छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
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छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )



 छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास

( कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई. )

    भारत के इतिहास में कलचुरि राजवंश का स्थान महत्वपूर्ण है । सन 550 से लेकर 1740 तक लगभग 1200 ही अवधि में कलपरि नरेश पत्तर अधवा दक्षिण भारत के किसी न किसी प्रदेश पर राज्य करते रहे । शायद राजवश में इतने लंबे समय तक राज्य किया हो ।

वैसे हैहयवंत का पूरा वृत्तांत पुराणों में मिलता है। प्रश्न उठता है कि कालपुरि कौन थे ? यहा से आये उनका मुल वह क्या था ? हाँ मिराशी के अनुसार कलपुरिनरेश अपने को सहस्त्रार्जुन कहे जाने में गौरव का करते थे । प्राचीन समय में कलचुरियों को कटप्युरि, प्रतिहही चालुक्यों द्वारा कलहरि तथा शिलालेख कलचुरि या कालापरि कहा गया है । विद्वान , विशेषकर डॉ . देवदत्तपत भण्डारकर बदबरदाई के पृथ्वीराज रासो आधार पर उन्हें विदेशी मानते है कि डॉ . मिराशी ने इसका खण्डन किया है । कलबीर कौन थे ? इसका निराकरण अभी तक नहीं हो पाया है , लेकिन कसरि और हैहयवंशी एक ही थे । विद्वानों ने इन्हें पन्द्रवी त्रिय गाना है । कालंजर , प्रयाग , त्रिपुरी काशी . तुम्माण , रतनपुर , खल्लारी , रायपुर में कलयुरि नरेशों ने अपनी राजधानी स्थापित की ।

कलचुरि का मूल कृष्णराज पुरूष था, जिसने हरा वंश की स्थापना की और 500 से 55 तक राज्य किया । कृष्णराज के बाद उसके पुत्र शकरगण प्रथम ने 878 से 800 ई . और शंकरगग के बाद उसके पुत्र डराज मे से 620 ई तक शासन किया , किंतु 20 ई . के बाद से लगभग डेढ़ सौ से पौने दो सौ वर्षों तक कलपुरियों की स्थिति अज्ञात सी रही और वे अपेक्षाकृत कमजोर होते गये । वैसे इस अवाये ( 500 से 620ई ) कलचुरि गुजरात , कोकण और विद्या के स्वामी थे । ईसा की वी शताब्दी में कलहरियों ने साधाज्य विस्तार किया और वानराज देवने गोरवाल प्रदेश पर आधिपत्य कर अपने भाई लक्ष्मणराज को गद्दी पर बैठाया । ये वारपार के कलपरिकहलाये । आनेबलकर वामराज देव के पुत्र शिपुरी ( महिष्मती के समान नर्मदा तट पर ) को अपनी राजधानी बनाया । दामराज देवकी कालंजर प्रथम और त्रिपुरी दितीय राजधानी रही । इस तरह वामराज देव त्रिपुर के कलपुरिश का संस्थापक । यह जबलपुर से मील दूरी पर स्थित है एवं इसका वर्तमान नाम तेवर है । इस समय कलपुरियों को चेदय या दिना नरेश ' कहा जाता था । त्रिपुरी में स्थायी रूप से राजधानी स्थापित करने का श्रेय कोकल प्रथम ( 875 - 9001 ) है । कोवस्त अत्यंत प्रतापी राजा था , इसकी विजयों का उल्लेख विलहरी लेख में मिलता है । उसका विवाह चंदेलो के यहा और उसकी पुत्री का विवाह राष्ट्रकुटवरी कृष्ण द्वितीय के साथ हुआ था इससे उसकी शक्ति का पता चलता . है ।

प्राप्त उत्कीर्ण प्रशस्तियों के अनुसार कोकल्लादेव प्रथम के 18 पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शकरगण द्वितीय मुग्धग ( 900 - 925 ई . ) को पिपुरी की गद्दी प्राप्त हुई । बिलहरी अभिलेख से शात होता है कि मुभाग ने लगभग 100 में कोसल के राजा को पराजित कर कोसल पर अधिकार कर लिया था । कोकल्स के अन्य पर अर्थात मुधग के अनुजो में कुछ त्रिपुरी के निकटवर्ती मंडलों के मंडलाधिपति बने तथा कुछ भाइयों को बिलासपुर जिले के कुछ मदत प्राप्त हए , जिनमें से एक लाका जगीदारी के अंतर्गत तुम्मान में जा कर जम गदा तुमान की दहशामा महाकोसत को स्वता कराने में लगी रही जबकि त्रिपुरी की गल गददी ने अपना विस्तार उत्तर में नेपाल पूर्व में बगाल . परिधान में गुजरात और दनिकुन्तल देश तक कर लिया । महलेश्वर का यह वश तुम्मान में पलता रहा कि बाद में कमजोर होने पर सोमदयों ने यहां अपना अधिकार कर लिया । तब लमगराज द्वारा शिरीसे अपने पत्र लिभराव को भेजा गया, जिसने न केवल तुम्मान को ही फिर से अपने अधिकार में किया वरन शमस्त दक्षिण कोसलवा जनपद भी जीत लिया । इसने तुम्मान को अपनी राजधानी बनाया और दक्षिण कोसत में कनपुरियों की वास्तविक साल की स्थापना की एवं नये सिरे से कलपुरि राज्य की नीव 1000 ई . में डाल कर अपनी शक्ति में वृद्धि की ।

रतनपुर के कलचुरि

बिलारी ( जबलपुर ) अभिलेख से प्राप्त होता है कि कोकल्लदेव प्रथम के पुत्र शकरगण द्वितीय गुग्धाग ने में कोसत राजा को पराजित कर कोसल का प्रदेश न लिया सिके पश्चात के सोमवशियों ने पुनःकोसल क्षेत्र पर अधिकार कर लिया । तब त्रिी के नामजने सेना मेजकर कोसल नक आजमण किया और क्षेत्रको पुनः विजिा कर लिया । कलपरियों की वास्तविक सता लगभग 1000 सिगराज द्वारा तुम्मान राजधानी बनाकर स्थापित की गई । सन 1020 तक शासन किया ।

कमलराज ( 1020 - 1045 ) - कलिंगराज का उत्तराधिकरी उसका पत्र कमलराज लगभग 100 राजा पिपरी के राजा गावदेव द्वारा उड़ीरा पर आक्रमण के अवसर पर कमलराजने उसकी सहायता दी थी ।

रत्नदेव अथ्वा रत्नराज प्रथम ( 1045 - 10065 ) - कमलराज का उत्तराधिकारी रामदेव प्रथम हाइसका विवाह मसालके अधिषी करुजूक या वजूवर्मा की पुत्री नोनलता से हआ था । संभल इस संबध कारण कालचारियों जीस्थिति मजबूत हो गई । सनदेव ( प्रथम ) के काल में अनेक निर्माण कार्य तम्मान किए गए । इसने लगभग 1000 मलपुर नामक नगर स्थापना कर राजधानी तुम्माण को यहां स्थानांतरित की । परनपुर ( वर्तमान में रतनपुर ) के नाम कारियों के दक्षिण कोसल की इस शाखा को इतिहासकारों द्वारा रतनगर के कलपीके नाम से सम्बोधित किया जाता है । रत्नदेव ने नदीन राजधानी में अनेक मंदिरों एवं तालाबों का निर्माण कराया । प्रसिद्ध महामाया मंदिर का निर्माण नदी के द्वारा कराया गया । रत्नपुर को कुबेरपुर की उपमा दी गई और उसका महत्व अधिक बढ़ गया ।

पृथ्वीदेव प्रथम ( 1065 - 1095 ) - पत्नदेव प्रथम के पश्चात उसका पत्र पनीदेव प्रथम राजा बना । इसकी सर्वप्रथम तिथि रायपुर तापत्र से कलपुरि सवत 21 अर्धाए 1005 ई . शात होती है । इसने सकलकोसमाधिपति की उपाधि धारण की भी तथा वह कोसल के इक्कीस हजार ग्रामों का अधिपति मासिके काल में शुम्माण एवं रतनपुर में निर्माण कार्य होते रहे ।

जाजल्लदेव प्रथम ( 1095 - 1120 ई . ) - जाजलसदेव प्रथम अपने पिता पृथ्वीदेव प्रथम के पश्चात लगभग 3085 ई . सिनपुर का राजा इशारा इसके समापुर शिलालेख में इसकी विजयों का उल्लेख हैराने पैरागर लोजिका भागर , तलहरिमाल , दण्डकपुर ( बगाल में स्थित ) , विमिडी ( अमेस्थित ) को पराजित किया । ननावली एवं कुक्कुट के राजा इसकी अधिसता स्वीकार करते कर देते थे । जाजल्लदेव ने चक्रकोट जिदक मागपती राजा सोमेश्वर को दण्ड देने के उददेश्य से उसकी राजधानी को जला दिया तथा उसे मंत्रियों तथा नियों सहितदकर लिया कित उत्सवी माता के अनुरोध पर मुला कर दिया । उसने सुवर्णपुर के भुजबल को पराजित कर कैद किया था । इस प्रकार इसकी प्रतिष्णा और सीर्ति दिई । इसने भवगे नाम पर स्वर्ण मुद्राएं प्रचलित करती इराने जाजल्यापुर नगर ( वर्तमान जांजगीर ) की स्थापना की तथा पाली के शिव मंदिर का जीर्णोद्धार कराया जो आज भी सुरक्षित है । इसने अपने स्वर्ण तिकको पर श्रीमग्णाजल्यदेव एवं गजशार्दूल चित्रित करवाया ।

रतनदेव द्वितीय ( 1120 - 1135 ) - जाजल्लदेव प्रथम के पश्चात एलदेव द्वितीय कलपुरि स . 878 अर्थात 1127 में राजा आसिने पिपरी के कलपरियों की अधिसत्ता मानना अस्वीकार कर दिया , अतः त्रिपुरी के राजा गयांकन ने इस पर आक्रमण किया , किंतु एस शाफलता नहीं मिली । इसी समय गंगवंशी राजा अनन्तायां घोड़गंग ने भी जनपुर के कलपुरि राज्य पर आक्रमण किया , किंतु शिवरीनारायण के पास हुए युद्ध में उसे पराजित हो कर लोटमा पड़ा । इसके पश्चात् जाजल्लदेव ने गौड देश पर आक्रमण कर वहा के राजा को पराजित किया

पृथ्वीदेव द्वितीय ( 1135 – 1165 ) - रलदेव द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका परब्बीदेव द्वितीय हा इसका सर्वप्रथम अभिलेख कलपरि संवत  890 अर्थात 1138 . का है । इसके कात तनपुर कानपुरि समाज्य अत्यात विस्तृत हो गया था । इसके जिन शिलालेख से ज्ञात होता है कि इसके सेनापति जगरल ने सरहागड़ मचका , रिहादा अमरवट , करतार समन्नोग , कान्दागर तथा काकरय के बोगो को जीतकर साज्य का विस्तार किया । बलके पश्चात् इसने पाकोट पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया । इस अननावर्ग पोइराग भयभीत होकर सद तट भाग गया । अनलाईनमय पर उसका पुत्र माधुकामार्गव जटेश्वर राजाइमा पूष्मीदेवमितीय ने इसे श्री पराजित करटहरासका अतिम सानपुर अभिलेख  कलचुरि . 915 अर्थात 1163 का है ।

जाजल्लदेव द्वितीय (1165 - 1178 ) - रतनपुर को सिंहासन पर जाजत्सदेव द्वितीय अपने पिता पमीदेव मितीय के पश्चात बैठा । इससी सन्धमझात तिथि मल्हार शिलालेख कलपुरि संवत 919 अर्थात 1167 से मिलती है । सिक काल में विपुल र राजा जयसिंह ने आक्रमण किया , किंतु वह अगफल रहा । इस शासक का राज्य अल्पकालीन था । जाजरदेव द्वितीय के पाचात उसके बड़े भाई जगदेवराजा बनने का विवरण खरीद शिलालेख में मिला । इससे जात होता है कि जब जाजत्लदेव की मृत्यु हो गई तब उसके जगददेव ने जो स्वेच्छा से सिहासन घोडकर पर्व में गंग राजाओं के दमन के लिए निकला था . आरशासन तथा कलपरि शापाली समुचित व्यवस्था की ।

रतनदेव ततीय ( 1179 - 1198 ) - जाजलदेव के पश्चात उसको पुत्र रत्नदेव तृतीय के विषय मे उसने नर 933 - 1168 के खरौद शिलालेख से जानकारी मिलती है । यह जगददेवकीनी सोमलता था । इसके काल में अराजक स्थिति निर्मित हो गई थी . इससे निपटने हेतु उसने एकाग गंगाधर को पान बनाया और उसकी सहायता से इसने स्थिति पर नियंत्रण प्राप्त किया । गंगाधर में खरीद लबानेश्वर मंदिर मंडपों का जीगोद्वार कराया ।

प्रतापमल्ल ( 1198 - 1222 ) - लदेव तृतीय के पश्चात प्रतापमल्ल राजा हुआ इसके तीन ताम्रपत्र पेन्द्रामा कोनारी एवं बिलाईगर नामक स्थानों से कम 1213 , 1216 एवं 1217 ई . ( सं . 965 , 968 एवं 369 ) के प्राप्त इन अभिलेखों से शत होती कि कम उसमें भी अत्यंत शक्तिवान था । इसके तानेकाकार एवं षटकोगका सिक्यो मिले जिसने सिंह और कटार की आकृति मिलती है । इसी काल में जसराज अक्षया दशोराज नामक एक कलचुरियों का सामन्तहारका उल्लेख मोरिया ( कवर्धा के निकट ) मुर्तिलेख , कलचुरि सवंत 910 तथा सागर के सहस्त्रबाहु प्रतिभा (कलचुरि सवंत 934 ) लेख में मिलता है । इस प्रकार इसका काल 1158 से 1182 ज्ञात हैं ।

प्रतापमल्स के पश्चात रतनपुर के कलपरियों के विषय में जानकारी देने वाले खोलो की कमी है । प्रतापमान बाद 1494 तक अर्थात लगभग 300 तक इस वंश से संबंधित कोई अभिलेख प्राप्त नही रहैत प्रत्यपाल के बाद कलपुरियों का प्रामाणिक इतिहास सर्वधा अप्राप्य है । कसपरिवंश से संबधित दो प्रसिद्ध विद्वानो भावरेवरान कायम और पं . शिवदत्त शास्त्री गौराहामारा लिखे हैहयवंशियों के अप्रकाशित इतिहास मिले है . जिससे का प्रया पड़ता है । देवगिरी यादों के अभिलेखों से जानकारी मिली है कि उस शके सिंघण कृष्ण राधा रामचन्द्र ( अलाउद्दीन खिलजी का समकालीन ) नामक राजाओं ने दक्षिण कोसल पर आक्रमण किया था । सिंघण के समय केसक्षेत्रमे जाजल नामक राजा राज्य करता था कि सिषाण का काल 1210 - 1247ईथा अतः अनुमान किया जा सकता है कि यह जाजल ( तीय ) प्रतापमल्ल का उत्तराधिकारी रहा होगा ।

वाहरेन्द्र अथवा बाहरसाय ( 1480 - 1525 ) - इसके बाद लवे अंतराल के पश्चातवाहरेन्द्र ( बाहरसाए संभवर ( 1480 - 1525 ) नामक ताके विषय में जानकारी मिलती है । इसका एक शिलालेख रतनगर के विक्रम संवत 1552 ( 1499 - 96 ) तथा दो शिलालेखकोसंगई से प्राप्त हुए है जिसमें एक विक्रम संवत 1570 अर्थात 1513 का है दूसरा तिथिविहीन है । बहरेन्द्र के अभिलेख से उसके पूर्ववर्ती अनेक राजाओं के नाम मिलते है । इस सिंघण तथा उसके पश्चात म धीर मदनसम्हा , रामचन्द्र तथा रामदेव के नामो लेख वाहरेन्द्र रतनदेव का पुत्र था । वाहरेन्द्र के काल में राजधानी रतनपुर से कोशंगा ( कोसंगई गड वर्तमान पुरी ) स्थानांतरित कर दी गई थी इसके शासन काल में पानी का आक्रमण हुआ था तथा इसने उन्हें सोन नदी तक खदेड दिया था । सिषण के पूर्ववर्ती एक राजा लामीदेव का उल्लेख रायपर के बम्हदेय के अभिलेखों में मिलता है । वाहरेन्द्र का शासनकाल 1480 से 1525 ई . स्वीकृत किया जा सकता है । प्रतापमल्ल और बाहरेन्द्र ( 1222 - 1480 ) के बीच राज्य करने वाले राजाओं की सूची बाबू रेवाराम कायस्थ में प्रस्तुत की है कितु अभिलेखीय नाश्यों से उसकी पुष्टि नहीं होती ।        

कल्याण साय ( 1544 - 1581 ) - वाहरेन्द्र के पश्चात रतनपुर के कलपुरियों के अभिलेख नहीं मिलते . किन्तु अन्य माश्यों से जानकारी मिलती है कि कल्याणसाय नामक एक राजा रतनपुर में लगभग 1544 से 1881 तक ( कुछ इतिहासकारों के अनुसार 1530 - 1573 तक ) राज्य किया । इसके समय की एक राजस्व पुस्तिका का उल्लेख मिलता है जिसमें उस समय की प्रशासनिक व्यवस्था , राजस्व एवं सैन्य बल की जानकारी मिलती है । मिस्टर चिशम बिलासपुर के प्रथम अदेज बंदोबस्त अधिकारी ने सन् 1868 मेस पुस्तिका को आधार मान कर कलरिशासन व्यवस्था के सारे महत्वपूर्ण प्रकाश मला है । इस पुस्तिका के आधार पर ही पिशम ने रतनपुर और रायपुर के 18 - 18गों अर्थात कुल छत्तीसगढ़ों के प्रशासन का उल्लेख किया है । कल्याण साय भुगल सम्राट अकबर का समकालीन था तथा उसके दरबार में लगभग आठ वर्ष रहा और वहां से अनेक प्रकार के सम्मान एवं सनद आदि लेकर लौटा । इसके समय राज्य की आर्थिक स्थिति अच्छी थी । इस समय संपूर्ण राज्य से होने वाली वार्षिक आय 6 . 50 लाख रुपये थी । उसका शासन 1581 ई . तक चलता रहा और इस समय तक रतनपर का कलचुरि राज्य अपनी प्रौढ़ता को प्राप्त कर चुका था । बाद के शासको का शासन उल्लेखनीय नहीं रहा और यह क्रमशः क्षीणता की ओर अग्रसर होने लगा ।

कल्याण साय के पश्चात् 1581 से 1689 ई . के मध्य लक्ष्मण साय ( 1581 ई . ) , शंकर साय ( 1596 ई . ) , मुकुन्द साय ( 1606 ई . ) , त्रिभुवन साय ( 1622 ई . ) , अदली साय ( 1959 ई . ) , जगमोहन साय ( 1653 ई . ) , रणजीत राय ( 1675 ई . ) तथा तखतसिंह साय ( 1685 अथवा 1689 ई . ) आदि राजाओं के नामोल्लेख बाबू रेवाराम तद्नुसार निर्मित कनिंघम की सूची एवं जिला गाजेटियरों में मिलते हैं ।

तखतसिंह ने तखतपुर की स्थापना 17वीं शताब्दी के अंत में की थी इसके पश्चात् राजसिंह ( 1689 - 1712 ई . ) राजा हुआ । इसने राजपुर ( वर्तमान जूना शहर रतनपुर के निकट ) बसाया । जनश्रुतियों के अनुसार वे निःसंतान थे , अतः ब्राम्हाण दीवान के नियोग द्वारा इसे पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम विश्वनाथ सिंह था । विश्वनाथ सिंह का विवाह रीवा की राजकुमारी के साथ हुआ था । नियोग की घटना से क्रोधित राजा ने दीवान तथा उसके रिश्तेदारों के निवास क्षेत्र को तोप से उड़ा दिया था , वहीं कालांतर में आत्मग्लानि के कारण विश्वनाथ सिंह ने आत्महत्या कर ली थी । प्रसिद्ध कवि गोपाल ( गोपाल चंद्र मिश्र ) राजसिंह के राजाश्रय में थे , जिन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथ ' खूब तमाशा लिखा था । 1721 ई . में राजसिंह की मृत्यु हो गई

कल्याण साय की जमाबंदी : अकबर विकसित राजस्व व्यवस्था

देश के इतिहास में भू - राजस्व व्यवस्थापन के साथ सदैव अकबर और उनके नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल को याद किया जाता है , किंतु लोग अपने क्षेत्रीय गौरव कलचुरि शासक कल्याण साय की जमाबंदी को भूल जाते हैं । रतनपुर शाखा के कल्याण साय ( सन् 1550 ई . ) के जमाबंदी की पृष्ठभूमि निश्चित ही अकबर से पहले की है । इस जमाबंदी में अंकित ऐतिहासिक राजस्व व अन्य राजकीय सूचनाओं का महत्व अंग्रेज अधिकारियों ने पहचाना । सन 1861 - 68 के मध्य बिलासपुर जिले का ( पहला ) बंदोबस्त करते हुए बंदोबस्त अधिकारी मि . चीजम ने इसी जमाबंदी को अपने कार्य का आधार बनाया और फिर सन् 1909 - 10 में बिलासपुर जिला गजेटियर तैयार करने के सिलसिले में मि . नेल्सन द्वारा इसकी खोज की गई । यह मूल अभिलेख न मिल पाने के फलस्वरूप ढेरों जानकारियां जो मि . चीजम ने उद्धृत की थीं , ज्यों का त्यों इस्तेमाल कर गजेटियर पूरा किया जा सका । कल्याण साय की जमाबंदी तत्कालीन , अत्यंत रोचक और महत्वपूर्ण जानकारियों का दस्तावेज है , जिसके अनुसार रतनपुर राज के गढ़ों अर्थात् केवल खालसा क्षेत्र से साढ़े छह लाख रुपये का राजस्व वसूल होता था , तब के रूपये का मूल्य अनुमान कर तत्कालीन सम्पन्नता समझी जा सकती है । कल्याण साय की जमाबंदी से तत्कालीन इतिहास का जो दृश्य सामने आता है , उससे इस क्षेत्र के नामकरण के पीछे छत्तीस प्रशासनिक इकाईयां - गढ़ ही आधार बनीं , इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता ।

राजसिंह के उत्तराधिकारी नहीं होने के कारण उन्होंने रायपुर शाखा के मोहनसिंह को उत्तरा धिकारी घोषित किया था , किंतु राजसिंह के आकस्मिक मृत्यु के समय मोहनसिंह उपस्थित नहा था , अतः राजसिंह ने राज्य अपने चाचा 60 वर्षीय सिरदार सिंह को सौंप दिया । सिरदार सिंह ( 1713 - 1732 ई . ) के निस्संतान होने के कारण उनका भाई रघुनाथसिंह राजा बना । इसके शासनकाल में ही मराठा सेनापति भास्कर पन्त ने 1741 ई . में उडीसा अभियान के मध्य रतनपुर पर अधिकार कर लिया । कहा जाता है कि वृद्ध रघुनाथसिंह अपने एकमात्र पुत्र की मृत्यु से दुःखी रहता था जिला राजकीय कार्यों में उसकी अरूचि हो गई थी । अतः रघुनाथसिंह ने भास्कर पन्त का विरोध नहीं किया । रतनपर है । किले का एक हिस्सा तोप से मराठा सेना द्वारा नष्ट कर दिया गया था , तब रघुनाथसिंह की रानियों ने सफेदाया फहराकर संधि की घोषणा की । भास्कर पन्त ने रघुनाथसिंह को ही भोंसलों के नाम पर राज्य करने की अनुमति प्रदान कर दी । वास्तव में हैहय वंशियों की मुख्य शाखा रतनपुर के अंतिम शासक रघुनाथसिंह को जर्जर वृद्धावस्था एवं का शोक से टूटी मानसिकता ने पूरी तरह से उदासीन कर दिया था , जिसका लाभ भोंसलों को मिला और भोसला सेनापति भास्कर पंत ने अपने उड़ीसा अभियान ( बंगाल के नवाब अलीवर्दी खों से चौथ एवं पूर्व बकाया वसूली हेतु ) के तहत बिना युद्ध के रतनपुर राज्य जीत लिया और मराठों के अधिकार की स्थापना के साथ ही प्रबल प्रतापी हैहयवंशी राज्य की इतिश्री हो गयी । इसके पश्चात् रघुनाथसिंह की मृत्यु के उपरांत मोहनसिंह मराठों के प्रतिनिधि के रूप में 1758 ई . तक रतनपुर का शासक बना रहा । 1758 से भोंसला राजकुमार बिंबाजी ने छत्तीसगढ़ में प्रथम मराठा शासक के रूप में प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया ।

शिवाजी की रतनपुर यात्रा

डॉ . आर . जी . शर्मा , बिलासपुर के ग्रंथ ' छत्तीसगढ़ के दर्पण ' के अनुसार डॉ . पुरूषोत्तम ज . देवरस का विवरण अंचल के इतिहास को एक नई खोज से परिचित कराता है । डॉ . देवरस के अनुसार शिवाजी जब औरंगजेब की कैद ( जयपुर भवन , आगरा ) में थे तब वहां से वे छद्म वेश में निकल गये । 13 अगस्त , 1666 को सुबह औरंगजेब के पहरेदारों ने शिवाजी को देखा था । उसके बाद शिवाजी वहां से छद्म वेश में अपने पुत्र के साथ सफलता पूर्वक कैद से मुक्त हो गये । अपने विवरण के पक्ष में प्रमाण स्वरूप उन्होंने , जयराम पिण्डे , 1673 एवं भीमसेन सक्सेना , 1666 ( भीमसेन उस समय औरंगाबाद में माहसूलदार थे ) के उदाहरण दिये हैं । औरंगजेब का इतिहास लिखने वाले खाफीखाँ जो मुगल कालीन इतिहास के लिये प्रामाणिक माने जाते हैं , ने भी यह विवरण मान्य किया है । शिवाजी के जाने के मार्ग का विवरण देते हुये डॉ . देवरस ने उल्लेख किया है कि आगरा से अपने पुत्र संभाजी को लेकर वे मथुरा पहंचे , वहां संभाजी को दासोजी पंत के यहां छोड़ दिया और कृष्णाजी पंत के साथ फतेहपुर के पास यमुना पार किया । दक्षिण जाने के मार्ग पर मुगल सेना उनकी खोज में लगी हुई थी अतः वे इटावा , कानपुर , इलाहाबाद होते हुये वाराणसी तथा यहां से मिर्जापुर होते हुये सरगुजा रियासत के घने जंगलों में पहुंचे । यहां से वे रतनपुर , रायपुर , चंद्रपुर फिर चिन्नूर , करीमगंज , गुलबर्गा मंगलबेड़ा होते हुये 22 सितंबर , 1666 को रायगढ़ पहुंचे और पुनः मुगल अत्याचार के विरुद्ध अभियान आरंभ कर दिया । इस तरह वे अत्यल्प अवधि के लिये रतनपुर प्रवास पर रहे ।

रायपुर के कलचुरि ( लहुरि शाखा )

रतनपुर के कलारियों की लाहुरि शाखा लगभग चौदहवीं शताब्दी ई . में रायपुर में स्थापित हुई । इस राक्षा राजा बहादेव के दो शिलालेख रायपर तथा खल्लारी से क्रमशः विक्रम संवत् 1458 एवं 1472 तदनुसार 1402 के 1415 ई . के प्राप्त हुए है । इन अभिलेखों में सामीदेव के पत्र सिधग तथा सिघग के पुत्र रामचन्द्र का उल्लेख मिल है । इसमें सिपण मारा अठारह गढ़ों को जीतने का उल्लेख है । रामचन्द्र द्वारा नागवंश के राजा मालिंगदेव को पराजित किए जाने का विवरण भी मिलता है । महादेव के शिलालेख से प्रकट होता है कि पौदहवीं सदी के मध्य में तनयर . के राजा का रिशोदार सानीदेव प्रतिनिधि के रूप में खल्लारी भेजा गया था । संभवतः बाद में उसका पुत्र सिघण अथवा सिंहग रतनपुर के राजा से मतभेद होने पर स्वतंत्र हो गया । इसके पौत्र एवं रामचंद्र के पुत्र महादेव के काल में पा रायपुर का उल्लेख नहीं मिलता है । महादेव के काल से ही रायपुर का विवरण प्राप्त होता है और उसके बाद खल्लारी या सल्वाटिका का राजधानी बने रहने का भी कोई प्रमाण नहीं मिलता अतः रायपुर को राजधानी बहादेव द्वारा बनाया गया होगा । रायपुर को राजधानी बनाने की तिथि 1409ई . स्वीकार की जाती है । खल्लारी अभिलेख से डर होता है कि देवपाल नामक मोची ने नारायण का एक मंदिर यहा 1415 ई . में बनवाया था 

बहादेव के पश्चात् रायपुर के कलपुरियों से संबंधित अधिकृत जानकारी उपलब्ध नहीं है । स्थानीय परंपता के अनुसार रामपुर शाखा का संस्थापक केशवदेव नामक राजा था . जो कलचुरियों की अनुभूतिगम्य वंशावली के उल्लिखित सैतीसवें गाजा वीरसिंह का छोटा भाई था । चूंकि ऐतिहासिक साययों से शादेव नामक राजा की जानकारी उपलब्ध है , अत : इसके पश्चात् केशवदेव का काल 1420 ई . मानते हुए अंतिम राजा अमरसिंह देव के मध्य सोलह राजाओं की सुदी मिलती है । इस सूची के अनुसार 1741 के 1750 तक अमरसिंह देव में राज्य किया था . किए अमरसिंहदेव का एक तापत्र विक्रम संवत् 1792 तदनुसार 1735 ई . का प्राप्त हुआ है  जिससे स्पष्ट होता है कि यह 1736 ई . के पूर्व राजा हो गया था ।

1741 ई . भोसलों द्वारा छत्तीसगढ़ आक्रमण के समय रायपुर बना रहा , किंतु अमरसिंह देव को 1750 ई . में मरानों ने बिना किसी विरोध के राज्यप्यूत कर दिया और रायपुर की गद्दी छीन ली । अमरसिंह को रायपुर राजिन व पाटन के परगनें देकर 7000 रूपये वार्षिक टफोली निश्चित कर दी गई । 1753 ई . में अमरसिंह की मृत्यु के पश्चार उसका पुत्र शिवराजसिड उत्तराधिकारी बना , वितु मांसलों ने उससे उत्तराधिकार में प्राप्त जागीरें भी छीन ली । 1775 जब दिबाजी ने पतीसगढ़ में अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया तब उसे गजारे के लिए महासमुंद तहसील बड़गांव एवं अन्य चार करमुक्त ग्राम प्रदान किये सामी उसे रायपर परानशाकगाय से एक - एक सल करने का अधिकार भी दिया । इस प्रकार 750 वर्षालबे समय तक शासन करने के पश्चात् कलचुरि वा समाप्त होने के साथ पतीसगढ़ के इतिहास से हिपवशियों का नाम बडे चम्तकारिेक ढंग से समाप्त हो गया ।

मध्यकालीन अन्य राजवंश (कवर्धा का फणिनाग वंश)

छत्तीसगढ के कवर्धा क्षेत्र में एक और नागवंश राज्य कर रहा था जो पाणिनगर के नाम से प्रख्यात था । से जगभग 16 कि . मी . की दूरी पर स्थित महवा महल नामक मदिर से विक्रम संवत 1406 अति 1349 ई . का शिलालेख मिला है । इससे ज्ञात होता है कि राजा परामपंट ने यहां एक शिव मंदिर का निर्माण कर उसके लिये शाम दान में दिये थे । रामचंद्र का विवाह कलपरि राजकमारी अधिका देवी से हुआ था । माता महल अभिलेख गणिनाग वंश परम्परा में अहिराज को नागों का सर्वप्रथम राजा बताया गया है । इसके तथा रामपंद के मध्य राज्य करने वाले लगभग 24 राजाओनाम दिये गये है । ऊपरी से प्राप्त एक प्रतिमा लेख में रामगोपालदेव का नाम का संवत 240 का उल्लेख है । यदि हम इसे घेदि संवत कलपरि संगत मानले जो 249 से आरंभ होता है तो मंदिर का काल 840 + 249=1089 ई . निर्धारित होता है । मझ्या महल अभिलेख में वर्णित पवें राजा गोपालदेव से इसका तादारभ्य स्थापित किया जाता है । इस तरह गोपालदेव रतनपर के राजा जल्लादेव प्रथम ( 1090 - 1120 के काल में उसके सभील शासन कर रहा था । एपरी को ही प्रापा एक प्रतिमा लेख में राजा सामागदेव एवं उसके पत्र वाम का उल्लेख मिलता है , जिसका वादात्म्य 24वें राजा रामचन्द्रदेव ( 1349ई ) से स्थापित किया जाता है । जलपरियों की रायपुर शाखा के शासकम्हदेश ( 1402 - 1414 ) ने पणिनांग वी राजा मोनिगदेव को हराया था । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस बंशगेलये समय तक इस क्षेत्र में राज्य किया एवं चौदहवी शताब्दी तक यहाँ इनका प्रमच बना रहा । यह दशकारपरियों की अधिसत्ता को स्वीकार करता था । यह वह गमडला के राज्य एवं कलचारियों के मध्य एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में विद्यमान था । मडया महल एवं भोरमदेव इशश की कला के एत्कष्ट उदाहरण है । भोरमदेव संभवतः एक आदिवासी देवता है जिनको समर्पित इस मंदिर का निर्माण राजा गोपालदेव द्वारा ही 1089 ई . के आस - पास करवाया गया था । जबकि मड़वा महल जिसे दुल्दादेव भी कहा जाता है वस्तुतः विवाह मंडप था का निर्माण राजा रामचन्द्रदेव द्वारा 1349 ई . में करवाया था । भोरमदेव छत्तीसगढ़ को नाग दही राजाओं की एक महत्वपर्ण देन है जो 9वी - 10वीं शताब्दी में निर्मित बजतहो के मंदिरो से प्रेरित पदेलीली ( नागरशेजी ) मेनिर्मित वास्तुकला का उदाहरण है ।

कांकेर का सोमवंश

कलचुरि शासक पृथ्वीदेव द्वितीय के राजिम शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसके सेनापति जगपाल नेकाकरण ( वर्तमान कार क्षेत्रको रिजित किया था । इसके पश्चात यहां राज्य करने वाले राजाओं द्वारा कलपर सवत का प्रयोग प्रारंभ कर दिया गया । इस वंश के कल पाच अभिलेय प्राप्त हुए है । इन अभिलेखों के आययन से स्पष्ट होता है कि इस वंश का संस्थापक सिंहराज था । उसका उत्तराधिकारी वापराज अथवा व्याधराजमा । इसके पश्चात दोपदेव राजा बना । बोपदेव के पश्चात यह देश तीन शाखाओं में विभाजित हो गया । पहली शाखा के विषय में कर्णराज के सिहावा अभिलेय शक संवत 1114 अर्थात 1191 ई . ) से जानकारी मिलती है , जिसमें उसे वोपदेव का पुत्र कहा गया सादा विषय में पम्पराज के तहनकापार से प्राप्त कलपुरि संवत 1214 ई के तापपत्र से जानकारी मिलीसोपत होता है कि पन्धराज के पिता सोमराज , बोपदेव के परदे तीसरी शाखा विषय में भानदेवके शक 1242 अर्थात 1320 के कांकेर शिलालेख से विवरण मिलता है । इससे शातता कि पोपदेव का पत्र क लाकार के पश्चात जैतराज हुआ । जैतराज कार में राज्य करता था । इसका पर सामचन्द्र आरमोमट पत्र भानदेव के समय में यह लेख उत्कीर्ग कराया गया । अपमान किया जा सकता हकिसिंहराज ( लगभग 1130 ईस्वी ) से भानुदेव ( 1320 ईस्वी ) तक कांकेर में सोमवंशी शासको द्वारा राज्य किया गया ।