छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था
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कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था



कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था

महाकोसल में अपना स्थापित करने के पश्चात कलचुरियों ने जो शासन गवस्था प्रचलित आर में छत्तीसगढ शाखा में उसी के अनुरूप व्यवस्था स्थापित हुई . किन्तु कालांतर में त्रिपुरी रोधक होने के रत्नपुर के शासको स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार शासन व्यवस्था विकसित की । कल्याण सायल सोल्हवी नदी के मध्य की खास्तिका को आधार मान कर श्री विशम् ने 1868. कलचुरि शासन प्रबंध पर लेख लिखा है जिससे कलचुरि कालीन प्रशासनिक एवं राजस्व अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पडता है । छत्तीसगढ में मध्यकालीन शासन प्रबंध को जानने हेतु कलचुरियो शासन व्यवस्था पर चर्चा आवश्यक है । अतः सक्षेप में कलचुरि शासन व्यवस्था की विवेचना की जा रही है ।

कलचुरि शासन प्रबंध

प्रशासनिक व्यवस्था - कलचुरि कालीन छत्तीसगढ राजतंत्रीय शासन पद्धति प्रचलित थी । करधुरि राजा धर्म . पालक , प्रजावपाल एवं लोकहितकारी शासक होते थे । शासन प्रबंध हेतु राजा मंत्रियों व अन्य अधिकारियो नियुक्ति करता था । कलचुरि अभिलेखो से ज्ञात होता है कि राज्य अनेक प्रशासनिक इकाइयों - राष्ट्र ( संभाग विषय ( जिला ) , देश या जनपद वर्तमान तहसीलों की तरह ) मंडल ( वर्तमान खण्ड की तरह ) में विभक्त था विषय का  उल्लेख रत्नदेव द्वितीय के शिवरीनायाग तामपत्र में केवल एक बार ) , देश का पृथ्वीदेव द्वितीय के शिलालेख 7 देशो ( जनपदों - मध्यदेश बडहर भट्टटविल . भमरवद काकरय समनालय विट्रादेश का तथा मंडलों का उल्लेख जैसे - अपर मंडल एवडि कोमो जैपुर तणहारि मध्य व सामत मंडल आदि विभिन्न कलचुरि अभिलेखों में मिला । कितु इन सभी प्रशासनिक इकाइयों के समय में निश्चित तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि सीधे कलचुरियो के प्रशासनिक नियंत्रण में या अभिसत्ता मात्र स्वीकार करते थे । मंडल का अधिकारी मा  माडलिक तथा उससे बडा महामंडलेश्वर ( एक लाखा गा्मों का स्वामी ) कहलाता था । इसके अलावा इनके करद सामतों की संख्या दिन - दिन बढ़ती जा रही थी ।

कलचुरि शासन व्यवस्था का विश्लेषण करने से विदित होता है कि - संपूर्ण राज्य प्रशासनिक शक्ति लिए गढ़ों में ( वैसे 84 ग्रामों का एक गढ़ होता था . किंतु संख्या अधिक होती थी ) तथा गड तालुका या बरहो ( बरह ग्रामों का समूह ) विभाजित होता था शासन की न्यूनतम इकाई ग्राम भी गाधिपति को दीवान , तालुकाधिपति को दाउ तथा ग्राम प्रमख को गोटिया कहा जाता था । प्रत्येक अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र मे स्वतंत्रापूर्वक कार्य करते थे ।

राजा के अधिकारीगण - राज्य के कार्यों के संचालन हेतु राजा को योग्य एवं विश्वस्त सलाहकारों एवं अधिकारियों की आवश्यकता होती थी । नियुक्तियां योग्यतानुसार होती किंतु छोटे पदों जैसे - लेखक , त्रामपट लिखने वाले आदि की नियुक्तियां या परम्परानुसार होती श्री

मंत्री मण्डल - इराने युवराज , महामंत्री महामात्य , महाराधिविग्रहक ( विदेश मंत्री महापुरोहित ( राजगुरू  , जनाबंदी का मंत्री ( राजस्व ) महाप्रतिहार , महासामंत और महाप्रमात आदि प्रमुख थे ।

अधिकारी - इसने अमात्य एवं विभिन्न विभागों के आक्ष प्रमुख होते थे । महाध्यक्ष नामक अधिकारी सचिवालय मख्य अधिकारी होता था । महासेनापति अथवा सेन्नाध्यक्ष सैन्य प्रशासन का व दण्डाधिक अथवा दण्डनायक आरक्षी पुलिस विभाग का प्रमुख , महाभाडागारिक , महाकोटपाल ( दुर्ग या किले की रक्षा करने वाला ) आदि अन्य विभागा ध्यक्ष होते थे । अमात्य शक्तिशाली होते थे ।

राज कर्मचारी - प्रायः सभी तानपत्रों में बाट , भट , पिशुन , येत्रिक आदि राजकर्मचारियों का उल्लेख मिलता है राज्य के ग्रामों में दौर कर सबधित दायित्वों का निर्वहन करते थे ।

पाजस्व प्रबंध - विभाग का मुख्य अधिकारी महाप्रमात होता था . जो भूमि की माप करवाकर लगान निर्धारित कराता था।

आय के सोत - आय और उत्पादन के अनेक साधन थे । नमक कर , खानकर ( लोहे . खनिज आदि पर ) , वन पागाहबाग - बगीचा , आम , महुए आदि पर लगने वाले कर राजकीय आय के स्रोत थे । गांव के उत्पादन पर निर्यात खानकर ( लोहे . खनिज आदि पर न कर और बाहर की सामग्री और बाहर की सामग्री पर आयात कर लगता था जिस पर शासन का अधिकार होता था । नदी के पार करने पर लगने वाले कर तथा नाय आदि पर कर लगाया जाता था । इनके अतिरिक्त मण्डीपिका अथवा मण्डी में विक्री के लिये आई . डई । सियो / सामग्रियों पर कर , हाथी , घोड़े आदि जानवरों पर बिक्री कर लगाया जाता था । प्रत्येक घोड़े के लिए 2 पौर दिदी का छोटा सिक्का ) आर हाथी कालिए  पर कर लगाया जाता था । मण्डी में सब्जी बेचने के लिए युगा ' नामक परवाना ( परमिट ) लेना पड़ता था जो दिन भर के लिये होता था । 2 गाओं के लिये एक पौर दिया जाता था ।

न्याय व्यवस्था - प्राचीन कलचुरि कालीन न्याय व्यवस्था से सम्बन्धित अधिक जानकारी शिलालेखों से प्राप्त नहीं होती । दाडिक नामक एक अधिकारी संभवतः न्याय अधिकारी होता था ।

धर्म विभाग - धर्म विभाग का प्रधान अधिकारी महापुरोहित होता था । दानपत्रों में इस अधिकारी का उल्लेख है । दानपत्रों का लेखा - जोखा व हिसाब रखने के लिए धर्म लेखी ' नामक अधिकारी होते थे ।

युद्ध एवं प्रतिरक्षा प्रबंध - हाथी , घोड़े , रथ , पैदल चतुरंगी सेना का संगठन अलग - अलग अधिकारी के हाथ में रहता था । महावतों का बहुत महत्व था । सर्वोच्च सेनापति राजा होता था जबकि सेना का सर्वोच्य अधिकारी सेनापति या साधनिक या महासेनापति कहलाता था । हरितसेना प्रमुख ' महापीलुपति ' तथा अश्वसेना प्रमुख महाश्वसाधनिक | कहलाता था । बाह्य शत्रुओं से रक्षा हेतु राज्य में पुर अर्थात नगर दुर्ग का निर्माण किया गया था जैसे तुम्माण , रतनपुर । जाजल्लपुर , मल्लालपत्तन आदि । 15वीं सदी में तो रतनपुर नरेश बाहरसाय ने सुरक्षा की दृष्टि से कोसगई गढ़ ( छुरी ) में अपना कोषागार बनवाया था ।

पुलिस प्रबंध - कानून एवं शांति व्यवस्था स्थापना रोख पलिस अधिकारी - दण्डपारिको को पकड़ने वाला सारी दुष्ट - साधक सम्पति रक्षा के निमित्त पुलिस और नगरों में निक नियत होखेदान दिये गये गांवों नया प्रवेश वर्जित था । राजद्रोह आदि के मामले में ये बेधड़क कही भी आ - जा सकते थे ।

पर राष्ट प्रबंध - विदेश विभाग का नाम संधि विग्रहाधिकरण था | संधि - एकत - विग्रह - द इस विभाग प्रमुख थे । इसके मुख्य अधिकारीको महासधिविग्रहक कहा जाता था ।

यातायात प्रबंध - यातायात अधिकारी गमागमिक क्रमाता मा जो गाव अधया नगर से आवागमन पर नजर समता था । अवैध सामग्री एवं हथियारों को जप्त करता था ।

स्थानीय प्रशासन - स्थानीय कामवराज के संचालन हेतु नगरों और गांदी पचाल नामक संस्था होती दी विरमें पांच सदस्य होते थे । कही - कही इनकी सरया दस तक भी होती थी । प्रत्येक विभाग के लिये एक पंचकुल या कमेटी होती थी जिसकी व्यवस्था और निर्णयों को क्रियान्वयन हेतु राजकीय अधिकारी होते थे । इनमें प्रमुख छ . सरकारी - मुख्य पुलिस अधिकारी पटेल तहसीलदार , सेखक या करनिक . पल्क पाह अति छोटे - मोटे कों को एगाइने वाला तथा प्रविहारी अर्थात् सिपाही होते थे ।

 नगर के प्रमुख जीकारी को पुरप्रधान ग्राम प्रमुख को - ग्राम कुट या ग्राम भोगिक कर बगुल करने वाले को शोल्किक , जुर्माना दण्डपाशिक के द्वारा वसूला जाता था । गांव जमीन आदि की कर वसुलीका अधिकार पांच सदस्यों की एक कमेटी को था । इस कमेटी या पंचकूल को न्याय करने का भी अधिकार था । जुर्माने की राशि निर्धारित थी ताकि मनमानीन की जा सके । पंचकुलको निर्गव के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार राजा को था । पंचकुल के सदस्य महतर कहलाते थे । इनका गुनाय नगर व गांव की जनता द्वारा होता था । इसका प्रमुख सदस्य महत्तम कहलाता था।

ग्राम प्रशासन न्यायपूर्वक चला करता था । उस समय पाम दान की परम्परा के बावजूद ग्राम पमायत और ग्रामीण भूचियों की महत्ता बनी रही । शायद इसी कारण भी कलचुरि दीर्घावधि तक शातिपूर्ण शासन करते रहे । वी सदी में कलचुरि सामान्य के विभाग के बाद भी दोनों शाखाओं ( रतनपुर , रायपुर ) के शासन व्यवस्था में कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं हुआ ।

कालातंर परवर्ती कलचुरि शासकों के निष्क्रिय व विवेकशूना होने के कारण पदाधिकारी स्वार्थी और पदलोलप हो गए और राज्य का अपपतन प्रारंभ हो गया । केंद्रीय शक्ति की जड़ कमजोर हुई और शासन के खिलाफ असताप पनपने लगा , जिसका लाभ मराठों को मिला ।

सामाजिक स्थिति - कालपरि कालीन पतीसगढ में नागरिकों का जीवन उथ कोटिकासास वर्ग - व्यवस्था को स्थान प्राप्त हो दुका था कि वह कठोर नहीं था । उदाहरण - कलचुरियों का समतल पैश्य था । छत्तीसगढ़ के कजरिलखो मे बाह्मण त्रिय , वैश्य का उल्लेख मिलता है . किन्तु राही वेदाध्ययन व पठन - पाठन के कार्य के साथ - साथ राजकार्यों में भी भाग लेते थे । उदाहरण - कारपरिवार पुरुषोत्तम तथा गंगाधर जैसे विटानमत्रीणाम दान केवल उन्हीं मानगों को दिया जाता था जो कुल और पान में श्रेष्ठ होते थे । गानों की तरह क्षत्रिय भी सम्माननीय जो राज्य रक्षा करते और प्रशासन में पायपीट नियुका किये जाते थे । राजा त्रिय होते थे । वैश्य व्यापार व्यवसाय के साथ प्रशासन के उच्च ओहदों पर भी आग थे । उदाहरण - रतनपुर नगर का प्रधान बेची वैश्य था । गायों के बाद कायस्थ जाति प्रभावशील था । पतीसगढ कलचुरि प्रशस्ति के लेखक कायस्थ अर्यात वातल्य ' थे । कायस्थ के बाद गुरुवार जाति का उल्लेख जो शिल्पकला में प्रवीण थे । करपरिकालीन छत्तीसगढ़ में समाज में स्त्रियों को उच्च स्थान प्राव था । कामकाज में भाग लेती थी । उदाहरण - गाजा देव प्रथम ने अपनी माता के कहने पर पसार राजा सोमेश्वर देव को कैद मुक्त कर दिया था , कि इस समय बहपानी तथा सती प्रथा जैसी कुप्रथाएं भी मौजूद थी । छत्तीसगढ़ के सामाजिक सामंजस्य का इतिहास कई सरवतियों के समन्वय का प्रतिरूप है । क्षेत्रमाण सभ्यता के रूप में आदिवासियों और अर्धनगरीय सभ्यता के रूप में मैदान क्षेत्र में बाहर से आने वाले लोगों की मिली - जुली सभ्यता के दर्शन होते हैं । यहां पर रहने वाले विभिन्न जातियों ने अपनी - अपनी संस्कृति का विकास किया तथा जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं इन्हें एक - दूसरे के निकट लायी और पनने परस्पर विवाह समत सांस्कृतिक परिवर्तन हए । यहां डिज एवं अद्विज जातियों का धर्म , संस्कार भाव विचार व जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण एक है । इन दोनों जातियों का मिश्रण यहाँ इतनी सघनता से हुआ है कि उनका दिलगाव करना कठिन है । अद्विजों ने छत्तीसगढ़ में राजीवलोचन शिवरीनारायग , खरीद , पाली , आरंग , रायपुर आदि के मंदिर का निर्मग किया एवं शैव , शाक्त धर्म व भक्तिवाद , जिनमें कबीर व सतनामी पंश प्रमुख है , का विकास किया । यहा की जातियों ने ब्राह्मणों से संबंधित सभी धर्मा देवी देवताओं को अंगीकार किया व पूज्यनीय माना जिसके पीछे मूल भावना यह थी किनिम्न जातियों सामाजिक मर्यादा प्राप्त करना चाहती थी । इस तरह यह क्षेत्र आर्य - अनार्य संस्कृति का संगन स्थल रहा है । यहां का आदिवासी समाज अपने जीवन में आदिम विशेषताओं को सन्दाले ए अपने जीवन की सुरक्षा हेतु प्रकृति और धर्म का सहारा लेता है । यहां पर 43 प्रकार की वन्य जातियां पाई जाती है किंतु मोड यहां की सबसे प्रमुख जनजाति है जो देवता बुद्या देव को मानती है । इनका मुख्य कर्म कृषि करना है ।

आर्थिक स्थिति - कलयुरि काल में छत्तीसगढ़ की आर्थिक स्थिति समृद्ध थी । पति बनोपन , खनिज आय के मुख साधन थे । भू राजस्व प्रणाली कर प्रशासन के आर्थिक आधार तथा सिक्कों का प्रचलन र वस्तु विनियम यहा के जनजीवन को प्रभावित कर रही थी । कुटीर उद्योग वाणिज्य कर एवं यातायात के सपनों का विकास भी काल क्रमानुसार होता रहा । इस काल में नगरों की अपेक्षा पामों पर अधिक ध्यान दिया गया जिससे उनकी संख्या अधिक थी । किंतु नये नगरों का निर्माण भी हो रहा था , जैसे - रतनपुर , रायपुर मल्लासपत्तन , बिलासपुर जांजगीर , विकापुर तेजनपर आदि । विभिन्न प्रकार के वजन व माप प्रचलित थे । राजा की आय का मुख्य साधन भाम कर था । इस तरह प्राप्त कलचुरि लेखों से स्पष्ट होता है कि कलचुरि कालीन छत्तीसगढ़ों की आर्दिक स्थिति सम्पन्न मराद्ध श्री । जीवन में संघर्ष का अभाव होने से मानव आलसी हो चला था , क्योंकि जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं की प्रचूरता दी ।

धार्मिक स्थिति - छत्तीसगढ़ के कलचुरि धर्मनिरपेक्षा शासक थे । इन्होने अपने राजत्वकाल में शैव , वैष्णव जैन एख बौद्ध धर्मा को संरक्षण ही नहीं दिया , अपितु उन्हें पालगित - पुषित भी किया । वे स्वय रीयोपासक थे , कि उनके राज्यकाल में वैभव मंदिर - जाजगीर का विशु मंदिर , खल्बाटिका का नारायण मंदिर , रतनपुर में प्राप्त लक्ष्मीनारायण की मूर्ति , शिवरीनारायगका विष्ण मंदिर आदि का निर्माण भा । शिव विष्ण के अलावा पार्वती . एकवीर गणपति रेवन्त के देवालय भी रतनापुर बड़द , दुर्ग , पटपक , विकर्णपुर आदि स्थानों में बनाये गए । शक्ति पूजा के अंतर्गत दुई महामाया , महिषासुरमर्दिनी काली आदि शक्तियों को भी मंदिर बनाये गए । वैसे जैन धर्म के समय में कलधुरि कालीन छत्तीसगढ़ में जानकारी नहीं मिलती , किंतु आरंग , सिरपुर , मल्लार , धनपुर , रतनपुर आदि में प्राप्त कगधुगीन जैन तीर्थकरों की मूर्तिया इस काल में जैन धर्म के प्रसार को स्पष्ट करती है । छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म पत्तीसगा । स्थापित था । राजधानी सिरपुर इसका केन्द्र था , किंत कलचुरि काल में इसके पतन के आसार दिख जनबार काल में राजिम के समीप धपारण्य नामक स्थान पर 1993 के आस - पास महाप्रभु  वत्लभाचाय का जन्म हुआ शुध्दाव्दैतवाद अथवा पुष्टिमार्ग के सस्थांपक रामानंद वैष्णव भक्ति को दक्षिण से उतर ला या , जिसका  का मठ स्थापित हुआाता रहा और धर्म के साथ धर्म भी स्वतंत्र रूप से पल्लवित होने से भी प्रभावी रूप ।

शिक्षा , साहित्य एवं भाषा - दृष्टि से भी कलचुरि मे छत्तीसगढ अत्यतं समृद्व था, नारायण अल्हण कीर्तिधर वत्सराज धर्मराजमार्ग , सुरगण रत्नसिह समारपाल देशगि नारीख और दामोदर निक कवियों के नाम हम कलचुरि लेखों में प्राप्त है संकासाथ पावतला के पियों को कसरि दरबार जवाबय प्राप्त झाा यहा पिया का भी बहुत प्रसार था । पाठशालाओं और महाविद्यालयों को राजकीय अनुदान प्राप्त सि - आयन की परपरा विद्यमान थी । कलचुरि कालीन साहिणकी जाणिकता नरेश ललिखित प्रथ एयवंशीय राजाओंकी के द्वारा होती है । इसके अलावा शितशालीनतनपुर आरमान लिया जिसमें छत्तीसगढ़ के जमीदारों का इतिहास है । इनाने इतिहास - समय एतरही रखना भीकी , जिरानी गरनापर के इतिहास संबंध में जानकारी प्राप्त होती है । कालसहितकारी प्रशस्तिकार कवि पिको जो . माहागय कायस्थ थे । प्रकृति विज्ञान आवर्निशान की दृष्टि से भी यही विकसित मासे जन - सामान्य में यहां छत्तीसगढ़ी बोली का प्रचार - प्रसार था किट राजकार्य संस्कृत भाषा में होता था । यहां का पाहित्यिक इतिहास एक प्रकार से अंधकारमय है । ऐसा नहीं कि इस काल में साहित्य क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य माहिए । जैसा कि ऊपर कहा गया है . कलचुरि कालीन छत्तीसण्डसहित्यिक दृष्टि से अपत सनदया . पितु कालीन कृतियां या तो नष्ट कर दी गई या तिगत रुप से रखको कार में यहाँ से बाहर चली गई ।

रेवाराम बाबू ( 1850 - 19030ई . ) वापि प्रिटिश काल के ये शापि उनकी कति में कलचुरि कालीन पूर्ण प्रभाव है । समोने लगभग तेरह देशों की रचना की जिनमें प्रारद रामायण दीपिकर विक्रम - विलास ( रिहासन बत्तीसीका पानवादा गंगाहलरी ग्राम सोत गीतामाधय ( महाकाव्य नर्मदा - कटन दोहावली लिपीता माता भजन , कालीला के भजन सोक - लावण्य प्रसार सानपुर का इतिहास . रामायमेध आदि । रेवाराम हिन्दी रात उर्दू के विद्वान थे जबकि छत्तीसगढ़ी में ये पारंगत थे । छत्तीसगढ़ी भाषा में भी उनकी एक इति है कि योगान में अनुपलब्ध है ।

इस काल के प्ररिष्ट कवि गोपालचन्द्र मिश्र उल्लेखनीय है । हिन्दी काय परपना की दृष्टि से इनका नाम विख्यात था । इनका जन्म 1660 - 1661ई . निर्धारित किया गया है । उन्हें रानपुर राज्य में गाजष्टि देव ( 1689 - 1712 ) दरबार में राजाश्रय प्राप्त था । इनके ग्रंथों में प्रमुख - गाय तनहा , जमिनी . अश्वमेध गुटमा पति , चितामणि ( कृष्ण प्रबंध काव्य ) रामप्रताप ( राम प्रबंध काय ) आदि है । उनके अनेक पंथ अप्रकाशित है इन कीयो का मूल्यवान नहीं हो सका है । उनके कृतित्व की उत्कृष्टता देखते हुए उन्हें महाकवि की संज्ञा दी जानी चाहिये । राय तमाशा इनके पांडित्य का एक अन्टा उदाहरण है । इसकी रचना उन्होंने 1746 ई . में की थी जिसने उन्होंने इस अंचल को है । छत्तीसगढ संबोधित किया है जो उपलका साक्ष्यों के मध्य छत्तीसगढ़ शब्द का प्रथम प्रयोग अधिकारात माना जाता है ।

मूलत कलचुरि साहित्य प्रेमी थे । इनकी मून शाखा त्रिपुरी में राजरोखर एवं शानिपर जैसे विद्वानों को संरक्षण प्राप्त था । राजपत कालीन राजशेखर ने एयराजदेव प्रथम यूरवर्ष ( 900 ई . के आस - पास ) राजदरबार में रहते रही अपने दो प्ररिष्ट प्रथों काव्यमीमांसा एवं विडसालभंजिश की रचना की । काय और तर्कशास के विद्वान पं . शशिधर को भी कलचुरियों का सरक्षण प्राप्त था ।

स्थापत्य एवं शिल्प - भारतीय कला के इतिहास में कलचुरि कला का अपना विशिष्ट स्थान है । यद्यपि पुरातापयेताओं की दृष्टि से योगदान नगण्य है जाय इसलिए दिशिल्प अधंकार के आवरण चला गया है कि संभावना है कि इतिहासकारो की नई पीढी अवश्य इस ओर प्रयत्नशील होगी । कलचुरियों ने अनेक मंदिरे धर्मशालाको अघ्ययन शालाओ माठो आादि का निमार्ण करवाया कि अवशेष के रूप में केवल मदिर ताम्रपत्र एवं उनके सिक्के ही वर्तमान मे प्राप्त होते है । कलचुरि स्थापत्य कि अपनी एक स्वतंत्र शैली थी जिसका काल 1000 - 1400 निर्धारित किया गया जबकि परवर्ती कलचुरि काल को 1400 - 1700 ई . मध्य रखा गया है । परवती काल के अवशेषकर प्राप्त होते है एवं कला का हास दिखाई पड़ता है । इस संबंध में प्रधक से चर्चा कला एवं स्थापय नानक अध्याय में की गई है इस कलचुरि शिल्प मदिरों पर गजलक्ष्मी अथवा शिव की मूर्ति पाई जाती है । गजलक्ष्मी कलचुरि कुलदेवी थी इनके सिक्कों पर लक्ष्मी देवी अकित प्राप्त होती है तथा ताम्रपत्र लेख का आरभ हमेशा ' ओम नमः शिवाय से होता है ।