छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था
बस्तर का इतिहास
छत्तीसगढ़ का नामकरण
छत्तीसगढ़ के गढ़
छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास
मराठा शासन में ब्रिटिश - नियंत्रण
छत्तीसगढ़ में पुनः भोंसला शासन
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव
1857 की क्रांति एवं छत्तीसगढ़ में उसका प्रभाव
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन
राष्ट्रीय आन्दोलन (कंडेल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (सिहावा-नगरी का जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (प्रथम सविनय अवज्ञा आन्दोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (महासमुंद (तमोरा) में जंगल सत्याग्रह, 1930 : बालिका दयावती का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आन्दोलन का द्वितीय चरण)
राष्ट्रीय आन्दोलन (गांधीजी की द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा (22-28 नवंबर, 1933 ई.))
राष्ट्रीय आन्दोलन (व्यक्तिगत सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर षड्यंत्र केस)
राष्ट्रीय आन्दोलन (भारत छोड़ो आंदोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर डायनामाइट कांड)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता दिवस समारोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर में वानर सेना का बाल आंदोलन बालक बलीराम आजाद का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रियासतों का भारत संघ में संविलियन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में मजदूर एवं किसान आंदोलन 1920-40 ई.)
छत्तीसगढ़ के प्रमुख इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता
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छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन



      नागपुर राज्य के अंग्रेजी साम्राज्य में विलय के साथ ही छत्तीसगढ़ प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन का अंग बन गया। यद्यपि विलय की घोषणा 13 मार्च, 1854 को की गई थी तथापि 1 फरवरी,1855 को छत्तीसगढ़ के अंतिम मराठा जिलेदार गोपालराव ने यहां के शासन के लिये नियुक्त ब्रिटिश शासन के प्रतिनिधि प्रथम डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स सी इलियट को सौंपा। उनका अधिकार क्षेत्र वही था जो ब्रिटिश नियंत्रण काल में मि. एगन्यू का था। इस प्रकार 1854 ई. में ही छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी राज्य की स्थापना हुई जो सन् 1947 तक बनी रही। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत संपूर्ण छत्तीसगढ़ सूबे को एक जिले का दर्जा प्रदान किया गया जिसका प्रमुख अधिकारी डिप्टी कमिश्नर कहा गया। डिप्टी कमिश्नर को प्रशासन के कार्यों में सहयोग देने के लिये एक सहायक कमिश्नर तथा एक अतिरिक्त सहायक कमिश्नर की नियुक्ति का प्रावधान भी था। अतिरिक्त सहायक कमिश्नर का पद केवल भारतीयों के लिये सुरक्षित था। इस पद पर गोपालराव आनंद और मोहिबुल हसन को क्रमशः बिलासपुर और रायपुर में नियुक्त किया गया। अंग्रेजों ने अपने शासन काल में यहां अनेक परिवर्तन किये साथ ही विकास और ज्ञान-विज्ञान का विस्तार आरंभ किया। 1854 ई. के
पश्चात् छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का जो प्रभाव हुआ। संक्षिप्त में उसकी समीक्षा की जा रही है -
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश प्रशासन का नवीन स्वरूप
   कमिश्नर मि. मेन्सल ने छत्तीसगढ़ में नव नियुक्त डिप्टी कमिश्नर को यह निर्देश दिया कि क्षेत्रीय प्रशासन को स्थानीय परंपराओं को ध्यान में रखते हुये स्थापित किया जाये और ऐसे पूर्व सरकारी कर्मचारियों, जो योग्य हों एवं ब्रिटिश शासन की सेवा करने के इच्छुक हों, को उनकी योग्यतानुसार रिक्त स्थानो पर नियुक्त किया जाये। साथ ही छत्तीसगढ़ के असैनिक प्रशासन का पुनर्गठन कर यहां पंजाब की प्रशासनिक व्यवस्था (जो वहां उपयोगी सिद्ध हुई) को लागू किया जाये। इसके अंतर्गत प्रशासन को दो वर्गों-माल और दीवानी में विभक्त किया गया तथा डिप्टी कमिश्नर को दीवानी शाखा के प्रशासन हेतु दोनों, मूल और अपील संबंधी अधिकार सौंपे गये जो 5000 रू. से ऊपर के होते थे। बाद में तहसीलदारों को नियुक्त कर उन्हें भी (कम राशि के) दीवानी और फौजदारी से संबंधित अधिकार सौंपे गये। दुत संचार हेतु डाक व्यवस्था को दुरुस्त कर हरकारे तैनात किये गये। सामान्य प्रशासन में जमींदारों, रियासत प्रमुखों और उच्च मध्यम वर्ग से सहयोग लेने की नीति बनाई गई, जिससे चुने हुये वफादार वर्ग तैयार हो और दूरस्थ क्षेत्रों के प्रशासन को विकसित करने में सहयोग प्राप्त हो।

तहसीलदारी व्यवस्था का आरंभ-

     छत्तीसगढ़ में डिप्टी कमिश्नर ने प्रथम प्रशासकीय परिवर्तन के रूप में यहां तहसीलदारी-व्यवस्था का सूत्रपात किया। छत्तीसगढ़ जिले में तीन तहसीलों का निर्माण किया गया-रायपुर, धमतरी और रतनपुर। प्रत्येक तहसील मुख्यालय में एक-एक तहसीलदार रखा गया, जो उस क्षेत्र का प्रमुख अधिकारी था, जो डिप्टी कमिश्नर के निर्देशानुसार कार्य करता था। यह पद भारतीयों के लिये नियत था। छत्तीसगढ़ के परगनों का नये सिरे से पुनर्गठन किया गया। अब प्रत्येक परगने में कमाविंसदार के स्थान पर नायब तहसीलदार नियुक्त किया गया। यह पद भी भारतीयों के लिये सुरक्षित था। तहसीलदार और नायब तहसीलदार का वेतन क्रमशः 150 और 50 रुपये प्रतिमाह थे। प्रत्येक तहसील मुख्यालय में जो प्रमुख कर्मचारी होते थे. उनसे एक तहसीलदार, एक नायब तहसीलदार, एक सिया नवीस, कानूनगो और मोहर्रिर होते थे। 1 फरवरी, सन् 1857 ई. में छत्तीसगढ़ के तहसीलों को पुनर्गठित कर उनकी संख्या बढ़ाकर पांच कर दी गयी, जिनके नाम थे-रायपुर, धमतरी, धमघा, नवागढ़ और रतनपुर। इसके आठ माह बाद ही तहसीलों का दूसरी बार पुनर्गठन किया गया, जिसके अनुसार धमघा के स्थान पर दुर्ग को नया तहसील मुख्यालय बनाया गया। यह परिवर्तन दुर्ग की स्थिति, वहां उपलब्ध सुविधाएं और रायपुर से उसकी दूरी को ध्यान में रखकर किया गया।

मध्य प्रांत का गठन-

  प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिगत 2 नवंबर, 1861 ई. को नागपुर और उसके अधीनस्थ क्षेत्रों को मिलाकर एक केन्द्रीय क्षेत्र का गठन किया गया। जिसे मध्य प्रांत' का नाम दिया गया जिसका संगठन निम्नानुसार था -
(1) नागपुर राज्य के क्षेत्र-इसमें तीन संभाग व दस जिले इस प्रकार थे-(अ) नागपुर संभाग-नागपुर. वर्धा.भंडारा व चादा जिले (ब) रायपुर संभाग-रायपुर, बिलासपुर. संबलपुर जिले (स) गोदावरी तालुक संमाग-गोदावरी तालुक अपर गोदावरी व बस्तर जिले।

(2) सागर-नर्मदा क्षेत्र-यह नागपुर राज्य का अधीनस्थ क्षेत्र था। इसमें दो संभाग एवं सात जिले इस प्रकार (अ) सागर संभाग-सागर, दमोह, होशंगाबाद व बैतूल जिले (ब) जबलपुर संभाग-जबलपुर, मंडला व सिवनी जिले ।
    मध्य प्रांत का मुख्यालय नागपुर रखा गया जहां चीफ कमिश्नर या प्रमुख संभागायुक्त्त नामक अधिकारी को गवर्नर जनरल के एजेन्ट के रूप में नागपुर राज्य के शासन संचालन का भार सौंपा गया तथा प्रत्येक संभाग के संभागायुक्त इसके अधीन रखे गये।

छत्तीसगढ़ संभाग का गठन-

   1861 मे मध्य प्रांत के गठन के समय छत्तीसगढ़ क्षेत्र के प्रशासन को चीफ कमिश्नर के अधीन रखा गया। सन् 1862 ई. में छत्तीसगढ़ को स्वतंत्र संभाग का दर्जा दिया गया जिसका मुख्यालय रायपुर बनाया गया। इस समय संबलपुर को मध्य प्रांत मे शामिल कर रायपुर संभाग का हिस्सा बनाया गया। इस तरह छत्तीसगढ़ को कुल तीन जिलो रायपुर, बिलासपुर तथा संबलपुर में विभक्त किया गया। रायपुर तथा बिलासपुर में दो डिप्टी कमिश्नर रखे गये। यह प्रशासनिक व्यवस्था बिना किसी विशेष परिवर्तन के 1905 तक बनी रही।

भौगोलिक पुनर्गठन एवं प्रशासनिक परिवर्तन-

  1905 ई. में कुछ विशेष परिवर्तन किये गये। इसमें संबलपुर जिले को तत्कालीन बंगाल प्रांत (बंगाल, बिहार, उड़ीसा) के उड़ीसा में मिला दिया गया और उसके बदले बंगाल प्रांत के बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र की पाच रियासते-चांगभखार, कोरिया, सरगुजा, उदयपुर और जशपुर को लेकर मध्य प्रांत में सम्मिलित कर दिया गया। इस व्यवस्था के कारण छत्तीसगढ़ के प्रशासनिक ढांचे में जो नवीन परिवर्तन आया उसके अनुसार यहा तीन जिले रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग निर्मित किये गये। छत्तीसगढ़ संभाग का नाम यथावत् बना रहा। उसका मुख्य अधिकारी कमिश्नर कहलाया। यह प्रशासनिक व्यवस्था मोटे तौर पर सन् 1947 ई. तक जारी रही।

छत्तीसगढ़ की राजस्व व्यवस्था-

    रायपुर के डिप्टी कमिश्नर मि. इलियट ने छत्तीसगढ़ की राजस्व व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिये गवर्नर जनरल के निर्देशानुसार तीन वर्षीय राजस्व व्यवस्था लागू की जो सन 1855 से 1857 तक के लिये बनी थी। यह क्षेत्र के लिये लाभकारी सिद्ध हुई। सन् 1855 ई. में छत्तीसगढ़ को रायपुर या छत्तीसगढ जिला कहा जाने लगा जिसमे तीन तहसील थे. जिनके अंतर्गत अनेक परगने थे। परगनो को पुनर्गठित कर उनकी संख्या बारह की गई जो पूर्व में नौ या दस थी। परगनो में गांवों की संख्या निर्धारित की गई. साथ है कई गाव सम्मिलित कर रेवेन्यू सर्कल बनाया गया। गावों में पटवारियों की नियुक्ति कर उन्हें हल्कों के अनुत्तार अलग-अलग कार्यक्षेत्र सौंपे गये। अब परगना अधिकारी नायब तहसीलदार कहलाने लगा। पुनर्गठन में तीन पुराने परगनों राजरो, लवन और खल्लारी के रथान पर चार नये परगने गुलू, सिमगा, मारो और बीजापुर का निर्माण किया गया।
  राजस्य की दृष्टि से संपूर्ण क्षेत्र को तीन भागों में विभक्त किया गया-(1) खालसा क्षेत्र. (2) जमीदारी क्षेत्र (3) ताहूतदारी क्षेत्र। 

छत्तीसगढ़ में ताहूतदारी पद्धति- का सूत्रपात केप्टन सेन्डीस (1825-28 ई.) के अधीक्षण काल में हुआ। उन्होने लोरमी और तरेंगा नामक ताहूतदारी का निर्माण किया। सिरपुर और लवन नामक दो ताहूतदारी का निर्माण मराठा काल(1830-1854 ई.) में किया गया तथा डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट सी इलियट ने अपने काल में तीन नये ताइतदारियो सिहावा खल्लारी और संजारी का सृजन किया। इस व्यवस्था को यहां जन्म देने का मूल उददेश्य क्षेत्र की कुशल और पडती भूमि को इनाम के माध्यम से कृषि क्षेत्र में परिवर्तित करना था। जो अपनी राशि का उपयोग कर ऐसा करने हेतु प्रेरित किया जाते थे । व्यवस्था यहां अधिक कारगर सिद्ध न हो सकी क्योंकि वे न ही गांव के गौटियों की तरह लोकप्रिय थे और न ही जमीदारो की तरह सक्षम।
     सिद्धांत रूप में सरकार संपूर्ण भूमि का स्वामी था। आय का मुख्य स्रोत भूमि कर था। यह गांव का अनुज मालगुजार होता था जो संबंधित जमीन के जमीदार को मालगुजारी देता था और जमीदार अपने संपूर्ण जमीदारो के लिये निर्धारित भू-राजस्व सरकार को अदा करता था। खालसा क्षेत्र के किसान गोटियों के माध्यम सीधे सरकार को भूमि कर अदा करते थे। ताहूतदारी क्षेत्र से राजस्व अदायगी ताहूतदारों द्वारा निर्धारित दर पर की जाती थी। 1854 ई. के पूर्व छत्तीसगढ़ में आय के प्रमुख सात मद प्रचलित थे। उनके नाम थे भू-राजस्व, आबकारी, कलाली, टकोली पंसारी सेवाय और दीगर सेवाय । परन्तु 1 जून 1856 ई. से संपूर्ण आय को चार मदों में बांटा गया-

(1) भू-राजस्व, (2) आबकारी (मादक द्रवों की बिक्री कर) (3) सायर (चुंगी कर).
(4) पंडरी (गैर किसानों पर विशेष कर)।

    शेष सभी कर समाप्त कर दिये गये। राजस्य का भूमि कर के बाद दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत सायर द तीसरा स्रोत आबकारी कर था। पंडरी से अपेक्षाकृत कम आय होती थी। राजस्व व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन नवबर 1855 में किया गया. अब करों का भुगतान नकद करना अनिवार्य हो गया। अत. सरकार अब अनाजों का संग्रह नहीं करती थी। अंग्रेजों ने राजस्व वर्ष 1 मई से 30 अप्रैल तक निर्धारित किया। अत. 30 अप्रैल तक चालू के सभी हिंसाब किताब पूर्ण कर लिये जाते थे।
   राजस्व विभाग में वर्ष 1856 ई. से नवीन अधिकारी नियुक्त किये गये. जो है - रोस्तेदार, नायर श्री रीतेदार, मुहाफिज, दफ़्तरी, वासील-बाकी नवीस. परगना नवीस. मोहर्रिर और नाजिर आदि। उसी प्रकार कोषागार (खजाना विभाग) में कार्य करने वाले अधिकारी थे-खजांची (केशियर), सियानचीस मोहर्रिर और फोतदार आदि।
राजस्व मामलों से संबंधित समस्याओं के निदान के लिये एक नियमावली थी जिसे दस्तूर उल अमल का नाम दिया गया था।
   त्रिवर्षीय व्यवस्था-(1855-58, 1859-61) छत्तीसगढ़ में भू-राजस्व की दो त्रिवर्षीय लापरथारों लागू की गई जो 1855 से 1861 तक चली। भू-राजस्व निर्धारण का आधार हलों को सख्या थी जिसके आधार पर भू-राजस्व का अनुमान लगाया जाता था. भूमि की पैमाइश नहीं की जाती थी। 1861 ई के पश्चात् ग्रह अनुभव किया गया कि राहा भूमि की स्थाई और नियमित व्यवस्था की जाये ताकि इस संबंध में विद्यगन सभी जटिलतामा को दूर किया जा सके। न्याय व्यवस्था-मराठा शासन के अंतर्गत न्याय के निर्वहन हेतु न तो निश्चित नियम से न हो निश्चित अदालते थी। छत्तीसगढ क्षेत्र के ब्रिटिश सामाज्य के अतर्गत आने के पश्चात् यहा के लिये नवीन न्याय पावस्था का सृजन किया गया जिसमें पंजाब में लागू सिविल कोड को आधार बनाया गया। इस व्यवस्था के अनुसार न्यायिक कार्य हेतु पृथक से न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति न कर इसका दायित्व जिला अधिकारी व उसके अधीनस्थों को सौंपा गया। रायपुर व बिलासपुर जिलों में डिप्टी कमिश्नर (जिलाधिकारी) ही यह कार्य करते. किनु सालपुर के लिये डिप्टी कमिश्नर से भिन्न न्यायिक अधिकारी की नियुक्ति की गई। इस तरह यहाॅं न्यायिक कार्य का सदन डिप्टीकमिश्नर, सहायक कमिश्नर, अतिरिक्त सहायक कमिश्नर, तहसीलदार और अन्य अधिकारिद्वारा विभिन्न स्तरों पर सीमा और अधिकार क्षेत्र में किया जाने लगा। कमिश्नर समय-समय पर जिलाधिकारी को न्यायिक कार्या से संबधित सिद्धातो और नीतियों के परिपालन हेतु निर्देश भेजा करता था।
    न्याय विभाग को व्यवस्थित करने की दृष्टि से छत्तीसगढ़ समाग में सबसे बारह भाषिकारो के रूप में जिला और सत्र न्यायधीश को पदस्थ किया गया जिसका मुख्यालय रायपुर था। इसकी सहायता के लिए अतिरिक्त सत्र न्यायधीश और व्यवहार न्यायाधीश (प्रथम और द्वितीय श्रेणी) पदस्थ किये गये। 1925 में दुर पारेको अनुसार जिले का प्रमुख अधिकारी डिप्टी कमिश्नर था जो दीवानी और फोजदारी मुकदमों की देख-भाल करता था । इस कार्य में उसकी सहायता के लिए सहायक कमिश्नर होते थे (वर्तमान डिप्टी कलेक्टर के अनुरूप)। दीवानी मामलों का संभागीय प्रमुख अधिकारी जिला सत्र न्यायाधीश होता था। वह दीवानी और फोजदारी से संबंधित मूल और अपीली मामलो को देखा करता था। साथ ही अधीनस्थ न्यायालयों को मालाह देना और उनके कार्य का निरीक्षण करना भी उसका कार्य था।
दीवानी न्याय-

  तहसीलदारों का दीवानी मामलो में तहकीकात करने का अधिकार सौंपा गया और जिलों तथा परगना में उनके दीवानी और फोजदारी अधिकार की सीमा निधारित की गई। गितार 156 9 कमिशनर नायव तहसीलदारों के न्यायिक कार्या के संपादन के अधिकार को खत्म कर दिया। एक पक्षीय निर्णय देने पर रोक थी। राजीनामा करने की पद्धति की व्यवस्था की गई। अपील का समय दो माह नि:शक्त किया गया। दीवानी न्याय में एकरूपता हेतु जिला मुख्यालयों के लिये डिप्टी कमिश्नर और सहायक कमिश्नरों को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया ! अपील संभागीय कमिश्नर को किया जा सकता था और इसके निर्णय के विरुद्ध अंतिम अपील के लिये न्यायिक कमिश्नर का प्रावधान किया गया ! इस नई व्यवस्था को 1 जनवरी, 1863 में लागू किया। कालांतर में दीवानी मामले जिले का प्रमुख अधिकारी व उसके अधीनस्था द्वारा देखा जाने लगा। दीवानी मामले का संभागीय बड़ा अधिकारी जिला एवं सत्र न्यायाधीश होता था जो मूल और अपीली दोनों मामले देखता था।
फौजदारी न्याय-

फौजदारी न्याय से संबंधित अधिकार तहसीलदार या डिप्टी कमिश्नरों को सौंपा गया। साथ ही पूर्व समय के अनुसार स्थानीय प्रमुख के समक्ष अपील करने का अधिकार चालू रहा। कमिश्नर को अंतिम आदेश प्रसारित करने का अधिकार था जो उम्र कैद की सजा दे सकता था। मृत्यु दण्ड से संबंधित मामले गवर्नर जनरल के समक्ष भेजे जाते थे। तहसीलदार को एक सीमा के अंतर्गत फौजदारी और पुलिस संबंधी अधिकार सौंपे गये, साथ ही डिप्टी कमिश्नर के फौजदारी संबंधी अधिकारो को भी स्पष्ट किया गया और इससे ऊपर के मामले कमिश्नर देखता था। बाद में कमिश्नर गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना ही मृत्यु दण्ड देने लगा। कालांतर में जिले के प्रमुख एवं उसके अधीनस्थ अपने कार्य क्षेत्र के अंतर्गत फौजदारी मामले देखने लगे जिसकी अपीलें संभागीय स्तर पर होती थीं। मामलों के शीघ निपटारे हेतु संभाषण पद्धति लागू की गई। विशेष कर अपील संबंधी प्रक्रिया विलंबकारी थी।
जनवरी 1862 में इंडियन पेनल कोड लागू होने पर व्यवस्था में ठोस परिवर्तन आया। आने वाले समय में समूचे देश मे न्याय कार्य को प्रशासन से पृथक किया गया। पुलिस व्यवस्था-मराठा काल में छत्तीसगढ़ में पुलिस व्यवस्था का कोई विशेष प्रबंध न था। 1855 ई. में यहां केवल 149 कर्मचारी कार्यरत थे जिनका वितरण भी यहां असमान था। सितंबर 1856 में नई व्यवस्था लागू की गई जिससे यहां के पुलिस बल में पांच गुना वृद्धि हुई। पुलिस प्रशासन की दृष्टि से सपूर्ण छत्तीसगढ़ को चार भागों में बांटा गया जो निम्नानुसार था-रायपुर सदर, रायपुर तहसीलदारी क्षेत्र, धमतरी तहसीलदारी क्षेत्र एवं रतनपुर तहसीलदारी क्षेत्र । प्रत्येक तहसीलदारी क्षेत्र के अंतर्गत 15 पुलिस थानों का निर्माण किया गया। पुनः 1 फरवरी, 1857 ई. में तहसीलों के पुनर्गठन के साथ पुलिस व्यवस्था को भी पुनर्गठित कर संपूर्ण छत्तीसगढ़ को पांच भागों में विभक्त किया गया जो रायपुर, धमतरी, धमधा, नवागढ और रतनपुर आदि तहसीली क्षेत्र थे। जनवरी सन् 1858 ई. में यहां पुलिस मेनुअल लागू किया गया जिसमें पुलिस के कर्तव्य एवं अनुशासन का विस्तृत ब्यौरा था। रायपुर से बिलासपुर के बीच सड़क सुरक्षा हेतु पुलिस थानों का गठन किया गया। पुलिस की आवश्यकता की सभी चीजें सरकार के द्वारा दी जाने लगीं। जमींदारी क्षेत्रों में पुलिस व्यवस्था जमींदारों द्वारा की जाती थी। 1862 ई. में छत्तीसगढ़ के लिये नवीन पुलिस व्यवस्था लागू की गई जिसमें जिला पुलिस अधीक्षक जिले का प्रमुख पुलिस अधिकारी होता था, साथ ही सहायक जिला पुलिस अधीक्षक (प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी के) निरीक्षक (तृतीय, चतुर्थ एवं छठी श्रेणी के) मुख्य आरक्षक, प्रधान आरक्षक, आरक्षक आदि पदों का सृजन किया गया। न्याय प्रणाली को सफल बनाने की दृष्टि से पुलिस विभाग को चौकस और व्यवस्थित किया गया। जनता के जान-माल की रक्षा के लिए पुलिस एक संवैधानिक शक्ति के रूप में जनसुरक्षा का कार्य करने लगी। अपराधियों को पकड़ने और उन्हें न्यायालय के समक्ष पेश करने तक ही पुलिस का काम होता था। इस प्रकार व्यवस्थित न्याय प्रणाली की स्थापना में पुलिस की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

जेल व्यवस्था-

     मराठा काल में अपराधियों के लिए कारागार की कोई व्यवस्था नहीं थी। ब्रिटिश शासन (1854 ई.) से पूर्व रायपुर का जेल एक छोटे से मकान में स्थित था जिसमें 200 कैदियों के रहने की व्यवस्था थी। कैदियों के स्वास्थ्य, भोजन, कपड़ों आदि पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। ऐसी स्थिति मे जेल प्रबंध में सुधार हेतु नवीन ब्रिटिश शासन ने नयी व्यवस्था लागू की। मार्च 1858 ई. तक कैदियों को पृथक राशन दिया जाता था, किंतु अप्रैल 1858 से कैदियों के लिए जेल में मेस की व्यवस्था की गई। इससे प्रति कैदी भोजन व्यय में लगभग 25% कमी आयी तथा भोजन की गुणवत्ता में वृद्धि हुई। कैदियों के स्वास्थ्य परीक्षण हेतु एक स्थानीय डाक्टर की व्यवस्था की गई। एक वर्ष से अधिक सजा वाले कैदियों को सीधे नागपुर कारागार में भेजा जाने लगा। कैदियों को बागवानी व अन्य प्रकार की व्यवहारिक शिक्षा देने की व्यवस्था की गई। जेल के अनुशासन में वृद्धि हुयी। कैदियों को वर्दी दी जाती थी जो अपराधों के अनुसार अलग-अलग रंग के होते थे। जेल की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। कैदियों की बढ़ती संख्या को देखते हुये रायपुर जेल भवन का समयानुकूल विस्तार भी किया जाता रहा। डिप्टी कमिश्नर जेल की व्यवस्था का निरीक्षण करते थे। रायपुर में एक केन्द्रीय जेल के निर्माण की व्यवस्था की गयी। कैदियों को अलग-अलग कमरे में रखने की व्यवस्था नहीं थी। जेल में अच्छे आचरण के लिए कैदियों की सजा में कमी करने की प्रथा का सूत्रपात अभी नहीं हो पाया था। जिला मुख्यालयों में लाक-अप बनाने की व्यवस्था की गयी। 1862 ई. में जेल में एक सिविल सर्जन की नियुक्ति की गयी। इन सुधारों से जेल के रख-रखाव और कैदियों के रहन-सहन के स्तर में सुधार आया। जेल की स्थायी सुरक्षा के लिए सिपाहियों का प्रबंध किया गया।

डाक व्यवस्था

अंग्रेजो ने भारत में आधुनिक डाक व्यवस्था का सूत्रपात किया। इस समय मार्ग की सुरक्षा और डाक परिवहन के लिए हरकारे और घोड़ों की व्यवस्था की गयी। डाक मार्ग की व्यवस्था हेतु परगना एवं तहसील स्तर के अधिकारियों से सहयोग लिया जाता था। स्टाम्प जारी किये गये जिसमें रानी विक्टोरिया का चित्र अंकित था एवं कीमत एक आना था। रायपुर में एक नया डाक घर खोला गया। व्यस्ततम् डाक मार्गों जैसे रायपुर-बिलासपुर-रतनपुर मार्ग, पर अधिक हरकारे नियुक्त किये जाते थे। 1857 ई. में छत्तीसगढ़ की डाक व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया जिसके अनुसार प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्तर की डाक लाइनें स्थापित की गयीं। अगस्त 1857 ई. में लेफ्टिनेन्ट स्मिथ को रायपुर डाकघर का पोस्टमास्टर नियुक्त किया गया। विद्रोहात्मक पत्रों की आवाजाही को रोका जाता था। 1861-62 ई. तक डाक व्यवस्था अनुकूल नहीं थी, पर मध्यप्रांत के गठन के पश्चात् इसमें प्रगतिशील सुधार हुए।

विनिमय-

     मराठा काल में छत्तीसगढ़ में नागपुरी रुपये का चलन था, किंतु अंग्रेजों ने 5 जून, 1855 से इसका चलन बंद कर दिया एवं कंपनी के रुपये को कानूनी तौर पर यहां लागू किया। इस समय नागपुरी रुपया कंपनी के सौ रुपये के बराबर माना गया। अब यहां शासकीय भुगतान कंपनी के रुपये में ही किया जाने लगा। 1 मई, 1855 ई. को कंपनी का नया सिक्का जारी किया गया। नये और पुराने (नागपुरी और कंपनी का रुपया) सिक्कों की अदला-बदली हेतु 6 माह का समय दिया गया। मराठा मुद्रा की तुलना में कंपनी की विनिमय व्यवस्था में एकरूपता थी। नयी मुद्रा व्यवस्था से आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला तथा लेन-देन सुगम हुआ।

यातायात-

     मराठा एवं पूर्व काल में यातायात की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। अंचल के प्रमुख स्थलों को जोड़ने हेतु मार्ग नहीं थे जो सड़कें थीं उनका रख-रखाव नहीं होता था। साथ ही मार्ग सुरक्षित नहीं थे। अंग्रेजों ने यातायात एवं परिवहन को अधिक महत्व दिया क्योंकि वे जानते थे कृषि, व्यापार एवं प्रशासनिक विकास के लिए यातायात के साधन प्रथम आवश्यकता है। अंग्रेजों ने अपने नियंत्रण काल (1818-30 ई.) में ही इस दिशा में सार्थक प्रयास अपने व्यापारिक हित की दृष्टि से किया। रायपुर-नागपुर सड़क कार्य योजना को इस काल मे एगन्यू द्वारा क्रियान्वित किया गया। सड़कों की देख-भाल हेतु कैप्टन फारेस्टर की नियुक्ति की गयी थी। नागपुर-रायपुर सड़क निर्माण कार्य हेतु कैप्टन ब्लेक और उसके सहयोगी मि. फिटरोज को नियुक्त किया गया था। नदियों पर पुल आदि का निर्माण अंग्रेजों के द्वारा ही आरंभ हुआ। सड़कों की मरम्मत का कार्य ठेकेदारों द्वारा करवाया जाता था जबकि कार्यों पर अधिकारियों का पूर्ण नियंत्रण होता था। 1854 ई. के पूर्व यहां बैलगाडी, भैंसागाडी, पालकी और घोड़ों से यात्रा की जाती थी। सड़कों का निर्माण प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाता था इसके लिए केंद्रीय सरकार से भी धन प्राप्त होता था। कभी-कभी व्यापारियों एवं जमींदारों से भी चंदा लिया जाता था। मुख्य सड़कों के रख-रखाव का उत्तरदायित्व मिलिटरी बोर्ड पर था, किंतु 1854 ई. में इस हेतु पृथक् लोक कार्य विभाग स्थापित किया गया। अब इस विभाग के द्वारा सड़कों की मरम्मत एवं नये सड़कों का निर्माण व्यवस्थित एवं बेहतर ढंग से होने लगा। 1862 ई. में देश की महत्वपूर्ण सडक 'ग्रेट ईस्टर्न मार्ग' (आरंभ में नागपुर से संबलपुर तक) पूर्ण हुई। लार्ड कर्जन के काल तक छत्तीसगढ़ की सभी सड़कें जी.ई. रोड से जुड़ गयीं।

      साथ ही रायपुर से सिंरोच (240 कि.मी.), रायपुर से चांदा, बस्तर से भद्राचलम् तक और रायपुर से कालाहांडी तक मार्ग ब्रिटिश काल में बनाये गये। बिलासपुर जिले में 1896 ई. में दो प्रमुख सड़कें (1) धमरजयगढ़-खरसिया मार्ग (2) जशपुर नगर-रांची मार्ग बनाई गयी। रायपुर से महत्वपूर्ण मार्ग (1) रायपुर-जगदलपुर (1) भोपालपट्टनम् सुकमा (बस्तर में) आदि बनाई गयी। 1905 ई. में सरगुजा के मध्यप्रांत में विलय के साथ अंबिकापुर को बिलासपुर से जोड़ा गया।

रेल यातायात-

     छत्तीसगढ़ में रेल लाईन निर्माण का कार्य 19वी शताब्दी के अंत में आरंभ हुआ। अंग्रेजो ने नागपुर-छत्तीसगढ़ रेलवे के नाम से लाइनें बिछाने का कार्य आरंभ किया। इसको मुख्यतः व्यापारिक सुविधा एवं लाभ तथा अकाल पीड़ित क्षेत्रों को राहत पहुंचाने के उद्देश्य से बनाया गया था। आरंभ में यह लाईन मीटर गेज में थी, किंतु 1887 में इस मीटर गेज छत्तीसगढ़ रेलवे को बंगाल-नागपुर रेलवे में अधिग्रहण कर इसे बड़ी लाइन में परिवर्तित किया गया। आज यह लाइन विशाल दक्षिण-पूर्वी रेलवे का एक हिस्सा है। सन् 1900 ई. तक राजनादगांव-दुर्ग-रायपुर और बिलासपुर बम्बई-कलकत्ता लाइन से जुड़ गये। धमतरी को भी छोटी लाइन द्वारा रायपुर से जोड़ा गया और फिर राजिम को भी छोटी लाइन से जोड़ा गया। रेल लाइनें अंग्रेजो द्वारा अपने लाभ की दृष्टि से निर्मित किये गये।

     रेल से सबसे महत्वपूर्ण लाभ अनाज एवं अन्य सामग्री के परिवहन में हुआ। रायपुर का व्यापारिक केन्द्र के रूप में विकास हुआ। छत्तीसगढ़ में रेल लाइन बिछाने का काम बंगाल-नागपुर रेलवे कंपनी द्वारा किया गया। यातायात सुलभ होने के कारण दूसरे अंचलों से लोग यहां आकर बसने लगे जिसके कारण यह क्षेत्र विविध सास्कृतिक तत्वों से पोषित हुआ। रेल के निर्माण ने छत्तीसगढ़ में क्रांति ला दी। दूरस्थ क्षेत्र आपस में जुड़ गये। दुर्भिक्ष से निपटने में रेल से महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त हुई।

संचार

     अंग्रेजों के आते ही प्रदेश में देश के अन्य हिस्सों की तरह संचार की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्य किया गया। यद्यपि अंग्रेजो ने व्यापारिक, प्रशासनिक एवं सम्राज्यवादी दृष्टिकोण से यहां इन सुविधाओं का विकास किया, तथापि इसका लाभ अचल के विकास में हुआ। इस काल में डाक-तार के क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रगति हुई। इससे संदेश भेजने का कार्य सुगम हो गया। डाकघर और टेलीफोन जनता की सुविधा के लिए उपयोगी सिद्ध हुए। टेलीफोन प्रणाली ने दूरी को समाप्त कर दूरस्थ क्षेत्र के लोगों से संपर्क को सुलभ बना दिया । बेतार के तार द्वारा विभिन्न स्थानों को संदेश भेजा जाने लगा। रेडियो के प्रचार के कारण विश्व के अनेक देशो से वह जुड गया। यातायात एवं सचार व्यवस्था की इस सुविधा के कारण छत्तीसगढ नवीन हलचल का केन्द्र बन गया।

कृषि-

     ब्रिटिश पूर्व काल में मराठों द्वारा कृषि की उन्नति हेतु कोई प्रयास नहीं किये गये। यहां कृषि कार्य परंपरागत पद्धति से होता था। प्रदेश की कर व्यवस्था त्रासदकारी थी जबकि अधिकांश लोगो की जीविका का आधार कृषि था। पैदावार की बिक्री का समुचित प्रबंध नहीं था। माल बाहर भेजने में यातायात की कठिनाई थी। कृषकों को साहूकारों से कृषि कार्य हेतु ऊंचे दर पर ब्याज लेना होता था । अंग्रेज अपने नियत्रण काल में ही यहां की समस्याओं को समझ चुके थे। पूर्ण सत्ता में आने पर अंग्रेजों ने प्राथमिकता के आधार पर कृषि सुधार आरंभ कर दिया। प्रांत में कृषि विभाग की स्थापना की गयी जिसका सर्वोच्च अधिकारी कृषि संचालक होता था। उसके अधीनस्थ अनेक सहायक अधिकारी एवं कर्मचारी होते थे। कृषि विभाग उन्नत बीज की व्यवस्था करता था। कृषि शिक्षा को प्रोत्साहित करने हेतु नागपुर में एक कृषि महाविद्यालय की स्थापना की गयी तथा रायपुर में एक कृषि प्रयोगशाला स्थापित की गयी। प्रत्येक जिले में बीज फार्म खोले गये जहां से किसानो को उन्नत बीज प्राप्त होने लगा। प्रथम बार बंदोबस्त का कार्य छत्तीसगढ़ में अंग्रेजों के द्वारा ही कराया गया। इसके द्वारा भूमि सुधार. उसकी माप एवं भूमिकर निर्धारण का कार्य संपन्न किया गया। बदोबस्त की अवधि 20 वर्ष की रखी गयी जिसके द्वारा किसानों के असंतोष को दूर करने का प्रयास किया गया। प्रत्येक 20 वर्ष बाद पुनर्विलोकन होता था। अंग्रेजों द्वारा की गई नवीन भूमि और राजस्व व्यवस्था के कारण कृषि कार्य को नवीन गति मिली। कराधान प्रणाली तर्कसंगत एवं न्यायपूर्ण थी। आपदा या दुर्भिक्ष के अवसर पर प्रशासन जनहित में सक्रिय हो जाती थी। लगान माफ कर राहत कार्य सभी क्षेत्रों में आरंभ कर दिये जाते थे।

सिंचाई-

     ब्रिटिश पूर्व काल में यहां सिंचाई की परंपरागत पद्धति प्रचलित थी जिसमे तालाब और कुओं से अल्प मात्रा में सिंचाई हो पाती थी। यहां नहरों का प्रबंध नहीं था। अंग्रेजी शासन काल में कृषि एवं आर्थिक विकास की दृष्टि से सिचाई के साधनों के विकास पर गंभीरता पूर्वक ध्यान दिया गया एवं इसके लिए पृथक सिंचाई विभाग की स्थापना की गयी। इस विभाग के द्वारा अनेक नहरो का निर्माण कर सिंचाई सुविधा का विस्तार किया गया। धमतरी मे रूद्री शीर्ष नहर (1912-15 ई.) एवं मूरूमसिल्ली (1923-25 ई.) महानदी पर और बालौद मे तादूला और सुखा नदियों के संगम पर दो बांध बना कर (1931 ई.) आदमाबाद नहर निकाली गई। बिलासपुर में खुडिया बांध मनियारी नदी में एवं खारंग जलाशय खूटाघाट आदि भी इसी काल में बनाये गये। इसके अतिरिक्त तालाबों का विस्तार, नवीन कुओं का निर्माण उसी काल में मरम्मत भी करवायी गयी। इसी प्रकार सिंचाई- सुविधा में वृद्धि कर छत्तीसगढ़ की हजारो एकड भूमि को कृषि योग्य बनाकर कृषि-उत्पादन में वृद्धि की गयी। इससे कृषि-प्रधान छत्तीसगढ़ का बड़ा लाभ हुआ और किसानो की स्थिति में पूर्वापेक्षया सुधार परिलक्षित हुआ। इस प्रकार ब्रिटिश शासन काल में यहा नवीन कृषि-पद्धति और सिंचाई-प्रणाली का सूत्रपात हुआ ।

वाणिज्य एवं उद्योग-

     तत्कालीन समय में भारत एक कृषि प्रधान देश था जबकि इंगलैंड मूलतः व्यापार प्रधान । अपने व्यापार के बल पर ही उसने दुनिया के एक विस्तृत भू-भाग में अपने उपनिवेश स्थापित कर लिये थे। भारत भी आलोच्य काल में इंग्लैंड का उपनिवेश ही था। अंग्रेजों की आर्थिक नीति उसके साम्राज्यवादी नीति का ही एक अंग थी। भारत में उसका उद्देश्य धनार्जन ही रहा है। व्यापार तथा उद्योग के माध्यम से इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने खुला छोड़ दो की नीति अपनाई तथा भारतीय कुटीर उद्योगों को पूर्णतः नष्ट कर दिया एवं आरंभ से अंत तक देश का आर्थिक शोषण ही किया। अपने उद्योगों के विकास के लिए उसने भारतीय व्यापार को नष्ट कर दिया। यहां से सोना, चादी एवं कच्चा लोहा इग्लैंड भेजा जाने लगा। इसके बावजूद अंग्रेजों की वाणिज्यिक प्रवृत्ति और औद्योगिक नीति के कारण देश में धीरे-धीरे नवीन उद्योगों और व्यवसायिक क्षेत्रों के अवसर उत्पन्न हुये जिसमें भारतीयों का प्रवेश आरंभ हुआ। छत्तीसगढ अंचल में सर्वप्रथम उद्योग राजनांदगांव में सी. पी. मिल्स के नाम से स्थापित हुआ। कपड़े का उत्पादन 1894 ई. में आरंभ हुआ। मिल के निर्माता बंबई के मि. जे.वी. मैकवेथ थे। 1897 ई. में मिल 'मेसर्स शावालीस कंपनी' कलकत्ता को बेच दी गयी जिसने उसका नाम बदल कर बंगाल-नागपुर काटन मिल्स' रखा जो नागपुर और कलकत्ता के मध्य स्थित था। रायगढ़ की 'मोहन जूट मिल (1935 ई.) दूसरी महत्वपूर्ण इकाई स्थापित हुई जो आज भी अचल की एक मात्र जूट मिल है। इसके कारण यहां के लोगों को कृषि के अतिरिक्त जीविका का नया साधन प्राप्त हुआ। छत्तीसगढ़ एक नवीन औद्योगिक संस्कृति के परिवेश में प्रविष्ट हुआ। अब लोग कृषि के साथ नौकरी पेशा हेतु भी तैयार होने लगे । क्षेत्र के आर्थिक और सामाजिक विकास का नया मार्ग प्रशस्त हुआ। छोटे उद्योगों की स्थापना के साथ शहरी आबादी में वृद्धि हुई।

खनिज-

     छत्तीसगढ के भू-गर्भ में विभिन्न प्रकार के खनिज जैसे लोहा, बॉक्साइट, कोयला, डोलोमाइट, चूना- पत्थर, अभ्रक, सोना, कोरडम, किम्बरलाइट, सीसा आदि खनिज प्रचुरता में हैं। अंग्रेजों ने इसका सर्वेक्षण आदि का कार्य अपने काल में कराया, किंतु यातायात के साधन के अभाव तथा वनो की अधिकता के कारण यहां खनन का कार्य आरंभ नहीं किया जा सका। उस समय खनिज माग की आपूर्ति अंग्रेज बंगाल, बिहार आदि के खानों से कर लेते थे। जहां उत्खनन कार्य छोटे पैमाने पर चल रहा था। छत्तीसगढ़ प्रांत में उत्खनन एवं दोहन का कार्य स्वातंत्रयोत्तर काल में ही आरंभ हो सका और भारी उद्योगों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ।

वन-

     मराठा काल में वनों का कोई व्यवस्थित प्रबंध नही किया जाता था। वनोपज आवश्यकतानुसार जमींदारों के माध्यम से प्राप्त किया जाता था। साथ ही वनोपज का व्यापार विकसित नहीं था। अंग्रेजी शासन काल में पृथक वन विभाग की स्थापना की गयी जिसका सर्वोच्च अधिकारी डिविजनल फारेस्ट आफिसर होता था जिसका मुख्यालय रायपुर था। छत्तीसगढ़ आरंभ से ही वन संपदा हेतु विख्यात रहा है। वनाधिक्य और विविध वनोपज एवं वन्य प्राणी यहां की विशेषता रही है। ये वन राजस्व वृद्धि के स्रोत रहे हैं। अतः सरकार ने इसके विकास में विशेष ध्यान दिया। इसके लिए वन महकमे में अनेक अधिकारियों एवं कर्मचारियों की नियुक्ति की गयी। सन् 1878 ई. में वन अधिकारियों को वन शिक्षा एवं प्रशिक्षण देने हेतु देहरादून में एक विद्यालय की स्थापना की गयी। सन् 1894 ई. में 'लार्ड एलिगन द्वितीय' के काल में प्रथम भारतीय वन नीति का निर्माण किया गया। विभाग द्वारा वन संरक्षण, वनवर्धन, इनके सीमांकन एवं व्यवस्थित विदोहन का कार्य प्रथम बार आरंभ किया गया। वन क्षेत्रो के प्रमाणिक मानचित्र का निर्माण भी किया गया। व्यवस्थित प्रबंध हेतु व्यवस्थित कार्य योजना बनाई जाती थी जो निर्धारित समय सीमा के बाद पुनरीक्षित की जाती थी । वन भूमि व्यवस्थापन का कार्य भी आरंभ किया गया। आज के व्यवस्थित वन प्रबंध का स्वरूप अंग्रेजों की ही देन है।

सार्वजनिक कल्याण-

     1854-55 ई. में जन सुविधा एवं उसके कल्याण हेतु ब्रिटिश शासन ने यहां सत्ता सम्हालते ही सार्वजनिक कल्याण विभाग की स्थापना की। इस विमाग द्वारा सडक, पुल, नहर. भवन आदि के निर्माण का कार्य यहां आरंभ किया गया। विभाग का सर्वोच्च अधिकारी संभागीय स्तर पर चीफ इंजीनियर होता था तथा जिले का प्रमुख अधिकारी एक्जीक्यूटिव होता था जो क्रमशः राजधानी रायपुर एवं जिला मुख्यालयों में पदस्थ होते थे। इनके अधीन अधीक्षण यंत्री, सहायकयंत्री, उपयंत्री आदि अमले पदस्थ होते थे। जो विभाग के निर्देशन में आवश्यकतानुसार निर्माण कार्य करते थे। अंचल के नवनिर्माण में इस विभाग का महत्वपूर्ण योगदान था। इसने यहां स्थापत्य की अग्रेजी शैली में भवनों का निर्माण किया। इस विभाग के कार्यों की गुणवत्ता उस काल के भवनों, सेतुओं को देखकर पता लगता है जो आज भी सुरक्षित विद्यमान है।

स्थानीय संस्थायें-

     लार्ड रिपन (1880-84 ई.) ब्रिटिश प्रशासकों में सबसे उदार एवं जनहितैषी व्यक्ति थे। ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन का आरंभ उन्हीं के द्वारा किया गया। इसके अंतर्गत नगर और जिला स्तरों में स्थानीय निकायें गठित की गयीं जिसमें सीमित क्षेत्रों में इन निकायों को अधिकार सौंपे गये। इसके लिए 1885 ई. में जिला परिषदों का गठन जिला स्तर पर तथा बड़े शहरों में नगर पालिकाओं का गठन किया गया। इसके तहत दोनों स्थानीय संस्थाएं क्रमशः ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों मे प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रकाश, सडक आदि कार्यों की देखभाल करती थीं। छोटे स्थानों में 'नोटीफाइड एरिया' का गठन किया गया। इसी तरह सहकारी बैंक का भी गठन किया गया, जिसका कार्य कम ब्याज पर किसानों को ऋण उपलब्ध कराना था। अधिकारीगण व्यवस्था और निरीक्षण की दृष्टि से दौरा किया करते थे। रायपुर एवं बिलासपुर में जिला परिषद का गठन किया गया। साथ ही रायपुर, बिलासपुर में नगर पालिकायें भी बनीं। जिला परिषदों द्वारा ग्रामीण शालाओं का प्रबंध एवं स्वास्थ्य आदि विषय जिला परिषदों द्वारा देखे जाते थे।
शिक्षा-

     मराठा काल में छत्तीसगढ़ में शिक्षा व्यवस्था का कोई संगठित प्रबंध नहीं था। इस क्षेत्र में शिक्षा का प्रसार अल्प था। अंग्रेजी सत्ता की स्थापना के बाद इस दिशा में एक व्यवस्थित प्रयास आरंभ हुआ। हिन्दी के साथ अंग्रेजी को भी शिक्षा का माध्यम बनाया गया। अंग्रेजों द्वारा सामुदायिक शिक्षा आरंभ की गयी। इसके लिए विद्यालयों की स्थापना की गयी। साथ ही शासन द्वारा कन्याशालाओं की पृथक स्थापना की गयी। 1864 ई. में रायपुर जिले में स्कूलों की संख्या 58 थी जो 1897 ई. में बढ़ कर 98 हो गयी। स्थानीय शासन एवं निजी संस्थाओं जैसे मिशन आदि द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किये गये । डलहौजी और कर्जन के कालों के मध्य शिक्षा में उल्लेखनीय प्रयास हुये जिसका प्रभाव छत्तीसगढ़ में भी पड़ा। इस अंचल में उच्च शिक्षा का आरंभ अपेक्षाकृत विलंब से हुआ। इसके पूर्व माध्यमिक शिक्षा के अंतर्गत काफी कार्य हुआ। 20वी शताब्दी के आरभ में राष्ट्रीय शिक्षा की नीति पर बल दिया गया। 1910 ई. में स्वतंत्र शिक्षा विभाग की स्थापना हुई और इसे प्रांतीय शासन के अधीन किया गया। प्राथमिक शिक्षा का दायित्व जिला परिषद व नगर पालिकाओं को सौंपा गया। रायपुर इस समय अंचल में शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन गया। रायपुर में राजकुमार कॉलेज की स्थापना 1893 ई. में हुयी जहां रियासतों, जमींदारों एवं धनाड्य वर्ग के छात्र अध्ययन करते थे। 1907 ई. में सालेम् कन्याशाला अंग्रेजी माध्यम से आरंभ हुयी। 1911 ई. में सेंटपाल स्कूल खुला। 1913 ई. में लॉरी स्कूल आरंभ किया गया तथा 1925 ई. में कालीबाड़ी संस्था की नींव डाली गयी। अमेरिकन मेनोनाईट मिशन द्वारा रायपुर और धमतरी में शिक्षण संस्थायें आरंभ की गयी।

     असहयोग आंदोलन के दौरान रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की गई। इसके लिए भवन सेठ गोपीकिशन, बालकिशन एवं रामकिशन ने दिया। इसका संचालन वामन राव लाखे ने किया। यह विद्यालय आज भी कार्यरत है। 1937 ई. में प्रथम निर्वाचित प्रांतीय सरकार मध्यप्रांत में स्थापित हुई, जिसमें प्रथम मुख्यमंत्री श्री एन. जी. खरे हुये तथा शिक्षा मंत्री पं. रविशंकर शुक्ल बनाये गये। इस पद पर रहकर उन्होंने 'विद्यामंदिर योजना' आरंभ की, जिसमें प्राथमिक शिक्षा को स्वावलंबी बनाने की व्यवस्था की गई। यह गांधीजी के वर्धा शिक्षा योजना से मिलती-जुलती थी जिसमें गाधीजी ने व्यवहारिक शिक्षा पर बल दिया था। उच्च शिक्षा संबंधी गतिविधियां छत्तीसगढ़ में अत्यंत विलंब से आरंभ हुई। मध्यप्रात में सर्वप्रथम नागपुर विश्वविद्यालय की स्थापना 1923 ई. में हुई तब यहां के छात्रों को नागपुर जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ जबकि प्रांत में दूसरा सागर विश्वविद्यालय 1946 ई. में स्थापित हुआ। काफी संघर्ष के पश्चात् 1937 ई. में छत्तीसगढ़ शिक्षण समिति की स्थापना रायपुर में ठाकुर प्यारेलाल सिंह की अध्यक्षता में की गयी। अंचल में प्रथम बार उच्च शिक्षा की दिशा में ऐतिहासिक प्रयास वर्ष 1938 ई. में रायपुर में छत्तीसगढ़ महाविद्यालय की स्थापना के साथ हुआ, जो स्व. ज. योगानंदम् के द्वारा स्थापित की गई। 16 जुलाई, 1938 ई. में स्थापित इस संस्था के प्रथम प्राचार्य योगानंदम् जी स्वयं बने। नागपुर विश्वविद्यालय से इसकी स्वीकृति हेतु छत्तीसगढ शिक्षण समिति ने महत्वपूर्ण कार्य किया। अंचल की प्रतिभाओं को उच्च शिक्षा का अवसर रायपुर में ही प्राप्त होने लगा। इसके पूर्व कुछ साधन संपन्न विद्यार्थी ही नागपुर, इलाहाबाद और बनारस आदि स्थानों में उच्च शिक्षा हेतु जा पाते थे। यह महाविद्यालय संपूर्ण अंचल के लिए एक वरदान साबित हुआ।

      इस समय बिलासपुर जिले में जिला परिषद् द्वारा लगभग 200 शालायें संचालित होती थीं तथा कुछ नगर पालिकाओं द्वारा चलाई जाती थीं। वर्तमान शास्त्री स्कूल, गवर्नमेन्ट स्कूल, देवकीनंदन कन्या शाला एवं मिशन द्वारा चलाये जाने वाले नार्मन स्कूल एवं बर्जेश स्कूल (1885 ई. में चिंतन गृह के नाम से प्रारंभ) आदि इस काल में स्थापित महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थायें हैं। असहयोग आंदोलन के समय कार्यक्रम के अंतर्गत छात्रों ने सरकारी स्कूलों का त्याग कर दिया अतः छात्रों के अध्ययन हेतु राष्ट्रीय विद्यालय बद्रीनाथ साव के मकान में खोला गया जिसका संचालन पं. शिवदुलारे मिश्र करते थे तथा बाबू यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव यहां अध्यापन करते थे। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एस. बी. आर. (शिव भगवान रामेश्वर लाल) महाविद्यालय ने बिलासपुर में उल्लेखनीय कार्य किया जिसकी स्थापना 'महाकोशल शिक्षण समिति द्वारा 1944 ई. में की गयी थी।

     दुर्ग जिले में भी शिक्षा का कार्य व्यवस्थित रूप से होने लगा। धमतरी में असहयोग आंदोलन के दौरान बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव ने 1921 ई. में अपने स्वयं के मकान में राष्ट्रीय विद्यालय स्वयं के व्यय पर खोल दिया। इस समय समाज में शिक्षकों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।

     अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण यहां ब्रिटिश संस्कृति का प्रसार होने लगा जिससे मूल्यों में परिवर्तन हुये एवं जन जागृति के साथ यहां राष्ट्रीय आंदोलन ने जोर पकड़ा। छत्तीसगढ़ में नव जागरण उत्पन्न करने का श्रेय अंग्रेजी शिक्षा को जाता है। इससे क्षेत्रीय लोगों में प्रगतिशीलता उत्पन्न हुई। जीवन के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण ने जन्म लिया। परपरावाद, अंधविश्वास एवं भाग्यवाद के संकुचित दायरे से आगे निकल कर यहां के लोग शेष भारत की तरह समानता प्रगतिवाद, तर्क एवं विज्ञानवाद की ओर आकृष्ट हुये । भाग्य पर अत्याधिक भरोसा कर्म से पलायन की प्रवृत्ति अब समाप्त होने लगी एवं क्रियाशीलता के गुणों का प्रादुर्भाव होने लगा।
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