आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह
गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद इलाहाबाद में काग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई जिसमें यह तय हुआ सत्याग्रह को जारी रखते हुये सत्याग्रह के क्षेत्र को विस्तृत किया जाये। जहा नमक बनाने की सुविधा नहीं है वहा अन्य कानून तोड़ा जाये, जहाँ जंगलात है वहा जगत कानून तोडा जाये। कार्य समिति के इस निर्णय से आन्दोलन का विस्तार हो गया, छत्तीसगढ मे यह आन्दोलन जगत सत्याग्रह के रूप में प्रकट हुआ। जगह-जगह नमक सत्याग्रह ने जगल सत्याग्रह की नीव रखी. इससे छत्तीसगढ जैसे सुदूर अचल के आदिवासियों का भी प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्वतंत्रता संग्राम से स्थापित हुआ। सविनय अवज्ञा आदोलन के दौरान छत्तीसगढ़ में ग्रामीण एवं आदिवासी भी सक्रिय हो उठे। शासन ने वन्य सामग्री के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगा रखा था अतः जंगल कानून तोडकर शासन का विरोध किया गया जिसे जंगल सत्याग्रह कहा जाता है। रायपुर जिले में सत्याग्रह मुख्यतः धमतरी एवं महासमुद के तहसीलों में केन्द्रित थे। शासन ने 1927 के वन अधिनियम (प्रिजर्वेशन एक्ट) के अंतर्गत सत्याग्रहियों पर व्यापक कार्यवाही की।
विभिन्न जगल सत्याग्रहो का सक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है
गट्टासिल्ली का जंगल सत्याग्रह, 1830- सन 1930 मे धमतरी तहसील के सिहावा खण्ड के ठेमली नामक गांव के लगभग 800 मवेशी वन विभाग के अधिकारियो द्वारा आरक्षित वन क्षेत्र में घास चरने के अपराध में पकड़कर गट्टासिल्ली गाव के कांजी हाउस में डाल दिया गया। इस पर पशु मालिको ने मालगुजार गुरु गोसाई लाल के सहयोग से वन विभाग एवं धमतरी लोकल बोर्ड से सपर्क कर पशुओ को छुड़ाने का असफल प्रयास किया। अत. मामला धमतरी तहसील काग्रेस कमेटी के समक्ष रखा गया। इसके सक्रिय कार्यकर्ता नारायण राव मेघावाले, नत्थु जी जगताप एवं बाबू छोटेलाल 25 सत्याग्रहियो के साथ गट्टासिल्ली पहुंचे। इघर सूचना मिलते ही पुलिस भी गट्टासित्ती पहुंच गई। काजी हाऊस के पशुओं की नीलामी हेतु बाजार भेजने की तैयारी हो रही थी। सत्याग्रहियो द्वारा पहले निवेदन किया गया, किंतु पुन प्रत्युत्तर नकारात्मक होने पर वे कांजी हाउस के द्वार के समक्ष लेट गए ताकि पशुओ को वहा से न निकाला जा सके और पुलिस के द्वारा हटाए जाने पर भी वे नहीं हटे तो क्रोधवश पुलिस ने उन पर खौलता हुआ गर्म जल डालना प्रारम कर दिया। फिर भी वे अडिग रहे। इन सत्याग्रहियो को धमतरी के सत्याग्रह आश्रम से प्रशिक्षण प्राप्त था। अत वे पुलिस ज्यादतियो को रायम एवं धीरता से सहते रहे अततः जब पुलिस के सभी प्रयास निरर्थक हो गए तो अधिकारियो को मवेशियो को निःशुल्क मुक्त करने हेतु बाध्य होना पड़ा। इस तरह यह सत्याग्रहियो एव धमतरी काग्रेस कमेटी की ब्रिटिश नौकरशाही के विरुद्ध महत्वपूर्ण सफलता थी। इससे लोगों के उत्साह में एवं कांग्रेस के प्रति आस्था में वृद्धि हुई और लोग जंगल कानून तोडने का पुनः साहस कर सके।
रूद्री नवागांव जंगल सत्याग्रह, 1930- गट्टासिल्ली की सफलता से उत्साहित होकर धमतरी काग्रेस द्वारा जंगल कानून के विरुद्ध सत्याग्रह करने का निर्णय लिया गया। इस समय देश एवं अचल मे सविनय अवज्ञा आदोलन जोरों पर था। सत्याग्रह हेतु स्थल धमतरी से पाच कि.मी. दूर महानदी के तट पर स्थित रूद्री नामक गाव को चुना गया ताकि धमतरी से इसको नियत्रित किया जा सके। 22 अगस्त, सन् 1930 को नवागाव के समीप आरक्षित वन की घास काटकर जगल कानून के उल्लंघन का निश्चय किया गया। इसका नेतृत्व मेघावाले और जगताप करने वाले थे, पर उन्हें गिरफ्तार कर रायपुर भेज दिया गया और सम्पूर्ण क्षेत्र में धारा 144 लगा दी गई। पं. शर्मा को राजिम से रूदी नवागाव आदोलन के संचालन हेतु जाते समय 22 अगस्त, 1930 को रास्ते में अभनपुर में गिरपतार कर एक वर्ष के लिए रायपुर जेल भेज दिया। यह कार्य पाच-पाच लोगों के समूह द्वारा प्रतिदिन आठ माह तक किए जाने की योजना थी। इन जनप्रिय नेताओं की गिरफ्तारी पर कमान बाबू छोटेलाल के हाथो में आई जिन्होने धमतरी मे शांतिपूर्वक हड़ताल एवं जनसभा की और सत्याग्रह जारी रखते हुए पुनः एक जत्था मालगुजार गोविन्दराव डाभावाले के नेतृत्व में नवागांव भेजा जो स्थल पर पहुंचने के कुछ दूर पहले ही पुलिस द्वारा रोक दिया गया। अत उन्होंने जन समूह को वही रुककर सत्याग्रह जारी रखने को कहा। इस पर पुलिस ने जत्थे को गिरपतार कर लिया। 16 दिसंबर को पुनः सत्याग्रह के परिप्रेक्ष्य मे लगभग पांच हजार लोग एकत्रित हुए। पुलिस ने भीड़ को हटाने हेतु लाठी चालन किया। इस दौरान एक पुलिसकर्मी को चोट लग गई जिसे आधार बनाकर भीड़ पर गोली चलाई गई। इसमे सिन्धु कुम्हार नामक व्यक्ति मारा गया और अनेक घायल हुए। घायलों में रलू' नामक एक अन्य व्यक्ति की मृत्यु हो गई। आदोलन पूर्ववत जारी रहा। शासन ने आरक्षित वन से घास काटने पर चोरी का अभियोग लगाना आरम्भ कर कारावास के साथ बेंत मारने की सजा इस पर निर्धारित कर दी। सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गये, कितु सत्याराह अबाध गति से चलता रहा और यह तभी स्थगित हुआ जब गाधी-इरविन समझौता 5 मार्च, 1931 ई. को सम्पन्न हो गया।