आन्दोलन का द्वितीय चरण
गांधी-इरविन समझौते के पश्चात् कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गांधी जी गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने 12 सितंबर, 1931 को लंदन पहुचे । अंग्रेजों की कुटिल नीति के कारण साम्प्रदायिक समस्या उभर कर सामने आई। गाधी जी ने 28 दिसंबर को खाली हाथ स्वदेश लौटे। इस दौरान कांग्रेस से समझौता करने वाले लॉर्ड इरविन को ब्रिटिश शासन ने वापस बुलाकर लॉर्ड विलिंगटन को नया वायसराय बनाकर भेजा। इन्होंने समझौते की उपेक्षा कर.पुनः दमन की नीति का अनुसरण किया। अतः भारत पहुंचते ही गाधी जी ने दोबारा सविनय अवज्ञा आरंभ करने की घोषणा 3 जनवरी, 1932 को की। दूसरे दिन ही गाधी जी. सरदार पटेल समेत लगभग 3000 लोगों को जेल में भर दिया गया। समूचा राष्ट्र पूर्ववत् आदोलित हो उठा। छत्तीसगढ भी इसके लिये तैयार ही था। अतः शासन ने सुरक्षात्मक दृष्टि से यहां दमनात्मक कार्यवाहियां आरंभ कर दी।
10 जनवरी, 1932 को ठाकुर प्यारे लाल सिंह ने छत्तीसगढ़ की जनता को दमनात्मक कार्यवाहियों का दृढ़ता से मुकाबला करने का आह्वान किया। इसमें लोगों को कर न पटाने हेतु प्रेरित किया गया था जिससे शासन ने 29 जनवरी, 1932 को ठा. साहब को गिरफ्तार कर 150 रुपए के आर्थिक दण्ड सहित दो वर्षों के कठोर कारावास हेतु भेज दिया। 14 जनवरी, 1932 को जिला कांग्रेस कमेटी रायपुर में रविशंकर शुक्ल को छत्तीसगढ़ में द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रथम कार्यवाहक (Ditector) नियुक्त किया। इन्होंने पूरे प्रदेश का दौरा कर संघर्ष समिति का निर्माण किया। 29 जनवरी को छत्तीसगढ मे पेशावर दिवस मनाया गया जो उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में शासन की बर्बरता के विरुद्ध आयोजित था। पं. शुक्ल ने इस अवसर पर अत्यंत उत्तेजक भाषण दिया तथा अंग्रेजी वस्तुओं की दुकानों के समक्ष धरना हेतु प्रेरित किया। अतः वे गिरफ्तार कर 500 रुपए अर्थ दण्ड के साथ दो वर्ष हेतु कारावास भेज दिए गए। उक्त सभा मे मौलाना अब्दुल रऊफ (सहदेव) ने भी उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में चल रही शासन की गतिविधियों की निंदा की अतः वे भी दो वर्ष के कठोर कारावास हेतु भेज दिये गये। इसी दिन डॉ. खूबचंद बघेल, लक्ष्मी नारायणदास और दानी साहेब भी जेल भेज दिये गये।
जिला कांग्रेस की कार्यवाही- डिटेक्टरों की नियुक्ति-इन सभी नेताओं की गिरफ्तारी हो जाने पर आंदोलन को क्रियाशील रखने के लिये अब आठ डिटेक्टर नामजद कर दिये गये। ताकि गिरफ्तारी पर भी आंदोलन की कमान थामे रखने हेतु केन्द्रीय नेतृत्व हमेशा उपलब्ध रहे। आठ नाम इस प्रकार थे-पं. रविशंकर शुक्ल, पं. सुंदरलाल शर्मा, शंकरराव गनौदवाले, श्रीमती राधाबाई, पं. रामनारायण मिश्र 'हर्षुल', माधवप्रसाद परगनिहा, ब्रह्मदेव दुबे, लक्ष्मी प्रसार तिवारी।
आंदोलन की अग्रिम कार्यवाहियों को रोकने हेतु शासन ने एक साथ कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. किंतु इससे आंदोलन ठप्प नहीं हुआ। तब शासन ने बंदी नेताओं को प्रताडित कर भयभीत करना आरंभ कर दिया। जेल में पूर्व से ही अत्याचार हो रहे थे। कुछ कैदियों द्वारा खादी कपड़े की मांग पर उन पर कोड़े बरसाये गये। प्रातीय परिषद (मध्यप्रांत के) में यह मुद्दा उठाया गया। समाचार पत्रों ने भी प्रतिक्रियात्मक रुख अपनाया। सभी वरिष्ठ नेताओं की गिरपतारी पर शंकरराव गनौदवाले ने आंदोलन की बागडोर संभाली। 29 मार्च को व्यापक गिरफ्तारियां हुई। जनता को पीटा गया एवं महिलाओं के साथ भी दुर्व्यवहार किया गया।
महिलाओं का सक्रियतापूर्ण योगदान- इस समय शासन की कार्यवाहियों का विपरीत प्रभाव देखने को मिला। आदोलन दिन प्रतिदिन तीव्र होता गया। सत्याग्रहियों ने व्यापारी कीकाभाई की दुकान के समक्ष प्रतिदिन धरना देने का कार्यक्रम बना लिया जो विदेशी वस्तुओं की बिक्री का बहुत बड़ा केन्द्र था। धरने के अवसर पर 29 मार्च, को गनौदवाले, डॉ. त्रेतानाथ तिवारी और चार महिलाएं-मन्टोराबाई, भुटकी बाई. फुटेनियाबाई और कोजाबाई को अन्य सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने महिलाओं को घसीटा और अभद्र शब्दों का प्रयोग करते हुए कोतवाली थाने में बंद कर दिया। इस धरना स्थल पर हमेशा भीड़ हुआ करती थी। अतः दर्शकों को लाठी से पीटा जाता था, ताकि यह लोकव्यापी न बन सके, किंतु धरना जारी रहा।
डिटेक्टरों के नेतृत्व में आंदोलन की प्रगति- पहले डिटेक्टर पं. शुक्ल पूर्व में ही गिरफ्तार कर लिये गये थे। अतः दूसरे नम्बर के डिटेक्टर पं. शर्मा एवं सहयोगी नगरी के श्यामलाल सोम द्वारा आंदोलन का नेतृत्व किया जाता रहा, किंतु उन्हें भी 20 अप्रैल, 1932 को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद इसका नेतृत्व कर डिटेक्टर राधाबाई एवं सहयोगी रामानंद दुबे ने इसे आगे बढ़ाया, किंतु 13 जून, 1932 को राधाबाई को एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। अब नये डिटेक्टर माधव प्रसाद परगनिहा आंदोलन को संचालित करने लगे, पर उन्हें भी 5 मई को जेल भेज दिया गया। डिटेक्टर शंकरराव गनौदवाले को पूर्व में ही गिरफ्तार कर लिया गया था। अब 6वें डिटेक्टर के रूप में आंदोलन का नेतृत्व तेरह जून से रामनारायण हर्षुल मित्र द्वारा किया गया। उन्हें महंत पुरुषोत्तमदास समझकर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, पर पहचान होने पर छोड़ दिया गया। इस बीच कीकाभाई की दुकान इतनी लोकप्रिय हो गई कि आस-पास के क्षेत्र से हजारों की संख्या में सत्याग्रही इस दुकान पर धरने हेतु रायपुर पहुंचने लगे। शासन ने लगातार इन सत्याग्रहियों को बंदी बनाया तो जेल में जगह की कमी पडने लगी।
पत्र बम योजना-सांकेतिक प्रहार- बहिष्कार और धरने के कारण सैकड़ों बोरी आयातित शक्कर गोदामों में सड़ने लगे। मैनचेस्टर से आये कपड़ों के गट्ठर जला दिये गये। इन घटनाओं से चितित सरकार के वफादार सेवकों एवं व्यापारियों ने जब आतंक का मार्ग अपनाया तो इन राष्ट्रीय विचारों के विरोधी अधिकारियों एवं अंग्रेजों की वफादारी और चापलूसी करने वाले व्यापारियों को मानसिक तौर पर प्रताड़ित और आतकित करने हेतु रामनारायण मिश्र 'हर्षुल ने आंदोलन में अपने नेतृत्व के दौरान दो स्याही सोख कागजों के मध्य फास्फोरस का टुकड़ा चिपकाकर महीन विस्फोटक बनाने की एक क्रांतिकारी योजना बनाई। इस प्रकार तैयार फास्फोरसमय पैक को लिफाफे में बंदकर राष्ट्र विरोधी भारतीय लोगों के नाम भेजा गया। इस अनूठे तरीके से कई लोगों के हाथ व मुंह जल जाने की खबरें तत्कालीन समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई। इससे लिफाफा खोलने वाले को कोई विशेष क्षति नहीं होती थी पर स्वतंत्रता के पुजारियों का यह समाचार कि- तुम देशद्रोही हो अथवा तुम देशद्रोह कर रहे हो उन तक पहुंच जाता था। यह उनकी अंतरात्मा पर प्रहार था और वे मानसिक तौर पर प्रताड़ित होते थे। आस-पास के लोग भी इन देशद्रोहियों को जान लेते थे। इस प्रकार यह अंग्रेज भक्त चापलूसों पर सांकेतिक प्रहार होता था। इस कार्य पर शासन ने हर्षुल मिश्र को गिरफ्तार कर लिया। उन पर अवांछनीय सामग्री के प्रकाशन एवं वितरण का भी अभियोग लगाया गया। इनके घर पर तलाशी ली गई और शासन के अनुसार वहां से बहुत से संदेहास्पद अभिलेख वरामद हुए। उन पर मुकदमा चला कर 5 अगस्त को एक वर्ष की कठोर कैद हेतु भेज दिया गया।
हर्षुल मिश्र की गिरफ्तारी के बाद अब आंदोलन के सातवें डिटेक्टर के रूप में ब्रह्मदेव ने कमान संभाली। 4 अगस्त, 1932 को रायपुर के गांधी चौक में बंदी दिवस मनाने हेतु एक विशेष आम सभा का आयोजन किया गया, इस पर पुलिस ने लाठीचालन किया। ब्रह्मदेव को पुलिस ने लाठियों से मारा और फिर गिरफ्तार कर लिया। अंतिम डिटेक्टर के रूप में पं. लक्ष्मी नारायण तिवारी आंदोलन का नेतृत्व कर सभाएं लेते रहे। रायपुर शहर में धारा 144 जारी रहा फिर भी सभाएं अवाध गति से होती रहीं. पुलिस ने इस समय कोई उल्लेखनीय गिरफ्तारियां नहीं की। सभी शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी के बावजूद शेष नेताओं ने आंदोलन की गतिशीलता को बनाये रखा। उल्लेखनीय बात यह है कि महिलाओं ने खुलकर आंदोलन में भाग लिया और अनेक महिलाओं को गिरफ्तार किया गया और सजा पर जेल भी भेजा गया। कुछ महिलाओं को एक से अधिक बार सजायें हुई और जेल भेजा गया। इस दौरान पं. शुक्ल और ठाकुर प्यारेलाल सिंह के वकालत करने के अधिकार छीन लिये गये। जिले के अन्य नेताओं जैसे महंत आनंद दास, महत अमर दास, निर्भयराम, दुर्गाप्रसाद, मूलचंद्र बागडी, नारायण राव जाधव एवं रामानंद दुवे आदि ने सक्रिय रहकर सविनय अवज्ञा आदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।
सत्याग्रह सप्ताह अथवा राष्ट्रीय बलिदान सप्ताह- दुर्ग जिले में 6 से 12 अप्रैल, 1932 को सत्याग्रह सप्ताह मनाया गया, जिसके अंतर्गत विभिन्न दिवसों मे पिकेटिंग दिवस (धरना), खादी प्रचार दिवस, शक्कर बहिष्कार दिवस.पैट्रोलियम (रसायन) बहिष्कार दिवस, विदेशी दवाइयों का बहिष्कार दिवस, चाय का बहिष्कार एव नारी सम्मान दिवस आदि के रूप में मनाया गया।
बंदी दिवस- 4 अगस्त, 1932 रायपुर में बदी दिवस के रूप में मनाया गया। इस अवसर पर ब्रह्मदेव दुबे की अध्यक्षता में आयोजित जनसभा में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वर्ष 1932 में लगातार 9 माहों तक धारा 144 रायपुर शहर में लागू रही तथा आंदोलनकारी इसे तोडते व गिरफ्तार होते रहे।