छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था
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छत्तीसगढ़ का नामकरण
छत्तीसगढ़ के गढ़
छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास
मराठा शासन में ब्रिटिश - नियंत्रण
छत्तीसगढ़ में पुनः भोंसला शासन
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव
1857 की क्रांति एवं छत्तीसगढ़ में उसका प्रभाव
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन
राष्ट्रीय आन्दोलन (कंडेल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (सिहावा-नगरी का जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (प्रथम सविनय अवज्ञा आन्दोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (महासमुंद (तमोरा) में जंगल सत्याग्रह, 1930 : बालिका दयावती का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आन्दोलन का द्वितीय चरण)
राष्ट्रीय आन्दोलन (गांधीजी की द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा (22-28 नवंबर, 1933 ई.))
राष्ट्रीय आन्दोलन (व्यक्तिगत सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर षड्यंत्र केस)
राष्ट्रीय आन्दोलन (भारत छोड़ो आंदोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर डायनामाइट कांड)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता दिवस समारोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर में वानर सेना का बाल आंदोलन बालक बलीराम आजाद का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रियासतों का भारत संघ में संविलियन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में मजदूर एवं किसान आंदोलन 1920-40 ई.)
छत्तीसगढ़ के प्रमुख इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता
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छत्तीसगढ़ के गढ़



छत्तीसगढ़ के गढ़

छत्तीसगढ़ में पाये गये गढ़ ( किले ) मिट्टी एवं पत्थर दोनों के प्राप्त होते हैं , जो प्रायः भग्न स्थिति में हैं । यहां के गढ़ों में कुछ गढ़ मौर्यकाल के पूर्व के हैं जो खाईयुक्त मिट्टी के बने हैं । गढ़ों की खोज में जुटे सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के रीडर श्री श्यामकुमार पांडेय ने अपने सर्वेक्षण में इन गढ़ों के क्षेत्रों में मौर्यकाल के पूर्व के प्रचलित तांबे की आहत एवं ढली मुद्राएँ एवं मृदभाण्ड प्राप्त किये हैं , जो इन गढ़ों को मौर्यकाल से पूर्व निर्मित होने की पुष्टि करते हैं । अतः निश्चित रूप से ये गढ़ जनजातियों द्वारा निर्मित नहीं हैं । इनके निर्माण में भारी जन समुदाय का समावेश रहा है और इनकी बनावट अष्टकोणीय , षटकोणीय , अंडाकार व चतुर्भुजीय है । छत्तीसगढ़ में गढ़ों का निर्माण किसने किया ? इस संदर्भ में श्री पांडे कहते हैं- " ऐसा प्रतीत होता है कि किसी एक क्षेत्र में आबादी का दबाव बढ़ने से वहां के निवासियों ने छत्तीसगढ़ में आकर बस्तियों का सृजन किया , क्योंकि यहां के सभी गढ़ एकसमान निर्मित हुए हैं

संरचना - इस तरह छत्तीसगढ़ क्षेत्र में सुरक्षा की यह व्यवस्था प्राचीन गढ़ व्यवस्था में अपना नया अध्याय जोड़ती है । इस क्षेत्र के ये किले दो प्रकार के हैं- ( 1 ) जिनमें प्राचीर का घेरा है , ( 2 ) जिनमें खाई है । ये भिन्न - भिन्न आकार - वर्गाकार , गोलाकार आदि में निर्मित हैं । इनमें आठ या बारह द्वारों वाले गढ़ भी हैं । सुरक्षा के अलावा खाइयों के निर्माण का एक लाभ यह था कि वर्षा काल में इनमें जल भर जाता था और ग्रीष्मकाल में जब नदियां जलविहीन हो जाती थीं तब इस क्षेत्र में यह जल की पूर्ति करते थे । अतः यहां सुरक्षा व्यवस्था महत्वपूर्ण थी और यह व्यवस्था इस क्षेत्र के प्राचीन बुद्धि कौशल की परिचायक भी है । पूरे अंचल में इस प्रकार के गढ़ों की लंबी श्रृंखला है और अभी भी यहां गढ़ों की खोज होना बाकी है तथा जब तक पूरी तरह प्रामाणिक जानकारी एकत्रित न हो , छत्तीसगढ़ ही मान्य कुल गढ़ होंगे । यहां के गढ़ों से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों के आधार पर इनका शिल्प 7 वीं सदी का माना जा सकता है । प्राचीन काल में व्यापार के विस्तृत होने एवं जनपदों के विस्तार के कारण छत्तीसगढ़ में मगध क्षेत्र के लोगों ने संभवतः अंबिकापुर के मार्ग से प्रवेश किया हो , जिनका उपयोग यात्री आज भी अधिक करते हैं । इस विचार से गढ़ों के निर्माण में इनका योगदान रहा ।

छत्तीसगढ़ में हैहय कलचुरियों का शासन लंबे समय तक रहा है एवं इनके काल में भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण गढ़ निर्मित किये गये , क्योंकि उन पर भी असुरक्षा एवं समय ने प्रभाव डाला होगा ।

इस काल में तो ये गढ़ पृथक प्रशासनिक इकाई माने जाते थे जिनका प्रमुख दीवान होता था । गढ़ विभाजन , अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारण तथा इकाइयों की संख्या का बोध कराते हैं ।

इस क्षेत्र को दक्षिण कोसल अथवा रतनपुर राज्य के स्थान पर छत्तीसगढ़ कब से कहा गया , इसका कोई अभिलिखित साक्ष्य नहीं है । छत्तीसगढ़ के नामकरण में भी छत्तीसगढ़ों को ही आधार बनाया गया है । इन छत्तीसगढ़ों में अट्ठारह गढ़ शिवनाथ नदी के उत्तर में और शेष उसके दक्षिण में हैं । कालांतर में उत्तर में स्थित गढ़ रतनपुर राज्य के अधीन रहे और दक्षिण के गढ़ रायपुर राज्य के अधिकार में चले गये । रेवाराम बाबू के अप्रकाशित ग्रंथ तवारीख हैहयवंशी राजाओं की ' में भी छत्तीसगढ़ों की संख्या दी गई है जिसमें रतनपुर एवं रायपुर दोनों राज्य तत्कालीन गणना के अनुसार - रतनपुर राज्य में 3586 और रायपुर राज्य में 2136 अर्थात् कुल 5722 गाँव थे । सूची में वर्णित गढ़ों का अस्तित्व आज भी विद्यमान है , किंतु नाम व रूपों में समयानुसार किंचित परिवर्तन हो गया है । रायपुर , बिलासपुर , गजेटियर व बंदोबस्त अधिकारी ( बिलासपुर ) मि . चिशम के रिकार्ड में इसका उल्लेख है ।

उक्त सूची के गढ़ों के आधार पर इस क्षेत्र का नाम छत्तीसगढ़ पड़ा होगा , इस तर्क को विद्वानों ने स्वीकार किया है । छत्तीसगढ़ों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है-

रतनपुर के १८ गढ़

  1. रतनपुर,
  2. उपरोड़ा,
  3. मारो,
  4. विजयपुर,
  5. खरौद,
  6. कोटगढ़,
  7. नवागढ़,
  8. सोढ़ी,
  9. ओखर,
  10. पडरभट्ठा,
  11. सेमरिया,
  12. मदनपुर,
  13. कोसगई,
  14. करकट्टी,
  15. लाफा,
  16. केंदा,
  17. मातीन,
  18. पेण्ड्रा,

रायपुर के १८ गढ़

  1. रायपुर,
  2. पाटन,
  3. सिगमा,
  4. सिंगारपुर,
  5. लवन,
  6. अमीर,
  7. दुर्ग,
  8. सारधा,
  9. सिरसा,
  10. मोहदी,
  11. खल्लारी,
  12. सिरपुर,
  13. फिंगेश्वर,
  14. सुवरमाल,
  15. राजिम,
  16. सिंगारगढ़,
  17. टेंगनागड़,
  18. अकलवाड़ा

रतनपुर गढ़ - कलचुरियों के महिमा मंडल को सर्वोच्च श्रृंग पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय रतनपुर को प्राप्त है , परंतु रतनपुर के वैभव की रक्षा में अनेक गढ़ों या किलों की महत्वपूर्ण भूमिका अविस्मरणीय रही है । रतनपुर ने 36 गढ़ों के मुख्यालय होने का गौरव हासिल किया था । यहीं से सम्पूर्ण सुरक्षा रश्मियों का उत्सर्जन होता था एवं प्रशासन की उज्ज्वल धाराएँ स्रोत के रूप में प्रवाहित होती थीं । यहीं कलचुरी राजाओं का मुख्य केन्द्र था ।

रतनपुर छत्तीसगढ़ के मध्य - पूर्व भाग में स्थित बिलासपुर से उत्तर की ओर 24 कि.मी. की दूरी पर कटघोरा सड़क मार्ग पर कोटा तहसील के अंतर्गत एक कस्बा है । समुद्र सतह से ऊँचाई 993 फीट है ।

नामकरण - सर्वप्रथम रतनपुर को ' रत्नावली ' नाम से अभिहित किया जाता था , किन्तु इसका कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है । पुरातात्विक साक्ष्य के अनुसार - कलचुरि नरेश रत्नदेव प्रथम ने 10 वीं शताब्दी में प्राचीन ' मणिपुर ग्राम को रत्नपुर ' का नाम देकर अपनी राजधानी बनाई । इसके पूर्व के शासक ' तुम्माण ' को राजधानी बनाकर छत्तीसगढ़ में शासन चला रहे थे । सतयुग में इसका नाम ' मणिपुर ', त्रेतायुग में ' मणिकपुर ' , द्वापर में ' हीरापुर ' था तथा कलियुग में " रत्नपुर है इस तरह पौराणिक स्रोतों के अनुसार इसका संबंध चारों युगों से है ।

यह नगर 60 भागों में विभक्त था तथा यहाँ कई प्रशस्तियाँ व सिक्के मिले है । यहाँ का प्राचीन किला ' बादल महल ' कहलाता है । यहा राम टेकड़ी , राम पंचायत , वृद्धेश्वरनाथ का तथा दक्षिण प्रवेश द्वार पर भैरव जी का एवं पश्चिम प्रवेश द्वार पर महामाया का मंदिर आज भी अच्छी दशा में हैं । अनेक प्राचीन मंदिरों के खण्डहर तथा रत्नदेव प्रथम के समय बनाया गया किला खण्डहर के रूप में आज भी विद्यमान है ।

रायपुर गढ़ - शिवनाथ के दक्षिण क्षेत्र का यह गढ़ लहुरि शाखा की राजधानी थी । नेल्सन कृत (1909 ई.) डिस्ट्रिक्ट गजेटियर रायपुर से पता चला है कि इसका नाम राय राजा ब्रह्मदेव द्वारा यहां पर शासन चलाये जाने के कारण रायपुर पड़ा । रायपुर गढ़ कलचुरि हैहयवंशी शासकों की राजधानी रही है । इसे राजधानी बनाने के यहां कोई ग्राम या नगर था या नहीं , इसका उल्लेख उपलब्ध नहीं है । 14 वीं सदी के अंतिम चरण में रतनपुर की कलचुरि शाखा विभक्त हुई और और खल्वाटिका आरंभिक राजधानी रहने के पश्चात् राय ब्रह्मदेव ने लगभग 1409 ई. में रायपुर बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया । वर्तमान रायपुर का अभ्युदय खारून नदी के तट पर स्थित रायपुरा ग्राम से होता है और उस समय की बसने वाली जगह आज पुरानी बस्ती कहलाती है । 1460 ई. में राजा भुवनेश्वर देव ने यहां किले का निर्माण करवाया था जिसके अवशेष आज भी पुरानी बस्ती में पाये जाते हैं । कलचुरि परंपरा के अनुसार यहां भी बहुत से तालाब व मंदिर थे और कुछ आज भी विद्यमान हैं , जैसे - ककाली व बूढा तालाव । यद्यपि रायपुर के इस किला क्षेत्र में कलचुरि शासकों द्वारा बनवाये गये प्रसादों व मंदिरों के अवशेष देखने में नहीं आये हैं , कुछ प्राचीन प्रतिमाएं आज भी प्राप्त होती हैं । यहां इसी काल का महामाया मंदिर भी है । 1818 ई. में छत्तीसगढ़ के द्वितीय ब्रिटिश अधीक्षक ने इसे छत्तीसगढ़ की राजधानी (रतनपुर से स्थानांतरित कर) बनाया , तभी से यह प्रदेश की राजनीतिक , आर्थिक व अन्य प्रमुख गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ है ।