छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास (1741-1947 ई.)
छत्तीसगढ़ में मराठा आक्रमण व उसका प्रभाव
कल्चुरियों का पतन एवं मराठा शासन की स्थापना: 1741-1818 ई.
भोंसला आक्रमण के समय हैहय् शासन की दशा - छत्तीसगढ़ में कल्चुरियों के शासन का स्वरूप केन्द्रीय था,किंतु केंद्र में योग्य व चरित्रवान नेतृत्व की अनुपस्थिति के कारण यह इस समय नियंत्रणहीन हो गया था । आरंभिक हैहय शासक योग्य थे,किंतु 19 वीं शताब्दी के प्रथमार्ध तक उनका गौरव विलुप्त हो चुका था व इस समय मात्र के थे । उनमें न तो योग्यता थी,न दृढ़ आत्मबल । इस समय रतनपुर व रायपुर शाखा के तत्कालीन शासकों क्रमशः रघुनाथ सिंह व अमरसिंह नितांत शक्तिहीन थे एवं उनमें महत्वाकांक्षा का अभाव था जिससे हैहय शासन की दशा अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी । हैहय राज्य की सेना भी निकम्मी हो चुकी थी और उसका संगठन दोष पूर्ण था । केन्द्र में दृढ़ सेना का अभाव था एवं सेना की अलग - अलग टुकड़ियों में भिन्न अधिकारियों द्वारा भर्ती की जाती थी जिस पर उन्हीं का नियंत्रण होता था । दुर्बल केन्द्र का सेना पर नियंत्रण समाप्त हो चुका था ।
हैहय् सरकार आर्थिक दृष्टि से दिवालिया हो गयी थी । जनता पर कर का भार अधिक था । कृषि की बिगड़ी दशा के कारण आय कम हो गई थी एवं आर्थिक विपन्नता सरकार के समक्ष एक गंभीर चुनौती थी । भोंसला आक्रमण के समय राज्य के शासकों व अधिकारियों के अलग - अलग क्षेत्र बन गये थे । जेनकिन्स के अनुसार - राज्य के अधिकांश भागों का विभाजन राज परिवार के सदस्यों व अधिकारियों के बीच हो गया था जिसमें केन्द्रीय शक्ति कमजोर हो गयी थी व अधिकारी विद्रोह कर अपनी शक्ति कायम कर रहे थे । ऐसी स्थिति में ऐसा कोई योग्य नेतृत्व न था जो राज्य में जीवन शक्ति का संचार करता व मराठा आक्रमण का सुविचारित योजना अनुसार सामना करता । स्पष्टतः हैहय् शासित छत्तीसगढ़ भोंसलों के आधिपत्य हेतु खुला था ।
भोंसला आक्रमण, 1741 ई. - सन् 1741 ईसवी छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण परिवर्तन का काल माना जाता है । पतन के कगार पर पहुंच चुके हैहय शासन का लाभ उठाकर नागपुर के भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने अपने उड़ीसा अभियान के मार्ग पर रतनपुर राज्य पर 30 हजार सैनिकों के साथ आक्रमण कर दिया । रतनपुर के शासक -60 वर्षीय रघुनाथ सिंह इस समय अपने एक मात्र पुत्र के मृत्यु शोक से पीड़ित थे व भोंसला सेना का सामना करना आर्थिक व सैनिक दृष्टि से इनके लिये संभव नहीं था । अतः भास्कर पंत ने रघुनाथ सिंह के साथ व्यक्तिगत नरमी बरती,किंतु राजधानी रतनपुर के निवासियों पर एक लाख रुपये का जुर्माना किया व राजकोश का धन लूट लिया,साथ ही भोंसला शासक के प्रतिनिधि के रूप में रघुनाथ सिंह को शासन करने का अधिकार दिया,किन्तु मराठा हित को ध्यान में रखते हुये उसने कुली नगीर नामक व्यक्ति को दरबार में नियुक्त किया । सन् 1745 रघुनाथ सिंह की मृत्यु हो गयी । इनके स्थान पर मोहन सिंह नामक व्यक्ति को राज्य का नया शासक नियुक्त किया गया । यह व्यक्ति मृत्युपर्यन्त सन् 1758 ईसवी तक शासन करता रहा । किन्तु इसके बाद भोंसला शासक ने अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया व रघुजी प्रथम के पुत्र बिम्बा जी भोंसला रतनपुर राज्य का प्रथम मराठा शासक बना ।
रायपुर शाखा की स्थिति - भास्कर पंत के आक्रमण के समय यहां अमर सिंह शासन कर रहा था,इसने मराठों के विरूद्व कोई कार्यवाही नहीं की । अतः भोंसलों ने 1750 ई . में उसे भी शासन से पृथक् कर दिया एवं जीविका हेतु उसे राजिम,रायपुर व पाटन के परगने 7000 रुपये वार्षिक भेंट के एवज में प्रदान किया । सन् 1753 में अमर सिंह की मृत्यु हो गयी व उसका पुत्र शिवराज सिंह राज्य का उत्तराधिकारी बना,किन्तु भोंसलों ने उत्तराधिकार में प्राप्त उनकी जागीर छीन ली व अंततः 1757 ई . में यहां भी भोंसलों ने अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित कर लिया । शिवराज सिंह को परवरिश हेतु करमुक्त पांच गांव दिये गये ।
इस प्रकार बड़े ही अपमानजनक ढंग से रतनपुर राज्य से हैहय वंश का शासन समाप्त कर दिया गया । छत्तीसगढ़ में मराठों का आधिपत्य स्थापित हुआ जो लगभग 100 वर्षों तक चला । इस अवधि में यहां की नीतियां भोंसला मुख्यालय नागपुर से तय होती रहीं ।
छत्तीसगढ़ का प्रथम मराठा शासक बिम्बा जी: (1758-1787 ई .)
नागपुर के शासक द्वारा रतनपुर में प्रत्यक्ष शासन हेतु भोंसला राजकुमार बिम्बा जी भोंसला को नियुक्त किया गया । यद्यपि यह नागपुर के राजा के सहायक के रूप में यहां नियुक्त किया गया था तथापि उसने परिस्थितियों का लाभ उठाकर स्वतंत्रतापूर्वक शासन आरंभ कर दिया । बिम्बा जी लोकप्रिय शासक सिद्ध हुआ । उसने शासन व्यवस्था में सुधार के प्रयास किये,न्याय संबंधी सुविधाओं हेतु उनके द्वारा रतनपुर में नियमित न्यायालय की स्थापना की गई एवं राजस्व की स्थिति को व्यवस्थित किया । उन्होंने राजस्व संबंधी लेखा तैयार करने की मराठा पद्धति को आरंभ किया । वे यहां परगना पद्धति के सूत्रधार थे । उन्होंने कुछ नये कर भी लगाये । अपने काल में इन्होंने राजनांदगांव व खुज्जी नामक दो नयी जमींदारियों का निर्माण किया व धर्म - परायणता का परिचय देते हुये उसने रतनपुर के पहाड़ी टीले पर भव्य राम मंदिर का निर्माण करवाया जो आज भी विद्यमान है व ' रामटेकरी के नाम से प्रसिद्ध है । बिम्बा जी द्वारा ही विजयादशमी पर्व पर स्वर्ण पत्र देने की प्रथा यहां आरंभ की गई । बिम्बा जी के प्रशासनिक कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण थे,कलचुरियों के समय रतनपुर व रायपुर दो पृथक् इकाई के रूप में कार्य करती थीं,किंतु बिम्बा जी ने इन्हें प्रशासनिक दृष्टि से एक कर छत्तीसगढ़ राज्य की संज्ञा प्रदान की । उन्होंने यहां मराठी,मोड़ी व उर्दू भाषा का प्रयोग करवाया । वे राजस्व का कोई भी हिस्सा नागपुर नहीं भेजते थे । इनकी एक पृथक स्वतंत्र सेना थी एवं वे राजा की भाँति स्वतंत्र दरबार का आयोजन करते थे,जमींदारों से होने वाले संधि पत्र पर वे स्वयं हस्ताक्षर करते थे जिसकी पुष्टि नागपुर दरबार से करना आवश्यक नहीं था ।
इनके शासन काल में यहां भवन निर्माण,कला,संगीत एवं साहित्य का विकास हुआ । रायपुर का प्रसिद्ध दुधाधारी मंदिर उनके सहयोग से ही बनवाया गया था । बिम्बा जी में सैनिक गुणों का अभाव था अतः उन्होंने साम्राज्य विस्तार का प्रयास नहीं किया । इन्होंने अपने शासन में धार्मिक कट्टरता का परिचय नहीं दिया । इनके साथ ही मराठा व मुसलमान छत्तीसगढ़ में आये । दिसंबर 1787 में इनकी मृत्यु हो गई । इस अवसर पर इनकी पत्नी उमा बाई सती हुई थी । बिम्बा जी की मृत्यु पर रतनपुर की जनता शोक में डूब गई थीं । यूरोपीय यात्री कोलबुक जिन्होंने छत्तीसगढ़ की भी यात्रा की थी,ने लिखा है- " बिम्बा जी की मृत्यु से छत्तीसगढ़ को सदमा पहुंचा था क्योंकि उसका शासन जनहितकारी था । वह जनता का शुभचिंतक व उनके प्रति सहानुभूति रखने वाला था । "
व्यंको जी भोंसला (1787-1815 ई.)
बिम्बा जी की मृत्यु के पश्चात् भोंसला राजकुमार व्यंको जी को छत्तीसगढ़ का राज्य प्राप्त हुआ । उसने छत्तीसगढ़ के शासन संचालन में सर्वथा एक नवीन नीति आरंभ की व राजधानी रतनपुर में रहकर पूर्व की भाँति प्रत्यक्ष शासन करने की अपेक्षा नागपुर में ही रहकर शासन संचालन का निश्चय किया । उसकी इस नीति का परिणाम यह हुआ कि नागपुर छत्तीसगढ़ की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया व रतनपुर का राजनीतिक वैभव धूमिल होने लगा । व्यंको जी यहां का शासन सूबेदारों के माध्यम से चलाने लगे । यहीं से छत्तीसगढ़ में सूबेदारी पद्धति ' अथवा सूबा शासन का सूत्रपात हुआ
भोंसला राजकुमार के प्रतिनिधि के रूप में सूबेदार रतनपुर में रहकर छत्तीसगढ़ में शासन करने लगे । यह पद्धति 1818 ई.,जब छत्तीसगढ़ ब्रिटिश नियंत्रण में आ गया,तक विद्यमान रह,अपने कार्यकाल के दौरान व्यंकोजी का केवल तीन बार रतनपुर आगमन हुआ, किंतु उन्होंने यहां के शासन में व्यक्तिगत रुचि नहीं ली । ये स्वयं को कभी भी नागपुर की राजनीति से अलग नहीं कर सके और सत्ता संघर्ष में लीन रहे जो मराठा शासन व्यवस्था की आम विशेषता थी ।
सूबा शासन का स्वरूप (1787-1818 ई.) - छत्तीसगढ़ में स्थापित यह सूबाशासन प्रणाली मराठों की उप निवेशवादी नीति का अंग थी. जिसे सूबा सरकार की संज्ञा प्रदान की गई । इसके जनक भोंसला राजकुमार व्यको जी थे । सूबेदार मुख्यालय रतनपुर में रहकर संपूर्ण क्षेत्र का शासन संचालन करता था । इस तरह मराठे छत्तीसगढ़ का शासन संचालन सूबेदारों को सौंपकर निश्चित हो गये ।
सूबेदारों की नियुक्ति - यह पद न तो स्थाई था नहीं वंशानुगत । उनकी नियुक्ति ठेकेदारी प्रथा के अनुसार होती थी । जो व्यक्ति छत्तीसगढ़ से सर्वाधिक राशि वसूल कर नागपुर भेजने का वादा करता था,वह सूबेदार नियुक्त कर दिया जाता था । इस पद पर नियुक्त व्यक्ति की प्रतिभा व कार्यकुशलता पर कोई विचार नहीं होता था । स्पष्टतः सूबेदार जनहित की उपेक्षा कर व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से अधिकाधिक राशि वसूल कर नागपुर भेजना चाहते थे सूबेदार वर्ष में एक निश्चित धन राशि पटाने के लिये जिम्मेदार होता था इसलिये उसके आय - व्यय के आंकड़ों की जाँच की व्यवस्था नहीं थी । ये सूबेदार अपने पद पर बने रहने की आकांक्षा से कम से कम समय में अधिक आर्थिक लाभ अर्जित करने की चेष्टा करते थे । इस प्रकार जनहित कार्यों की उपेक्षा एवं शोषण का पर्याय था सूबा शासन ।
पदस्थ विभिन्न सूबेदार
महीपत राव दिनकर - ये छत्तीसगढ़ के प्रथम सूबेदार नियुक्त हुये, किंतु इसके समय शासन की समस्त शक्तियां बिम्बा जी की विधवा ' आन्नदी बाई के हाथों केन्द्रित थी । इस प्रकार आरंभ से ही सत्ता संघर्ष चलने लगा जिसका खामियाजा छत्तीसगढ़ की जनता को भुगतना पड़ा । इसके काल में फारेस्टर नामक एक यूरोपीय यात्री छत्तीसगढ़ आया था जिसने सूबाशासन के संबंध में प्रकाश डाला है । यह यात्री 17 मई. 1790 दिन सोमवार को रायपुर पहुंचा था । इसने लिखा है कि राज्य का राजस्व ( 3 लाख ) बिम्बाजी के समय से आधी रह गई थी । इस यात्री ने रायपुर के विषय में लिखा है- “ रायपुर एक बड़ा शहर है जहां अनेक व्यापारी एवं धनी व्यक्ति निवास करते हैं । यहां एक किला है जिसके चारों ओर एक खाई के रूप में सुंदर तालाब है । जिस तालाब का उल्लेख किया गया है उसे बूढा तालाब के नाम से जाना जाता है । इसने आगे लिखा है- " सामान्यतः रतनपुर राज्य एक सुंदर प्रदेश है । यहां की भूमि उपजाऊ है । यहां भारी मात्रा में चावल का उत्पादन होता है ।
"विठ्ठलराव दिनकर - ये इस क्षेत्र के दूसरे सूबेदार नियुक्त हुये । इनके शासन काल का विशेष महत्व है । छत्तीसगढ़ की राजस्व व्यवस्था में कुछ परिवर्तन कर इन्होंने इसे व्यवस्थित करने का प्रयास किया । इनके द्वारा स्थापित नवीन व्यवस्था को परगना पद्धति के नाम से जाना गया ।
परगना पद्धति - यह व्यवस्था 1790 ई. से 1818 ई. तक चलती रही । प्राचीन प्रशासनिक इकाई गढ़ों को समाप्त कर समस्त छत्तीसगढ़ को परगनों में विभाजित किया गया और | पुराने दीवानों और दाउओं के स्थान पर परगनों में कमाविंसदार. फड़नवीस,बड़कर आदि नवीन अधिकारियों को पदस्थ किया गया ग्राम गोंटिया का पद यथावत् बना रहा । इस व्यवस्था के राजस्व को दो भागों में विभाजित किया गया- (1) भूमि | (2) अतिरिक्त कर (जो बाद में लगाया जाता था) । यह व्यवस्था नागपुर राज्य में प्रचलित व्यवस्था के अनुरूप थी । इसमें राजस्व निर्धारण एवं वसूली आदि कार्य हेतु राज्य को निश्चित परगनों में विभाजित कर दिया गया था जिससे राजस्व व्यवस्था में कुछ कसावट जरूर आयी थी ।
सूबा शासन के दौरान नागपुर से भेजे गये
सूबेदार काल क्रमानुसार निम्न थे
(1) महीपालराव दिनकर
(2) विट्ठल दिनकर
(3) भवानी कालू
(4) केशव गोविंद गया
(5) (अ) विकोजी पिंड्री
(ब) दीरो कुल्ललकर अनुसार
(6) बीकाजी गोपाल
(7) (अ) सरकार हरि कर
(ब) सीताराम टांटिया
(8) यादवराव दिवाकर
इनके काल में एक दूसरे यूरोपीय यात्री केप्टन ब्लंट ' का 13 मई, 1795 ई . को रतनपुर आगमन हुआ । इन्होंने लिखा है- " रतनपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी थी जहां मराठा सूबेदार निवास करता था । अतः मैंने यह उम्मीद की थी,यह एक बड़ा शहर होगा,किंतु आशा के विपरीत यह एक बिखरता हुआ ग्राम प्रतीत हुआ,वहां लगभग 1000 झोपड़ियां थीं व सूबेदार का मकान साधारण था ।
"इस यात्री के वर्णन से स्पष्ट है कि रतनपुर हैहय् कालीन गौरव खो चुका था व नवीन शासन उसके विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा था । मि. ब्लंट 31 मार्च, 1795 को रायपुर पहुंचे । इन्होंने लिखा है- " व्यापार एवं आबादी की दृष्टि से रायपुर एक बड़ा शहर प्रतीत हुआ, वहां लगभग 3000 मकान थे । इससे यह पता चलता है कि रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी न होते हुये भी एक बड़ा शहर था । रायपुर के महत्त्व को समझते हुये ही अंग्रेजों ने इसे अपने शासन काल में राजधानी बनाया ।
सूबेदार केशव गोविंद - विट्ठल राव के पश्चात् भवानी कालू नामक तीसरा सूबेदार नियुक्त हुआ जिसका कार्यकाल अल्पकालीन था । इसके बाद केशव गोविंद नियुक्त हुआ । वह एक योग्य प्रशासक था एवं वह लंबी अवधि तक छत्तीसगढ़ का सूबेदार रहा । कुछ विशेष राजनीतिक घटनाओं के कारण इसका कार्यकाल महत्त्वपूर्ण रहा । इसके काल की परिस्थितियों का चित्रण एक यूरोपीय यात्री कोलबुक ने किया है । वह लिखता है- “ सम्बलपुर का शासक नाम मात्र के लिये मराठों की अधीनता स्वीकार कर एक निश्चित राशि कर टकोली के रूप में पटाता था । रतनपुर के निवासी धार्मिक वृत्ति के हैं, यहां अनेक मंदिर हैं । रतनपुर के आसपास गेहूं, धान एवं गन्ने की खेती होती है । यहां इन फसलों की अच्छी उपज होती है । "
छत्तीसगढ़ का अनाज सड़क मार्ग से नागपुर भेजा जाता था । यहां अनाज बहुत सस्ता था, किंतु यातायात की कठिनाई के कारण इसे अन्यत्र ले जाना अत्यंत व्ययपूर्ण था । अतः किसानों को अपने ही गांवों में अनाज बेचना पड़ता या । व्यापारी किसानों को अधिक मूल्य नहीं देते थे ।
केशव गोविंद के काल की महत्त्वपूर्ण घटनाएं सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ के आसपास पिंडारियों की गतिविधियों का आरंभ, सरगुजा व छोटा नागपुर के मध्य सीमा विवाद का उठना, आदि हैं ।
सूबेदार बीकाजी गोपाल - इसका काल यहां के राजनीतिक इतिहास में विशेष महत्त्व का रहा । इस काल में राजनीतिक घटना बड़ी तीव्रता के साथ घटित हुई,जिसमें प्रमुख हैं- पिंडारियों का छत्तीसगढ़ में उपद्रव,छत्तीसगढ़ के भोंसला राजकुम्पार व्यंकोजी की मृत्यु व उनके स्थान पर अप्पाजी को छत्तीसगढ़ का वायसराय बनाया जाना,रघुजी द्वितीय ( राजा ) की मृत्यु और उनके बाद अंग्रेजों से सहायक संधि का होना तथा परसो जी की आकस्मिक मृत्यु आदि ने नागपुर के साथ - साथ छत्तीसगढ़ की राजनीति को बहुत तेजी से प्रभावित किया । एक अन्य घटना जो दूरगामी प्रभाव की हुई,का आरंभ भी इसी समय हुआ । वह थी - छोटा नागपुर व सरगुजा जमींदारी के बीच सीमा संबंधी विवाद तथा इनमें उच्चाधिकार के प्रश्न को लेकर वहां के स्थानापन्न शासकों के मध्य आपसी संघर्ष एवं इस संघर्ष में संलग्न पक्षों को मराठा व अंग्रेजों का समर्थन । इन घटनाओं से उत्पन्न उथल - पुथल की स्थिति के कारण बीकाजी गोपाल के काल में कोई रचनात्मक कार्य नहीं हो सका ।
वायसराय अप्पासाहब व अन्य सूबेदार - व्यंकोजी की मृत्यु के पश्चात् अप्पासाहब छत्तीसगढ़ के वायसराय बने .। ये नितांत लोभी एवं स्वार्थी प्रवृत्ति के थे । उन्होंने छत्तीसगढ़ के सूबेदार से अत्यधिक धन की मांग की एवं सूबेदार की असमर्थता पर उसे पदच्युत कर दिया । इसके बाद छत्तीसगढ़ में एक के बाद दूसरे सूबेदारों की नियुक्ति हुई । अल्पावधि में ही नियुक्त हुये सखाराम हरी,सीताराम टांटिया व यादवराव दिवाकर ऐसे ही सूबेदार थे । सूबेदारों का यह परिवर्तन भोंसला शासन की तत्कालीन अस्थिरता का परिचायक थी । स्पष्टतः भोंसला शासक छत्तीसगढ़ से मनमाना धन प्राप्त करना चाहते थे । छत्तीसगढ़ में सूबा शासन के दौरान यहां के अंतिम सूबेदार यादवराव दिवाकर थे । जून 1818 से छत्तीसगढ़ ब्रिटिश नियंत्रण में आ गया, ( 31 मई 1818 को रेजीडेंट जेनकिन की घोषणा के अनुसार ) और सूबा शासन स्वयं समाप्त हो गया । 1830 के बाद पुनः 1830-1854 के मराठा आधिपत्य के दौरान सूबेदारी पद्धति प्रचलित रही ।
सूबा शासन का मूल्यांकन - छत्तीसगढ़ में सूबाशासन का संस्थापक व्यंकोजी को माना जाता है । सूबेदारी पद्धति व्यंकोजी की जानबूझकर की गई बड़ी भूल थी जिसका खामियाजा छत्तीसगढ़ की जनता को भुगतना पड़ा । व्यंकोजी नागपुर के सत्ता संघर्ष में लिप्त रहे व अपने लंबे कार्यकाल में इनका केवल तीन बार ही छत्तीसगढ़ आगमन हुआ । तीसरे व अंतिम वायसराय अप्पासाहब तो अत्यंत ही धन लोभी व्यक्ति थे । अपने कार्यकाल में अंतिम दोनों वायसराय नागपुर की गद्दी प्राप्त करने हेतु जोड़ - तोड़ में व्यस्त रहे । पदस्थ सूबेदारों ने अपने निजी स्वार्थ पूर्ति को सर्वोपरि माना एवं जनकल्याण और विकास की अपेक्षा करते हुये केवल धन संचय व सूबेदारी के बचाव में लगे रहे । इसका परिणाम यह हुआ कि सूबाशासन काल आतंक,अराजकता, अस्थिरता व अनिश्चितता का काल बन गया । इस शासन का स्वरूप ही इस प्रकार का था कि उससे जनकल्याण की अपेक्षा व्यर्थ थी । फलस्वरूप कृषि की दशा दयनीय हो गई,अनेक गांव वीरान हो गये,लोगों की कठिनाइयाँ बढ़ी, किंतु मराठा सूबेदारों ने स्थिति एवं व्यवस्था में सुधार हेतु कोई कदम नहीं उठाया । इस काल में जमा राजस्व भी बिंबाजी के काल से आधा ही रह गया था । नागपुर दरबार में व्याप्त सत्ता संघर्ष व भ्रष्टाचार का प्रभाव यहां भी पड़ा जिससे सूबेदार व उसके अधीनस्थ संपूर्ण काल में भ्रष्टाचार एवं शोषण के पर्याय बने रहे ।
सूबा शासन की वास्तविक स्थिति का ज्ञान यूरोपीय यात्रियों फारस्टेर, ब्लंट, कोलबुक आदि के वृतांत से भी प्राप्त होते हैं । इन यात्रियों के वर्णन से प्रतीत होता है कि छत्तीसगढ़ को धन के बदले में बेच दिया जाता था ।