोंटिया का पद छत्तीसगढ़ में हैहय काल भी था । वह गांव का प्रमुख होता था और उसका पद न तो वंशानुगत होता था और न ही उसे बेचा जा सकता था । लगान के निर्धारण और उसकी निश्चित अवधि में वसूली के लिए वह जिम्मेदार होता था । किसानों की सलाह से वह गांव की भूमि का आवंटन करता था । वह गांव के प्रत्येक किसान की शिकायत को दूर करने का प्रयत्न करता था । अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए गोंटिया को गांव में अनेक सुविधायें और रियायतें भी मिलती थीं । उसे कुछ लाभांश प्राप्त होता था । गोटिया गांव के सभी मामलों पर सामान्य निगरानी रखता था । वह गांव का प्रमुख मजिस्ट्रेट और पुलिस प्रधान होता था । सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह गांव की जनता का प्रतिनिधि होता था और केन्द्रीय शक्ति से उनके अधिकारों की रक्षा करता था ।

पटेल - राजस्व प्रशासन में पटेलों की नियुक्ति इस क्षेत्र को मराठा शासन की देन है जो एक या अधिक गांव की देख - रेख करते थे । भूमि कर के निर्धारण एवं वसूली में पटेल सरकार को सहयोग देता था । इसके बदले में उसे निश्चित वेतन प्राप्त होता था तथा राजस्व के रूप में सरकार को पटाई जाने वाली राशि पर प्रति रुपये एक आने अथवा अधिकतम 17% की दर से वह लाभाश भी पाता था ।

कोतवाल - सुरक्षा की दृष्टि से शासन की ओर से कोतवालों की भी नियुक्ति की जाती थी । ये गांव में पहरा देते थे और चोरी, डकैती आदि से जनता की रक्षा करने का प्रयास करते थे और इसकी सूचना गांव गौटिया और कमाविंसदार को देते थे । इस कार्य के बदले गांव में उन्हें एक छोटा खेत, प्रत्येक हल के पीछे निश्चित अनाज पारिश्रमिक के रूप में मिलता था ।

चौहान - यह ग्राम रक्षक होता था एवं इसके कार्यों पर गौटिया का नियंत्रण होता था । वह ग्राम सुरक्षा में गोंटिया की सहायता करता था ।

राजस्व व्यवस्था - मराठा काल में भूमि कर राजस्व की प्रमुख मद थी । इसके अलावा भी अन्य अनेक कर राजस्व में वृद्धि के साधन थे । मराठा शासन की राजस्व व्यवस्था अधिकाधिक लाभ की नीति पर कार्य करता था अतः वे करारोपण का कोई मौका न छोड़ते थे । मराठा अपने कराधान हेतु विख्यात रहा है । मराठा राजस्व व्यवस्था का संक्षिप्त ब्यौरा यहां प्रस्तुत है ।

भूमि कर - आरंभ में बिंबाजी के शासन काल तक राजस्व व्यवस्था पूर्ववत् बनी रही, किंतु व्यंकोजी द्वारा पदस्थ सूबेदार विट्ठल दिनकर के द्वारा 1790 ई. में राजस्व के क्षेत्र में कुछ परिवर्तन किये गये, किंतु यह परिवर्तन उतना व्यवस्थित और तार्किक न बन सका । भूमि की नाप का आधार किसानों के हलों की संख्या थी । एक हल के अंतर्गत आने वाली भूमि 2 से 21/2 एकड़ होती थी । भूमि कर निर्धारण ग्राम स्तर पर होता था, जो नागपुर शासन द्वारा निर्धारित नीति के अनुरूप होता था और इसी अनुसार इसमें समय - समय पर परिवर्तन अथवा वृद्धि होती थी । ग्राम स्तर पर चालू वर्ष के लिए कर की प्रथम किस्त का निर्धारण गोंटिया और कृषकों के बीच आपसी समझौते द्वारा होता था जो पूर्व वर्ष के लगान के आधार पर होता था, किंतु यह शासन द्वारा निर्धारित नीति के अनुरूप एवं दर से कम नहीं होती थी । परगनों का कर निर्धारण वहां के कमाविंसदार गांवों की संख्या के आधार पर करते थे जिसकी अंतिम स्वीकृति सूबेदार द्वारा की जाती थी । कर वसूली का सामान्य सिद्धांत न था और न ही इसके कोई निश्चित नियम थे ।

फसलीय वर्ष का आरंभ जून से होता था । वार्षिक कर निर्धारण का कार्य पड़ती जमीन की मात्रा, मौसम की स्थिति और जानवरों की स्थिति आदि पर विचार करने के बाद ही किया जाता था । कमाविंसदार की रिपोर्ट के आधार पर सूबेदार परगनों का वार्षिक कर निर्धारित करता था । तीन - तीन महीनों के अंतराल में कुल तीन किस्तों में संपूर्ण लगान वसूल कर ली जाती थी । कर निर्धारण संबंधी अभिलेख रखे जाते थे । परगनों में फड़नवीस एक रिपोर्ट तैयार करता था जिसमें पिछला राजस्व बकाया एवं चालू वर्ष में लगान से संबंधित विवरण होते थे जिसकी जांच सूबेदार अपने दौरे के समय कर वार्षिक हिसाब बंद करता था और सभी परगनों की रिपोर्ट प्राप्त कर संपूर्ण सूबे का विवरण नागपुर भेजता था ।

तालुकदारी - भूमि व्यवस्था के लिए मराठों ने एक नवीन व्यवस्था का सूत्रपात किया । इस प्रथा में किसी क्षेत्र विशेष के भूमि संबंधी पट्टे एक निश्चित अवधि के लिए किसी व्यक्ति विशेष के अधिकार में ठेके पर दे दिये जाते थे । अवधि की समाप्ति पर ठेका या तो समाप्त कर दिया जाता था अथवा उसका नवीनीकरण होता था । मराठों ने अपने शासनकाल में दो - तरेंगा ' एवं ' लोरमी ' के तालुकदार बनाये । तालुकदार ठेके की राशि खजाने में जमा करते थे ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि केन्द्रीय शक्ति के निश्चित निर्देश के अभाव में भूमि कर निर्धारण में सूबेदार की ही चलती थी । भूमि कर का लेखा कार्य अपूर्ण एवं त्रुटिपूर्ण होता था । व्यवस्था किसानों के हितों के अनुरूप न थी, साथ ही भूमि कर राजस्व में वृद्धि हेतु कृषि विकास के उपाय जैसे - सिंचाई, मंडी, यातायात आदि के प्रयास मराठा शासन द्वारा नहीं किये जाते थे ।

अन्य कर - भूमि कर के अतिरिक्त भी अन्य मदों जैसे - आयात, निर्यात, आबकारी, गैर कृषकों एवं जमींदारों से लिए जाने वाले अनेक कर थे जिनका संक्षिप्त ब्यौरा निम्नानुसार है ।

(1) टकोली - यह विभिन्न जमींदारी क्षेत्रों से मराठा शासन द्वारा निर्धारित वार्षिक राशि के रूप में ली जाती थी । जमींदार अपने क्षेत्र में शासन हेतु स्वतंत्र थे, किंतु ' करद ' के रूप ये प्रति वर्ष निश्चित टकोली मराठा शासन को देते थे ।

(2) सायर - यह आयात, निर्यात कर था । यह कर प्रत्येक ऐसी वस्तु पर जो बाहर लायी या भेजी जाती थी, पर विभिन्न वस्तुओं पर निर्धारित अलग - अलग दर में लिया जाता था ।

(3) कलाली - यह आबकारी कर था जो मादक द्रव्यों की बिक्री हेतु दिये गये लायसेंस के रूप में लगाया जाता था ।

(4) पंडरी - यह गैर कृषक वर्ग से लिया जाता था जिसमें प्रायः बढ़ई, कुम्हार, नाई, गोंड आदि लोग आते थे यह कर प्रत्येक ऐसे परिवार की आय का दस प्रतिशत होता था ।

(5) सेवई - अनेक छोटे - छोटे अस्थायी करों का सामूहिक नाम सेवई ' था । इसमें दण्ड आदि मामलों से प्राप्त राशि सम्मिलित थी । इस कर का उद्देश्य जनता में अपराध प्रवृत्ति रोकना था ।

(6) जमींदारी टैक्स - आयातित अनाज पर प्रति गाड़ी के पीछे तीन पायली की दर से लिया जाता था । इसके अलावा कुछ अन्य कर भी लगाये जाते थे जैसे विभिन्न त्यौहारों के अवसर पर यहां की जनता के द्वारा भेंट स्वरूप कमाविसदारों को प्रति गांव एक रूपया दिया जाता था । यह वसूली प्राचीन परंपरा के अनुरूप थी । यह कर सूबेदार फड़नवीस और नायबफड़नवीस के लिए भी वसूल किया जाता था ।

इस प्रकार मराठा शासन काल में यहां अनेक कर प्रचलित थे जिनके बोझ से जनता दबी हुई थी । संपूर्ण काल में राजस्व की निर्धारित राशि में छूट का आदेश नागपुर से कभी भी प्राप्त होने के उदाहरण नहीं मिलते । इसके विपरीत हमेशा उसमें वृद्धि के ही संकेत मिलते रहे । इस प्रकार कर प्रणाली में पर्याप्त कठोरता थी । जेनकिस के विवरण अनुसार मराठा शासन काल में प्रचलित करों की विविधता और समय - समय पर उनमें वृद्धि करते रहने की बड़ी खराब प्रवृत्ति विद्यमान थी । इसके कारण उत्पादन और वितरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था ।

न्याय व्यवस्था - मराठा शासन के अंतर्गत न्याय के निर्वाह के लिए न तो निश्चित अदालतें थीं और न ही निश्चित नियम । इस क्षेत्र में कार्य करने वाले अधिकारियों का कार्य क्षेत्र भी अस्पष्ट था । इसी कारण किसी अपराध पर कभी गोटिया या पटेल का, कभी कमाविसदार या सूबेदार का और कभी नागपुर के राजा का निर्णय अंतिम माना जाता था । न्याय के लिए कोई निश्चित अपील पद्धति नहीं थी । कानून में समानता के सिद्धांत का पालन नहीं होता था । दीवानी और फौजदारी मामलों के लिए अलग - अलग अधिकारी नहीं थे । न्यायिक मामलों में निर्णय देने का तरीका संक्षिप्त होता था । कमाविसदारों से संबंधित विस्तृत विवरण सूबेदार को भेजा जाता था । सूबेदार को मृत्यु दण्ड देने का अधिकार था । यहां यह उल्लेखनीय है कि बिम्बाजी के शासन काल में छत्तीसगढ़ की जनता राजा के निकट रहने के कारण जल्दी और सरलता से न्याय मिल जाता था लेकिन सूबा - शासन के अंतर्गत न्याय बड़ा महँगा और कष्टदायक हो गया ।

ब्राह्मण, गोसाई और बैरागी जाति के लोगों के लिए मृत्यु दण्ड नहीं था । उन्हें केवल कैद और जुर्माने की ही दी जाती थी । औरतों को भी प्राण - दण्ड नहीं दिया जाता था ।

पंचायत व्यवस्था - छत्तीसगढ़ में पंचायत के माध्यम से न्याय प्राप्त करने की प्राचीन परंपरा रही है । मराठा शासन काल में भी पंचायत बनी रही, यद्यपि इनके गठन और स्वरूप में समय - समय पर परिवर्तन होते रहे । गांव का गोटिया किसानों के आपसी विवादों का निराकरण करने हेतु पंचायतों का आयोजन करवाता था । कभी - कभी कमाविसदार अन्य उच्चाधिकारी भी पंचायतों के माध्यम से मामलों को निपटाने का आदेश देते थे । पंचायतों का आयोजन व्यक्तिगत और सार्वजनिक दोनों स्तर पर होता था । विशेषकर उसका आयोजन शासकीय हस्तक्षेप से दूर रहने के लिए किया जाता था । इसके सदस्य अवैतनिक हुआ करते थे । एगन्यू के अनुसार पंचायतों के निर्णय आदर की दृष्टि से देखे जाते थे । पंचायतों द्वारा किए गए निर्णय जन आवश्यकताओं को पूरा करने तथा जनता को सम्पन्नता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुए, हालांकि इनके निर्णयों में तार्किक दृष्टिकोण और व्यवस्था का अभाव परिलक्षित होता था । भि . एलफिन्स्टन भी पंचायतों के कार्यों से बड़े प्रभावित हुए थे । वे लिखते हैं कि पंचायतों का निर्णय स्पष्ट और निष्पक्ष होता था । इससे गरीबों को बड़ा लाभ होता था । वे अनावश्यक मुकदमेबाजी की लम्बी प्रक्रिया से मुक्त हो जाते थे ।

पंचायतों के पास ऐसा कोई अधिकार न था कि वे विवाद से सम्बन्धित पक्षों को उपस्थित होने के लिए बाध्य कर सके । इनके द्वारा जारी की गई डिक्रियों के क्रियान्वयन में भी कठिनाई होती थी । इसका लाभ केवल कृषक समाज को ही अधिक मिलता था ।

पुलिस व्यवस्था - मराठा शासन काल में छत्तीसगढ़ में पुलिस व्यवस्था का कोई विशेष प्रबंध न था । अपराधों की संख्या कम होने के कारण भी शासकों को इस व्यवस्था की विशेष आवश्यकता नहीं पड़ी । मि. जेनकिंस ने लिखा है कि भोसला शासन के अंतर्गत जिस प्रकार की पुलिस व्यवस्था विद्यमान थी, उसके अनुसार यहां संपूर्ण क्षेत्र में हरकारे फैले हुए थे । इसके साथ ही अभिष्ट जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से क्षेत्र विशेष में जासूस भी रखे गये थे । अपने - अपने मुख्यालयों को अपराधों की सूचना भेजना इनका मुख्य काम था । परन्तु संगठन की दृष्टि से यह पूर्णतः शक्तिहीन था ।

कोतवाल गांवों में पहरा देते थे और चोरी, डकैती आदि से जनता की रक्षा करने का प्रयास करते थे । इस कार्य के बदले उन्हें गांव में एक छोटा खेत, प्रति हल पीछे निश्चित अनाज और खलिहान के झाड़ने से मिलने वाला अनाज पारिश्रमिक के रूप में दिया जाता था । अपने क्षेत्र की सुरक्षा का दायित्व गांव के गोटिया को भी वहन करना पड़ता था । वह अपने क्षेत्र में होने वाली घटनाओं की सूचना अपने से बड़े अधिकारियों को देता था । गांव का रक्षक चौहान होता था । चौहान के कार्यों पर गोंटिया का नियंत्रण हुआ करता था । कमाविंसदार के अधीन रहने वाले माल – चपरासी भी संबंधित क्षेत्रों में घूम - घूमकर अपराधियों की खोज खबर किया करते थे । कमाविंसदार अपराधों पर अपना निर्णय देता था ।

सैन्य व्यवस्था - छत्तीसगढ़ पर अधिकार करने के पश्चात् मराठों ने इस क्षेत्र में आंतरिक शांति और बाह्य आक्रमण से इसकी रक्षा करने के लिए सेना का भी गठन किया था, परन्तु अभिलेखों के अभाव के कारण मराठा कालीन सैन्य व्यवस्था का सही विवरण प्राप्त नहीं हो सका है । कहा जाता है कि बिंबाजी के शासनकाल में यहां 5000 सैनिक थे जो, नागपुर के ही थे । बिंबाजी के शासन काल में पूर्ण शांति बनी रही, पर उसके उत्तराधिकारियों के समय वह छिन्न - भिन्न होने लगी । आंतरिक झगड़ों एवं अन्य कठिनाइयों को दूर करने के लिए आवश्यक सैन्य बल पर्याप्त न होने के कारण इस क्षेत्र में अशांति और आतंक का बोलबाला होने लगा । छत्तीसगढ़ के निवासियों में भौगोलिक और सामाजिक प्रभाव के कारण सैनिक गुण नहीं थे । गोंड़ लोग अपने पास हथियार रखते हुए भी सैनिक नहीं थे । उनको छोड़कर जो लोग सैनिक कार्य के लिये उपयोगी पाये गये उनमें अधिकांश मुसलमान थे, जो बाहर से आकर यहां बस गये थे ।

यूरोपीय यात्री मि . ब्लंट (जो 1795 ई. में रायपुर आये थे) के अनुसार, “ मराठा सेना यद्यपि बाहर से आये हुए व्यक्तियों से गठित थी परन्तु अनेक दृष्टियों से वह छत्तीसगढ़ के किसानों पर आश्रित थी । इसी क्षेत्र की उपज के आधार पर मराठा सैनिकों को भोजन एवं यहां से वसूले गये लगान द्वारा उनके आवास की समस्या का सामाधान किया जाता था । इसलिए आवश्यकतानुसार वह लगान वसूली के कार्य में भी सहायता पहुंचाती थी । सैनि को शासन की ओर से वेतन या तो नकद दिया जाता था या फिर उसकी अदायगी का दायित्व क्षेत्र विशेष पर छोड़ दिया जाता था, जिससे सैन्य व्यवस्था में अनिश्चितता का वातावरण व्याप्त रहता था । इसीलिए सैनिक भी अपने नैतिक कर्तव्यों के प्रति पूर्णतः सजग नहीं रहते थे ।

आर्थिक व्यवस्था - हैहय् काल में छत्तीसगढ़ की आर्थिक स्थिति स्थिर थी, किंतु मराठों के समय इसमें गिरावट आयी । इसका कारण मराठों की कराधान प्रणाली एवं कृषि विकास की उपेक्षा थी । मराठे केवल अपने लाभ के लिए इस क्षेत्र का आर्थिक शोषण करते रहे । उन्होंने कभी भी यहां कल्याणकारी अथवा सुधार संबंधी योजना कार्यान्वित नहीं की । यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि ही था जो पूर्णतः मानसून पर निर्भर थी अर्थात् एक फसली थी ।

कृषि - छत्तीसगढ़ के अधिकांश लोगों की जीविका का आधार कृषि था जिसमें चावल, गेहूं, चना, दाल, अलसी . कोदो एवं कुटकी आदि की उपज ली जाती किंतु इनके विक्रय हेतु मंडी की व्यवस्था नहीं थी और यातायात के साधनों के अभाव वश उन्हें अत्यंत कम कीमत पर अपना अनाज स्थानीय गल्ला व्यापारियों को बेचना पड़ता था । अत्यधिक उत्पादन के बावजूद किसान लाभ से वंचित रहता था । अतः किसान शीघ्र ही एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान को चले जाते थे । इस प्रकार इस काल में कृषि योग्य भूमि का समुचित विकास भी न हो सका । अधिकतर कृषि मजदूर के रूप में लगभग तीन रूपया प्रति माह अथवा 5 से 10 पैसे प्रतिदिन की रोजी पर कार्य करते थे । शासन की ओर से कोई ऋण व्यवस्था भी कृषि अथवा व्यापारिक उद्देश्य हेतु नहीं थी । फलस्वरूप यहां के कृषक एवं गरीबों को साहूकारों से अपनी जमीन गिरवी रखकर ऊंची ब्याज दर पर ऋण लेना पड़ता था । ऋण अनाज के रूप में दिया जाता था जो प्रति वर्ष सवाया अथवा ड्योढ़ा मात्रा में वापस लिया जाता था । वर्षा पश्चात् उत्तरा के रूप में असिंचित फसल ली जाती थी । अलसी, तिल, अरंडी और मूंगफली आदि तिलहनों की यहां अच्छी पैदावार होती थी । अधिकतर आदिवासी अपनी जीविका हेतु वनों पर आश्रित थे ।

व्यापार - छत्तीसगढ़ में वनों पर आधारित उत्पाद अधिक मात्रा में होते थे जिसमें हर्रा, बहेडा, आंवला, शहद, चिरौंजी, गोंद, लाख एवं अन्य जड़ी बूटियां प्रमुख थीं । ग्रामीण इनका संग्रहण कर बिचौलियों को दे देते जो यहां से उनके द्वारा अच्छे लाभ पर बाहर भेजा जाता था । कृषिगत वस्तुओं में अनाज एवं तिलहन का भी व्यापार यहां के गल्ला व्यापारी करते थे । उपरोक्त सभी वस्तुयें यहां से निर्यात होती थी, जबकि आयातित वस्तुओं में नमक, नारियल, सुपारी, पीतल, लोहा, चांदी, तांबा, गंधक और कीमती कपड़े प्रमुख थे । खनिज यहां प्रचुर थे, किंतु उनका दोहन नहीं होता था । केवल कोयला, गेरू, फर्श पत्थर निकाले जाते थे तथा अल्प मात्रा में अगरिया जनजाति द्वारा लोहा तैयार होता था । यहां बुनकरों द्वारा हाथ करघों के माध्यम से मोटा सूती कपड़ा बनता था तथा बिलासपुर क्षेत्र में कोसा बनाया जाता था । यहां कपास भी थोड़ी मात्रा में होता था । जेनकिंस की रिपोर्ट के अनुसार इस समय वस्तुओं का औसत वार्षिक निर्यात तेरह लाख मन था जिसमें केवल आठ लाख मन चावल तथा पांच लाख मन गेहूं, दाल व अन्य चीजें थीं । आर्थिक लाभ की दृष्टि से यहां अनेक जानवर भी पाले जाते थे जिनमें गाय, बैल, भैंस, बकरे, भेड़ आदि प्रमख थे । रतनपुर प्रांत का एक मात्र मवेशी बाजार था जहां सभी प्रकार के पालतू जानवर क्रय - विक्रय हेतु लाये जाते थे । एक आज भी यहां यह बाजार लगता है । भेड़ के ऊन से कम्बल बनते थे और सन से पाट वस्त्र बनाये जाते थे । अन्य व्यापारिक गतिविधियां जैसे शिल्प, सराफा आदि यहां कम थे । इस तरह यहां व्यापार भी पिछड़ा हुआ था एवं इसमें बहुत कम लोग ही संलग्न होते थे ।

विनिमय एवं माप - मराठा काल में धातु के सिक्कों का प्रचलन सीमित था एवं साधारणतः विनिमय कौड़ियों के माध्यम से होता था । सिक्कों में नागपुरी रुपयों का चलन था जिसमें रघुजी का रुपया, चांदी रुपया तथा जबलपुरी रुपया प्रमुख हैं । इन सिक्कों में वजन और अनुपात के आधार पर एकरूपता का अभाव था । इनमें चांदी और अन्य धातुओं के मिश्रण की मात्रा में बार - बार परिवर्तन होते रहते थे । ब्रिटिश काल में इनमें एकरूपता लायी गयी । आम लेन - देन में कौड़ियों का मान न्यूनतम होता था । हेविट के सेटलमेंट रिपोर्ट में दर्शायी गयी विनिमय इकाइयां इस = एक गंडा, पाच गंडा = एक कोरी, बीस कोरी = एक दोगानी, सोलह दोगानी = एक रुपया । धीरे - धीरे कौड़ियों का चलन समाप्त हो गया और मराठों ने यहां नागपुर का रुपया जारी किया । वस्तुओं की मान हेतु प्रचलित इकाइयां निम्नानुसार थीं - एक फोहाई 49/16 छटांक, दो फोहाई = एक अधेलिया, दो अधेलिया = एक चौथिया, चार चौथिया = एक काठा, चार पायली = एक काठा, बीस काठा = एक खंडी, बीस खंडी = एक गाड़ा । कुछ कीमती वस्तुयें यथा सूत, गुड़, घी और लाख आदि की माप हेतु निम्न इकाइयां प्रचलित थीं -पांच सेर घसेरी, आठ पंसेरी = एक मन । जमीन की माप प्रचलित नहीं थी । हलों की संख्या के आधार पर इसकी मात्रा का आंकलन होता था । एक हल जमीन 2 से 2.5 एकड़ मानी जाती थी । दूरी की माप के लिए मील, कोस, धाप और हॉक आदि इकाइयां थीं । तीन मील एक कोस, आधा कोस = एक धाप और आधे धाप को एक हॉक कहते थे ।

सामाजिक दशा - प्रदेश के प्रांगण में आरण्यक तथा अर्ध - नागरिक सभ्यताएँ एक साथ पाई जाती थीं । आरण्यक सभ्यता के रूप में हमें आदिवासियों की अनोखी रीति - नीति दिखाई पड़ती है तो अर्ध - नागरिक सभ्यता के उन लोगों में होती है, जो यहां मैदानी क्षेत्र में दूसरे प्रदेश से आकर रहने लगे हैं । परिणामतः यहां की सभ्यता को मिश्रित सभ्यता कहा जा सकता है । अपनी इसी भौगोलिक विशेषता के कारण छत्तीसगढ़ अपने अंक में अनेक संस्कृतियों का पोषण कर उन्हें रखने में सफल रहा है । सामान्यतः आधुनिकतम सभ्यता इस क्षेत्र से प्रायः दूर ही रही है । कारण यह है कि इस भौगोलिक रचना ने इसके सामाजिक जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया है । यहां के लोग प्रकृति पर ही निर्भर रहते रहे हैं और प्रकृति की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिये अनेक देवी - देवताओं की आराधना - अर्चना करते रहे हैं । समय - समय पर जो अन्य लोग (इस क्षेत्र के बाहर के लोग) यहां आये, उनका प्रभाव भी यहां के निवासियों के जीवन पर पड़ा । लोग स्वभाव से सरल, उदार, कृतज्ञ और सहिष्णु होते थे । शिक्षा की कमी एवं शासकों की उपेक्षा के कारण यहां के जीवन में विशेष विकास या सुधार सैकड़ों वर्षों तक नहीं हो सका और बहुत कुछ सीमा में यह पिछड़ापन आज भी अपने पूर्व रूप में विद्यमान है ।

छत्तीसगढ़ में यद्यपि वर्ण - व्यवस्था प्रचलित थी तथापि उनमें कट्टरता कम थी । ब्राह्मण लोग पूजनीय माने जाते थे । क्षत्रिय और वैश्य भी समान आदर के अधिकारी थे छुआछूत का भी अधिक प्रचार नहीं था । बैगा, गुनिया आदि लोगों का सम्मान होता था । आदिवासी क्षेत्रों में तो इनका महत्वपूर्ण स्थान था । अन्धविश्वास का यहां महत्पूर्ण स्थान रहा है । विशिष्ट धंधा करने वाले लोगों को समाज में विशेष सम्मान प्राप्त होता था । लुहार, नाई, धोबी, कुम्हार और कहार आदि को अवसर के अनुकूल अभीष्ट सम्मान मिलता था । यहां के समाज में यथासंभव समानता का व्यवहार किया जाता था । अंग्रेजों के आगमन के पूर्व छत्तीसगढ़ की सामाजिक दशा का उल्लेख अंग्रेजी अभिलेख में मिलता है ।

गोंड़ों की विशिष्टता इस बात में थी कि उनमें देवी के सामने नर बलि देने की प्रथा प्रचलित थी । अपराधियों, युद्ध बंदियों और कभी - कभी इनके द्वारा निर्दोष व्यक्तियों की भी बलि दे दी जाती थी । मकान प्रायः घास - फूस के छाजन वाले होते थे । सम्पन्न लोग ही पक्का मकान बनवाते थे । पुरुषों की तुलना में यहां की स्त्रियां अधिक साज - शृंगार प्रिय होती थीं । बाल विवाह की प्रथा होने के कारण कभी - कभी तलाक और एकाधिक विवाह करने से संबंधित घटनाएं भी घटित हो जाती थीं । स्त्रियों में धार्मिकता अधिक थी । विश्राम और मनोरंजन के लिए विशेष पर्वो पर कबड्डी, कुश्ती, बैलों की दौड़ आदि के आयोजन किए जाते हैं । लोग तम्बाकू अथवा बीड़ी का सेवन करते थे । यहां के सामाजिक आचार और व्यवहार में आर्य और अनार्य दोनों संस्कृति के तत्व परिलक्षित होते हैं ।

शिक्षा - सन् 1818 के पूर्व छत्तीसगढ़ में शिक्षा का प्रसार नहीं के बराबर था । उच्च जाति के लोग जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, मराठे, गोसाई और सुनार आते थे, अपने बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करते थे । लेकिन शिक्षा का यह प्रबंध घर पर ही किया जाता था । कभी - कभी सम्बन्धित ग्राम में शिक्षक का कार्य करने के लिए किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या सुनार को रख लिया जाता था और उसे गांव वाले की ओर से वार्षिक भेंट के रूप में अन्न आदि दे दिया जाता था । छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर में शासन की ओर से शिक्षा की कुछ व्यवस्था की गयी थी ।

शिक्षा का माध्यम हिन्दी और मराठी भाषा थी । रतनपुर की तरह रायपुर में भी कुछ शालायें थीं, लेकिन आबादी की दृष्टि से ये शालायें पर्याप्त न थीं । मराठों ने अपने शासन काल में सुनियोजित ढंग से शिक्षा के लिए प्रयत्न नहीं किया । उस समय शहरों में भी नियमित कक्षाओं की व्यवस्था तो नहीं थी, परन्तु यहां प्राचीन परंपरा का अनुसरण करने वाली कुछ शालायें थीं ।

धार्मिक दशा - सन् 1818 के पूर्व छत्तीसगढ़ में दो धर्मो का विशेष प्रचार था- (1) हिन्दू, और (2) जनजातीय, किंतु विवेच्य काल से धर्म परंपरा एक दूसरे के साथ इस प्रकार मिल गये थे कि उनके मध्य विभाजन रेखा खींचना मुश्किल था । गोंड़ यहां के मूल निवासी थे । ये अपने को रावण वंशी मानते थे । ये बूढा देव की पूजा करते थे । इनकी तुलना में संख्या की दृष्टि से सतनामियों की संख्या दूसरे क्रम पर थी । यहां के लोगों का यह अंधविश्वास उनके विचित्र देवी - देवताओं की उपासना के रूप में प्रकट होता था । हर गांव में एक ठाकुर देव रहता था, जो ग्राम - देवता कहलाता था । प्रत्येक शुभ और मांगलिक कार्य तथा कृषि कार्य के आरम्भ एव अंत में इस देवता की पूजा आवश्यक मानी जाती थी ।

यहां शक्ति पूजा का प्रचार बहुत पहले से ही रहा है । आदिवासी संस्कृति में भी शक्ति पूजा किसी न किसी रूप में चलती आयी है । इस समय छत्तीसगढ़ में शैव, शाक्य और वैष्णव सभी थे, जो यह प्रमाणित करते हैं कि धर्म के क्षेत्र में यहां सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखा जाता था और धार्मिक संघर्ष के मौके कम आते थे ।

छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ का प्रधान रहा है । यह लगभग 17 वीं सदी के मध्य में यहां स्थापित हुआ । इसमें उच्च और निम्न दोनों वर्गों के लोग तथा.हिन्दू और मुसलमान दोनों दीक्षित थे । सतनामी - पंथ के अनुयायी भी कबीरपंथियों की तरह मांस - मदिरा आदि का सेवन नहीं करते और अपने गुरु - गोसाई की पूजा करते हैं । ये गुरु घासीदास को अपने पंथ का प्रवर्तक और प्रथम गुरु मानते हैं । 19 वीं सदी के प्रथमार्द्ध में (1820-30 के बीच) यहां इस मत की स्थापना गुरु घासीदास ने की । निर्गुण और सगुण भक्ति का यहां समान रूप से प्रचार हुआ है । यहां धार्मिक स्वतंत्रता बनी रही चूंकि यहां मुस्लिम शासन प्रत्यक्ष रूप से नहीं रहा इसलिए इस धर्म का कोई विशेष प्रभाव यहां नहीं पड़ा ।

सांस्कृतिक दशा - बाहरी सभ्यता से प्रभावित होने के बावजूद छत्तीसगढ़ की संस्कृति अपने मौलिक स्वरूप को बनाये हुए थी । प्राचीन आर्यों और अनार्यों की संस्कृति यहां प्रचलित रही, जो आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है । यहां की संस्कृति में समानता, भाईचारा और बन्धुत्व की भावना निहित थी । छत्तीसगढ़ एक परम्परावादी क्षेत्र रहा है । इसलिए यहां के जीवन में स्थिरता और आध्यात्मिकता के भाव ही अधिक रहे हैं । भौतिक अभ्युदय के प्रति इस क्षेत्र के लोगों में उदासीनता रही । इसके कारण क्रियाशीलता और साहसिकता के गुण यहां कम थे । अध्यात्म प्रधान विशेषता के कारण भी लोग भाग्यवादी थे और उनमें अनेक परम्पराओं का प्रचलन था । इसका प्रभाव आज भी कुछ न कुछ बना हुआ है । यहां बाहर से आए हुए लोगों ने क्षेत्रीय लोगों के विश्वास, उनकी मान्यताओं और जीवन मूल्य आदि को प्रभावित किया है ।

मराठा काल में छत्तीसगढ़ अपनी पुरानी संस्कृति के प्रति आकृष्ट रहा, क्योंकि इस काल में यहां किसी नवीनता के दर्शन नहीं हुए । यहां की प्रमुख भाषा छत्तीसगढ़ी ही थी, किंतु जनजातियों में गोंड़ी, हल्बी आदि प्रचलित थी । लोक - कला, लोक - नृत्य, लोक - चित्र, लोक - गीत आदि सांस्कृतिक तत्वों के मामले में यह समृद्ध रहा है । अलग - अलग अवसरों पर भिन्न - भिन्न गीतों, नृत्यों का प्रचलन था, विशेष कर जनजातियों में । यहां का शिल्प व हाथकरघा आरंभ से प्रसिद्ध रहा है । ब्रिटिश काल यहां की संस्कृति में कुछ परिवर्तन लाने में सफल रहा और वर्तमान में भी यह क्षेत्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है ।