छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह
छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह मुख्यतः बस्तर में ही हुए। बस्तर के आदिवासियों ने 1774-1910 ई. के मध्य विदेशी शक्तियों (मराठा एवं अंग्रेज) के विरुद्ध भयंकर युद्ध लड़े थे। यह छत्तीसगढ़ का एक दक्षिणी क्षेत्र है। आजादी के पूर्व ब्रिटिशकालीन छत्तीसगढ़ की रियासतों में बस्तर और कांकेर दो महत्वपूर्ण रियासतें इसी क्षेत्र में आती थीं। वर्तमान में इसके अंतर्गत दतेवाड़ा, बस्तर और कांकेर जिले आते हैं। अपनी पुरातात्विक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक विशेषताओं के कारण यह क्षेत्र देश-विदेश में विख्यात है। प्राचीनकाल में यह अंचल वत्सर, दंडकारण्य, महाकांतर, पुरुषोत्तम क्षेत्र आदि नामों से जाना जाता था। काकतियों के काल में यह चक्रकूट, बस्तर आदि नामों से पुकारा जाता था, जबकि मराठा काल में इसे बस्तर कहा जाता था। सोमवंशियों की राजधानी कारकेय (कांकेर) थी। 1857 ई. तक अंग्रेजों ने सम्पूर्ण बस्तर और कांकेर रियासतों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था।
यहाँ के आदिवासी आरंभ से ही स्वतंत्रता प्रेमी रहे हैं, किंतु उनके सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप ने उन्हें विद्रोह हेतु विवश किया। मराठों और अंग्रेजों ने उन पर हर तरह से अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न किया, जिससे असंतुष्ट आदिवासियों ने इनके द्वारा अपने चरम शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई गई जिसे अंग्रेजों और मराठों ने विद्रोह की संज्ञा दी थी।
यहाँ एक महत्वपूर्ण विचारणीय एवं उल्लेखनीय तथ्य यह है कि आधुनिक भारतीय इतिहास में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारम्भ 1857 ई. से माना जाता है, किंतु इसके 32 वर्ष पूर्व ही बस्तर जिले के नारायणपुर तहसील के परलकोट के जमींदार गेंदसिंह ने अंग्रेजो के विरुद्ध 24 दिसंबर, 1824 ई. को विद्रोह किया था और इसके बाद भी लगभग 100 वर्षों तक अनेक अवसरों पर दासता से मुक्ति हेतु यहाँ के आदिवासियों ने अनेक विद्रोह किये जिनमें से प्रमुख निम्न हैं
(1) हलबा विद्रोह (1774-77 ई.),
(2) भोपालपट्टनम् संघर्ष (1795 ई.).
(3) परलकोट विद्रोह (1824-25 ई.),
(4) तारापुर विद्रोह (1842-54ई.)
(5) मेरिया विद्रोह (1842-63 ई.)
(6) महान् मुक्ति संग्राम-लिंगागिरि का विद्रोह (1856-57 ई.)
(7) कोई विद्रोह (1859 ई.).
(8) मुरिया विद्रोह (1876 ई.)
(9) महान् भूमकाल (1910 ई.)
हलबा विद्रोह (1774-77 ई.)- राजा दलपतदेव (1731-74 ई.) की मृत्यु के पश्चात् पटरानी के पुत्र अजमेर सिंह तथा बड़ी रानी के पुत्र बड़े भाई दरियावदेव के मध्य उत्तराधिकार हेतु संघर्ष हुआ, जिसमें अजमेर सिंह विजित हुआ तथा 1774 में राज सिंहासन पर बैठा। दरियावदेव ने जैपुर के राजा विक्रमदेव (1758-81 ई.) से मित्रता कर उसके माध्यम से नागपुर के भोंसले व अंग्रेजों से गुप्त संधि कर अजमेर सिंह के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। 1777 ई. में कंपनी शासन के अधिकारी जॉनसन व जैपुर की सेना ने पूर्व से व भोंसला सेना ने उत्तर से जगदलपुर को घेर लिया। अजमेर सिंह परास्त हो जगदलपुर से भाग गया और दरियावदेव सिंहासन पर बैठा।
अजमेर सिंह लोकप्रिय था एवं डोंगर में आक्रमण से हल्बा अत्यंत क्रोधित व आवेशित थे। उन्होंने अजमेर सिंह के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया। दरियावेदव का पतन लंबे संघर्ष के बाद हुआ एवं उसी वर्ष अजमेर सिंह को हल्बाओं ने राजा चुन लिया तथा दरियावदेव ने जैपुर राजा के यहाँ शरण ली, किंतु शीघ्र ही विद्रोहियों में गयी और दरियावदेव का रास्ता आसान हो गया। दरियावदेव जो जैपुर राजा की शरण में था, ने जैपुर से 1777 ई. में संधि की, जिसके अनुसार बस्तर के पाँच गढ़ों कोटपाड़, चुरूचुंडा, पोड़ागढ़, ओमरकोट और रायगढ़ा को अजमेर सिंह के विरुद्ध सैन्य सहायता के बदले देना होगा। उसने त्रयंबक अवीर राव के सामने बिम्बाजी भोंसला के पक्ष में संधि पत्र पर हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार यदि वह पुनः राज्य पायेगा तो बस्तर मराठा साम्राज्य का अंग हो जायेगा। उसने जॉनसन को भी वचन दिया था कि वैसी स्थिति में वह कंपनी सरकार का ही होगा। इस प्रकार इन तीनों से सहायता एवज में उसने बस्तर की स्वतंत्रता को दिया। एक भारी सेना के आक्रमण से पुनः जगदलपुर का पतन हो गया। अब अजमेर सिंह डोंगर पहँचकर वहाँ पुनः विद्रोहियों को एकजुट करने लगा, किंतु दरियावदेव ने उनका पीछा किया और एक घमासान युद्ध के पश्चात अजमेर सिंह मारा गया।
सन् 1776 ई. में अजमेर सिंह की मृत्यु के पश्चात् हल्बा सेना का बर्बरतापूर्वक कत्लेआम के साथ समस्त हल्बाओं को कुटिलता से मार डाला गया। केवल एक हल्बा अपनी जान बचा सका। इतना बड़ा नर संहार पूरे विश्व में कहीं नहीं हुआ, जिसमें पूरी जाति का सफाया कर दिया गया हो।
अजमेर सिंह की मृत्यु और हलबा क्रांति के पतन को बस्तर में चालुक्य राज' का पतन माना जाता है, क्योंकि मराठा, अंग्रेजों व जैपुर राज्य के बोझ से दवे दरियावदेव ने 1778 ई. में कोटपाड़ संधि कर भोंसलों की अधीनता स्वीकार कर ली और उनका करद राज्य बन गया।
भोपालपट्टनम् संघर्ष (1795 ई.)- वस्तुतः भोपालपट्टनम् संघर्ष कोई युद्ध अथवा विद्रोह नहीं था, अपितु यह दक्षिण बस्तर के गोड़ों द्वारा अप्रैल, 1795 ई. में कैप्टन ब्लंट के बस्तर में इंद्रावती पार कर भोपालपट्टनम् जाने के प्रयास में उन्हें रोकने हेतु हमला था। ब्लंट को जमींदारी के राजा के यहाँ पहुँचना था, किंतु यहाँ के दुर्धर्ष आदिवासियों ने ब्लंट से संघर्ष किया। ब्लंट ने कुछ बंजारों को दुभाषिये व मार्गदर्शक के रूप में पकड़ रखा था, किंतु गोंड़ों ने वार्तालाप के पश्चात् भी उन्हें इद्रावती पारकर बस्तर प्रवेश करने नहीं दिया और ब्लंट को वापस आना पड़ा।
परलकोट का विद्रोह (1824-25 ई.)- बस्तर राज्य के उत्तर-पश्चिम में स्थित परलकोट सबसे पुरानी जमींदारी थी। परलकोट तीन नदियों कोटरी, निबरा और गुडरा के संगम पर स्थित है। परलकोट के जमींदार अपने को सूर्यवंशी राजपूत मानते थे और उनकी उपाधि 'भुमिया' राजा की थी। बस्तर भूषण के लेखक पं. केदारनाथ ठाकुर के अनुसार यहाँ के जमींदार माडिया गोंड़ थे। डॉ. वाल्याणी शोध से पता चलता है कि परलकोट के जमींदार हल्बा जाति के थे। प्राचीनकाल में परलकोट एक राज्य था। यह सत्यमाडिया' राज्यों में से एक था। 1824 ई. में गेंदसिंह इस जमींदारी का जमींदार था। इन दिनों महिपालदेव बस्तर का राजा था।
परलकोट में मराठो और ब्रिटिश अधिकारियों की उपस्थिति से अबूझमाड़ियों को अपनी पहचान का खतरा उत्पन्न हो गया था। विदेशी सभ्यता से अबूझमाडिया खतरा महसूस करने लगे थे। मराठों और अंग्रेजों की शोषण नीति से अबूझमाडिया तंग आ चुके थे। सभी विद्रोही मराठा-अंग्रेज सरकार द्वारा लगाये गये करों का विरोध कर रहे थे। मराठों व अंग्रेज ठेकेदारों द्वारा उनका जो शोषण किया जा रहा था उससे भी आदिवासी नाराज थे। परलकोट विद्रोह की शुरूआत विदेशी सत्ता को बाहर भगाने के लक्ष्य से हुई थी। यह परलकोट को गुलामी से मुक्त कराने का प्रयास था।
गेंद सिंह के आह्वान पर अबूझ माडिया आदिवासी 24 दिसंबर, 1824 ई. को परलकोट में एकत्रित होने लगे। क्रांतिकारी 4 जनवरी, 1825 ई. तक अबूझमाड़ से चांदा तक छा गये। विद्रोहियों ने सर्वप्रथम मराठों को रसद की पूर्ति करने वाले बंजारों को लूटा और मराठा तथा अंग्रेज अधिकारियों पर घात लगाना प्रारम्भ कर दिया। क्रांतिकारी धावडा -वृक्ष की टहनियों को विद्रोह के संकेत के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजते थे। पत्तों के सूखने से पहले वर्ग विशेष को क्रांतिकारियों के पास जाने की हिदायत थी। कम समय में पूरे गोंड अंचल में विद्रोह की चिंगारी फैल गयी थी।
गेंद सिंह के नेतृत्व में विद्रोही आदिवासी किसी मराठा या अंग्रेज को पकडते थे. तो उसकी बोटी-बोटी कर डालते थे। विद्रोह का संचालन अलग-अलग टुकड़ियों में माझी लोग करते थे। रात्रि में विद्रोही घोटूल में इकट्ठे होते थे और अगले दिन की योजना बनाते थे।
विद्रोहियों के आक्रमणो, लूटपाटो तथा कत्लेआम से मराठों और अंग्रेजों में दहशत फैल गई थी। छत्तीसगढ़ के अधीक्षक मि. एगन्यू की पहल पर 4 जनवरी, 1825 ई. को चांदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेव के नेतृत्व में एक सेना विद्रोहियों का दमन करने के लिये परलकोट में बुलवाई गयी। मराठो और अंग्रेजों की संयुक्त सेना ने विद्रोहियों का दमन करना आरम्भ कर दिया। विद्रोहियों ने छापामार युद्ध प्रारम्भ कर दिया। विद्रोही किसी महिला को सामने रखकर 500 से 1000 की संख्या में मराठो और अंग्रेजों की संयुक्त सेना पर टूट पड़ते थे। उन पर वे वाणों की बौछार करते थे। मराठों और अंग्रेजों की सेना ने 10 जनवरी, 1825 ई. को परलकोट को घेर लिया। गेंद सिंह गिरफ्तार कर लिया गया। गेंद सिंह और उनके साथियों पर अंग्रेजों ने मुकदमा चलाया। 20 जनवरी, 1825 को गेंद सिंह को उसके महल के सामने अंग्रेजों ने फाँसी दे दी।
गेंद सिंह का बलिदान बस्तर भूमि की मुक्ति के लिये एक अविस्मरणीय मिसाल और अध्याय है। गेंद सिंह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बस्तर का ही नहीं वरन् सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का प्रथम शहीद माना जाना चाहिए।
तारापुर का विद्रोह (1842-1854 ई.)- बस्तर राज्य के मुख्यालय जगदलपुर से 80 किमी दक्षिण-पश्चिम में तारापुर का परगना था। उन दिनों भूपालदेव बस्तर के राजा थे। राजा भूपालदेव का भाई दलगंजन सिंह तारापुर परगने का प्रशासक था। बस्तर के राजा ने नागपुर सरकार के आदेश पर तारापुर परगने के कर को बढ़ा दिया था। तारापुर के लोग पूर्व से ही मराठों की रसद पूर्ति में सहायक बंजारों से नाराज थे क्योंकि उन्होंने उनकी जीवन शैली को भंग कर दिया था। नये कर से आदिवासी बड़े परेशान थे। दलगंजन सिंह, मांझी और आदिवासी नये लगान के कारण उत्तेजित हो उठे। उन्होंने दीवान जगबंधु को पद से हटाने और कर को वापस लेने के लिए विद्रोह किया। तारापुर के आदिवासियों ने एक दिन दीवान जगबंधु को कैद कर लिया । राजा भूपालदेव के हस्तक्षेप के बाद दलगंजन सिंह ने दीवान को मुक्त कर दिया। दीवान की मुक्ति से आदिवासी नाराज हो उठे। दीवान ने नागपुर की सेना के सहयोग से आदिवासियों को परास्त किया। दलगंजन सिंह को गिरफ्तार कर नागपुर जेल भेज दिया गया। नागपुर जेल में दलगंजन सिंह को छ: माह तक रखा गया। नागपुर के रेजीडेंट मेजर विलयम्स ने तारापुर के आदिवासियों के असंतोष को दूर करने जगबंधु को दीवानी के पद से हटा दिया और नये कर को वापस ले लिया। तारापुर का विद्रोह बस्तर के इतिहास में विशेष महत्व रखता है। नया कर तो विद्रोह का एक कारण था ही किंतु प्रमुख कारण अंग्रेजो द्वारा आदिवासियों के परंपरागत जीवन व नियमों में हस्तक्षेप करना था।
मेरिया विद्रोह (1842 से 1863 ई.)- दंतेवाड़ा की आदिम जातियों ने 1842 ई. में आंग्ल-मराठा शासन के खिलाफ आत्मरक्षा के निमित्त. अपनी परम्परा और रीति-रिवाजों पर होने वाले आक्रमणों के विरुद्ध विद्रोह किया था। दंतेवाड़ा बस्तर का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है जहाँ नागों और काकतियों की अल्पकालीन राजधानी थी। यहाँ दंतेश्वरी मंदिर में प्रचलित नरबलि का एक जघन्य संस्कार इस विद्रोह का प्रमुख कारण था। ग्रिसन के अनुसार "ब्रिटिश सरकार ने बस्तर में मेरिया या नरबलि को समाप्त करने के लिये बस्तर के राजा भूपालदेव को आदेश दिया था।" नरबलि को रोकने के लिये नागपुर के भोंसला राजा ने एक सुरक्षा टुकड़ी बाईस वर्षों (1842 से 1863 ई.) तक के लिये दंतेवाड़ा के मंदिर में नियुक्त की थी। दंतेवाड़ा के आदिवासियों ने इसे अपनी परम्पराओं पर बाहरी आक्रमण समझा और विद्रोह कर दिया । अंग्रेजों ने दंतेवाड़ा मंदिर में प्रचलित नरबलि प्रथा को दबाने के लिये दलगंजन सिंह को हटाकर वामन राव को बस्तर का दीवान नियुक्त किया। दीवान वामन राव के सुझाव पर रायपुर के तहसीलदार शेर खाँ को नरबलि पर नियंत्रण रखने के लिये नियुक्त किया गया। आदिवासियों में पुनः विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। हिडमा मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने मांग की कि दंतेवाड़ा से सैनिक हटा लिये जायें। दीवान वामनराव के आदेश पर शेर खाँ और इसके साथियों ने आदिवासियों पर भयंकर जुल्म किये। अंग्रेजों ने आदिवासियों के घरों को जला दिया और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया। अंग्रेज मेरिया विद्रोह को दबाने में सफल रहे, किंतु इस विद्रोह के कारण हमेशा के लिये आदिवासियों और अंग्रेजों के मध्य शत्रुता रही।
महान् मुक्तिसंग्राम-लिंगागिरि का विद्रोह (1856-57 ई.)- 1854 ई. में नागपुर सरकार ब्रिटिश सरकार के अन्तर्गत मिला दी गयी जिससे बस्तर ब्रिटिश शासन का एक आश्रित राज्य बन गया। नये शासन से राजा भैरमदेव, दीवान दलगंजन सिंह और आदिवासी जनता काफी संतुष्ट थी। अंग्रेज अधिकारियों की शोषण व दमन नीति से तंग होकर भोपालपट्टनम् जमींदारी के अंतर्गत आने वाले लिंगागिरि तालुके के तालुकेदार धुर्वाराव ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया । इलियट ने लिखा है कि दोर्ला आदिवासियों ने गाँवों को लूटा और माल से लदी बंजारों की बैलगाड़ियों पर कब्जा किया। 3 मार्च, 1856 ई. को चिन्तलवार में अंग्रेजों और धुर्वाराव के सैनिकों के मध्य प्रातः आठ बजे से अपराह साढे तीन बजे तक युद्ध हुआ। युद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ते हुये भोपालपट्टनम् का जमींदार घायल हो गया। अन्त में धुर्वाराव अंग्रेजों द्वारा पकड़ लिया गया। धुर्वाराव की पत्नी और बच्चे, 460 माड़िया औरतों व बच्चों को अंग्रेजों ने बंदी बनाया। अंग्रेजो ने 5 मार्च 1856 ई. को धुर्वाराव को फाँसी दे दी और उसका तालुका भोपालपट्टनम् के जमींदार को दे दिया। धुर्वाराव का विदोह सन् 1857 ई. की महान क्रान्ति के एक वर्ष पहले बस्तर के इतिहास में अंकित वीरगाथा तथा द्वितीय आत्माहुति का अधखुला स्वर्णिम पृष्ठ है। धुर्वाराव ने अपनी प्रजा की भलाई व प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिये अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया था। धुर्वाराव का विद्रोह बस्तर का महान मुक्ति संग्राम था। धुर्वाराव छत्तीसगढ़ का दूसरा शहीद माना जाना चाहिए।
कोई विद्रोह (1859 ई.) वनरक्षा हेतु आंदोलन- बस्तर की दोरली की उपभाषा (बोली) में कोई का अर्थ होता है वनों और पहाड़ों में रहने वाली आदिवासी प्रजा। प्राचीन समय में वन बस्तर रियासत का महत्वपूर्ण संसाधन रहा है। दक्षिण बस्तर में अंग्रेजों की शोषण व गलत वन नीति से आदिवासी काफी असंतुष्ट थे। फोतकेल के जमींदार नागुल दोरला ने भोपालपट्टनम् के जमींदार राम भोई और भेजी के जमींदार जुग्गाराजू को अपने पक्ष में कर अंग्रेजों द्वारा साल वृक्षों के काटे जाने के खिलाफ 1859 ई. में विद्रोह कर दिया। विद्रोही जमींदारों और आदिवासी जनता ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि अब बस्तर के एक भी साल वृक्ष को काटने नहीं दिया जायेगा। अपने इस निर्णय की सूचना उन्होंने अंग्रेजों एवं हैदराबाद के ब्रिटिश ठेकेदारों को दे दी। ब्रिटिश सरकार ने नागुल दोरला और उनके समर्थकों के निर्णय को अपनी प्रभुसत्ता को चुनौती मानकर वृक्षों की कटाई करने वाले मजदूरो की रक्षा करने के लिये बंदूकधारी सिपाही भेजे। दक्षिण बस्तर के आदिवासियों को जब यह खबर लगी तो वे जलती हुई मशालों को लेकर अंग्रेजों के लकड़ी के टालों को जला दिया और आरा चलाने वालों का सिर काट डाला। आन्दोलन कारियों ने एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर का नारा दिया। इस जन आंदोलन से हैदराबाद का निजाम और अंग्रेज घबरा उठे। बाध्य होकर निजाम और अंग्रेजों ने नागुल दोरला और उसके साथियों के साथ समझौता किया। कैप्टन सी. ग्लासफर्ड जोकि सिंरोचा का डिप्टी कमिश्नर था, ने विद्रोहियों की भयानकता को देखते हुये अपनी हार मान ली और बस्तर में उसने लकड़ी ठेकेदारों की प्रथा को समाप्त कर दिया।
बस्तर के वनों को समय से पूर्व कटने से बचाने का यह विद्रोह बस्तर का ही नहीं वरन् छत्तीसगढ़ का अपने किस्म का अनोखा विद्रोह था। इस विद्रोह के पीछे आदिवासियों की आटविक मानसिकता का परिचय मिलता है। सालद्वीप के मूल प्रजाति साल की रक्षा के लिये सभ्य समाज से दूर कहे जाने वाले आदिवासियों ने जो अनोखा संघर्ष किया है, वह उनके पर्यावरण जागृति को दर्शाता है। इस तरह की जागृति और चौकन्नापन आज की पीढी में दिखाई नहीं देता। यह विद्रोह आज के शिक्षित समाज के लिये एक प्रेरणा है। इस विद्रोह में जनजातियों की वैचारिक दृढ़ता के दर्शन होते हैं। कोई विद्रोह बस्तर का पहला विद्रोह था जिसमें अंग्रेजों ने अपनी हार मानी और विद्रोहियों के साथ समझौता किया था।
मुरिया विद्रोह (1876 ई.)- 1876 का मुरिया विद्रोह बस्तर का स्वाधीनता संग्राम था। यह विद्रोह बस्तर में 1853 से 1876 ई. तक विकसित घटनाओं एवं दुर्घटनाओं का परिणाम था। इसके अनेक कारण थे जिनमें-(1) बस्तर में ब्रिटिश सरकार द्वारा किये गये भूराजस्व विषयक प्रयोग (2) अंग्रेज सरकार का राजा भैरमदेव के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप (3) दीवान गोपीनाथ और नौकरशाही का आदिवासियों पर जुल्म और उनकी परंपराओं में हस्तक्षेप (4) अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति (5) अंग्रेज मुंशियों द्वारा आदिवासियों का शोषण (6) अंग्रेज ठेकेदारों द्वारा बेगारी की प्रथा और माझियों के अधिकारों में कमी आदि ।
अंग्रेजों ने आदिवासियों की वाणिज्यिक फसलों पर अधिकार कर अपना शोषण चक्र प्रारम्भ किया। 1864 ई. में अंग्रेजों ने पुनः भूमि विषयक नियम लागू किये।इन सब कारणों से आदिवासी जनता ब्रिटिश शासन से नाराज थी। 1867 ई. में गोपीनाथ कपड़दार बस्तर का दीवान बना। उसके द्वारा जारी की गई ठेकेदारी व्यवस्था से मुरिया आदिवासी उनसे असंतुष्ट हो गये।
जनवरी 1876 ई. में विद्रोह प्रारम्भ हुआ। जगदलपुर से 6 मील की दूरी पर मारेंगा नामक स्थान पर मुरिया आदिवासियों ने राजा भैरमदेव को प्रिंस आफ वेल्स को सलामी देने के लिये बम्बई जाने से रोका। यह कार्य उन्होंने इसलिये किया, क्योंकि उन्हें डर था कि राजा की अनुपस्थिति में दीवान कपडदार उन पर जुल्म करेगा। इस स्थिति से निपटने के लिये दीवान ने अपने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया। गोली से कुछ आदिवासी मारे गये। 18 आदिवासियों को पकड़कर जगलदपुर जेल भेज दिया गया। कुरंगपाल में 500 आदिवासियों ने 18 आदिवासियों को छुड़ा लिया। आदिवासियों ने राजा के सिपाहियों को गिरफ्तार कर लिया। दीवान गोपीनाथ कपडदार मैदान छोड़ कर भाग गया। राजा भैरमदेव भी घबड़ा गया। आरापुर नामक स्थान में विद्रोहियों ने दीवान के विरुद्ध योजना बनाई। झाड़ा सिरहा को आदिवासियों ने अपना नेता बनाया और उसके नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुये राजा भैरमदेव ने सेना को आदिवासियों पर गोली चलाने का आदेश दिया। घमासान युद्ध में छः मुरिया आदिवासी मारे गये। विद्रोही परास्त होने के बाद आरापुर से भाग गये।
युद्ध में परास्त होने के बाद भी विद्रोहियों के नेता झाड़ा सिरहा ने राजा, दीवान और अंग्रेज से निपटने के लिये विद्रोहियों को पुनः एकत्रित किया। आम वृक्ष की डालियों को प्रतीक के रूप में भेजकर क्रांतिकारियों को विप्लव में सम्मिलित होने के लिये प्रेरित किया गया। अन्त में तीन से पाँच हजार विद्रोही मुरिया इकट्ठा हो 2 मार्च, 1876 ई. को जिसे काला दिवस' भी कहा जाता है, के दिन विद्रोहियों ने जगदलपुर महल को चारों तरफ से घेरने, संवाद माध्यमों को रोकने और जाने वाली रसद सामग्री और जल पर नियंत्रण रखा। महल में मुंशी, राजा और दीवान घबड़ा गये तथा आत्मसमर्पण करने की तैयारी करने लगे। इस बीच दीवान गोपीनाथ कपड़दार ने एक महरा महिला के माध्यम से सिरोंचा स्थित ब्रिटिश अधिकारियों को एक पत्र भेजा कि पिछले चार महीनों से राजधानी जगलपुर विद्रोहियों से घिरी है, शीघ्र ही सेना भेज दी जाये। यह पत्र मोम में लपेटकर महरा महिला की पेज की हांडी में छिपा कर भेजा गया था।
मई 1876 ई. में सिरोंचा कि डिप्टी कमिश्नर मैक जॉर्ज ने रायपुर, जैपुर और विशाखापत्तनम् की सेना के सहयोग से विद्रोहियों का दमन किया। ब्रिटिश सरकार ने राजा से लेकर छोटे कर्मचारी तक को इस विद्रोह के लिये जिम्मेदार ठहराया। सारे कायस्थ कर्मचारी बस्तर के बाहर कर दिये गये। मैक जॉर्ज ने मुरिया आदिवासियों के असंतोष को दूर करके 8 मार्च, 1876 ई. को जगदलपुर में पहली बार मुरिया दरबार का आयोजन किया। इस विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेजों ने बस्तर में अनेक प्रशासनिक सुधार किये। नया दस वर्षीय भूराजस्व बन्दोबस्त लागू किया गया। पहाड़ी क्षेत्र में पेछा, मैदानी क्षेत्र में गायला और खालसा क्षेत्र में दीवान, नेगा तथा थानेदार को भू-राजस्व वसूली के लिये अधिकृत किया गया। दीवान गोपीनाथ को बंदी बनाकर सिरोंचा भेजा गया। इस प्रकार यह विद्रोह न केवल पूर्णतः सफल हुआ, अपितु इसके अच्छे परिणाम निकले।
1910 ई. का विद्रोह : भूमकाल-बस्तर के इतिहास में 1910 ई. के आदिवासी संग्राम का विशेष महत्व है। प्रथम आदिवासियों ने बड़े पैमाने पर अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसात्मक विप्लव में भाग लिया था। 1910 ई. का आदिवासी संग्राम बत्तर को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करने का महासंग्राम था। बस्तर में भुमक अथवा भूमकाल का शाब्दिक अर्थ है- भूमि का कंपन या भूकंप अर्थात् उलट-पुलट । यह संग्राम “बस्तर, बस्तरवासियों का है' के नारे को लेकर प्रारम्भ हुआ था। इस आंदोलन के द्वारा आदिवासी बस्तर में मुरिया राज स्थापित करना चाहते थे। 1910 ई. के विद्रोह के अनेक कारण थे। इन कारणों में
(1) अंग्रेजों द्वारा राजा रुद्रप्रतापदेव के हाथों सत्ता न सौंपना
(2) राजवंश से दीवान न बनाना।
(3) स्थानीय प्रशासन की बुराइयां ।
(4) लाल कलेन्द्र सिंह और राजमाता सुवर्णकुंवर देवी की उपेक्षा।
(5) बस्तर के वनों को सुरक्षित वन घोषित करना।
(6) वन उपज का सही मूल्य न देना।
(7) लगान में वृद्धि करना और ठेकेदारी प्रथा को जारी रखना।
(8) घरेलू मदिरा पर पाबंदी।
(9) आदिवासियों को कम मजदूरी देना।
(10) नयी शिक्षा नीति।
(12) बस्तर में बाहरी लोगों का आना और आदिवासियों पर शोषण करना।
(13) बेगारी प्रथा।
(13) पुलिस कर्मचारियों के अत्याचार ।
(14) अधिकारियों, कर्मचारियों और शिक्षकों द्वारा आदिवासियों से मुफ्त में मुर्गा, शुद्ध घी और जंगली उपज प्राप्त करना।
(15) आदिवासियों को गुलाम समझना।
(16) ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासियों को धर्म परिवर्तन के लिये बाध्य करना आदि।
अक्टूबर 1909 के दशहरे के दिन राजमाता स्वर्ण कुंवर ने लाल कालेन्द्र सिंह की उपस्थिति में ताड़ोकी में आदिवासियों को अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के लिये प्रेरित किया। ताड़ोकी की सभा में लाल कालेन्द्र सिंह ने आदिवासियों में से नेतानार ग्राम के क्रांतिकारी वीर गुंडाघूर को 1910 ई. की क्रान्ति का नेता बनाया और एक-एक परगने से एक बहादुर व्यक्तियों को विद्रोह का संचालन करने के लिये नेता मनोनीत किया। लाल कालेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति करने के लिये एक गुप्त योजना बनायी गयी। जनवरी 1910 ई. में ताड़ोकी में पुनः गुप्त सम्मेलन हुआ जिसमें लाल कलेन्द्र सिंह के समक्ष क्रान्तिकारियों ने कसम खाई कि वे बस्तर की अस्मिता के लिये जीवन व धन कुर्बान कर देंगे।
1 फरवरी, 1910 को समूचे बस्तर के क्रांतिकारियों ने क्रांति की शुरूआत की। विद्रोहियों की गुप्त तैयारी से पोलिटिकल ऐजेन्ट डी ब्रेट भी बेखबर था। विद्रोहियों ने इस विद्रोह में भाग लेने के लिये हर गाँव में प्रत्येक परिवार से एक सदस्य को सम्मिलित होने के लिये प्रेरित किया और उनके पास लाल मिर्च, मिट्टी के ढेले, धनुष बाण, भाले तथा आम की डालियां प्रतीक के स्वरूप भेजीं। 1 फरवरी, 1910 ई. को समूचे बस्तर में विप्लव की शुरूआत हुई। 2 फरवरी, 1910 ई. को विद्रोहियों ने पूसपाल बाजार में लूट मचाई थी। 4 फरवरी को कूकानार के बाजार में बुंदू और सोमनाथ नामक दो विद्रोहियों ने एक व्यापारी की हत्या की। 5 फरवरी को करंजी बाजार को लूटा गया। 7 फरवरी, 1910 को विद्रोहियों ने गीदम में गुप्त सभा आयोजित कर मुरिया राज की घोषणा की थी। इसके बाद विद्रोहियों ने बारसूर, कोन्टा, कुटरू, कुआकोण्डा, गदेड, भोपालपट्टनम् जगरगुण्डा, उसूर, छोटे डोंगर, कुलुल और बहीगाँव पर आक्रमण किये। 16 फरवरी, 1910 ई. को अंग्रेजों और विद्रोहियों के मध्य में इंद्रावती नदी के खडगघाट पर भीषण संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में विद्रोही परास्त हुये थे। खडगघाट युद्ध में हुंगा मांझी ने अपनी वीरता का परिचय दिया था। 24 फरवरी, 1910 ई. को गंगामुंडा के संघर्ष में विद्रोहियों की पराजय हुई थी। 25 फरवरी, 1910 ई. को डाफनगर में विद्रोहियों ने वीर गुंडाधूर के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया। अबूझमाड़, छोटे डोंगर में आयतू महरा ने अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया। छोटे डोंगर में विद्रोहियों ने गेयर के साथ भयंकर संघर्ष किया था। सुप्रीम कमांडर
'गेयर ने पंजाबी सेना के बल पर विद्रोहियों का दमन किया था।
अंग्रेजों ने 6 मार्च, 1910 ई. से विद्रोहियों का बुरी तरह से दमन करना शुरू किया। लाल कालेन्द्र सिंह और राजमाता स्वर्ण कुंवर देवी को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया। अनेक विद्रोहियों को कठोर कारावास दिया गया। हजारों आदिवासियों का निःशस्त्रीकरण किया गया। हजारों आदिवासियों को कोड़ा लगाने की कार्यवाही अंग्रेजों ने प्रारम्भ की। कोड़े लगाने की प्रक्रिया महीनों तक चलती रही। अंग्रेजों की यह एक जघन्य कार्यवाही थी। 1910 ई. का विद्रोह बस्तर में 1 फरवरी से 29 मार्च, 1910 ई. तक चलता रहा। 1910 ई. का भूमकाल बस्तर के आदिवासियों के स्वाधीनता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसने बस्तर में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला दिया। विद्रोह की समाप्ति के बाद ब्रिटिश शासन ने बस्तर में दीवान बैजनाथ पंडा के स्थान पर जेम्स को दीवान बनाया। 1910 ई. के विद्रोह ने इस विद्रोह की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने आदिवासी संस्थाओं को सम्मान देते हुये आदिवासियों से जुड़ने का प्रयास किया। यदि इस विद्रोह में बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव और कांकेर के राजा कोमल देव क्रांतिकारियों का साथ देते तो बस्तर में 1910 का विप्लव सफल होता और अंग्रेजों को बस्तर छोड़ना पड़ता। बस्तर के विभिन्न विद्रोहों और आंदोलनों में बस्तर कांकेर के आदिवासियों ने जो बलिदान दिया वह अभूतपूर्व एवं अविस्मरणीय है। बस्तर संभाग के आंदोलनों एवं क्रांतिकारियों का छत्तीसगढ़ के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।