1857 की क्रांति एवं छत्तीसगढ़ में उसका प्रभाव
1757 ई. के प्लासी के युद्ध से बंगाल में एक राजनैतिक सत्ता के रूप में स्थापित अंग्रेज अगले पचास वर्षों में समूचे भारत के एक मात्र और निर्विवाद शक्ति बन गये। यहां पैर जमाने के बाद अंग्रेजों ने प्रत्येक क्षेत्र में शोषण की नीति का अवलंबन आरंभ किया। अंग्रेजों का भारत आगमन ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में व्यापार के लिए 17वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ, किंतु अगले दो सौ वर्षों में भारत उनका एक उपनिवेश बन गया और वे शोषणकारी साम्राज्यवादी नीति पर शासन करने लगे । आर्थिक शोषण, राजनैतिक स्वतंत्रता का हनन, प्रजातिगत भेद-भाव, धार्मिक उत्पीड़न आदि उनकी भारतीयों के प्रति नीति के अग थे। भारतीय राजाओं का राजनैतिक पतन, उन्हें सत्ताच्युत किया जाना, कृषकों की बदहाली, कारीगर व शिल्पियों के कौशल का विनाश, धार्मिक व सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप आदि व धन का बहिर्गमन ऐसे कारण थे जिनके मूल में भारतीय असंतोष पल रहा था, जो 1757 से आरंभ होकर धीरे- धीरे 100 वर्षों में एक भयंकर विप्लव के रूप में फूट पड़ा। इसे भारत के प्रथम स्वतंत्रता समर की संज्ञा दी गई है। यद्यपि यह देश के चुनिंदा हिस्सों में ही हुआ तथापि इसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें हिला दीं। अंग्रेजो ने भारत के प्रति अपनी नीति में आमूल-चूल परिवर्तन किये। कपनी का शासन खत्म कर दिया गया एवं ब्रिटेन की महारानी भारत की साम्राज्ञी बनी और भारत अब ब्रिटिश संसद के पूर्ण नियंत्रण में आ गया। क्रांति कुचल दी गई, निश्चित संगठन के अभाव व सीमित क्षेत्र में ही फैल पाने के कारण यह असफल हुई, पर इसके दूरगामी परिणाम हुए। क्रांति के स्वरूप के संबंध में विद्वानों में गहरा मतभेद है। स्वरूप जो भी रहा हो, कितु यह स्वीकार किया जाता है कि ब्रिटिश अधीनता खत्म करने हेतु स्वतंत्रता संघर्ष का सूत्रपात इसी क्रांति से हुआ। आरंभ में यह सैनिक विद्रोह अवश्य था, किंतु शीघ्र ही विद्रोही स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु लड़ने लगे। यह एक ऐसा आरंभ था, जिसका अंत ठीक 90 वर्षों बाद 1947 में भारत की स्वतंत्रता से हुआ।
क्रांति का प्रभाव कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में ही हुआ। अधिकतर जमींदारों व रियासतों ने अंग्रेजों को भरपूर सहयोग दिया। यह उत्तर व मध्य भारत में ही फैल सका उसमें भी समूचा बंगाल व राजस्थान (कोटा व अलवर आदि रियासतों को छोड़कर) इससे पृथक् रहे । दक्षिण व उत्तर पश्चिम इसकी पहुंच से पूर्णतः बाहर रहे। प्रभावशाली भारतीय शिक्षित मध्यम वर्ग इससे दूर रहा। क्रांति के संगठन व कुशल केन्द्रीय नेतृत्व की अनुपस्थिति से अंग्रेज बच गये। अन्यथा भारत 90 वर्षों पूर्व ही आजाद हो गया होता। फिर भी इस क्रांति ने समस्त जन में राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया। इसी भावना से सामाजिक, धार्मिक पुनर्जागरण आरंभ हुआ जिसने भारत की स्वतंत्रता हेतु राष्ट्रीय आंदोलन को जन्म दिया। यह क्रांति भले ही समूचे देश में न फैल सकी, पर इसका प्रभाव राष्ट्रव्यापी रहा।
छत्तीसगढ़ में क्रांति का प्रभाव- जब 1854 ई. में छत्तीसगढ़ का क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया तब यहां किसी विद्रोह की सूचना नहीं मिली, पर अधिकारियों की गलत नीतियों के कारण यह शांतिमय क्षेत्र भी आंदोलित हो उठा। उत्तर भारत में विप्लव फैलने के साथ ही छत्तीसगढ़ में भी विद्रोह की आग की लपटें पहुंची। इस समय राष्ट्रीय थल सेना की तीसरी टुकड़ी का मुख्यालय नागपुर में ही था और उसका शेष भाग बिलासपुर में अरपा नदी के किनारे (आज के विश्वविद्यालय पीछे मे) स्थित था। मई 1857 में मेरठ मे हुये विद्रोह का पता छत्तीसगढ़ में स्थित सेना को भी चला, परिणामतः सेना की टुकड़ियों में असंतोष की भावना जागृत हो उठी और शताब्दियों से शांति प्रिय अगल-थलग क्षेत्र भी धधक उठा। देशव्यापी इस अशांति की प्रतिक्रिया छत्तीसगढ़ में भी परिलक्षित होने लगी। सितंबर 1857 ई. तक यह प्रतिक्रिया यहां अपने चरम पर पहुंच गई, फलस्वरूप रायपुर में पदस्थ डिप्टी कमिश्नर ने मुख्यालय नागपुर के कमिश्नर से आग्रह पर त्वरित कार्यवाही हुई, जिसमें नागपुर कमिश्नर ने मद्रास स्थित अंग्रेज अधिकारियों को तार से सूचना प्रेषित कर बहरामपुर से सेना की पाच टुकड़ियों को तत्काल रायपुर प्रस्थान करने का संदेश भेजा, ताकि आवश्यकतानुसार यहां किसी अप्रिय स्थिति से निपटा जा सके। अंग्रेजो के इस क्षेत्र में विप्लव संबंधी भय का नागपुर कमिश्नर के द्वारा मेजर जनरल व्हाईट को 23 जनवरी, 1858 ई. को लिखे पत्र से पता चलता है जिसमें उसने लिखा था-"रायपुर जिले में यदि क्रांति भड़क उठी होती तो तत्संबंधी क्षेत्रों के जमींदारो की जमींदारियों में भी, जिसके अंतर्गत देश के पूर्वी और उत्तरी भाग तथा भंडारा, चांदा की जमींदारी भी आती है तथा प्रांत के पश्चिमी भाग को भी यह प्रभावित करती और यदि यह क्रांति इतने व्यापक पैमाने पर इतने कठिन और विकराल रूप में विकसित होती तो एक विशाल सेना की आहूति के बिना इस पर नियंत्रण स्थापित करना असंभव हो जाता। कमिश्नर का यहां के लिए ऐसा सोचना गलत नहीं था, शीघ्र ही छत्तीसगढ़ में संघर्ष आरंभ हो गया और यहां भी जमींदारों एव सैनिको के विद्रोह हुये, जिनका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
सोहागपुर में संघर्ष - 15 अगस्त, 1857 को गुरूरसिंह, रणमंतसिंह और संबलपुर के कुछ अन्य जमींदारों के नेतृत्व मे एक विशाल संख्या में विद्रोही एकत्रित हुए तथा उत्तर की ओर एक विशाल संख्या में प्रविष्ट हुए. किंतु तत्काल बाद ही रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने अपनी स्थानीय सेना के साथ सोहागपुर के पास इन विद्रोहियों पर आक्रमण कर दिया। इन विद्रोहियों का नेता सतारा के राजा का भूतपूर्व वकील रंगाजी बापू थे और सोहागपुर में इन विद्रोहियों की स्थिति मजबूत थी साथ ही उन्होंने रायपुर के जमीदारो को भी अपने झंडे के नीचे एकत्रित होने का आह्वान किया था। डिप्टी कमिश्नर को यद्यपि पूर्ण सफलता नहीं मिली, पर इस विद्रोह को उसने आगे नहीं बढ़ने दिया। छत्तीसगढ़ में हुआ विद्रोह संगठित नहीं था, इसी कारण इसका प्रभाव रायपुर शहर तक ही सीमित रहा। दूरस्थ क्षेत्रों तक विद्रोह न फैल सका।
सोनाखान का विद्रोह
मानवता एवं शौर्य के प्रतीक छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह
सोनाखान जमींदारी- सोनाखान के जमींदार बिंझवार राजपूत थे। यह जमींदारी क्षेत्र कलचुरियों की बिलासपुर शाखा के अंतर्गत आती थी, किंतु वर्तमान में यह रायपुर जिले में आती है। यह जमींदारी (संपत्ति) रतनपुर के कलचुरी राजा बाहरसाय (1500 ई.) द्वारा वीरनारायण के पूर्वजों को उनकी सैनिक सेवा के पुरस्कार स्वरूप करमुक्त जागीर के रूप में दी गई थी। इस जमीदारी में बारह गांव थे। उस समय से मराठा विजय काल (1741 ई.) तक इस जमींदारी पर कोई कर नहीं लगाया गया था, किंतु बिंबाजी (1758-87 ई.) के काल में सोनाखान पर इमारती लकड़ी और लाख पूर्ति का दायित्व सौंपा गया. जो साठ वर्षों तक चलता रहा, इसके बाद रामराजे (वीरनारायण सिंह के पितामह) की प्रमुखता के कारण उत्पन्न विरोध के फलस्वरूप यह जमींदारी अंग्रेजी आधिपत्य में दे दी गई। इसके बाद पट्टे में कुछ संशोधन किया गया, जिसके तहत लकड़ी और लाख के भुगतान को जमींदार के निवेदन पर माफ कर दिया गया, क्योकि जमींदारी के मूल पट्टे में लकड़ी और लाख के भुगतान की शर्ते नहीं थीं। इसके साथ ही इस जमीदारी को तीन सौ रुपये का नामनूक भी प्रदान किया गया। उसे खरीद के संरक्षण हेतु नब्बे रुपयों की अतिरिक्त व्यवस्था की गई, जिसमें तीस रुपये उसके स्वयं के लिए एवं साठ रुपये चौकीदारों के लिये थे।
इस तरह सोनाखान की जमीदारी का पट्टा सैनिक शासन के अंतर्गत था, अतः यहां से किसी प्रकार का कर वसूल नहीं होता था। यह जमींदारी अपनी इसी स्थिति के कारण प्रतिष्ठित थी। साथ ही यह जमींदारी इस बिंझवार वंश के पास पिछले तीन सौ छियासठ वर्षों से थी। यद्यपि यहां से अंग्रेजों को कोई टकोली प्राप्त नहीं होती थी, पर यहां से 303 रुपये 12 आने का राजस्व प्रति वर्ष प्राप्त होता था। जेनकिंस के विवरण के अनुसार अग्रेजों के देश में आधिपत्य के साथ ही सोनाखान का जमींदार रामराय अपना विरोध और आक्रोश प्रदर्शित करते हुए उनकी अवहेलना करने लगा था, अतः 1819 ई. में इस पर आक्रमण कर पराजित किया गया तथा कैप्टन मैक्सन ने उसे बंदी बनाया था। उसकी जागीर उसे इसी शर्त पर वापस की गयी थी कि भविष्य में वह अनुचित व्यवहार नहीं करेगा।
रामराय ने इस शर्त का सम्मानपूर्वक पालन किया। उसके समर्पण के ठीक बाद कुछ खालसा ताल्लुक उसे दे दिया गया, जिसे वह अपने स्वयं व परिवार हेतु उपयोग में ला सके।
1855 ई. में अंग्रेजी शासन के आरंम के समय यहां के जमींदार रामराजे का पौत्र व रामराय के पुत्र नारायण सिंह थे। इन्होंने पैंतीस वर्ष की आयु में अपने पिता रामराय की मृत्यु बाद 1830 ई. मे जमींदारी का कार्यभार ग्रहण किया। अंग्रेज सोनाखान जमींदारी से विशेष रूप से चिढ़ते थे एवं दुराग्रह व ईर्ष्या की भावना रखते थे। 10 जून, 1855 ई. के अपने रिपोर्ट में नवनियुक्त प्रथम डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स सी. इलियट ने लिखा है कि-"जमींदार के तथाकथित अहंकार एवं क्रूर प्रवृत्ति की सूचना मेरे पास प्रायः पहुंचती रहती थी। उसके इस दुर्व्यवहार का आतंक खरौद और लवन की जमींदारियों और परगनों में भी व्याप्त था।"
अंग्रेजों ने दुराग्रहवश (इलियट ने) सोनाखान के प्रति आर्थिक शोषण और लाभ की ही नीति का अनुमान किया और जमीदारी को अंग्रेजी कोषालय से कुछ भी नहीं देने का फैसला किया।
सोनाखान का विद्रोह- वीर नारायण सिंह जनहित कार्यों में रुचि रखते थे इसलिए वे अपनी प्रजा में लोकप्रिय थे दुर्भाग्यवश सन् 1856 ई. में इस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा, लोग भूखों मरने लगे। लोगों के जान की रक्षा के लिए उन्होंने कसडोल के एक व्यापारी माखन के गोदाम का अनाज (अगस्त 1856 ई. में) अपनी भूखी प्रजा में बांट दिया उसने इस कृत्य की सूचना रायपुर के डिप्टी कमिश्नर को दी। जमींदार के इस कृत्य को कानून विरोधी समझा गया डिप्टी कमिश्नर के अनुसार पहले उसने नारायण को बुलाया, किंतु आदेश का पालन न होने पर उसने उसकी गिरफ्तारी का वारंट जारी किया।
सत्यता यह थी कि वीर नारायण सिंह ने माखन के गोदाम से अन्न निकालकर किसानों में बांट देने की सूचना स्वयं अग्रेजी हुकूमत को दे दी थी। वास्तव में जनता की दयनीय स्थिति और शासन की निष्क्रियता वश नारायण सिंह ने ऐसा साहसिक कदम मानवीय दृष्टिकोण से उठाया था, किंतु तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर ने अपने शासकीय बयान में इस घटना का विवरण तोड़-मरोड़ कर दिया है। उसके अनुसार क्षेत्र के किसानों के लिए बीज की नितांत आवश्यकता को नजर अंदाज करते हुये नारायण सिंह ने माखन नामक व्यापारी के गोदाम में जबरदस्ती घुसकर अनाज बाहर निकाल लिया। डिप्टी कमिश्नर ने स्थिति पर सावधानी या सहानुभूतिपूर्वक विचार नहीं किया। उसने तत्काल रायपुर से कटक तक सभी प्रशासनिक अधिकारियों को नारायण सिंह को गिरफ्तार कर रायपुर लाने का आदेश दिया और जमींदार के मकान (सोनाखान) में पुलिस भेज दी। नारायण सिंह को पकड़ने हेतु एक सैनिक टुकड़ी भेजी, जिसने 24 अक्टूबर, सन् 1856 ई. को संबलपुर में काफी कठिनाइयों के बाद बंदी बनाकर रायपुर लाया गया। जमींदार नारायण सिंह पर लूटपाट और डकैती का आरोप लगाकर रायपुर जेल में डाल दिया गया। वास्तव में नारायण सिंह की राजनैतिक चेतना अंग्रेज अधिकारियों को बरदाश्त नहीं हो रही थी वे उसे एक चुनौती के रूप में देखने लगे थे और यही उसके प्रति अंग्रेजों की ईर्ष्या का मूल कारण बन गई। दूसरा कारण जिससे अंग्रेज इस जमींदारी से चिढ़ते थे वह यह थी कि नारायण सिंह की जमींदारी अंग्रेजी कोष में टकोली नहीं भेजती थी क्योंकि वह कर मुक्त थी। अतः अंग्रेजों की निगाहों में इस जमींदारी का विशेष दर्जा चुभता था।
वीर नारायण सिंह का जेल से पलायन और अंग्रेजों से युद्ध- इसी समय अग्रेजों के विरुद्ध सन् 1857 का विद्रोह आरंभ हो गया। इसका प्रभाव छत्तीसगढ़ में भी पड़ा। विद्रोह की अग्नि रायपुर जेल में भी धधक रही थी। पूरे दस माह चार दिन रहने के बाद नारायण सिंह जेल से भाग निकले। ऐसा कहा जाता है कि वीर नारायण रायपुर स्थित सेना के सहयोग से भाग निकलने में सफल हुए थे। डिप्टी कमिश्नर ने सूचना दी कि 28 अगस्त की सुबह उसे नारायण सिंह और तीन कैदियों को सुरंग बनाकर जेल से भाग निकलने की सूचना मिली। इस घटना की छानबीन की जिम्मेदारी रायपुर में नियुक्त तीसरी टुकड़ी की कमान् को सौंपी। जमींदार की खोज के लिए लेफ्टीनेंट नेपियर के साथ लेफ्टीनेंट स्मिथ सेना सहित निकल पड़े। इसी समय संबलपुर के क्रातिकारी सुरेन्द्रसाय जो हजारीबाग जेल में थे, वहां से भाग निकले। जेल से छूटने के बाद वीर नारायण सिंह सोनाखान पहुंचे और वहां उन्होंने अपने नेतृत्व में 500 सैनिकों की एक सेना तैयार की। इधर स्मिथ सेना सहित सोनाखान के लिए रवाना हो गये। स्मिथ ने मार्ग में जमींदारों से सहयोग लिया। 29 नवंबर को वह खरौद से सोनाखान रवाना हुआ, कुछ सेना उसने बिलासपुर छावनी से बुलवायी थी। देवरी का जमींदार रिश्ते में नारायण का चाचा था, पर उसका खानदानी शत्रु था और ऐसे समय में वह स्मिथ का पथ प्रदर्शन (क्षेत्र संबंधी) कर रहा था। 1 दिसंबर को स्मिथ ने देवरी से सोनाखान प्रस्थान किया। सोनाखान से कुछ ही दूर नाले के समीप वीर नारायण ने स्मिथ की सेना पर आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ प्रारंभ मे स्मिथ पराजित होता दिखा, पर बाहरी सहायता से स्मिथ ने वीर नारायण को पीछे हटने हेतु विवश किया। स्मिथ को भटगांव, बिलाईगढ़ और देवरी जमींदारियों से सहयोग प्राप्त हुआ। दोपहर को स्मिथ ने सोनाखान में घुसकर खाली गांव में आग लगा दी। सोनाखान को किस तरह जलाया गया था, उसका प्रमाण स्मिथ के विवरण से मिलता है, उसने लिखा है-“रात बड़ी उत्तेजनात्मक थी, किंतु चमकती हुई चांदनी और आग में धधकते हुये गांव की रोशनी से हमें काफी लाभ पहुंचा। 2 दिसंबर को कटंगी की फौज स्मिथ से जा मिली। दोपहर पश्चात् रिमथ उस पहाड़ी की और बढ़ा जहां वीर नारायण अपने सेना के साथ तैयार था। स्मिथ की विशाल सेना ने उक्त पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया, दोनों ओर से गोलियां चलती रहीं। अंत में वीर नारायण गिरफ्तार कर लिये गये और उन्हें पुनः रायपुर जेल में डाल दिया गया। उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। स्मिथ ने अपने अभियान की रिपोर्ट में वीर नारायण को खतरनाक बताते हुए उस पर किसी प्रकार की दया न करने की गुजारिश डिप्टी कमिश्नर से की। उसने लिखा-उसे क्षमा दान देना सबसे बड़ा अपराध होगा। हमें अपने उन स्वामीभक्त व्यक्तियों की मनः स्थिति का पूर्ण अहसास है जो हमारी आवश्यकता के क्षणों में हमारे साथ थे तथा उसके आतंक से बहुत भयभीत थे। (9 दिसंबर, 1857 ई. छत्तीसगढ़ डिविजनल रिकार्ड्स) आगे की कार्यवाही के संबंध में इलियट ने (10 दिसंबर, 1857 ई. को) लिखा है - सोनाखान का तथाकथित जमीदार नारायण सिंह मेरी अदालत के सामने हाजिर किया गया एवं उस पर 1857 ई. के अधिनियम के एक्ट चौदह और सेक्शन सात के अंतर्गत अभियोग लगाया गया। यह 1857 ई. के ग्यारहवें एक्ट एव सेक्शन एक के अंतर्गत आता है, यह मेरे द्वारा मौत की सजा का भागी करार दिया गया। यह सजा आज ही सुवह सामान्य परेड में एकत्रित पूरी सेना के सामने उसे बिना किसी व्यवधान, त्रुटि अथवा अन्य कारणों के निश्चय ही दी गई। छत्तीसगढ डिविजनल रिकार्ड्स पत्र क्र. 286, दिनांक 10 दिसंबर, 1857 ई. के अनुसार-नारायण सिंह को 10 दिसंबर, 1857 ई. को फांसी की सजा दी गई एवं डिप्टी कमिश्नर ने सोनाखान की जमीदारी को खालसा ताल्लुक में बदलने की अनुमति दी। नारायण सिंह को सजा वर्तमान 'जयस्तभ चौक मे तोप से उड़ाकर दी गई। नारायण सिंह के अपराध और उसके परिणाम की सूचना जोर-शोर से संपूर्ण जिले और आस-पास के क्षेत्रों में प्रचारित किया गया। इस प्रकार सोनाखान के रण केशरी छत्तीसगढ माटी के सच्चे सपूत निर्भीक, स्वाभिमानी. प्रजाप्रिय एवं देशभक्त जमींदार नारायण सिंह 10 दिसंबर, 1857 को शहीद हुए। वे छत्तीसगढ़ अंचल में स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद थे। उनसे हुए संघर्ष के बारे में स्मिथ ने लिखा है-"नारायण सिंह ने उत्कट शौर्य, साहस एवं उत्साह के साथ हम लोगों का गुरिल्ला पद्धति से मुकाबला किया।"
इस शहादत पर "म. प्र. में स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन" में उद्धृत है-" अधिकारियों ने एक प्रभावी एवं देशभक्त नेता को मात्र उसके इस अपराध पर कि उसने दुर्भिक्ष के क्षणों में एक व्यापारी के गोदाम को लूटकर अनाज कृषकों में वितरित कर दिया था, उसे अपराधी घोषित कर इस तरह की निर्मम सजा दी, जबकि उसने अपने किये हुए की सूचना निर्भीकतापूर्वक डिप्टी कमिश्नर को स्वयं दे दी थी। यह स्पष्ट है कि उसने यह कार्य अकाल पीडित जनता की भलाई हेतु किया और आवश्यकता पड़ने पर व्यापारी को उसके नुकसान की क्षतिपूर्ति भी की जा सकती थी। उसने वस्तुतः एक छोटे स्तर पर बड़ा कार्य किया जो कोई भी सरकार ऐसी परिस्थिति में करती।" नारायण सिंह की सजा के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन सभी लोगों को जिन्होंने नारायण सिंह के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता की थी, लाभ दिया । नारायण सिंह की संपत्ति से माखन बनिया को उसकी लूटी हुई संपत्ति का मुआवजा तेरह सौ सतत्तर रुपये आठ आने दिया गया । नारायण की गिरफ्तारी से संबंधित सिपाहियों को बीस-बीस रुपये और जांच में अथवा अन्य किसी प्रकार से इस प्रकरण से संबंधित अधिकारी को सौ-सौ रुपये दिये गये।
नारायण सिंह के बाद सोनाखान : गोविंद सिंह और अंग्रेज- वीर नारायण सिंह के बलिदान के पश्चात् उनके पुत्र श्री गोविंद सिंह को गिरफ्तार कर नागपुर जेल भेज दिया गया, किंतु सन् 1860 ई. में उसे रिहा कर दिया गया। सोनाखान वापसी पर उसने पाया कि देवरी के जमींदार उसके चाचा महाराज साय ने उसकी जमींदारी पर कब्जा कर लिया है। ऐसा संभवतः उसने अंग्रेजों की सहमति पर किया था। सोनाखान की जमींदारी शायद उसे पुरस्कार स्वरूप अंग्रेजो ने वीर नारायण सिंह की गिरफ्तारी में सहयोग के बदले दे दी थी। इसी बीच 31 अक्टूबर, 1857 ई. को सुरेन्द्र साय जो कि संबलपुर के विद्रोही जमीदार थे, हजारीबाग जेल से भाग निकले और पुनः अंग्रेजों से लोहा लेते हुए रायपुर पहुंचे। विद्रोही गोविंद सिंह ने उनके सहयोग से देवरी के जमींदार पर आक्रमणकर उसके शरीर के टुकड़े कर दिये और उसके विश्वासघात का बदला ले लिया। इसके बाद गोविंद सिंह सुरेन्द्र साय से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान पर निकल पड़े। दोनों ने मिलकर रायपुर और बस्तर की सीमा तक अंग्रेजों की नीद हराम कर दी। अंग्रेजों ने इनकी गिरफ्तारी हेतु इनाम घोषित किया। 23 जनवरी, 1864 ई. को सुरेन्द्र साय अचानक घिर गये और उन्हें पकड़ कर उनके साथियों के साथ असीरगढ़ के किले में कैद कर दिया गया। जहां उन्हें मृत्युपर्यंत यातनाएं दी जाती रहीं। गोविद सिंह ने परिस्थितियों को देखते हुए व अंग्रेजों की ताकत को समझते हुए महसूस किया कि ज्यादा दिनों तक अंग्रेजों से अकेले जूझना संभव नहीं है, और संभवतः उन्होंने अंग्रेजों से संधि कर ली। अंग्रेजों ने भी विद्रोह शांत होने पर गोविंद सिंह को छोड़ दिया। सोनाखान की जमीदारी उसे वापस कर दी गई। इसके पश्चात् के काल में सोनाखान की जमींदारी के विषय में और अधिक जानकारी नहीं मिलती।
सम्बलपुर के सुरेन्द्र साय का विद्रोह
सन् 1827 ई. में सम्बलपुर के चौहान राजा महाराजसाय की मृत्यु बिना उत्तराधिकारी के हो गई। चौहानवंश की परम्परा के अनुसार सम्बलपुर की राजगद्दी पर उनकी राजपुर-खिंडा शाखा के सुरेन्द्र साय का अधिकार बनता था, किंतु अंग्रेज अधिकारियों ने उनके वैध अधिकार को अस्वीकार करते हुए पहले महाराजसाय की विधवा रानी मोहनकुमारी को गद्दी पर बैठा दिया, कितु जन असंतोष को देखते हुए बरपाली के चौहान जमींदार परिवार के अपने पिटू राजकुमार नारायणसिंह को अवैध रूप से सम्बलपुर की गद्दी पर बैठा दिया । राजपुर-खिंडा के चौहान परिवार ने इसका विरोध किया। सुरेन्द्र साय छ: भाइयो, उनके चाचा बलरामसिंह तथा अनेक जमीदारों ने विद्रोह का प्रारंभ किया। इसी बीच सुरेन्द्र साय के समर्थक लखनपुर जमींदारी के बलभद्रदेव की नारायणसिंह की एक सिपाही ने हत्या कर दी। इसका बदला लेने के लिये सुरेन्द्रसाय ने रामपुर के किले पर आक्रमण कर यहां के जमींदार दुर्जयसिंह की, जो सम्बलपुर के राजा का वफादार था, हत्या कर दी। इस अपराध में सुरेन्द्र साय, उसके भाई उदन्त साय और चाचा बलराम सिंह को आजीवन कारावास की सजा देकर हजारीबाग जेल में भेज दिया। इस बीच अंग्रेजों के अत्याचार से असंतुष्ट जमींदारो एवं प्रजा ने सुरेन्द्र साय के नेतृत्व में संघर्ष करने का निश्चय किया। अंततः 31 अक्टूबर, 1857 को सुरेन्द्र साय जेल से भागने में सफल हुए। सुरेन्द्र साय और उनके परिवारजनों ने अंग्रेजो से लगातार संघर्ष किया। सम्बलपुर क्षेत्र, जो उस समय छत्तीसगढ का एक जिला था, आज भी सुरेन्द्रसाय की कथाओं से गुंजित है। सुरेन्द्र साय को अंत में 23 जनवरी, 1964 को उसके भाइयों तथा साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया गया। छत्तीसगढ के कमिश्नर ने उन्हें आजन्म कारावास दिया। इस निर्णय को तत्कालीन ज्यूडिशियल कमिश्नर कम्पबेल ने यह कहकर निरस्त कर दिया कि सुरेन्द्र साय के विरुद्ध आरोप सिद्ध नहीं होते, फिर भी ब्रिटिश अधिकारियों ने 1818 के तीसरे रेग्यूलेशन के तहत इन्हे कैद कर असीरगढ़ जेल भेज दिया, जहां 28 फरवरी, 1884 ई. मे लगभग 90 वर्ष की आयु में सुरेन्द्र साय की मृत्यु हो गई। इस प्रकार प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक और सितारा डूब गया।
रायपुर में सैन्य विद्रोह : हनुमान सिंह का शौर्य
10 दिसंबर, 1857 को वीर नारायण सिंह की शहादत के बाद 10 जनवरी, 1858 तक अंचल में घोर अशांति बनी रही। नारायण सिंह को फांसी देने की घटना से छत्तीसगढ़ में असंतोष की ज्वाला भडक उठी थी। 18 जनवरी, की रात्रि 7:30 बजे तीसरी सेना के मेग्जीन लश्कर हनुमान सिंह ने तीसरी टुकडी (नागपुर के अस्थायी सैन्यदल की तीसरी टुकड़ी, जो रायपुर में स्थित थी) के सारजेण्ट मेजर सिडवेल की उसके घर में घुसकर हत्या कर दी और विद्रोह का प्रारंभ किया। इसके पश्चात् उसने पुलिस शिविर के सिपाहियों को सम्बोधित करते हुए उन्हें इस विद्रोह में भाग लेने का आह्वान किया। लेफ्टिनेन्ट सी. बी. एल. स्मिथ ने विद्रोहियों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। रात्रि बारह बजे तक गोलीबारी के पश्चात् ही विद्रोह शांत हो सका। विद्रोही सिपाहियों की संख्या 17 बताई गई, वास्तव में ये गिरफ्तार सिपाहियों की संख्या थी। हनुमान सिह फरार हो गए और फिर अग्रेज उन्हें कभी भी गिरफ्तार न कर सके। उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिए 500 रुपये का इनाम रखा गया और इस घटना के बाद हनुमान सिंह की कोई सूचना नहीं मिली। यह बैरकपुर छावनी के मंगल पांडेय द्वारा किये गये विद्रोह की रायपुर में पुनरावृत्ति थी।
गिरफ्तार सिपाहियों के विरुद्ध रायपुर के डिप्टी कमीश्नर इलियट द्वारा मुकदमा चलाया गया और सभी अपराधी सिद्ध हुए। 22 जनवरी, सन् 1858 ई. को पूरी सेना के सामने इन सिपाहियों को फांसी दे दी गई। इनके नाम व पद इस प्रकार हैं-गाजीखाँ, हवलदार एवं 16 गोलन्दाज क्रमशः शिव नारायण, मूलीस या मुल्लू , अब्दुल हयात, पन्नालाल. मातादीन, बल्ली या बलिहू दुबे, ठाकुर सिंह, अकबर हुसैन, लालसिह, परमानंद, बदलू (बुद्ध). दुर्गा प्रसाद, शोभाराम, नूर मोहम्मद, देवीदीन और शिव गोविंद ।
इस प्रकार हम देखते है कि ये 17 व्यक्ति अलग-अलग जाति एवं धर्म से संबंधित होते हुए भी राष्ट्र हित में एक साथ जूझ पड़े जो इस बात को प्रमाणित करती है कि अंचल में राष्ट्रीयता की भावना प्रवल थी। इन सिपाहियों के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था। फांसी के पश्चात् इनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई एवं इनके परिवारों के विरुद्ध डिप्टी कमिश्नर ने कठोरतम कार्यवाही की। लगातार 6 घण्टो के संघर्ष के बाद विद्रोहियों को आत्म समर्पण करना पड़ा क्योंकि विद्रोहियों का कोई बड़ा एवं पूर्ण संगठन नहीं था।
यदि इस विद्रोह को कुशल नेतृत्व प्राप्त हुआ होता तो यहां भी कुछ ऐसी घटना होती जो इतिहास में अमर हो जाती। इस संदर्भ में हनुमान सिंह का कृत्य अत्यंत प्रेरणास्पद है, जिसने अंचल में विद्रोह की चिगारी उत्पन्न कर दी। ब्रिटिश अधिकारी इस बात से अनभिज्ञ थे कि छत्तीसगढ़ के समान शात क्षेत्र में भी विद्रोह के लिए उठ खड़ा होगा। हनुमान सिंह के विद्रोह करने के मूल में क्या था यह स्पष्ट नहीं है, किंतु निश्चित ही यह राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक असफल प्रयास था। संभवतः यह देशभक्त वीर शहीद वीरनारायण सिंह पर हुए अन्याय से उत्पन्न आक्रोश की उपज थी, जिसने हनुमान सिंह जैसे साधारण सिपाही को एक असाधारण कार्य हेतु प्रेरित किया।
उदयपुर का विद्रोह
सरगुजा राजपरिवार की एक शाखा उदयपुर में राज्य कर रही थी। यहां 1818 ई. में ब्रिटिश संरक्षण काल में कल्याण सिंह राजा थे। 1852 ई. में यहां के राजा और उसके भाई पर मानव हत्या का आरोप लगाकर अंग्रेजों ने कैद कर लिया तथा रियासत अपने अधिकार में ले लिया था। 1857 ई. के विद्रोह के समय उदयपुर के राजा अपने दोनों भाइयो के साथ उदयपुर पहुंचे। 1858 ई. में इन्होंने सैनिक संगठन के साथ विद्रोह किया और कुछ समय के लिये अपना राज्य स्थापित कर किया, किंतु सरगुजा राजा की सहायता से इनके दोनों राजकुमार भाइयों को 1859 ई. में गिरफ्तार कर आजन्म कालापानी का दण्ड देकर अण्डमान भेज दिया गया। उदयपुर की रियासत सरगुजा महाराज के भाई विन्देश्वरी प्रसाद सिंहदेव को विद्रोह को दबाने में योगदान देने के उपलक्ष में अंग्रेजों ने 1860 ई. में दे दिया।
इस प्रकार छत्तीसगढ़ क्षेत्र में स्वतंत्रता के इस प्रथम महासमर को दबाने में अंग्रेज सफल हुए। इस महासमर में कई उपर्युक्त राजाओं, जमींदारों, सैनिकों तथा नागरिकों ने भाग लिया, किंतु अन्य राजाओं एवं जमींदारों के सहयोग से इसे दबा दिया गया।