छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था
बस्तर का इतिहास
छत्तीसगढ़ का नामकरण
छत्तीसगढ़ के गढ़
छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास
मराठा शासन में ब्रिटिश - नियंत्रण
छत्तीसगढ़ में पुनः भोंसला शासन
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव
1857 की क्रांति एवं छत्तीसगढ़ में उसका प्रभाव
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन
राष्ट्रीय आन्दोलन (कंडेल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (सिहावा-नगरी का जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (प्रथम सविनय अवज्ञा आन्दोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (महासमुंद (तमोरा) में जंगल सत्याग्रह, 1930 : बालिका दयावती का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आन्दोलन का द्वितीय चरण)
राष्ट्रीय आन्दोलन (गांधीजी की द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा (22-28 नवंबर, 1933 ई.))
राष्ट्रीय आन्दोलन (व्यक्तिगत सत्याग्रह)
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बस्तर का इतिहास



बस्तर का इतिहास

बस्तर के इतिहास का सूत्रपात - बस्तर इतिहास के सूत्र पाषाण - गुग अर्थात् प्रागैतिहासिक काल से मिलते है । इन्द्रावती नदी के तट पर स्थित यदयाघाट, कालीपुर, मार्टवाडा, देवरगाव, गढ़पन्देला, पाटलोहगा तथा नारंगी नदी के तट पर अवस्थित गढ़ बोदरा और संगम के आगे पितरकोट आदि स्थानों से पूर्व पाषाण काल, नध्य पवाण काल उत्तर पाषाण काल तथा नव पाषाण काल के अनेक अनगढ़ एवं सुघड उपकरण उपलब्ध हुए है ।

बस्तर वनांचल, दण्डकारण्य का एक महत्वपूर्ण भूखण्ड माना जाता रहा है । तब इस राज्य का कोई पृथक अस्तित्व नहीं था । दण्डय - जनपद का शासक था इण्याकु का तृतीय पुत्र - दछ । शुक्राचार्य, राजा दण्ड से राजगुरू थे । दण्ड के नाम पर ही इसे दण्डक जनपद और कालांतर में संपूर्ण वन क्षेत्र को दण्डकारण्य महा गया ।

बाल्मीकि रामायण , महाभारत यायु - पुराण , मत्स्य - पुराण और वामन पुराम आदि ग्रथों के अनुसार एक बार शुक्राचार्य की अनुपस्थिति में उनके आश्रम में घुस कर राजा दण्ड ने उनकी कन्या अरजा के साथ बलात्कार किया था , जिससे फुट होकर महर्षि शुक्राचार्य ने उहाण राजा दण्ड को ऐसा आप दिया था कि उसका यह वाली दण्डक - जनपद भरमीभूत होकर कालान्तर में दण्डकारण्य के रूप में परिणित हो गया । इस प्रकार राजादण्ड के शाम पर ही एक विस्तृत और भयावह बन - क्षेत्र का नाम दण्डकारण्य पड़ गया था और यह नाम आज भी अपनी जाह स्थित है । पहले इसे महाकान्तार भी कहते थे ।

यह भी उल्लेखनीय है कि दण्डक - जनपद की राजधानी दुभावती थी, जिसे रामायण में मधुमत पाया गया है । दण्डकारण्य की सीमा के अंतर्गत भूतपूर्व परतर राज्य, जयपुर जमीदारी , पांदा . जमीदारी और गोदावरी नदी के उत्तर का आधुनिक आभप्रदेश सम्मिलित थे ।

अर्थात् रामायणयुगीन दण्डक वन ही आज के अस्तर का दण्डकारण्य है , जो कमी महाकान्तार भी कहा जाता था । बस्तर की आदिवासी संस्कृति एवं समाज व्यवस्था तथा उनकी शाका एवं शेष परंपरा तथा जादू - टोगे जैसा तांत्रिक विश्वास आदि ऐसे तत्व है जो यह सिद्ध करते है कि यहां आसुरी संस्कृति का वर्चस्व रहा है । बस्तर में पाये जाने वाले अनेक गांव एव भागा - भान्जे के परस्पर प्रगाढ संबंध , रावण और मारीष के राधों को व्यका करते है । यहा राम ने बयार के समय पदार्पण किया होगा । गोदावरी नदी बीता और राम की याद दिलाती है । कहा जाता है कि पाण्डवों ने भी अपनी दनवार का कुछ काल दहा व्यतीत किया था । अबूझमाड़ दो में आज भी एक ऐसा काम ' पुजारी - काकर है , जहा प्रतिवर्ष पाण्डवों एवं धनुष - तीर आदि उपकरणो से पूजा होती है । नगरी - सिहाय का है । भूगी ऋषि एवं सप्त ऋषियों की तपोभूमि कहा जाता है । अगस्त मुनि आरण्यक में निवास करते थे । आत . यह स्थि होता है कि बस्तर श्री - मुनियों की भी तपोभूमि रही । इस तरह बस्तर में मषि - मुनि एव असुर दोनों ही प्रकार के लोग रहते थे ।

बस्तर के मध्यकालीन राजवंश

बस्तर कोरापुट क्षेत्र में नलवश के पश्चात इस क्षेत्र में नागवंशियों एवं कावतियों ने शासन किया । किन राजपशों का शासन बस्तर में दसवीं शताब्दी के पश्चात रहा है अत इनके इतिहास को मध्यकाल के अंतर्गत रवाना रहा है । गलवंत के समय में पूर्व में चर्चा की जा चुकी है । यहा नागवश, बाणवश एवं काकतीय राजवंश बाद प्रकाश डाला जा रहा है ।

बस्तर का छिंदक नागवंश (1023-1324 ई.)

जिस समय दक्षिण - कोसल क्षेत्र में कलचुरि यश का शासन था , लगभग उस समय बस्तर क्षेत्र में किन्दा नागवंश के राजाओं का अधिकार था । ये नागवंशी चक्रकोट को पाजा के नाम से विख्यात थे । प्राचीन महावार अथवा दण्डकारण्य का वह भाग इस काल में प्रक्रकोट को नाम से प्रसिद्ध हुआ । कालान्तर में इसी का रूप बदला चित्रकोट हो गया । बस्तर के नागवंशी राजा भोगवतीपुरवरेश्वर की उपाधि धारण करते थे । वे अपने आपको कश्पय एवं शिन्दक कुल का मानते थे , संभवत इसीलिये इन्हें जिन्दक नाग कहा जाता है । यहा सन् 1109 ई.का शिलालेख तेलगु भाषा का प्राप्त हुआ जिसमें सोमेश्वर देव और उसकी रानी का उल्लेख है । बस्तर में नाग कों की दो शाखाएं थी . प्रथम शाखा का चिह शायक संयुका व्याध तथा दूसरी शाया का समत - कदली पत्र का सभवतः प्रथम शाखा के शासक रोग व द्वितीय शाखा के शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे ।

बस्तर के छिदक नागवंश के प्रथम राजा का नाम पतिभूषण का उल्लेख एवाकोट से प्राप्त शक संवत् 945 भग 1023. के एक तेलुगु शिलालेख में मिलता है । इसकी राज्यायपि के विषय में स्पष्ट जानकारी नही है ।

धारावर्ष - नृपतिभूषण के उत्तराधिकारी धाग्यां जगदेवभूषन का बारसूर से एक रायत 983 अति 1060 ई . का एक शिलालेय प्राप्त हुआ है जिसके अनुसार उसके सामत गन्दादित्य ने बारतूर में एक तालाब का उत्खनन कराया पत्या एक शिव मंदिर का निर्माण कराया था । समकालीन समय में धारयणं महत्वपूर्ण शासक था ।

मयुगांतरदेव - इसकी मृत्यु के बाद उसके दो संघभी गधुरातकदेव तथा समाज को सोमेश्वरदेव के बीच सप्ता सयस की स्थिति उत्पन्न हो गई और कुछ समय के लिये गधुरातरुदेव भाराव के बाद शासक बना । उसका एक ज्या लेख राजापुर ( जगदलपुर ) से प्राप्त हुआ है जिसमें अमरकोट मंडल स्थित राजपुर ग्राम के दान का उल्लेख है । सभवतः अमरकोट पाकोट का ही दूसरा नाम है अथवा उसी के अंतर्गत एक क्षेत्र ।

सोमेश्वरदेव - अल्पकाल में ही धारावर्ष के पुत्र सोमेश्वर ने मधुरांतक से अपना पैतृक राज्य प्राप्त कर लिया । यह एक महान योद्धा , विजेता और पराक्रमी नरेश था । उसने बस्तर क्षेत्र के अतिरिक्त वेंगी , भद्रपट्टन एवं वज आदि राजा जाजल्लदेव प्रथम ने उसे पराजित कर उसके राज महिषी एवं मंत्री को बंदी बना लिया , कितु उसकी माता की - जी को विजित किया । इसने दक्षिण कोसल के 6 लाख 96 ग्रामों में अधिकार कर लिया था , किंतु शीघ्र ही कलचुरि प्रार्थना पर उसे मुक्त कर दिया । सोमेश्वर देव के काल के अभिलेख 1069 ई . से 1079 ई . के मध्य प्राप्त हुये । उसकी मृत्यु 1079 ई. से 1111 ई. के मध्य हुई होगी क्योंकि सोमेश्वर की माता गुंडमहादेवी का नारायणपाल में प्राप्त हिलालेख से ज्ञात होता है कि सन् 1111 ई. में सोमेश्वर का पुत्र कन्हरदेव राजा था । इसके अतिरिक्त कुरूसपाल अभिलेख एवं राजपुर ताम्राभिलेख से भी कन्हरदेव के शासन का उल्लेख मिलता है ।

राजभूषण अथवा सोमेश्वर द्वितीय कन्हर के पश्चात् संभवतः राजभूषण सोमेश्वर नामक राजा हुआ । उसकी रानी गंगमहादेवी का एक शिलालेख बारसूर से प्राप्त हुआ है जिसमें शक संवत् 1130 अर्थात 1208 ई . उल्लिखित है ।

जगदेवभूषण नरसिंहदेव - सोमेश्वर द्वितीय के पश्चात् जगदेवभूषण नरसिंहदेव शासक हुआ जिसका शक संवत् 1140 अर्थात् 1218 ई. का शिलालेख जतनपाल से तथा शक संवत् 1147 अर्थात 1224 ई . का स्तंभ लेख मिलता है । भैरमगढ़ के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह माणिकदेवी का भक्त था मांणिक देवी को दंतेवाड़ा की प्रसिद्ध देतेश्वरी देवी से समीकृत किया जाता है ।

इसके पश्चात् छिदक नागवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता । सुनारपाल के तिथिविहीन शिलालेख से जैयसिंह देव नामक राजा का उल्लेख मिलता है । अंतिम लेख ' टेमरा ' से प्राप्त एक सती स्मारक लेख शक संवत् 1246 अर्थात् 1324 ई. का है जिसमें हरिशचन्द्र नामक चक्रकोट के राजा का उल्लेख मिलता है , यह संभवतः नागवशी रजा ही है । इसके पश्चात् नागवंश से संबंधित जानकारी उपलब्ध नहीं है ।

बस्तर में प्रचलित किवदंती के अनुसार यहां के नागवंश के राजा के अंतिम शासक हरिशचन्द्रदेव को वारंगल के बालुक्या ( काकतीयों ) ने पराजित कर चक्रकोट में अपना प्रभाव स्थापित कर लिया । अतः नागवंश के अंतिम राजा हरिशचन्द्र का काल 1324 ई. तक माना जा सकता है । वस्तुतः ये वारंगल के काकतीय राजा अन्नमदेव थे जिन्होंने नाले दक्षिण बस्तर पर विजय प्राप्त की और कालांतर में 1324 ई. के आस - पास इंद्रावती के उत्तर के क्षेत्र को भी अपने अधिकार में कर लिया और मंधोता में अपनी राजधानी स्थापित की । इस तरह नागवंशियों के बाद यहां वारंगल के काकतीयों ने शासन किया ।

नागवंश के शासनान्तर्गत बस्तर क्षेत्र का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विकास हुआ , यद्यपि उन्हें दक्षिण में आध की और से और उत्तर में रतनपुर राज के आक्रमणों का सामना करना पड़ा तथा पूर्व में उल्कल के शासकों का दबाद बना रहता था, फिर भी नाग युगीन बस्तर का सर्वांगीण विकास होता रहा । सल्तनत काल में वारंगल पर दिल्ली के राजनीतिक दबाव के कारण काकतीयों को बस्तर की ओर एक सुरक्षित स्थल के रूप में बढ़ना पड़ा क्योंकि इनके पास सुसज्जित सेना, धन एवं बल था अतः वे बस्तर क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित करने में सफल हुए और जीयो से विकसित नल - नागयुगीन बस्तर की राजनीति इनसे प्रभावित हुई । नागवंशी शासक उत्तर की और कलघुरियों के कारण नहीं बढ़ सके । अतः उनका पराभव परिस्थितिवश स्वाभाविक हो गया ।

तेलुगु - चोड़वंश

यद्यपि इस वंश का शासन उड़ीसा के सोनपुर क्षेत्र में था, फिर भी नागवंशियों के समय बस्तर एव कल्युरिया जा रहा है । बस्तर के छिदक नाग राजा सोमेश्वर का सेनापति यशोराज प्रथम लगभग 1070 ई . में कोसल सोमन समय रतनपुर राज्य की घटनाओं से संबद्ध होने के कारण उन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में इस वंश का दिदरण क्षेत्र को विजित करने के पश्चात् वहां राज्यपाल के रूप में राज्य कर रहा था । उसके पुत्र सोमेश्वर प्रथम की कि सामंत शासक के समान थी इसके पश्चात् उसका उत्तराधिकारी यशोराज द्वितीय धारल्लदेव हुआ । इसके सोमेश्वर द्वितीय ने अपने छिदक नाग राजा सोमेश्वर के राज्यकाल के 24 वें वर्ष में महदा ताम्रपत्र प्रसारित किया था इसकी मृत्यु निःसंतान होने के कारण यशोराज प्रथम का पुत्र यशोराज तृतीय शासक हुआ । इसका शासन अर कालीन था । इसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर तृतीय हुआ । इसने छिन्दक नागवंश की अधिसत्ता मानना छोड़ दिया तथा सार्वभौम उपाधि - चक्रवर्ती धारण की , किन्तु वह अधिक समय तक इस क्षेत्र पर अधिकार नहीं रख सका । कलचुरे शासक जाजल्लदेव ने सोनपुर क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया । कलचुरियों के दो अभिलेखों से ज्ञात होता है । जाजल्लदेव प्रथम ने सुवर्णपुर के भुजबल को पराजित कर कैद कर लिया । एन. के. साहू का मत इस संबंध में उचि. प्रतीत होता है कि भुजबल का तादात्म्य तेलुगु - चोड़ सोमेश्वर तृतीय से किया जाना चाहिये । इसके पश्चात् यह के कलचुरियों के अधिकार में आ गया ।

काकतीय राजवंश

बस्तर में नागवंशियों के पश्चात् काकतीय वंश का राज्य स्थापित हुआ । इस वश की चर्चा करने के इस संबंध में जान लेना आवश्यक है । 13 वीं शताब्दी के पूर्वाद में वारंगल का काकतीय राजा गणपति था, जो निमार था । उसने अपनी पुत्री सदाम्या को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया जिसने सन् 1261-1293 ई. तक दरगाल तर शासनाधीन काकतीय महारानी कदाम्बादेवी की पुत्री भी , के दो पुत्र प्रतापरूददेव तथा अन्नमदेव हुये । महादेव । मम्मरम्था की एक पुत्री भी थी जिसका नाम रैलादेवी था ( जो आज भी बस्तर में दशहरा पर्य के समय रेलापूला नाम से पूजित है ) । रानी रूदम्बा भी निःसंतान थी अतः उसने घालुक्यवंशी महादेव के पुत्र प्रतापरूददेव को गोदर लिया । तदुपरांत प्रतापरूददेव रानी रूग्राम्या की मृत्यु के पश्चात काकतीयों की राजगद्दी पर बैठा । दत्तक नियन के अनुसार प्रतापरूददेव चालूयय होते हुए भी काकतीय कहलाये । प्रतापरूददेव का भी कोई पुत्र नहीं था अतः उत्सा अनुज अन्नमदेव उत्तराधिकारी हुये । काकतीय परंपरा को आगे बढ़ाने के कारण उनके राजवंश को काकतीय राजय के नाम से जाना गया । दंतेवाड़ा के शिलालेख में भी बस्तर राजाओं को काकतीय कहा गया । इस यश के बाईला शासक प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने स्वयं को हमेशा काकतीय कहा है अतः इस वंश को काकतीय मानना ही श्रेयस्कर होगा ।

काकतीयों के आदिपुरुष प्रतापरूद्रदेव काकतीय (दुर्गा) नाम की देवी के पूजक थे । आंधप्रदेश के एकशिला नामक नगर में काकतीय देवी का प्रसिद्ध मंदिर था एवं इस प्रदेश का पुराना नाम त्रिलंग था जहां शिव के तीन की थे । इसलिये यह प्रदेश त्रिलंगाना और कालांतर में तेलंगाना कहलाया और यहां के निवासी तेलंग कहे गये ।

जैसा ऊपर बताया गया है कि चालुक्य प्रताप- रूद्रदेव काकतीय हो गये और 1295 ई . में तेलंगाना के शाला बने । यह अत्यंत प्रतापी शासक था । अपने पिता के काल में ही उसे युवराज का पद प्रदान कर कर विजय यात्रा भेजा गया था । उसकी विजय यात्रा का विस्तृत विवरण एक प्राचीन नाटक प्रतापादिव्य विजय में मिलता है जिसमें उसने अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की थी ।

काकतीय राजा बनने के उपरांत भी उन्होंने 1295 से 1310 ई. तक कुशलतापूर्वक शासन किया, कितु 130-1 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने अपनी दक्षिण विजय के दौरान देवगिरि विजय करते वारंगल पर आक्रमण कर दिया । यह वारंगल में प्रथम मुस्लिम आक्रमण था । शक्तिशाली मुस्लिम सेना के एक प्रतापरूद्रदेव विवश थे । अतः उसने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवा कर गले में एक सोने की जजीर डाल कर आत्म समर्पण स्वरूप काफूर के पास भेजा, साथ ही सौ हाथी . सात सौ घोड़े, अपार धनराशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली । इस प्रकार वारंगल दिल्ली सल्तनत का करद राज्य बन गया, किंतु तुगलक वंश की स्थापना के साथ गयासुद्दीन तुगलक (1320-25 ई.) ने वारंगल पर 1321-23 ई. में आक्रमण कर वारंगल व तेलंगाना को दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित कर लिया । प्रतापरूद्रदेव को विवशता में वहां से भागना पड़ा । वह सेना की एक छोटी सी टुकड़ी के साथ भटकते ठोकरें खाते बस्तर पहुंचे । बस्तर में उन दिनों अनेक छोटे - छोटे राज्य थे । उन्हें परास्त कर कुछ समय बस्तर में राज्य करने के उपरांत वह पुनः वारंगल लौटा , जहां उसकी मृत्यु हो गई । चूंकि वारंगल दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बन चुका था अतः काकतीयों के लिये वहां कुछ भी शेष न रहा । भाई की मृत्यु के पश्चात् अन्नमदेव वारंगल छोड़ कर बीजापुर मार्ग से होते हुये बारसूर पहुंचा और अंतिम नागवंशी राजा हरिशचन्द्र को परास्त कर बैशाख शुक्ल 1324 ई . में सिहांसनारूढ़ हुआ । कुछ समय दंतेवाड़ा में रहकर वह चक्रकोट का स्वामी बन गया । अन्नमदेव ने ताराला ग्राम में दंतेश्वरी देवी का मंदिर बनवाया था । देवी के नाम पर ही इस ग्राम का नाम दंतेवाड़ा हुआ ।

अन्नमदेव से लेकर प्रवीरचंद्रभंजदेव तक बस्तर के काकतीय राजाओं की सूची निम्नानुसार है इसमें क्रमांक 13 के चंदेलमामा चंदेलवंश के थे

(1) अन्नमदेव 1324-1369 ई.

(2) हमीरदेव 1369-1410 ई.

(3 ) भैरवदेव 1410-1468 ई.

(4) पुरुषोत्तमदेव 1468-1534 ई.

(5) जयसिंहदेव 1534-1558 ई.

(6) नरसिंहदेव 1558-1602 ई.

(7) प्रतापराजदेव 1602-1625 ई.

(8) जगदीशराजदेव 1625-1639 ई.

(9) वीरनारायणदेव 1639-1654 ई.

(10) वीरसिंहदेव 1654-1680 ई.

(11) दिक्पालदेव 1680-1709 ई.

(12) राजपालदेव 1709-1721 ई.

(13) चंदेलमामा 1721-1731 ई.

(14) दलपतदेव 1731-1774 ई.

(15) अजमेरसिंह 1774-1777 ई

भोंसलों के अधीन राजा दरियावदेव के समय बस्तर भोंसलों के अधीन 1780 ई में करदराज्य बन गया था । 1855 तक मराठा भोंसलों की अधीनता में निम्न लिखित काकतीय राजा हुए –

(16). दरियावदेव 1777-1800 ई.

(17) महिपालदेव 1800-1842 ई.

(18) भूपालदेव 1842-1853 ई.

ब्रिटिश शासन के अधीन राजा- 1855 में जब नागपुर राज्य का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में हो गया तो भोंसलों के छत्तीसगढ़ सूबे के साथ - साथ उनके अधीन बस्तर का समस्त राज्य भी ब्रिटिश अधीनता में चला गया, जबकि छत्तीसगढ़ ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया । ब्रिटिश अधीनता में काकतीय वंशी राजा निम्न थे

(19) भैरमदेव 1853-1891 ई. (20) रूद्रप्रतापदेव 1891-1921 ई.

(21) महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी 1921-1936 ई. (22) प्रवीरचन्द्र भंजदेव 1936-1947 ई.

स्वतंत्रता के बाद -1948 में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया । स्वातंत्र्योत्तर काल में निम्नलिखित काकतीय वंशीय उत्तराधिकारी हुए । विलय के बाद भी बस्तर की जनता श्रद्धापूर्वक इन्हें राजा मानती है

(23) प्रवीरचन्द्र भंजदेव 1947-1961 ई. (24) विजयचन्द्र भंजदेव 1961-1969 ई.

(25) भरतचन्द्र भंजदेव 1969-1996 ई. (26) कमलचन्द्र भंजदेव 1997 से वर्तमान तक ।

काकतीय मूलतः चालुक्य थे

वारंगल के काकतीय राजा गणपति (1198-1261 ई) की केवल दो पुत्रिया रूद्राम्बा व गणपाम्बा थी । राजा ने रूदाम्बा को उत्तराधिकारी बनाया था जिसने 1261 ई. से 1293 तक शासन किया । इसका विवाह चालुक्य नृपति वीर भद्रेश्वर से हुआ था , जो संभवतः कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंश का रहा होगा , जिनके अधीन इससे पूर्व काकतीय नृपति थे । दुर्भाग्यवश रूदायादेवी के भी कोई पुत्र न था , इसकी एकमात्र पुत्री मम्मम्बा देवी थी , जिसका विवाह महादेव नामक किसी व्यक्ति से हुआ था , जो सभवतः अन्हिलवाड़ का ।सोलकी ) चालुक्य था । इसी मम्मडम्बा देवी का महादेव से प्रतापरूद्रदेव का जन्म हुआ था । बस्तर के दंतेवाड़ा | अभिलेख से इनके अनुज अन्नमदेव की जानकारी मिलती है , जबकि इस बात की पुष्टि अन्य स्रोतों से नहीं होती है । काकतीय महारानी रूद्राम्या देवी पुत्रहीन थी , अत इसने अपनी पुत्री मम्मडम्या के पुत्र प्रतापरूद्रदेव को उत्तराधिकारी बनाया । वह 1290 से 1324 अथवा 1326 ई . तक रहा. जो दक्षिण में अतिम दत्तक के रूप में स्वीकार किया तथा उसे काकतीय दंश का प्रभावशाली काकतीय शासक था ।

वारंगल पर द्वितीय आक्रमण तुगलक गयासुद्दीन (1320-1325 ई) के काल में हुआ । जब प्रतापरुद्र ने दिल्ली सल्तनत को पूर्व प्रतिज्ञानुसार खिराज देना बंद कर दिया था । इस बार सुलतान ने पुत्र जौनाखौं ( तुगलक मुहम्मद के नेतृत्व में सेना भेजी थी , कितु इस बार भाग खड़े हुए । प्रताप की अफवाह फैलने के कारण सभी अमीर जौनाखान को छोड़ बार प्रतापरुद्रदेव को बंदी बनाकर दिल्ली लाया गया तथा वासाल का नाम बदल कर सुल्तानपुर रखा गया । इस बीच अनुज अन्नमदेव ने बस्तर की और प्रयाण कर यहां नागदशा समाप्त कर कर काकतीय राजवंश की स्थापना की थी । बीच प्रतापरुद्र दिल्ली से मुक्त होकर संभवत्तः सपरिवार बस्तर पहुंचा और उसे यहां सुप्रतिष्ठित कर पुन दारंगल पहुंचा दिया ( डॉ . हीरालाल शुक्ल के क्योंकि 1326 ई . का उसका एक अतिम अभिलेख गुण्ट्र जिले से प्राप्त हुआ है । उसके बाद राजा का क्या हुआ पता नहीं , कितु केदारनाथ ठाकुर के अनुसार प्रतापरुद्रदेव भूपालपट्टम् से घाटी चढ़कर वहां से छोटे - छोटे राजाओं को जीतकर आगे बढ़ा जहां उसका संघर्ष नागवशी राजाओं से हुआ , जिसमें उसे विजय प्राप्त हुई और | उसने उस स्थान का नाम बदलकर विजयपुर ( वर्तमान में बीजापुर ) रखा और दंतेवासा में आकर रहने लगा । नागवंशियों को परास्त करने के उपलक्ष्य में उसने ताराला ग्राम दिलेवासा ) में दंतेश्वरी देवी का मंदिर बनवाया और वारंगल वापस आ गया जहां उनका निधन हो गया ।

इस प्रकार बस्तर राजवंश के आदिपुरुष काकतीय नहीं बल्कि चालुक्य थे , किंतु मातृपक्ष की ओर से रूद्राम्बा तो काकतीय थी ही , उसके पति चालुक्य थे , उनसे उत्पन्न पुत्री मम्मैडम्बा का विवाह पुन गुजरात के चालुक्य महादेव ( अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार गुजरात के सोलंकी चालुक्य माना जाये तो ) से हुआ , इनसे उत्पन्न संतान प्रतापरूद और अन्नम तो दौहित्र ( प्रतापरुद्रः चालुक्य ही कहे जायेंगे । रूद्राम्या ने काकतीय वंश को आगे बढ़ाने को चुना । दत्तक नियमों के अनुसार अब प्रतापरूद्र काकतीय हो गये किंतु इनके अनुज अन्नम देव तो चालुक्य ही थे । बस्तर के हलबी - भतरी - मिश्रित लोकगीतों में अन्नमदेव को चालकी बस राजा कहा गया है । साथ ही अन्नमदेव व उसके वंशजों के वैवाहिक संबंध बघेलखण्ड के शासकों , जो गुजरात के चालुक्य ( सोलंकी थे , से होते रहे । इससे भी प्रतापरूद एव अन्नमदेव | के चालुक्य होने की पुष्टि होती है . किंतु चूंकि अन्नग दव ने काकतीय गद्दी को आगे बढाया | था और उनके अग्रज प्रतापरूद्र जब काकतीय कहे गये तो विरोधाभास से बचने के लिए उन्हें ।

वंश परिवर्तन की घटना की पुनरावृत्ति पुन 20 वीं शताब्दी में हुई जब राजा प्रतापरूद | देव तृतीय ( 1891-1921 ई ( की एकमात्र पुत्री प्रफुल्लकुमारी देवी 1922 में महारानी बनी , तथा | उनका विवाह मयूरभंज वश के राजकुमार ( मयूरभेज राजा के भतीजे प्रफुल्लचंद्र भंजदेव से हुआ । अतः उनसे उत्पन्न प्रवीरचंद्र भंजदेव और हरिशचंद्र जो क्रमश बस्तर के राजा बने , तो भंज वंश के ही हुए , कितु स्वयं प्रवीरचंद्र भंजदेव ने अपने नाम के आगे भंजदेव लिखने के बाद भी , अपने ग्रंथ लोहंडीगुडा तरंगिनी ' में स्वयं को काकतीय कहा है और अपने आदिपुरुष अन्नम देव को भी काकतीय बताया है . अतः वंश विवाद पर न पड़ते हुए स्व श्री प्रदीर चद्र के कथन को मानकर उन्हें व राजवंश को काकतीय मानना उचित प्रतीत होता है ।

बस्तर का नामकरण

बस्तर के नामकरण के संबंध में भी किंवदन्तियां हैं । एक किंवदन्ती है कि बस्तर की नींव डालने वाले चूँकि बांस के तले में निवास करते थे अतः यह बांस - तल ही बस्तर कहलाने लगा । दूसरी किंवदन्ती है कि जब देवी दंतेश्वरी को ज्ञात हुआ कि काकतीय शासक उनकी शरण में आया है तो वे प्रसन्न हो उसे साथ लेकर उत्तर की ओर बढ़ी । उन्होंने राजा से कहा था कि वह आगे - आगे चले किंतु पीछे मुड़कर न देखे । रास्ते में शंखिनी - डंकिनी नदी के संगम पार करते समय देवी के पायल के धुंघरू रेत में धंस गये और उनके घुघरूओं की आवाज बंद हो गई । राजा ने मुड़कर देख लिया कि देवी आ रही हैं या नहीं ? अपने कथनानुसार देवी वहीं स्थिर हो गई और उन्होंने अपना वस्त्र फैला दिया । जो भूमि खण्ड उनके वस्त्र के आंचल के नीचे आ गया , वह वस्त्रजन्य भू - खण्ड वस्त्रर और कालांतर में बस्तर के नाम से विख्यात हुआ । कुछ विद्वानों की धारणा है कि विस्तृत भू - भाग होने के कारण विस्तार शब्द बिगड़ कर बस्तर में परिणित हो गया होगा ।

काकतीय राजवंश का संक्षिप्त इतिहास

अन्नमदेव द्वारा बारसूर में काकतीय वंश की स्थापना के पश्चात् 1936 तक इसकी 20 पीढ़ियों ने 613 वर्षों तक राज किया । सन् 1324 ई. से 1780 ई. तक काकतीय राजाओं ने बस्तर में निष्कंटक राज किया । इनमें से एक राजपाल देव की रानी चंदेलिन के भाई अर्थात् दलपत देव के मामा ने 1721 से 1731 ई. तक राज्य किया , जो अन्नमदेव के वंशज नहीं थे । इसने चंदेलिन रानी की बदौलत राज्य किया क्योंकि वह सौतेली रानी के पुत्र राजगद्दी पर बैठे नहीं देखना चाहती थी । इसके बाद 1780 से 1855 ई . तक बस्तर भोसलों के अधीन करद राज्य के रूप में रहा एवं 1855 के बाद वह अंग्रेजों के अधीन एक रियासत बन गया । पुनः 1936 से प्रवीरचंद्र भंजदेव जो कि उड़ीसा के भंजदेव कुल के हुये, ने शासन किया ।

बस्तर की विभिन्न राजधानियां

चक्रकोट के प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव के समय से ही इनकी राजधानियां बदलती रहीं । सर्वप्रथम राजधानी कुछ समय तक बारसूर में थी वहां से दंतेवाड़ा स्थानांतरित हुई , दतेवाड़ा से मंधोता गयी और फिर मंधोता से कुरूसपाल, राजपुर, बड़े डोंगर आदि होकर कुछ समय के लिये बस्तर ग्राम में स्थित हो गयी थी । सन् 1703 ई. में दिक्पालदेव के समय में ' चक्रकोट ' से ' बस्तर में राजधानी स्थानांतरित हुई थी । दलपदेव तक बस्तर में राजधानी होने के प्रमाण मिलते हैं । बस्तर से राजधानी जगदलपुर लाने का समय सन् 1772 ई. है ।

अन्नमदेव (1324-1369 ई.)

अन्नमदेव को । दंतेवाड़ा अभिलेख में ' अन्नमराज ' कहा गया है, जो बस्तर की विभिन्न राजधानियां प्रतापरूद्रदेव का अनुज था एवं 1324 ई. में वारगल इनकी राजधानियां बदलती रहीं । सर्वप्रथम राजधानी कुछ समय परित्याग के संबंध में विद्वानों ने अनेक कल्पनाएं | मंधोता गयी और फिर मंधोता से कुरूसपाल , राजपुर , बड़े डोंगर | के आक्रमण के समय वह वारंगल से खदेड दिया । सन् 1703 ई . में दिक्पालदेव के समय में ' चक्रकोट ' से ' बस्तर में | गया था । उसने बस्तर में लघु राज्यों के राजाओं को राजधानी स्थानांतरित हुई थी । दलपदेव तक बस्तर में राजधानी पराजित किया व समूचे बस्तर का अधिपति बन होने के प्रमाण मिलते है । बस्तर से राजधानी जगदलपुर लाने का गया । इस प्रकार अन्नमदेव उत्तर - मध्ययुगीन बस्तर समय सन् 1772 ई . है । के शासन का विधिवत् संस्थापक था । राजा अन्नमदेव जिस समय सिंहासनाधिरूढ़ हुआ , उस समय उसकी आयु 32 वर्ष की थी । उसकी रानी का नाम सोनकुंवर चन्देलिन ( चंदेल राजकुमारी ) था । राजा अन्नमदेव एक वर्ष बारसूर रहकर दंतेवाड़ा में जा बसा । ‘ मन्धोता ' अन्नमदेव की राजधानी थी तथा कालांतर में परवर्ती राजाओं ने ' बस्तर ' को अपनी राजधानी बनाया । अन्नमदेव ने लगभग 45 वर्षों तक शासन किया । अन्नमदेव के बाद बस्तर के राजा अपने आपको ' चन्द्रवंशी ' कहने लगे । बस्तर के हलबी - भतरी मिश्रित लोकगीतों में अन्नमदेव को ' चालकी बंस राजा कहा गया है । इससे अधिक स्पष्ट हो जाता है कि बस्तर के इस वंश को काकतीय कहना एक भ्रांति है ।

हमीरदेव (1369-1410 ई.) - अन्नमदेव के उत्तराधिकारी हमीरदेव को हमीरूदेव या एमीराजदेव भी कहा गया है । हमीरदेव 33 वर्ष की अवस्था में सिंहासनाधिरूढ़ हुआ । श्यामकुमारी बघेलिन ( बघेल राजकुमारी ) इनकी राजमहिषी थी । हमीरदेव के संबंध में कुछ जानकारी उड़ीसा के इतिहास से भी प्राप्त होती है ।

भैरवदेव (1410-1468 ई.) - भैरवदेव के अन्य ध्वनिपरिवर्तन युक्त नाम भयरजदेव तथा भैरवदेव भी मिलते हैं । इसकी दो रानियों में एक ' मेघई अरिचकेलिन ' अथवा मेघावती आखेट विद्या में निपुण थी जिसके स्मृति चिह मेघी साडी , मेघई गोहड़ी प्रभृति ( शकटिका ) आज भी बस्तर में मिलते हैं ।

पुरूषोत्तमदेव (1468-1534 ई.) - भैरवदेव के पुत्र पुरूषोत्तमदेव ने पच्चीस वर्ष की अवस्था में शासनसूत्र संभाला था । उसकी रानी का नाम कंचनकुवरि बघेलिन था । कहा जाता है कि पुरूषोत्तमदेव तीर्थयात्रा के लिए जगन्नाथपुरी को रवाना हुए थे तथा पेट के बल सरकते हुए पुरी पहुचकर उसने जगन्नाथ का दर्शन किया और रत्नाभूषण आदि की भेंट चढ़ाई । पुरी के राजा ने पुरूषोत्तम देव का स्वागत किया और राजा की वापसी के समय सोलह पहियों वाला रथ प्रदान कर उन्हें रथपति की उपाधि प्रदान की । लौटकर उसने बस्तर में रथयात्रा प्रारम्भ की । बस्तर में यह पर्व गोंचा ' के नाम से प्रसिद्ध है । आज भी यह पर्व जगदलपुर में प्रति कुवार मास में मनाया जाता है । पुरूषोत्तमदेव ने मंधोता को छोड़कर ' बस्तर में अपनी राजधानी बनायी थी

जयसिंहदेव (1534-1558 ई.) – पुरूषोत्तमदेव का पुत्र जयसिंहदेव या जैसिदेव राजगद्दी पर बैठा । उसकी रानी का नाम चन्द्रकुँवर बघेलिन था । राज्याधिरोहण के अवसर पर उसकी अवस्था चौबीस वर्ष की थी ।

नरसिंहदेव (1558-1602 ई.) - जयसिंहदेव का पुत्र नरसिंहदेव तेइसवें वर्ष की अवस्था में सिंहासन पर आसीन हुआ । उसकी रानी का नाम लक्ष्मीकुँवर बघेलिन था । यह रानी बड़ी ही उदार मनोवृति की थी तथा उसने अनेक तालाब व बगीचे बनवाए थे ।

प्रतापराजदेव (1602-1625 ई.) - नरसिंहदेव के पश्चात् प्रतापदेव अत्यंत प्रतापी थे । उनके समय में गोलकुण्डा के मुहम्मद कुली कुतुबशाह की सेना ने बस्तर पर आक्रमण किया था । कुतुबशाह की सेना बस्तर की सेना से बुरी तरह से पराजित हुई थी । उसके बाद गोलकुण्डा राज्य द्वारा अहमद नगर के मलिकंबर को उकसा कर बस्तर पर व्यवधान उत्पन्न करने की कोशिश की । उसने जैपुर नरेश की सहायता से जैपुर से लगे बस्तर के कुछ क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था ।

जगदीशराजदेव (1625-1639 ई.) तथा वीरनारायणदेव (1639-1654 ई.) - इनके समय में गोलकुण्डा के अब्दुल्ला कुतुबशाह द्वारा जैपुर तथा बस्तर के हिन्दू राज्यों पर मुसलमानों के अनेक धर्माधतापूर्ण आक्रमण हुये , किंतु सभी असफल रहे । साथ ही मुगलों के पाव भी कभी इस क्षेत्र में न जम सके ।

वीरसिंहदेव (1654-1680 ई) -वीरनारायणदेव का पुत्र वीरसिहदेव बड़ा ही पराक्रमी था । पिता की मृत्यु के पश्चात् बारह वर्ष की अवस्था में वह राजगद्दी पर बैठा । उसकी रानी का नाम बदनकुंवर चंदेलिन था । राजा वीरसिंहदेव बड़ा उदार , धार्मिक , गुणग्राही और प्रजापालक था । उसने अपने शासनकाल में राजपुर का दुर्ग बनवाया था ।

दिक्पालदेव ( 1680-1709 ई ) -वीरसिंहदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र दिक्पालदेव अल्पायु में गद्दी पर बैठा । इसके समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना सन् 1703 ई . में ' चक्रकोट ' से ' बस्तर में राजधानी का स्थानांतरित होना था ।

राजपालदेव (1709-1721 ई.) - दिक्पालदेव का पुत्र राजपालदेव भी अल्पायु में सिंहासन पर बैठा । राजपालदेव किया था । को राजप्रासादीय पत्रों में रक्षपालदेव भी कहा गया है । राजपालदेव के समय कुछ मुसलमानों ने भी बस्तर पर आक्रमण रायपुर के महंत घासीदास - स्मारक - संग्रहालय में रखे बस्तर के राजवंश से सम्बद्ध एक महत्वपूर्ण ताम्रपत्र से विदित होता है कि महाराज राजपालदेव प्रौढप्रताप - चक्रवर्ती की उपाधि धारण करते थे और माणिकेश्वरी देवी के भक्त थे । ऐसा अनुमान किया जाता है कि दंतेवाड़ा की सुप्रसिद्ध दन्तेश्वरी देवी को माणिकेश्वरी भी कहा जाता था ।

चालुक्य - शासन पर चन्देल मामा का अधिकार ( 1721 ई . - 1731 ई . ) - राजपालदेव की दो पत्नियां थीं - एक थे बघेलिन तथा दूसरी चन्देलिन । बघेलिन रानी के पुत्र दखिनसिंह तथा चंदेलिन रानी के पुत्र दलपतदेव व प्रतापसिंह । राजा की मृत्यु के पश्चात् चंदेलिन रानी के भाई अर्थात् राजकुमार के मामा ( चंदेल मामा ) ने राज सत्ता को अपने कब्जे में कर लिया था । बस्तर के इतिहास में यह प्रथम घटना थी , जबकि बस्तर का शासक एक घुसपैठिए मामा के हाथों में चला गया । यह चन्देलमामा दस वर्षों तक शासन करता रहा , कितु इस बीच दलपतदेव भी चुपचाप नहीं बैठा । दलपतदेव रक्षा - बन्धन के शुभ मुहूर्त पर राखी का नेग लेकर चन्देल राजा के दरबार में हाजिर हुआ और उसका वध कर डाला ।

दलपतदेव (1731-1774 ई.) - दलपतदेव के शासन काल में सम्पूर्ण पार्श्ववर्ती क्षेत्र भोंसलों के आक्रमण से संत्रस्त थे । पार्श्ववर्ती छत्तीसगढ़ के रतनपुर का शासन भी 1741 ई . में हैहयवंशी राजा रघुनाथसिंह के हाथों से जाता रहा । रतनपुर -राजा ( छत्तीसगढ़ ) को अपने अधिकार में लेने के पश्चात् 1770 ई . में मराठा सेना ने नीलू पण्डित या नीलू पंत के अधिनायकत्व में बस्तर पर आक्रमण किया था , किंतु बस्तर के रणबांकुरों के समक्ष मराठा सेना को घुटने टेकना पड़ा । चालुक्य - आदिवासी सेना ने मराठा सेना को काट डाला । नीलू पण्डित जैपुर की ओर भाग गया । कालांतर में मराठा - सेना ने संगठित होकर पुनः एक दिन बस्तर पर अचानक आक्रमण कर दिया । उस समय बस्तर की सेना पराजित हुई । अनेक राजाओं ने भोंसलों की अधीनता स्वीकार कर ली थी , किंतु दलपतदेव ने अपने शासन काल में अनेक विपत्तियों के बाद भी भोंसलों की अधीनता स्वीकार नहीं की थी । दलपतदेव के अनुज ने मराठों से मिलकर उन्हें बस्तर पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था । दलपतदेव प्राण बचाकर भाग गये , किंतु पुनः मराठों से जीत गये थे ।

बस्तर से जगदलपुर : राजधानी का स्थानांतरण - भोंसला आक्रमण से भयभीत होकर दलपतदेव ने 1770 ई . में बस्तर को छोड़कर जगदलपुर को राजधानी बनाया । इस घटना के तीन वर्ष पश्चात् ही दलपतदेव की मृत्यु हो गयी ।

बंजारों का बस्तर में व्यापार और नमक - सभ्यता का प्रसार (1770 ई.से) - उत्तर - मध्ययुगीन बस्तर अज्ञानान्धकार से आप्लावित था , किंतु दलपतदेव के समय से यहां बंजारों द्वारा वस्तुविनिमय - व्यापार प्रारम्भ किया गया तथा नमक और गुड़ के प्रति आदिवासियों की रूचि में जैसे ही संवर्धन होने लगा , वैसे ही ये अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने लगे । कैप्टन जे . टी . ब्लंट ने अप्रैल 1795 ई . के अपने यात्रा - वृतांत में इस तथ्य का उद्घाटन किया है । इस प्रकार दण्डकारण्य में अगस्त्य के पश्चात् दूसरे यात्री बंजारे हैं , जिन्होंने व्यापार के माध्यम से इस क्षेत्र को सुसंस्कृत बनाने का उपक्रम किया । वस्तुतः इसके पीछे भोंसला राजा का हाथ था , जो बंजारों के माध्यम से इन्हें सभ्य बनाना चाहता था ताकि वे उसके राज्य की वस्तुयें बंजारों के माध्यम से खरीद सकें । वस्तुओं में नमक तथा गुड़ प्रधान वस्तुयें थीं । बंजारे भी पूर्व सुरक्षा के आश्वासन के बाद अपनी जान जोखिम में डालकर बस्तर में प्रवेश करते थे ।

वस्तु विनिमय व्यापार और शोषण का आरंभ - बंजारों ने बस्तर के गोंड़ों का विश्वास प्राप्त कर उन्हें अनेक आरामदेह वस्तुयें उपलब्ध कराकर उनके मन में इन वस्तुओं के प्रति रूचि उत्पन्न कर दी थी , जिन्हें अब वे सरलता से छोड़ नहीं सकते थे । इन वस्तुओं की प्राप्ति के निमित्त अब इन्हें जंगलों में अधिक परिश्रम करना पड़ता था तथा लाख एवं लौह अयस्क तथा अन्य उपयोगी वन्य उत्पाद आदि को वस्तु विनिमय व्यापार योग्य प्राप्त करने के लिये इन्हें उन वस्तुओं को जंगलों से एकत्र करना पड़ता था । कालांतर में इन्होंने बंजारों की रक्षा का दायित्व स्वयं ले लिया । इस व्यापार से उनकी सभ्यता पर आमूलचूल प्रभाव पड़ा । बस्तर में वस्तु विनिमय का यह व्यापार शोषण का माध्यम बन गया और कालांतर में यही गोंड़ों के विद्रोहों का कारण बनता रहा । बंजारों के आवागमन ने मराठों और अंग्रेजों का कार्य आसान कर दिया और बस्तर इनकी अधीनता में आ गया ।

अजमेर सिंह ( 1774-1777 ई . ) : क्रांति का पहला मसीहा - दलपतदेव ने युवावस्था में ही पटरानी के पुत्र अजमेरसिंह को डोंगर का अधिकारी बना दिया था । जब दलपतदेव की मृत्यु हुई , उस समय अजमेरसिंह डोंगर में था तथा रानी के पुत्र दरियावदेव ने अनाधिकृत रूप से राजा बनने के विचार से अजमेरसिंह पर चढ़ाई कर दी । दोनों अजमेरसिंह बस्तर राजसिंहासन पर बैठा । दरियावदेव ने जैपुर जाकर वहां के राजा विक्रमदेव ( 1758-81 ई . ) से मित्रता कर ली तथा उसी के माध्यम से नागपुर के भोंसले व कम्पनी - सरकार के अधिकारी जानसन से सम्पर्क किया । शर्तों के आधार पर तीनों ही ताकतों ने अजमेरसिंह के विरूद्ध दरियावदेव की सहायता करने का वचन दिया तथा तद्नुसार 1777 ई . में कम्पनी - सरकार के प्रमुख जानसन व जैपुर की सेना ने पूर्व से व भोंसला के अधीन नागपुर की सेना ने उत्तर दिशा से जगदलपुर को घेर लिया । फलस्वरूप अजमेरसिंह परास्त होकर जगदलपुर से भाग कर डोंगर चला गया ।

हल्बा विद्रोह (1774-1779 ई.) तथा चालुक्य - राज का पतन - डोंगर वह क्षेत्र है जहां हल्बा - क्रांति प्रारंभ हुई थी । चालुक्य हल्या क्रांति को कभी रोक नहीं पाये और जब उन्होंने ऐसा प्रयास किया तो चालुक्य शासन का पतन हो गया । राज्य की स्वतंत्रता छिन गई और वे कम्पनी - सरकार के षड्यंत्र से मराठों के पराधीन हो गये । डोंगर में हल्बा भड़का था । इसमें भौगोलिक सीमा , अनिश्चित वर्षा , आवागमन के कठिन साधन तथा कृषि योग्य सीमित भूमि प्रमुख कारण रहे हैं । सन् 1774 ई . में हल्बा – विद्रोह डोंगर में अल्प परिणाम में प्रारंभ हुआ । कई स्थितियां और विभिन्न परिस्थितियों के कारण उसकी उन्नति हुई ।

सन् 1777 में अजमेरसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसकी हल्बा सेना को बर्बरता के साथ मौत के घाट उतार दिया गया एवं कुटिलता से समस्त हल्बाओं को मार डाला गया । केवल एक हल्बा अपनी जान बचा सका । इतना बड़ा नरसंहार विश्व के इतिहास में कभी नहीं हुआ , जहां पूरी जनजाति का ही सफाया कर दिया गया हो । इस प्रकार अजमेरसिंह की मृत्यु और हल्बा - क्रांति के पतन को बस्तर में चालुक्य राजाओं की समाप्ति माना जा सकता है । इसी के साथ बस्तर भोंसलों के अधीन हो गया और बस्तर में चालुक्य वंश का राज्य समाप्त हो गया ।

बस्तर में मराठाराज ( 1778-1853 ई . )

मराठे अपने सर्वोत्तम प्रयास के उपरान्त भी बस्तर को पराभूत नहीं कर सके । मराठा सेना का बस्तर की सेना ने सन् 1750 ई . में टुकड़े - टुकड़े कर डाला था , किंतु 1779 ई . में दलपतदेव के पुत्र तथा उत्तराधिकारी दरियावदेव को महान् ' हल्बा - क्रांति ' के विरूद्ध मराठों से सहायता मांगनी पड़ी और उसे नागपुर के भोंसला राजा को वार्षिक 4000 रूपये से 5000 रूपये तक की अल्प राशि देने के लिये आबद्ध होना पड़ा । महान् हल्बा - क्रांति 1774-79 ई . में सैनिक सहायता की प्राप्ति के कारण दरियावदेव मराठों का राजनिष्ठ बन गया ।

दरियावदेव (1777-1800 ई.) - बस्तर के वास्तविक अधिकारी अजमेरसिंह के विरूद्ध उसके भाई दरियावदेव ने जो षड्यंत्र रचा , उसमें वह सफल हुआ तथा शत्रु सेनाओं के संचालक जैपुर नरेश - महाराज विक्रमदेव ने दरियावदेव को बस्तर - राज्य के सिंहासन पर अभिषिक्त किया । दरियावदेव ने व्यक्तिगत लोभ के लिये बस्तर - राज्य की स्वाधीनता को बेच दिया । इसके शासन में अप्रैल 1795 ई . में भोपालपट्टमन् संघर्ष हुआ ।

कोटपाड़ संधि (6 अप्रैल , 1778 ई.) : बस्तर भोंसला शासन के अधीन - संधि के अवसर पर भोंसला पक्ष , जैपुर पक्ष तथा बस्तर राज्य के लोग उपस्थित थे । नागपुर के भोंसलों के अधीन रतनपुर के भोंसला राजा - बिम्बाजी ( 1758-1787 ई . ) की ओर से त्र्यम्बक अवीरराव उपस्थित था । भोंसलों ने चूंकि बस्तर राज्य की सैन्य सहायता की थी , अतएव दरियावदेव ने भोंसलों की अधीनता स्वीकार कर ली । इसके अतिरिक्त उसे भोंसला राजा को प्रतिवर्ष 59,000 रुपये टकोली या नजराना देने के प्रतिज्ञापत्र पर भी हस्ताक्षर करना पड़ा । इसके साथ भोंसला - शासन ने यह वचन दिया था कि यदि बस्तर राज्य नियमित रूप से टकोली पटाते हैं , तो भोंसला - शासन उन पर किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न करेगा तथा वे अपने राज्य के पूर्ण अधिकारी होंगे । संधि के अंतर्गत कोटपाड़ परगना जैपुर राज्य को प्राप्त हुआ । जैपुर पूर्व में ही ब्रिटिश अधीनता में जा चुका था । दरियावदेव द्वारा संधि पत्र पर 6 अप्रैल , 1778 ई . को हस्ताक्षर कर देने से बस्तर नागपुर के अधीन रतनपुर राज्य के अंतर्गत चला गया और इसी समय से बस्तर छत्तीसगढ़ का अंग बना

बस्तर के पार्श्ववर्ती क्षेत्र में प्रथम अंग्रेज यात्री : कैप्टेन जे . टी . ब्लंट : 1795 ई .

कैप्टन जे . टी . ब्लट प्रथम अंग्रेज यात्री था , जो प्राचीन बस्तर की यात्रा की इच्छा लेकर निकला था , किंतु बस्तर में वह प्रवेश नहीं कर सका । बस्तर प्रवेश की बलवती इच्छा से वह 12-5-1795 से 28-5-1795 तक ( सत्रह दिनों तक ) पार्श्ववर्ती क्षेत्रों में विचरण करता रहा , किंतु पड़ोसी क्षेत्र के राजाओं ने उसे यही सलाह दी कि बस्तर - प्रदेश से उसकी सुरक्षा संदिग्ध है । उसने खुद एकाधिक अवसरों पर बस्तर की सीमा को पार करने की कोशिश की . जहां उसे धनुष - बाण व मशालधारी गोंड़ों से युद्ध करना पड़ा और वह कभी अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो सका फिर भी उसने कांकेर की यात्रा की थी ।

बस्तर में आंग्ल - मराठाराज (1819-1853 ई.)

मराठा - अभिलेखों में बस्तर का वर्णन जमींदारी या सूबा या छत्तीसगढ़ के एक प्रान्त के रूप में किया गया है जिस पर भोसलों का शासन था , कितु वास्तव में बस्तर के राजाओं ने मराठों की प्रभुता कभी स्वीकार नहीं की । बस्तर - राज्य 1777 ई . तक अक्षुण्य बना रहा , किंतु मराठों और उनके साथियों के लूटमार वाले दृष्टिकोण के कारण वह याद के वर्षों में क्रमश : सिकुड़ता गया । फिर भी 1818 ई . तक वह मराठों के सामने झुका नहीं । 1818 ई.में आंग्ल - मराठा - संधि हो जाने के कारण नए अनुबंधों के अधीन बस्तर की शक्ति सीमित कर दी गई थी । ये नए जमींदारों के साथ किए गये थे । यद्यपि बस्तर सिद्धांततः उक्त अवधि में मराठा अधीनता में रहा , तथापि मराठा साम्राज्य में ब्रिटिश नियंत्रण 1818-30 ई . एवं उसके बाद भी 1854 ई . में मराठा साम्राज्य के ब्रिटिश प्रभुसत्ता में आने तक बस्तर में सम्मिलित रूप से मराठों एवं अंग्रेजों का प्रभाव रहा ।

महिपालदेव ( 1800-1842 ई . ) तथा परलकोट - विद्रोह - महिपाल दरियावदेव का ज्येष्ठ पुत्र था । सन् 1809 ई . तक बस्तर ने नागपुर के राजा को कोई खास महत्व नहीं दिया था । सन् 1779 ई . में बस्तर राज्य ने मराठा वर्चस्व स्वीकार कर लिया था ; किंतु न तो दरियावदेव और न उसके पुत्र महिपालदेव ने राजा के मामले में हस्तक्षेप करने का उन्हें कोई मौका दिया । इस प्रकार बस्तर भीकाजी गोपाल ( 1809-1817 ई . ) की नाराजगी का कारण बना रहा । दरियावदेव ने यद्यपि भोंसलों की अधीनता स्वीकार कर ली थी . किंतु सन्धि के अनुसार टकोली देने में सदैव उदासीनता ही बरती थी । इस प्रकार उसका पुत्र महिपालदेव भी भोंसलों से चिढ़ता था तथा भोसलों से अनेक स्मरणपत्रों व संदेशों के बावजूद उसने टकोली की रकम नहीं दी । उसने अपने - आपको स्वतंत्र घोषित किया तथा रतनपुर के भोंसला - शासक नानासाहेब या व्यंकोजी के पास स्पष्ट रूप से यह संदेश भिजवा दिया कि बस्तर लुटेरे भोंसलों की अधीनता स्वीकार नहीं करता । व्यंकोजी भोंसला ने बस्तर के राजा को दबाने के लिए अपने सर्वाधिक शक्तिशाली मुसाहिब रामचन्द्र बाघ को आदेश दिया । एक दिन कांकेर - राज्य पर एकाएक मराठों का आक्रमण हुआ । कांकेर का राजा पराजित हुआ तथा उसे निकट के एक गांव में शरण लेनी पड़ी । रामचन्द्र बाघ कांकेर - राज्य को रौदता हुआ बस्तर की राजधानी जगदलपुर पहुंच गया । अकस्मात् आक्रमण के कारण प्रारम्भ में बस्तर की सेना के पैर उखड़ गए तथा जगदलपुर के किले पर भोंसलों का अधिकार हो गया । किंतु बस्तर - राजा महिपालदेव ने आदिवासियों की सेना को संगठित कर पुनः मराठों पर आक्रमण कर दिया तथा किले को छीन लिया व रामचन्द्र बाघ अपने शेष सेना के साथ जंगल की ओर भाग गया । उसने इस बार रायपुर तथा रतनपुर से अत्यधिक संख्या में भोसला सैनिकों को बुलाया तथा अपनी सेना को सुदृढ कर लेने के पश्चात् संगठित होकर पुनः जगदलपुर किले पर धावा बोल दिया । इस बार आदिवासियों की सेना पराजित हुई तथा महिपालदेव को पुनः भोसलों की अधीनता का सत्यनिष्ठ वचन देना पड़ा ।

बस्तर के सिहावा परगने पर भोंसलों का स्वामित्व -1809 . में भोंसला - आक्रमण के पश्चात् महिपालदेव पर अनेक वर्षों का उपहार बकाया था , जो उसे टकोली के रूप में प्रतिवर्ष नागपुर - शासन को देना पड़ता था । इस बकाया राशि के बदले 1830 ई . में महिपालदेव ने सिहावा - परगना नागपुर शासन के सुपुर्द कर दिया ।

परलकोट विद्रोह (1825 ई.) - महिपालदेव के काल में 1825 में परलकोट का विद्रोह हुआ था । जिसका विस्तृत विवरण ग्रंथ के आदिवासी विद्रोह ' नामक अध्याय में किया गया है । 1825 ई . के विद्रोह में परलकोट के जमींदार गेदसिंह ही विद्रोही सेना का नेतृत्व कर रहे थे । यह एक प्रकार का ऐसा विद्रोह था . जिसके माध्यम से अबूझमाडिया ऐसे संसार की रचना करना चाहते थे जहां शोषण न हो । यह मराठों और अंग्रेजों के प्रति बदले की भावना से पैदा हुआ था । उनका यह विद्रोह चांदा से अबुझमाड़ की पट्टी में छाया हुआ था । वे इस विद्रोह में इसलिए असफल हो गए , क्योंकि बंदूकों के सामने पारंपरिक अस्त्र - शस्त्रों से नहीं लड़ा जा सकता था ।

भूपालदेव (1842-1853 ई.) - महिपालदेव के दो पुत्र थे – भूपालदेव तथा दलगजन सिंह । भूपालदेव पटरानी का पुत्र थी तथा उसका सौतेला भाई दलगंजसिंह छोटी रानी की संतान था । अतएव महिपालदेव की मृत्यु के पश्चात् भूपालदेव ने छत्तीस वर्ष की अवस्था में 1842 ई . में शासन की बागडोर सम्भाली । भूपालेदय ने बस्तर - राजसिंहासन पर अभिषेक के अनन्तर दलगंजनसिंह को तारापुर परगने का अधिकारी बना दिया , क्योंकि भूपालेदव की तुलना में दलगंजनसिंह अपने सदाचरण और पराक्रम के कारण बस्तर की आदिवासी जनता में लोकप्रिय था तथा भूपालदेव उससे सदा भयभीत रहता था । कालांतर में दोनों भाइयों में पारस्परिक संघर्ष होता रहा ।

नरबलि के उन्मूलन का प्रयास - ब्लण्ट , एगन्यू तथा जेन्किन्स के यात्रा - विवरण व प्रतिवेदनों के आधार पर तधुगीन मराठा - शासन में यह बात कुख्यात हो चली थी कि शंखिनी तथा डंकिनी नामक नदियों के संगम पर स्थित दन्तेवाड़ा के दन्तेश्वरी मंदिर में नरबलि की एक क्रूर प्रथा विद्यमान थी । इस प्रकार की नरबलि का अंत उड़ीसा के गुमसर तथा कालाहांडी - क्षेत्रों में अंग्रेज - शासन ने 1842 ई . से पूर्व करा दिया था । अंग्रेजों ने मराठा शासन को आदेश देकर उसके अधीनस्थ बस्तर राज्य में प्रचलित नरबलि को बन्द करवाने हेतु 1842 ई . में मंदिर के चारों ओर भोसला - सुरक्षा सैनिकों की एक टोली नियुक्त करा दी । इस प्रकार की नरबलि के कुप्रचलन के संबंध में मराठा शासन ने जब भूपालदेव पर अभियोग लगाया था तो उसने अनभिज्ञता प्रदर्शित की थी तथा यह वचन दिया था कि यदि ऐसी कुरीति विद्यमान है तो उसे शीघ्र ही समाप्त कर दिया जाएगा । टकोली लेने के अतिरिक्त यह प्रथम अवसर था जब 1842 ई . में मराठों ने बस्तर पर हस्तक्षेप किया था । ' मैकफर्सन ' को ब्रिटिश शासन ने उन क्षेत्रों में प्रचलित नरबलि की जांच के लिए नियुक्त किया था , जो बस्तर से संलग्न थे । इस संबंध में मैकफर्सन ने जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था । उसके अनुसार ' ताड़ी पेन्नु या ' माटीदेव ' की पूजा में प्रमुख संस्कार नरबलि का है । इसे यहां की जनजातियां एक सार्वजनिक उत्सव के रूप में आयोजित करती थीं तथा इसका आयोजन विशेष अवधि में होता था । अपवाद स्वरूप यदा - कदा लोगों में अत्यधिक रोगाक्रान्त होने से जब अकाल , मृत्यु से मरने वालों की संख्या बढ़ जाती थी या जनजातिक मुखिया के परिवार में कोई अप्रत्याशित आपदा आ पड़ती थी उस समय इसका आयोजन निरवधिक होता है । नरबलि के निमित्त वध्य लोगों को ' मेरिआ कहा जाता है । खोंड जनजाति में नरबलि के निमित्त वध्यजनों की पूर्ति का कार्य पावाँ एवं गहिंगा जनजातियों द्वारा किया जाता था ।

तारापुर विद्रोह (1842-54 ई.) - बस्तर के राजा ने नागपुर - सरकार के आदेश पर तारापुर परगने की टकोली बढ़ा दी थी , जिसका तारापुर के गवर्नर दलगंजनसिंह ने विरोध किया था । जब दलगजनसिंह पर नागपुर - सरकार का दबाव बढ़ा , तो उन्होंने टकोली बढ़ाकर जनता के लूट की स्वीकृति के बजाय तारापुर छोड़ देने की ठानी और जैपुर चले जाने का निश्चय किया । आदिवासियों ने उनसे आग्रह किया कि वे तारापुर न छोड़ें और आंग्ल - मराठा शासन के खिलाफ बगावत कर दें । इस विद्रोह की चर्चा ' आदिवासी विद्रोह ' नामक अध्याय में की गई है ।

मेरिया - विद्रोह (1842-1863 ई.) - दन्तेवाड़ा की आदिम जनजातियों ने उन्नीसवीं शताब्दी में आंग्ल - मराठा शासन के खिलाफ विद्रोह किया था । यह आत्मरक्षा के निमित्त एवं अपनी धरती पर विदेशियों के घुसपैठ के विरूद्ध एक विद्रोह था । यह उनकी परंपरा और रीति - रिवाजों पर होने वाले आक्रमण के विरूद्ध एक विद्रोह था ।

बस्तर में ब्रिटिश राज (1854-1947 ई.)

डलहौजी की हड़प नीति के तहत 1854 ई. में नागपुर राज्य रघुजी तृतीय के निःसंतान मृत्यु होने के पश्चात् ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया । भोंसला राज्य के 1854 ई . में ब्रिटिश - शासन का अंग बन जाने से नागपुर राज्य के अधीन छत्तीसगढ़ के साथ बस्तर भी स्वाभाविक रूप से 1854 ई . में ही अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बन गया । 1855 ई. में ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतों से संबद्ध पुरानी सनदें स्वीकार कर ली ।

भैरमदेव (1853-1891 ई.) - भूपालदेव के पुत्र भैरमदेव का जन्म 1839 ई . में हुआ था तथा वे तेरह वर्ष की अवस्था 1853 ई . में राजसिंहासन पर बैठे । भैरमदेव के राजसिंहासनाधिरूढ़ होते ही बस्तर ब्रिटिश साम्राज्य में चला गया । ब्रिटिश शासन ने भैरमदेव को शासन का अधिकार दे दिया ।

प्रथम यूरोपीय - इलियट का 1856 ई . में बस्तरागमन - नागपुर राज्य के ब्रिटिश शासन में विलय के पश्चात् बस्तर छत्तीसगढ़ - संभाग के नियंत्रण में आ गया था तथा समय - समय पर छत्तीसगढ़ - सूबा के डिप्टी कमिश्नर उसका निरीक्षण करते रहते थे । इस प्रकार छत्तीगसढ़ - संभाग का डिप्टी कमिश्नर मेजर चार्ल्स इलियट प्रथम यूरोपीय था , जो 1856 ई . में बस्तर आया था तथा जिसने इस क्षेत्र से सम्बद्ध मूल्यवान सामग्री जुटाई थी । इलियट से पूर्व 1795 ई . में ब्लण्ट ने इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहा था , किंतु उसे सफलता नहीं मिली थी । इलियट द्वारा संचित सामग्री में- जगदलपुर के जिलाधीश - कार्यालय में हस्तलिखित रूप विद्यमान है । 1854 में बस्तर ब्रिटिश भारत का एक माण्डलिक राज्य बन गया । पहली अप्रैल , 1882 तक बस्तर छत्तीसगढ़ - डिवीजन के अंतर्गत अपर गोदावरी जिले के डिप्टी कमिश्नर के अधीन था , जिसका मुख्यालय सिंरोचा था तदनन्तर बदलाव आया तथा कुछ समय के लिए यह कालाहांडी के भवानीपाटणा के ' सुपरिण्टेण्डेंट ' के अंतर्गत रहा

महान् मुक्ति संग्राम की लपटें (1856-57 ई.) : लिंगागिरी विद्रोह – इस नए शासन से न तो राजा भैरमदेव प्रसन्न थे , न उनके दीवान दलगंजनसिंह और न ही यहां की आदिवासी जनता । मार्च 1856 ई . के अन्त तक दक्षिण बस्तर में आंदोलन तीव्र गति पर था । 50 वर्गमील क्षेत्र में फैले हुए लिंगागिरि तालुक की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी । इस तालुक के तालुकेदार धुर्वाराव माड़िया जनजाति का था उसने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजा दिया । उसने बस्तर के राजा भैरमदेव से भी निवेदन किया कि वह भी गैरकानूनी सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दें । भैरवदेव तो वैसा नहीं कर सके , किंतु विद्रोहियों और उन्होंने पूरी सहायता की । इसका विस्तृत विवरण ' जनजातीय विद्रोह नामक अध्याय में दिया गया है ।

कोई - विद्रोह ( 1859 ई . ) : वन संरक्षण का प्रथम भारतीय उदाहरण -1857 ई . का विद्रोह अभी शांत भी नहीं हुआ था कि दक्षिण बस्तर के फोतकेल जमींदारी के आदिवासियों ने साल वृक्षों के काटे जाने के खिलाफ विद्रोह कर दिया । जल्दी ही यह आक्रोश दक्षिण बस्तर की सभी जमींदारियों में फैल गया । इन जमींदारियों में रहने वाले आदिवासियों को उस समय ' कोई ' कहा जाता था , जिन्हें आज ‘ दोर्ला ' तथा ' दण्डामी माड़िया ' कहा जाता है । बस्तर के ' कोई लोगों में असंतोष के भड़कने का मूल कारण यह था कि ब्रिटिश सरकार ने यहां के जंगलों का ठेका हैदराबाद के व्यापारियों को दे दिया था । 1859 के विद्रोह के अनेक कारणों में से एक कारण ठेकेदार की निष्ठुरता भी थी । ठेकेदार मालिक मकबूजा के काटे गए सागौन के वृक्षों का मूल्य भी नहीं चुकाता था । ब्रिटिश सरकार उसके विरूद्ध किसी भी प्रकार की शिकायत को नहीं सुनना चाहती थी । विद्रोह का विस्तृत विवरण ‘ जनजातीय विद्रोह ' नामक अध्याय में दिया गया है ।

दीवान कालीन्द्रसिंह राज्य के उत्तराधिकारी - भैरवदेव के कोई सन्तान न थी । अतएव उन्होंने लाल कालीन्द्रसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था , किंतु लाल कालीन्द्रसिंह ने राजा के इस निर्णय को उचित नहीं माना तथा उनके प्रयास से वंश रक्षा के लिए राजा का तृतीय विवाह जैपुर के मुकुन्ददेव माछमार की अनुजा के साथ भैरवदेव का विवाह , बड़ी महारानी युवराज कुंपरिदेवी के विरोध के बाद भी 1883 में हुआ , जिससे रूद्रप्रतापदेव का जन्म हुआ ।

दीवान - पद पर ब्रिटिश अधिकारियों की नियुक्ति - नरबलि का बहाना लेकर ब्रिटिश - शासन ने प्रशासनिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण निर्णय यह लिया कि 1886 ई. में बस्तर में ब्रिटिश अधिकारियों को ही दीवान के पद पर नियुक्त किया जाएगा । राजा भैरवदेव को इसकी अनुमति देनी पड़ी । राजा के अधिकार बहुत संकुचित कर दिए गए । वह बिना उच्च अधिकारी की अनुमति के अपने दीवान को आज्ञा - पालन के लिए बाध्य नहीं कर सकता था ।

रानी चोरिस ( 1878-1886 ई .) : छत्तीसगढ़ की प्रथम विद्रोहिणी - पटरानी जुगराज कुंअर ने 1878 में अपने पति राजा भैरवदेव के विरूद्ध सशक्त विरोध प्रारंभ किया था । इस विचित्र किस्म के विद्रोह से बस्तर के आदिवासी दो खेमों में बंट गए थे । यह विद्रोह आठ वर्षों तक चला और बस्तर के लोग आज भी इसे ' रानी चोरिस ' के रूप में जानते हैं । यह विद्रोह आदिवासियों से संबद्ध नहीं था । यह एक सफल विद्रोह था और विद्रोहिणी महिला अंत में विजयिनी होकर उभरी । अंग्रेजों ने अपने प्रतिवेदनों में इसे विद्रोह की संज्ञा दी है ।

रूद्रप्रतापदेव (1891-1921 ई.) - भैरवदेव की 28 जुलाई 1891 ई. में मृत्यु के समय रूद्रप्रतापदेव 6 वर्ष के थे । उनका जन्म 1885 ई. में हुआ था । ब्रिटिश - शासन ने यद्यपि रूद्रप्रतापदेव को उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया था , तथापि उनकी अल्पवयस्कता में पहली नवंबर , 1891 से 1908 तक बस्तर का शासन अंग्रेज - प्रशासकों के ही अधिकार में था । रूद्रप्रतापदेव की शिक्षा - दीक्षा रायपुर के राजकुमार कालेज में हुई थी । भैरवदेव की मृत्यु के समय बस्तर में दीवान पद पर आलमचन्द कार्यरत था तथा उसके पश्चात् उत्कल ब्राह्मण रामचन्द्रराव मिश्र दीवान होकर आया । इसके पश्चात् 1896 ई . से आठ वर्ष दो यूरोपीय अधिकारी फैगन तथा गेयर क्रमशः प्रशासन के पद पर कार्य करते रहे ।

रूद्रप्रतापदेव का राज्याभिषेक - तेईस वर्ष की अवस्था में सन् 1908 ई . में रूद्रप्रतापदेव को बस्तर के करद राजा के रूप में अभिषिक्त किया गया था । रूद्रप्रतापदेव का कोई पुत्र नहीं था । उनकी मृत्यु 16 नवंबर , 1921 के बाद प्रथम बस्तर रानी चन्द्रकुमारीदेवी से उत्पन्न महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी ( 1921-1936 ई . ) को उत्तराधिकारिणी स्वीकार किया गया । प्रफुल्लकुमारी का मयूरभंज के गुजारेदार प्रफुल्लचंद्र भंजदेव से जनवरी , 1925 में विवाह हुआ , इसी के साथ के चालुक्य - व -वंश का अवसान हो गया क्योंकि महारानी के पुत्र तो मूलतः ‘ भंज वंश ' के हुए ।

राजा रूद्रप्रतापदेव के समय बस्तर में कई निर्माण कार्य हुए । राजा रूद्रप्रतापदेव पुस्तकालय बनी , जगदलपुर की टाउन प्लानिंग के अनुसार ' चौराहों का शहर ' बनाया गया । कई मंदिर बनवाने का कार्य रूद्रप्रतापदेव के काल में हुआ । आवागमन के लिए सड़कें बनीं । सन् 1900 में बंदोबस्त हुआ । तत्कालीन रायबहादुर पण्डा बैजनाथ ने वनों को आरक्षित किया । बस्तर रियासत में अनिवार्य शिक्षा लागू कर दी गई । इन सभी कार्यों का श्रेय ब्रिटिश प्रशासकों फैगन ( 1896-1903 ई . ) एवं गेयर ( 1899-1903 ई . ) को है जिन्होंने आठ वर्षों में बस्तर राज्य की विशेष उन्नति की । राजा रूद्रप्रतापदेव के कार्यकाल में 1910 का महाविप्लव भूमकाल हुआ । आदिवासियों ने गुन्डाधूर एवं डेंगबरीधुर जैसे शौर्य प्रतिभाओं को ढूंढ निकाला ।

' घैटीपोनी स्त्री विक्रय की विचित्र प्रथा - ब्रिटिश अधिकारी ' चैपमैन ' ने 1898 ई . की अपनी रिपोर्ट में रूद्रप्रताप युगीन बस्तर में प्रचलित एक विचित्र प्रथा का उल्लेख किया है जो राजा के आमदनी का एक अन्य साधन भी था । वह सुण्डी , कलार , धोबी , पनरा इन चार जातियों की विधवा व परित्यक्ता स्त्रियों को बेच सकता था । वे स्त्रियां अपने - अपने परगने के मुख्यालय में बुलाई जाती थीं तथा उनकी नीलामी होती थी । खरीददार उसी जाति का होता था । यह प्रथा ' घैटीपोनी ' के नाम से जानी जाती थी , जिसका अर्थ है ' कुटुम्ब की बहाली । जब कोई स्त्री अपने पति के साथ दुर्व्यहार करती थी , तब कभी - कभी उसका रूष्ट पति उसे नीलामी करने के लिए राजा को स्वयं देता था । राजा को पूर्ण अधिकार था कि वह स्त्री को अधिक बोली लगाने वाले को दे ।

रूद्रप्रतापदेव को ' सेंट आफ जेरूसलम ' की उपाधि - महाराज रूद्रप्रतापदेव दया , धर्म , सत्यता , महानशीलता , वाकपटुता और परोपकारिता के अवतार थे । यूरोपीय महायुद्ध में उन्होंने ब्रिटिश शासन की अत्यधिक सहायता की थी । इससे भारत - शासन ने उन्हें ' सेंट आफ जेरूसलम ' जेरूसलम का सन्त ( ईसा मसीह ) की उपाधि दी थी ।

महान भुमकाल ( 1910 ई . ) - आदिवासी संपर्क में जो भी आया उसे छलता ही रहा । सामंत , राजा , जमींदार , जागीरदार , छोटे - मोटे अधिकारी , व्यवसायी , व्यापारी , साहूकार आदि समय - समय पर आदिवासियों को घुन के समान चाटते रहे । वर्षों से ये आदिवासी निरंतर इन शोषणों के विरूद्ध बगावत करते रहे । समस्त विद्रोहों में सर्वाधिक खतरनाक और शक्तिशाली विद्रोह था- 1910 ई . का ' भुमकाल ' । इसका विवरण ग्रंथ के अध्याय ' आदिवासी विद्रोह ' में दिया गया है ।

राजा रूद्रप्रतापदेव की मृत्यु 16 नवंबर , 1921 में हुई । प्रजा के विशेष आग्रह पर अंग्रेजों ने उनकी पुत्री राजकन्या प्रफुल्लकुमारी देवी , जो 12 वर्ष की नाबालिग थी , को राजसत्ता का अधिकार दिया । 28 फरवरी , सन् 1936 में उनकी मृत्यु होने पर उनके पुत्र प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने राजगद्दी संभाली । सन् 1947 में देश स्वतंत्र होने के पश्चात् बस्तर रियासत का भी भारतीय संघ में 1948 को विलय हो गया ।

छत्तीसगढ की प्रथम महिला शासिका महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी

प्रफुल्ल कुमारी देवी का राज्याभिषेक सन् 1922 में 12 वर्ष की आयु में हुआ था । उनका विवाह मयूर भंज महाराज के भतीजे प्रफुल्ल बंद भंजदेव के साथ जनवरी 1927 को हुआ । ' इंडियन वूमन हुड ' नामक एक पत्रिका में महारानी के विषय में उल्लेख है ।

महारानी ने महिला के रूप में अपने अधिकारों की सम्पूर्ण प्रभुसत्ता को प्राप्त कर एक इतिहास बनाया जबकि उनके पिता ( रुद्रप्रतापदेव ) ने मृत्यु के कुछ समय पूर्व एक दत्तक पुत्र लेने की इच्छा व्यक्त कर अपनी पत्नी ( महारानी सौतेली मा ) को अधिकृत किया था । नहारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी के दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं । उनमें पुत्री कमला देवी सबसे बड़ी थी । महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी को अंग्रेज शासकों ने लगातार तंग किया था । उनके पति प्रफुल्ल चन्द्र भजदेव के बस्तर प्रवेश में प्रतिबंध लगा दिया गया था , क्योंकि उन्होंने बस्तर को 1930 ई . में निजामिस्तान बनाने के ब्रिटिश षड़यंत्र की खिलाफत की थी । उन्हें उनके बच्चों से दूर रखा गया तथा उनका अपने बच्चों पर कोई अधिकार नहीं रह गया था । उन्हें भी अंग्रेजों ने प्रताडित किया । महारानी को अपेंडीसायटिस के ऑपरेशन के लिये लंदन भेजा गया था , जहां उनका देहावसान 1936 को सदेहास्पद ढंग से हो गया । संभवत उन्हें अंग्रेज शासकों द्वारा षड्यन्त्रपूर्वक मार दिया गया । इस प्रकार महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी केवल बस्तर की ही नहीं अपितु संपूर्ण छत्तीसगढ़ की प्रथम एवं एक मात्र महिला शासिका थी । इसके बाद प्रवीरचन्द्र भजदेव को ब्रिटिश शासन ने औपचारिक रूप से गद्दी पर बिठाया एवं रियासती शासन की बागडोर अपनी हाथ में ले ली ।