छत्तीसगढ़ में पुनः भोंसला शासन (1830-54 ई.)
1818 की संधि के अनुसार रघुजी तृतीय के वयस्क होते ही ब्रिटिश नियंत्रण समाप्त होना था जो कि 6 जून, 1830 को किया गया । इसके पूर्व 13 दिसंबर, 1826 ई. को एक नवीन संधि के तहत प्रयोग के तौर पर केवल नागपुर जिले को रघुजी तृतीय को शासन संचालन हेतु सौंपा गया था । विलियम बैंटिक भारत का प्रथम गवर्नर जनरल था जिसने अपनी उदार प्रकृति के कारण भारतीय नरेशों के साथ हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई । यही कारण था कि मराठों को अपना राज्य आसानी से ब्रिटिश नियंत्रण से वापस प्राप्त हो गया । साथ ही तत्कालीन स्थिति के अनुसार अंग्रेजों को सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से भोंसलों से अधिकाधिक सहयोग की आवश्यकता थी । तदनुसार नागपुर के रेसीडेंट विल्डर के समय 27 दिसंबर, 1829 ई . को पुनः अंग्रेज भोंसला संधि हुई जिसकी निर्धारित शर्तों के आधार पर शेष राज्य भी भोंसला शासक के सुपुर्द कर दिया गया । इस संधि को 15 जनवरी, 1830 ई. को गवर्नर जनरल बैंटिक ने स्वीकृत किया । इस संधि के अनुसार 6 जून, 1830 को कैप्टन क्राफर्ड ने भोंसला प्रतिनिधि कृष्णाराव अप्पा का छत्तीसगढ़ का शासन सौंप दिया । यह अधिकारी पूर्व के सूबेदार के स्थान पर ' जिलेदार ' कहलाया ।
जिलेदार एवं उनके कार्य - छत्तीसगढ़ का प्रथम जिलेदार कृष्णाराव अप्पा शांत प्रकृति के व्यक्ति थे, और छत्तीसगढ़ के प्रथम जिलेदार बनने से पूर्व नागपुर में सदर फड़नवीस के पद पर थे । लेखा कार्य में यद्यपि इस पद पर रहने के कारण वे निपुण थे . तथापि इन्हें राजस्व संबंधी विशेष अनुभव नहीं था । इसलिये छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जहां जमींदारियों का मामला बड़ा पेचीदा था और राजस्व संबंधी मामले जटिल थे, वह योग्य सिद्ध न हो सका । 1830 से 1854 ई. के बीच छत्तीसगढ़ के शासन के लिये निम्नलिखित जिलेदार नियुक्त किये गये- (1) कृष्णाराव अप्पा, (2) अमृतराव, (3) सदरूद्दीन, (4) दुर्गाप्रसाद, (5) इन्टुकराव, (6) सखाराम बापू, (7) गोविन्दराव, (8) गोपालराव । रायपुर जिलेदार का मुख्यालय बना रहा, पर पुराने भोंसला शासन की पुनर्स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ की स्थिति में अन्तर आ गया था, क्योंकि अब मराठा अधिकारी अपनी पुरानी आतंकपूर्ण नीति से प्रजा को कष्ट नहीं पहुंचा सकते थे । जनता उनके खिलाफ अपनी शिकायतें ब्रिटिश रेसीडेंसी में कर सकती थी . जिनके हस्तक्षेप से उसे राहत मिल सकती थी और वे मराठा - शासक को आवश्यकतानुसार उचित चेतावनी भी दे सकते थे । परन्तु छत्तीसगढ़ की जनता उस समय भी केंद्रीय शक्ति से अनभिज्ञ थी, इसलिये शासन के परिवर्तन के प्रति उसकी प्रतिक्रिया नगण्य सी थी ।
जिलेदार शासन विषयक जानकारी सीधे राजा को भेजा करता था । जिलेदार के अधीन कर्मचारी वे ही थे, जो ब्रिटिश नियंत्रण काल में विद्यमान थे । सत्ता परिवर्तन के बाद भी शासन की ब्रिटिश कालीन पद्धति विद्यमान रही, अंतर यह था कि उसमें फूर्ती, दृढ़ता और नियमितता का अभाव परिलक्षित होने लगा, जिसके प्रतिकूल परिणाम हुये । इस काल में भी पूर्व मराठा सूबा शासन की प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होने लगी । जिलेदार अपने अधीनस्थों पर विश्वास नहीं करता था, अतः शासन के उच्च स्तर पर ही आपसी सहयोग एवं सामंजस्य की कमी थी । कमाविसदार मजदूरों से बेगार लेते थे साथ ही ग्राम पटेलों की संख्या भी अधिक थी । पहले वर्ष में ही राजस्व कम एकत्रित हुआ एवं शासन आर्थिक कठिनाइयों के भंवर में फंसता चला गया । ऐसा राजस्व वसूली में लापरवाही एवं अनियमितता के कारण हुआ । ।
नागपुर दरबार में रेसीडेंट का हस्तक्षेप: छत्तीसगढ़ में उसका प्रभाव
1829 ई. की संधि के अनुसार सैद्धांतिक रूप से ब्रिटिश रेसीडेंट को भोंसला शासन में हस्तक्षेप करने का अधिकार खत्म हो चुका था, किंतु रघुजी तृतीय के स्वतंत्र होने के बाद भी ब्रिटिश रेसीडेंट का प्रभाव बना रहा । छत्तीसगढ़ के अधीनस्थ जमींदार अभी भी रेसीडेंट अथवा अंग्रेज शासन के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त न हो सके थे । इस बात की पुष्टि खैरागढ़ और राजनांदगांव के जमींदारों द्वारा भोंसला शासक द्वारा कर वृद्धि के खिलाफ रेसीडेंट को की गई शिकायत से होती है । इससे पता चलता है कि राजा का उसके राज्य पर सार्वभौम प्रभाव नहीं था । पदस्थ रेसीडेंट यह चाहता था कि उसे राज्य के राजस्व वित्त रक्षा एवं शासन की अन्य महत्वपूर्ण बातों का विश्वस्त विवरण मिलता रहे ताकि वह शासन के दोषों को उचित समय पर सुधार के लिये राजा के समक्ष रख सके । इस नीति से दो लाभ हो सकते थे - प्रथम, ब्रिटिश शासन को भोंसला शासन के गुण - दोषों का यथा समय ज्ञान होता रहेगा तथा राजा अंग्रेजों की सहायता से शासन में सुधार कर प्रजा हित की रक्षा कर सकेगा एवं द्वितीय सुधार के बहाने रेसीडेंट का शासन में हस्तक्षेप बना रहेगा । वैसे समय - समय पर रेसीडेंट क्षेत्र का दौरा कर व्यवस्था संबंधी सुधार हेतु राजा से अनुरोध करता था, जिससे छत्तीसगढ़ में अनेक महत्वपूर्ण सुधार रघुजी तृतीय के काल में अंग्रेजों के सहयोग से किये गये । कुछ महत्वपूर्ण सुधार निम्न हैं
(1) सती प्रथा का उन्मूलन - छत्तीसगढ़ में सती - प्रथा विद्यमान थी । अंग्रेजों को यह प्रथा क्रूर और अमानवीय प्रतीत हुई । इसलिये उक्त प्रथा की जानकारी होने पर ब्रिटिश - रेसीडेंट ने नागपुर के राजा से यह आग्रह किया कि इस प्रथा के उन्मूलन हेतु वे आवश्यक कार्यवाही करें । राजा ने इस प्रथा के उन्मूलन हेतु राज्य में सितंबर 1831 में एक आदेश प्रसारित किया । राजा के इस कार्य के लिये ब्रिटिश सरकार ने अपना आभार प्रकट किया । अंग्रेजों ने 4 सितंबर, 1829 ई. के 17 वें नियम के द्वारा इस प्रथा के उन्मूलन हेतु बंगाल प्रेसीडेंसी में पहले से ही आदेश प्रसारित कर दिया था ।
(2) बस्तर व करौंद ( कालाहाण्डी ) में नरबलि प्रथा पर रोक - सामान्यतः नरबलि आदि की घटनाएं लुक - छिप कर की जाती रही हैं । यद्यपि साहित्य में नरबलि संबंधी उल्लेख अवश्य मिलतें है, किंतु पुरातात्विक साक्ष्यों में इसका अभाव है । इस संबंध में एक मात्र अभिलेख छिंदक नागवंश के राजा मधुरांतकदेव का राजपुर ताम्रपत्र है, इसमें मणिकेश्वरी देवी (वर्तमान में दंतेश्वरी देवी) में नियमित नरबलि हेतु राजपुर (भ्रमरकोट मंडल में जगदलपुर से 35 कि.मी. दूर) नामक ग्राम का दान किया गया था । इस ताम्रपत्र में शकसंवत् 987 अंकित है । अन्य विवरण के आधार पर इसकी तिथि 5 अक्टूबर, 1065 मानी जाती है । बस्तर में दंतेश्वरी देवी के नाम से नरबलि लंबे अरसे तक जीवित रही । राजा भैरमदेव के काल में ब्रिटिश सरकार को सूचित किया गया कि दंतेश्वरी देवी को नरबलि दी जाती है । पूर्व में भी इस संबंध में महिपालदेव (1800-1839 ई.) के काल में नरबलि दिये जाने की जानकारी उसके सेवक ने दी थी, किंतु उसने नरबलि होते देखा नहीं था । अंग्रेजों को इस बात की जानकारी मिली थी कि छत्तीसगढ़ की कुछ जमींदारियों यथा बस्तर और करौंद ( करौंद जमींदारी की सीमा में विशेषरूप से ) के जनजातियों के मध्य नरबलि प्रथा विद्यमान थी । अंग्रेज चाहते थे कि इन जनजातियों का अधिक से अधिक विकास हो इसके लिये उन्होंने उनकी पुरानी और बरबर प्रवृत्तियों पर हर संभव रोक लगाना उचित समझा । अंग्रेजों ने नागपुर राजा के माध्यम से इस प्रथा के उन्मूलन हेतु संबंधित जमींदारों पर राजा के प्रभाव का प्रयोग करवा कर इस प्रथा की समाप्ति के लिये हर प्रकार की सहायता का आश्वासन प्राप्त किया । राजा ने प्रभावी कदम उठाने के लिये ब्रिटिश ऐजेंट को पुलिस और फौजदारी न्याय के संपूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये । गवर्नर जनरल के निर्देश पर बस्तर व करौंद में व्याप्त इस प्रथा को रोकने हेतु जान केम्पबेल के नेतृत्व में सैनिक टुकडियां भेजी गई और सैनिक अधिकारियों को कड़ा निर्देश दिया गया कि वे केम्पबेल को हर संभव सहायता प्रदान करें, जो इस प्रथा की समाप्ति हेतु ब्रिटिश प्रतिनिधि के रूप में तैनात किये गये थे । जान केम्पबेल 1847 तथा 1854 ई. के मध्य उड़ीसा में कंपनी की सेवा में नियुक्त एक असैनिक अधिकारी था । यह कार्यवाही गवर्नर जनरल ' लार्डहार्डिंग प्रथम ' (1844-48 ई.) के काल में की गई थी । इस कार्यवाही से इस बुराई पर प्रभावी रोक लग सकी, क्योंकि नरबलि कार्य कानूनन अपराध घोषित किया गया ।
(3) ठगों और डाकुओं का उत्पात - छत्तीसगढ़ में ठगों व लुटेरों के गिर्राह अनेक वर्षा से सक्रिय थे । इनम छत्तीसगढ़ में बसे मुल्तानी लोगों के गिरोह का लूटमार करना एक रोचक उदाहरण है । ये स्वभाव से कठोर और बर्बर थे । मुहम्मद गोरी के समय से अर्थात् 12 वीं सदी से मुल्तान में बस गये थे । इनका मुख्य कार्य कृषि था । अकबर के शासनकाल में जब भयंकर अकाल पड़ा और राजा को वे अपनी वार्षिक भेंट देने में असमर्थ रहे तो इन्हें तंग किया गया । राजस्व की अदायगी न कर पाने के कारण ये गिरफ्तार कर लिये गये । विवशता और प्रतिशोध की भावना से इन्होंने लूटमार आरंभ कर दी । जब सम्राट अकबर को इसकी सूचना मिली तब उन्होंने अनेक मुल्तानियों को जबरदस्ती मुसलमान बनाना आरंभ कर दिया । उनके इस व्यवहार से त्रस्त होकर अनेक मुल्तानी मुगल सेना का अनुसरण करते हुये दक्षिण की ओर पहुंचे । इनमें से कुछ मालवा, एलिचपुर के आसपास और छत्तीसगढ़ में आकर बस गये । अब इनके पास जीविका निर्वाह के लिये लूटपाट के अलावा कोई दूसरा रास्ता न था अतः इनका दल इसमें सक्रिय हो गया । आंग्ल मराठा युद्ध आरंभ होने के पहले ये पशुओं को लूट कर बेचा करते थे । उनके इस धंधे में कुछ स्थानीय अधिकारी उन्हें सुरक्षा प्रदान करते थे । ये लोग अपनी लूट का 1/4 भाग कुछ जमींदारों को दिया करते थे । छत्तीसगढ़ में मुल्तानियों के गिरोह के मुखिया सलावत, उदाहुस्न और प्यारे जमादार थे । इनके अलावा कुछ अन्य नेता भी थे जिनमें हीरानायक, उमर खाँ और दिलावर खाँ थे । मुल्तानियों के लूटने का ढंग बड़ा बर्बर और कठोर था । लूट का समय प्रायः अर्ध रात्रि होता था । इनके लूटपाट का शिकार प्रायः छोटे वर्ग के जमींदार एवं व्यापारी वर्ग के लोग होते थे । छत्तीसगढ़ की जनता पर इन लुटेरों का आतंक फैला हुआ था । अंग्रेजों ने उनके गिरोह को नष्ट करने का प्रयास किया, किंतु इस कार्य में भोंसला शासक अपना प्रत्यक्ष सहयोग देने में असमर्थ रहे । अतः अंग्रेजों ने स्वतंत्र एवं सक्रिय कदम उठाया । इनके उन्मूलन हेतु कठोर दंड का प्रावधान रखा गया जिनमें प्राण दंड अथवा कालापानी की सजा प्रमुख थे । गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक (1828-35 ई.) के आदेशानुसार इस कार्य के संचालन हेतु कर्नल स्लीमन को सामान्य अधीक्षक के पद पर नियुक्त किया गया जिसने कठोर कार्यवाही कर नागपुर राज्य की सीमा में पकड़े गये ठग और डाकुओं को कठोर दंड के साथ जबलपुर जेल में रखा । स्लीमन ने स्थानीय रियासतों के सहयोग से समुचित कार्यवाही कर 1830 तक ठगों का पूर्णतः उन्मूलन कर दिया । ठगों के बच्चों की शिक्षा हेतु जबलपुर में एक औद्योगिक विद्यालय खोला गया ताकि वे भविष्य में दोबारा इस कार्य में संलग्न न हों ।
भोंसला शासन की मुख्य बातें (1830-54 ई.)
सन् 1839 से 1854 ई. के मध्य कुल 24 वर्षों तक रघुजी तृतीय ने स्वतंत्र रूप से शासन किया । इस अवधि में छत्तीसगढ़ भोंसला प्रतिनिधि ' जिलेदार द्वारा शासित रहा । इस दौरान भोंसला शासन का स्वरूप मोटे तौर पर वही रहा जो ब्रिटिश नियंत्रण काल में प्रचलित था । संक्षिप्त में उल्लेख निम्नानुसार है
(1) राजस्व व्यवस्था - इस समय रेसीडेंट जेनकिन्स द्वारा स्थापित राजस्व प्रणाली बनी रही केवल कुछ परगनों में कर निर्धारण की दरों में परिवर्तन किया गया, किंतु राजस्व व्यवस्था के उचित क्रियान्वयन के अभाव में परिणाम प्रतिकूल हुआ । राजस्व वसूली शेष रहने लगी और राजा को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव यहां के शासन के प्रत्येक पहलू पर पड़ा ।
(2) विनिमय - इस समय छत्तीसगढ़ में नागपुर राज्य के आठ प्रकार के सिक्के प्रचलित थे । प्रचलित सिक्के निम्न थे - रघुजी का रुपया, अग्नुलाला, मनभट्ट, रामजी टांटिया, शिवराम, जरीपटका, चांदी रुपया, जबलपुरी रुपया आदि । उक्त प्रचलित सिक्कों में वजन और अनुपात के आधार पर एकरूपता का अभाव था । इन सिक्कों में चांदी और अन्य धातुओं के मिश्रण की मात्रा में बार - बार परिवर्तन होता रहता था । साथ ही राज्य के विभिन्न भागों में प्रचलित सिक्कों के मान भी भिन्न थे । इस प्रकार तकनीकी रूप से मुद्रा प्रणाली में एकरूपता नहीं थी और वह त्रुटिपूर्ण थी ।
(3) न्याय व्यवस्था - छत्तीसगढ़ में जो न्याय व्यवस्था प्रचलित थी अंग्रेजों ने अपने नियंत्रण काल में मूल रूप से उसे जारी रखा परन्तु वे इसमें विद्यमान दोषों को दूर कर उसे भ्रष्टाचार रहित, कम खर्चीला एवं न्याय संगत बनाने का प्रयास किया था । 1830 में जब यहां पुनः भोंसला शासन स्थापित हुआ तब व्यवस्थ पूर्ववत् जारी रही, किंतु प्रशासनिक शिथिलता एवं भ्रष्टाचार जैसे मूलभूत अवगुणों से युक्त भोंसला प्रतिनिधि शासन के समय में न्याय महंगा और दीर्घकालिक हो गया । लोगों ने रेसीडेंट मि. विलकिंसन से भोंसला कालीन न्याय की जोरदार शब्दों में शिकायत की । इस अवधि में नागपुर का राजा सभी प्रकार से अपनी प्रजा पर मुकदमा चला कर दंड देने का अधिकारी था इसके लिये उसे ब्रिटिश रेसीडेंट से स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी । साथ ही राजा और ब्रिटिश सरकार के मध्य सहमति होने पर भोंसला शासित क्षेत्र के मुकदमे ब्रिटिश अदालतों में चलाये जा सकते थे ।
(4) पुलिस व्यवस्था - ब्रिटिश नियंत्रण काल में मि. जेनकिंस ने जो पुलिस व्यवस्था स्थापित की थी वही भोंसला काल में विद्यमान रही, किंतु केन्द्रीय सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति और अनियमित वेतन प्रणाली के कारण पुलिस की स्फूर्ती और कर्तव्य परायणता में कमी आ गई थी । यद्यपि छत्तीसगढ़ में अपराध प्रवृत्ति अत्यंत न्यून थी इसलिये अप राधों की संख्या में वृद्धि नहीं हुई तथापि अपराधियों का मनोबल जरूर बढ़ा । रेसीडेंट मि. विलकिस के अनुसार पुलिस अधिक भ्रष्ट हो गई थी तथा छोटे अपराधों के लिये बड़ी सजायें दी जाती थीं ।
(5) आर्थिक स्थिति - शिथिल प्रशासनिक नियंत्रण एवं भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब हो चुकी थी । राजा स्वयं अपव्ययी था एवं प्रशासनिक कार्यों में उसकी रुचि नहीं थी । राजा बुरी तरह ऋणग्रस्त हो गये थे, यहां तक कि वे अग्रेजों को दी जाने वाली आठ लाख रुपयों की वार्षिक भेंट भी देने में असमर्थ थे । राज की सेना जो ' सीताबल्डी ' में स्थित थी, को पर्याप्त वेतन भी नहीं मिल पाता था । ऐसी दशा में कर्मचारियों की नियुक्ति रिश्वत की राशि लेकर की जाने लगी फलस्वरूप ये कर्मचारी शासन के नियंत्रण से मुक्त होकर स्वेच्छापूर्वक काय करने लगे जिससे क्षेत्रीय जनता को अनेक कठिनाइयों एवं पक्षपात का शिकार होना पड़ा । आरंभ में करों में वृद्धि भी की गई थी जिससे छत्तीसगढ़ के जमींदारों ने असंतुष्ट होकर रेसीडेन्ट से हस्तक्षेप का आग्रह किया था । जिलेदा से लेकर गांव के पटेल तक सभी कर्मचारी भ्रष्ट हो गये थे यहां तक कि न्यायिक कार्यों में भी रिश्वत लेकर पक्षपात किया जाने लगा था ।
(6) कृषि - ब्रिटिश नियंत्रण काल में कृषि को प्रोत्साहित किया गया था जिससे इस अल्पकाल में भी स्थिति सुधार हुआ था, किन्तु पुनः भोंसला जिलेदार की उपेक्षा एवं केवल राजस्व ऊगाही की नीति से कृषि की स्थिति बिग रही थी । करों में वृद्धि से किसानों और जमींदारों में असंतोष था, जिससे उत्पादन प्रभावित हुआ था । इसका प्रत्य प्रभाव राजस्व में लगातार कमी के रूप में सामने आया । यहां की अधिकतर फसल का निर्यात कामठी में स्थित ब्रिटिश सेना के लिये किया जाता था ।
(7) भ्रष्ट अधिकारी यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि भोंसला शासन काल में जो प्रशासनिक अनियमितता रहीं उनके पीछे कुछ भ्रष्ट अधिकारियों का हाथ था जो छत्तीसगढ़ में तैनात थे । इसमें जिलेदार जैसे प्रमुख व्यकि भी सम्मिलित थे । राजा इन पर अंकुश लगाने का कोई प्रभावी प्रयास नहीं कर सका । उदाहरणार्थ जिलेदा सदरूद्दीन रायपुर से नागपुर की दूरी का फायदा उठाकर एक लाख रुपये का गबन कर बैठा तथा जांच पर उस केवल साठ हजार रुपये ही वापस किये । इस आरोप के कारण उसे पद से बर्खास्त कर दिया गया । उक्त रक फड़नवीस ( लेखा अधिकारी ) के खाते में भी समाहित नहीं किया गया । सदरूद्दीन का उत्तराधिकारी जिलेदार - गबन के आरोप के कारण पद मुक्त कर दिया गया था । जिलेदारों द्वारा भ्रष्टाचार एवं उनकी बर्खास्तगी शासन में भ्रष्टाचार के प्रमाण हैं । इनके साथ अधीनस्थ कर्मचारी भी इनका अनुसरण कर भ्रष्टाचार में लिप्त रहा करते थे एवं जनता इस स्थिति से पीड़ित होती रही ।
(8) राजभाषा में परिवर्तन - मराठा काल में रघुजी तृतीय के पूर्व अर्थात् 1830 ई. के पहले तक प्रशासनिक कार्यों में फारसी का प्रयोग होता था, किंतु रघुजी तृतीय ने इसे समाप्त कर मराठी एवं हिन्दुस्तानी भाषा को राज्य भाषा का स्थान दिया । साथ ही रेसीडेन्ट के आग्रह पर उनसे पत्राचार में अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता था ।
रघुजी तृतीय के शासन की समीक्षा -1818 के पूर्व के सूवा शासन की तुलना में रघुजी तृतीय का शासन बेहतर था, किंतु ब्रिटिश नियंत्रण काल की अपेक्षा कमजोर था । इस अवधि में छत्तीसगढ़ का शासन एगन्यू द्वारा निर्मित शासन पद्धति में चलता रहा । मि. चिशम ने तथा इम्पीरियल गजेटियर में भोंसला शासन को धीमा, किंतु प्रगति कारक माना है । अंग्रेजों के अनुसार ब्रिटिश नियंत्रण समाप्त होने के कारण भोंसला शासनकाल में प्रशासनिक शिथिलता आ गई थी एवं भ्रष्टाचार पुनः पनपने लगा था । वास्तव में मराठा कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे वस्तुतः इसके मूल में राजा की व्यक्तिगत कमजोरी एवं इससे प्रभावित भ्रष्ट नीति जिम्मेदार थी । व्यक्तिगत रूप से रघुजी तृतीय एक खुशमिजाज व उदार स्वभाव के व्यक्ति थे और आरंभ में जनता के मध्य लोकप्रिय भी थे । परंतु कुछ वर्षों पश्चात् वे सुरा - सुन्दरी के चक्कर में पड़ गये व उन्हें शराब की बुरी लत पड़ गई थी । परिणामस्वरूप वे अस्वस्थ हो गये और राजकीय कार्यों में व्यक्तिगत रुचि लेने में असमर्थ रहने लगे । शासन कार्यों में उनका नियंत्रण ढीला पड़ता गया, परिणामस्वरूप, भ्रष्टाचार बढ़ा व आर्थिक स्थिति में निरंतर गिरावट आने लगी । रघुजी तृतीय स्वयं खर्चीले स्वभाव के थे । अपने शासन काल में रघुजी अंग्रेजों से दूर रहना चाहते थे । रेसीडेण्ट की हमेशा यह शिकायत रहती थी कि राजा न तो शासन के मामले में रेसीडेण्ट की सलाह मानने के लिये तैयार हैं और न ही स्वयं कोई सुधार करना चाहते हैं एवं अंग्रेजों से कोई संबंध ही रखना चाहते हैं । आर्थिक बदहाली के कारण राजा की सेना का रख - रखाव संभव नहीं हो पा रहा था । जनता में असंतोष था और वे ब्रिटिश शासन को नागपुर राजा के शासन की तुलना में अधिक अच्छा मानते थे । ऐसी स्थिति में रेसीडेण्ट ने भोंसला शासन के संबंध में विशेष रिपोर्ट तैयार की और गवर्नर जनरल के विचारार्थ भेजा, इस रिपोर्ट में रघुजी तृतीय के संबंध में एक ऐसा चित्र प्रस्तुत किया गया था, जिसके आधार पर एक प्रभावशाली नई नीति निर्धारित की गई । इस नीति में जनता के हितों को आधार बनाया गया था, किंतु मूल में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी अथवा राज्य विस्तार की मंशा छिपी हुई थी । यह उचित अवसर रघुजी की मृत्यु से उन्हें प्राप्त हो गया । घोर साम्राज्यवादी लार्ड डलहौजी ने जायज उत्तराधिकारी के अभाव के अस्त्र से मराठा राज्य हड़प कर अंग्रेजी साम्राज्य में विलय कर लिया ।
भोंसला राज्य का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय -11 दिसंबर, सन् 1853 ई. को एक माह की लंबी बीमारी के पश्चात् नागपुर के अंतिम राजा रघुजी तृतीय की मृत्यु हो गई और इसके साथ ही नागपुर राज्य का राजनीतिक गौरव समाप्त हो गया । इस समय ब्रिटिश रेसीडेण्ट ' मेन्सल ' ने इस घटना की सूचना केन्द्रीय सरकार को प्रेसित की एवं उसी दीन 6 बजे राज्य का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया ।
अंग्रेज राजनीतिज्ञ नागपुर राज्य के उत्तराधिकार के प्रश्न से अधिक चिंतित थे, मि. मेन्सल का यह व्यक्तिगत विचार था कि राजा को गोद लेने का अधिकार न दिया जाय, क्योंकि अंग्रेजों ने नागपुर राज्य को एक बार जीतकर पुनः उसे रघुजी तृतीय को सौंपा था । अब चूंकि राजा की कोई संतान नहीं है अतः नागपुर राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में किया जाना चाहिये । गवर्नर जनरल व लार्ड डलहौजी व कोर्ट आफ डायरेक्टर के मध्य इस संदर्भ में लंबा पत्र व्यवहार चलता रहा, अंततः डलहौजी के तर्क मान लिये गये । साम्राज्यवादी डलहौजी भारत में छितरे हुये और अव्यवस्थित ब्रिटिश राज्य को पसंद नहीं करता था, वह यहां एक शक्तिशाली व सुसंगठित ब्रिटिश राज्य का निर्माण करना चाहता था । इसके लिये उसने अपनी कुख्यात हड़प नीति का सहारा लिया, जिसमें कुशासन, आंतरिक कलह और राज्य का उत्तराधिकारी हीन होने जैसे आधार निर्मित किये । नागपुर राज्य भी इन्हीं सिद्धान्तों की चपेट में आ गया । रेसीडेण्ट जेनकिंस के नेतृत्व में नागपुर राज्य के शासन में प्राप्त हुई सफलता यहां भावी ब्रिटिश शासन का आधार बना । कोर्ट आफ डायरेक्टर ने इस सत्य की पृष्ठभूमि में नागपुर राज्य के विलय की अनुमति दे दी । इस प्रकार 13 मार्च, 1854 को नागपुर राज्य के ब्रिटिश साम्राज्य में विलय की घोषणा की गई । इस घोषणा के साथ ही छत्तीसगढ़ भी ब्रिटिश अधीनता में चला गया । रेसीडेण्ट मि . मेन्सल को नागपुर राज्य का प्रथम कमिश्नर बनाया गया तथा मि. इलियट ब्रिटिश अधीनता में छत्तीसगढ़ के प्रथम अधीक्षक बनाये गये । डलहौजी ने अपने इस कृत्य की भले ही प्रशंसा की, किंतु यह एक शक्तिशाली राज्य द्वारा कमजोर राज्य की राजनीतिक प्रभुता समाप्त करने का अत्यंत घृणित व निंदनीय कृत्य था । यह बात और है कि शक्तिशाली अंग्रेजों के विरूद्ध कोई तात्कालिक विरोध या प्रतिक्रिया नहीं हुई. किंतु 1857 में विप्लव के अन्तर्निहित कारणों में यह एक महत्वपूर्ण कारण था ।