छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था
बस्तर का इतिहास
छत्तीसगढ़ का नामकरण
छत्तीसगढ़ के गढ़
छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास
मराठा शासन में ब्रिटिश - नियंत्रण
छत्तीसगढ़ में पुनः भोंसला शासन
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव
1857 की क्रांति एवं छत्तीसगढ़ में उसका प्रभाव
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन
राष्ट्रीय आन्दोलन (कंडेल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (सिहावा-नगरी का जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (प्रथम सविनय अवज्ञा आन्दोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (महासमुंद (तमोरा) में जंगल सत्याग्रह, 1930 : बालिका दयावती का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आन्दोलन का द्वितीय चरण)
राष्ट्रीय आन्दोलन (गांधीजी की द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा (22-28 नवंबर, 1933 ई.))
राष्ट्रीय आन्दोलन (व्यक्तिगत सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर षड्यंत्र केस)
राष्ट्रीय आन्दोलन (भारत छोड़ो आंदोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर डायनामाइट कांड)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता दिवस समारोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर में वानर सेना का बाल आंदोलन बालक बलीराम आजाद का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रियासतों का भारत संघ में संविलियन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में मजदूर एवं किसान आंदोलन 1920-40 ई.)
छत्तीसगढ़ के प्रमुख इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता
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राष्ट्रीय आन्दोलन (सिहावा-नगरी का जंगल सत्याग्रह)



सिहावा-नगरी का जंगल सत्याग्रह
धमतरी तहसील में स्थित सिहावा-नगरी नामक आदिवासी बहुल क्षेत्र है। यहां के लोगों ने जनवरी 1922 में जंगल कानून का उल्लंघन कर एक आंदोलन प्रारंभ किया, जो सिहावा नगरी का जंगल सत्याग्रह के नाम से प्रसिद्ध है। यह आदोलन इस क्षेत्र की आदिवासी जनता द्वारा वन अधिकारियों के विरुद्ध आरंभ किया गया था, क्योंकि ये अधिकारी आदिवासियों को कम दरों में मजदूरी देते थे तथा बेगारी लिया करते थे। इसके साथ ही निस्तार हेतु  वनोपज ले जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अतः विरोध स्वरूप आरक्षित वनों से लकड़ी काटकर 21 जनवरी से आंदोलन प्रारंभ किया गया और इसकी सूचना स्थानीय अधिकारियो को दे दी गई। आंदोलन प्रारंभ होने के कुछ दिनों बाद ब्रिटिश अधिकारी अपने साथ सशस्त्र पुलिस लेकर सिहावा-नगरी के जंगल सत्याग्रह का दमन करने पहुंचे। लोगों के घरों में तलाशी ली गई लकड़ी चोरी के आरोप में आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। गांव में ही अदालत लगाकर अनेक लोगों को सजा दे दी गई। सत्याग्रहियों से कहा गया कि वे क्षमा मांग लेंगे तो छोड़
दिये जायेंगे, किंतु कोई भी क्षमा मांगने को तैयार न था। अनेक सत्याग्रहियों को कठोर सजायें दी गई और लोगों को निर्दयता पूर्वक पीटा गया। महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया। 33 सत्याग्रहियों को तीन माह एवं छः को पांच माह के कठोर कारावास की सजायें आर्थिक दण्ड सहित सुनाई गई। हरखराम सोम, विशंभर पटेल एवं पंचम् सिंह सोम, शोभाराम साहू आदि इसमें प्रमुख थे जिन्हे नगरी में गिरफ्तार करने के बाद रायपुर जेल से नरसिहपुर जेल भेजा गया। इस समय इस क्षेत्र के लगभग सभी कांग्रेसी अहमदाबाद अधिवेशन में भाग लेने गये थे। लौटने पर आन्दोलन मे पं. सुन्दरलाल शर्मा, नारायणराव मेघावाले. छोटेलाल श्रीवास्तव आदि के आगमन से लोगों के उत्साह में वृद्धि हुई। इन नेताओं ने सरकारी दमन के प्रति निन्दा जारी रखते हुए प्रांतीय कांग्रेस कमेटी से स्वीकृति प्राप्त होने तक सत्याग्रह स्थगित करने हेतु प्रेरित किया। इस बीच वन विभाग के अधिकारियों ने न्यूनतम मजदूरी प्रदान करने की बात मान ली। अतः सत्याग्रहियों ने आंदोलन वापस ले लिया। बाद में पंशर्मा एवं मेघावाले को इस संबंध में नोटिस देकर गिरफ्तार किया गया।

रायपुर जिला राजनीतिक सम्मेलन-पुलिस से टकराव
रायपुर जिला राजनीतिक सम्मेलन का आयोजन, छिदवाडा के वकील यू.बी. घाटे की अध्यक्षता में मई 1922 में किया गया। रविशंकर शुक्ल आयोजन समिति के स्वागताध्यक्ष थे। इस अधिवेशन में यह व्यवस्था की गई थी कि आयोजन समिति द्वारा जारी पास अथवा टिकट के बिना कोई व्यक्ति सम्मेलन में प्रवेश नहीं कर सकेगा। तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर क्लार्क और पुलिस कप्तान जोन्स ने पाच निःशुल्क पास की मांग आयोजन समिति से की. जिसे आयोजन समिति ने अस्वीकार कर दिया। अधिवेशन प्रारभ होने पर एक मजिस्ट्रेट ने पुलिस के साथ मंडप में प्रवेश करना चाहा, पर प. रविशकर शुक्ल और वामनराव लाखे ने उन्हें रोक दिया। शुक्लजी को गिरफ्तार कर लिया गया। पूरे शहर का वातावरण तनावपूर्ण हो गया। जनता ने कोतवाली को घेर लिया, किंतु माधवराव सप्रे, ई. राघवेन्द्रराव, वामनराव लाखे आदि नेताओ ने स्थिति नियंत्रण मे रखी। दूसरे दिन शुक्लजी की गिरफ्तारी के विरोध में रैली निकाली गई जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी ने भाषण दिया। इस अवसर पर सभी वर्ग के दो सौ लोगों ने पं. सप्रे के नेतृत्व में स्वेच्छा से गिरफ्तारी दी। प. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने भी गिरफ्तारी दी। इस दिन सम्मेलन में डिप्टी कमिश्नर एवं पुलिस कप्तान ने पुनः प्रवेश करना चाहा, तब सप्रेजी ने उन्हें रोक दिया और कहा उन्हें प्रवेश अनुमति परिषद के मंत्री और गवर्नर ही दे सकते है। तब जिलाधीश क्लार्क' ने पूछा कि यह दूसरा गवर्नर कौन है ? सप्रेजी ने उत्तर दिया- प्रातीय कांग्रेस अध्यक्ष श्री ई. राघवेन्द्रराव, तब जिलाधीश (डिप्टी कमिश्नर) क्लार्क ने राव साहब को बुलावा भेजा।राव साहब ने आने से इकार कर दिया । अन्ततः दोनों अधिकारियों ने टिकट लेकर प्रवेश किया। यह अंग्रेज अधिकारियों की जबरदस्ती पर कांग्रेस की विजय थी। पं. शुक्ल की गिरफ्तारी से संपूर्ण शहर आंदोलित हो चुका था।
     जनता के उत्साह एवं राष्ट्र प्रेम का रायपुर की सशस्त्र पुलिस पर भी गहरा प्रभाव पड़ा जिससे सशस्त्र पुलिस के सोलह सिपाहियों ने अपनी सेवा से त्यागपत्र दे दिया। शुक्ल जी को दो दिनों बाद छोड़ दिया गया। इस प्रकार आयोजित सम्मेलन अपने उद्देश्य में सफल रही। इस घटना का जनता पर गहरा असर पड़ा। इस सारे घटना क्रम पर जबलपुर से प्रकाशित कर्मवीर ने जोरदार प्रतिक्रियात्मक समीक्षा प्रकाशित की।
     असहयोग आंदोलन की समाप्ति-  पूरे देश के समान छत्तीसगढ़ में भी असहयोग आंदोलन तेजी से चल रहा था। इसी बीच 5 फरवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा नामक स्थान पर आंदोलनकारियों ने पुलिस चौकी में आग लगा दी, जिसमें एक थानेदार तथा 21 सिपाही जलकर मर गये। गांधीजी को इस घटना से दुःख पहुचा और 11 फरवरी को उन्होंने सामूहिक सत्याग्रह वापस लेकर रचनात्मक कार्यो तथा चरखे का प्रचार, राष्ट्रीय विद्यालयो की स्थापना, मादक द्रव्य निषेध तथा पंचायतों के संगठन आदि पर विशेष जोर दिया। अहिंसा में आस्था रखने वाले गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया. इस पर गांधीजी की व्यापक निन्दा हुई । मोतीलाल नेहरू ने कहा "यदि कन्याकुमारी के एक गाव ने अहिंसा का पालन नहीं किया तो इसकी सजा हिमालय के एक गांव को क्यों मिलनी चाहिये। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा "ठीक उस समय जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश दे देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं। आदोलन स्थगित करने का प्रभाव गांधीजी की लोकप्रियता पर पड़ा। उन्हे 13 मार्च, 1922 को होली के अवसर पर गिरफ्तार कर लिया गया। 
पं. शर्मा की गिरफ्तारी - आंदोलन की समाप्ति के पश्चात् शासन ने गिरफ्तारियों का सिलसिला युद्ध स्तर पर प्रारंभ कर दिया। सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिये गये। छत्तीसगढ़ में भी प्रभावशाली काग्रेसियों को गिरफ्तार करने के बहाने एवं अवसर ढूंढे जाने लगे। पं. सुन्दरलाल शर्मा एवं नारायणराव फडनवीस मेघावाले को सिहावा क्षेत्र में कांग्रेस के कार्यों एवं कार्यक्रमो का प्रचार करने के कारण आई.पी.सी. की धारा 108 के अंतर्गत मई 1922 में गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया. किंतु इन दोनों देश भक्त नेताओं ने मुकदमे की कार्यकही में प्रारंभ से अंत तक कोई भाग नहीं लिया अतः अदालत ने एकपक्षीय कार्यवाही कर इन्हें क्रमशः एक वर्ष तथा आठ माह के सश्रम कारावास की सजा देकर रायपुर जेल भेज दिया गया। पं. शुक्ल एवं अपार जनसमूह ने इन दोनों नेताओं को फूलमालाओं से सुसज्जित कर विदा किया तथा धमतरी एवं रायपुर शहर के लोगों ने हड़ताल रखकर इन नेताओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया।
    इन दोनों नेताओं की गिरफ्तारी पर समाचार पत्रों ने पुनः शासन के अनुचित कदम पर प्रतिक्रियात्मक रुख अपनाये। नागपुर से प्रकाशित हितवाद' ने मई 1922 में मध्यप्रांत में 'दमन' नामक शीर्षक में तथा जबलपुर से प्रकाशित कर्मवीर ने मई 1922 के अंक में आलोचनात्मक लेख लिखा । पं. शर्मा को भविष्य में सद्व्यवहार की गारंटी के लिये जमानत पेश करने को कहा गया, किंतु उन्होंने जमानत प्रस्तुत न करते हुए अन्याय के समक्ष झुकने की अपेक्षा जेल जाना उचित समझा।

इसी धारा के अंतर्गत क्षेत्र के अन्य लोगों को भी गिरफ्तार किया गया। इनमें मौलाना अब्दुल रउफ और बलौदा वाजार तहसील के ग्राम अंधियार खोर के मालगुजार पं. भगवती प्रसाद मिश्र भी गिरफ्तार कर जेल भेजे गये।
     कृष्ण जन्म स्थान समाचार पत्र-जेल पत्रिका-  मई 1922 में प. शर्मा एक वर्ष के लिये जेल भेज दिये गये। अपने बंदी जीवन के दौरान उन्होने "कृष्ण जन्म स्थान समाचार पत्र' नामक हस्तलिखित पत्र निकालना प्रारंभ किया। वे स्वयं जेल में बैठकर उसे लिखा करते थे। इसका नाम जेल पत्रिका क्यों रखा गया यह ज्ञात नहीं है। भगवान श्री कृष्ण का जन्म उनके माता-पिता के बंदी जीवन के कारण कंस के कारावास में हुआ था, अत. श्री कृष्ण का जन्म स्थान एक तरह से कारावास (जेल) ही था। संभवतः इसी कारण जेल से निकलने वाली इस पत्रिका का नाम 'श्री कृष्ण जन्म स्थान पत्रिका रखा गया हो। इस पत्रिका का केवल पांचवाँ अंक ही उपलब्ध है। इस पत्रिका से एक उत्कृष्ट कवि और चित्रकार का पता चलता है, क्योंकि पं. शर्मा ने अत्यंत उच्च स्तर के पद्य का सृजन इस पत्रिका के आरंभ में ईश्वर वंदना एवं अंदर के लेखों में किया है। पत्रिका के मुख पृष्ठ पर तत्कालीन राजनैतिक स्थिति की तस्वीर खींचता हुआ चित्रांकन है जिसमें पुलिस द्वारा अंधियार खोर के मालगुजार प. भगवती प्रसाद मिश्र को गिरफ्तार कर जेल में डालते दिखाया गया है। इस पत्रिका से तत्कालीन राजनैतिक साहित्यिक स्थिति के बोध के साथ, उस समय के जेल जीवन का सजीव चित्र प्राप्त होता है। इसके माध्यम से पं. शर्मा ने जेल से जनता के आत्मबल को बढ़ाने एवं उत्साहवर्धन का कार्य किया।
स्वराज दल और छत्तीसगढ़
दिसंबर 1922 ई. में कांग्रेस का नियमित अधिवेशन गया (बिहार) में चितरंजन दास की अध्यक्षता में हुआ। असहयोग आंदोलन के स्थगित होने के पश्चात् कांग्रेस में वैचारिक भिन्नता सामने आयी। देशबंधु एवं पं. मोतीलाल नेहरू द्वारा 1922 के अधिनियम को सुधारने या समाप्त कर देने के विचार से काउंसिल प्रवेश का समर्थन किया गया जिसके लिये कांग्रेस को चुनाव में भाग लेना होता। इस बात पर सदस्यों में मतभेद उत्पन्न हो गया और कांग्रेस ने काउंसिल प्रवेश के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। देशबधु एवं मोतीलाल नेहरू ने मिलकर स्वराज पार्टी का गठन किया। स्वराजवादियों ने विधान मंडलों के चुनाव लड़ने एवं विधान मंडलों में पहुंच कर सरकार की आलोचना एवं वैधानिक गतिरोध उत्पन्न करने की रणनीति बनाई। स्वराजवादियों को अपने पर विश्वास था कि शातिपूर्ण उपायों से चुनाव में भाग लेकर, अपने अधिक से अधिक सदस्यों को काउंसिल में भेजकर वे उस पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेंगे। इनका ये भी मानना था कि काउंसिल प्रवेश से उन्हें स्वशासन का अनुभव भी प्राप्त होगा। सितंबर 1923 में कांग्रेस ने भी इसे मान्यता प्रदान कर चुनाव में अपना समर्थन देना स्वीकार किया। इस तरह 1923 के चुनाव में छत्तीसगढ़ के प्रमुख नेता रायपुर से पं. रविशंकर शुक्ल, शिवदास डागा, बिलासपुर से ई. राघवेन्द्रराव एवं वैरिस्टर छेदीलाल ने प्रांतीय कांग्रेस कमेटी छोड़कर स्वराज पार्टी का समर्थन प्रारंभ कर दिया। 1923 के चुनाव में दल को मध्यप्रांत के प्रांतीय विधान परिषद में पूर्ण बहुमत मिला एव क्षेत्र से बैरिस्टर छेदीलाल एवं राव साहब ने काउंसिल प्रवेश किया। गवर्नर ने डॉ. मुंजे को मंत्रिमंडल के गठन हेतु आमंत्रित किया, किंतु उनके अस्वीकार करने पर गवर्नर ने एक अल्पमत का मंत्रिमंडल बनाकर कार्य प्रारंभ कर दिया।
रावसाहब का अविश्वास प्रस्ताव-  वैधानिक अवरोध तो स्वराजवादियों की नीति ही थी जिसके अनुरूप पहले मंत्रिमंडल के गठन के आमंत्रण को अस्वीकार किया गया और फिर गवर्नर द्वारा गठित अल्पमत के मंत्रिमंडल के विरुद्ध राघवेन्द्रराव द्वारा 1924 में अविश्वास प्रस्ताव रखा गया जो बहस के बाद 24 के विरुद्ध 44 मतों से पारित हो गया। इससे स्वराजवादियों की व्यवस्थापिका के भीतर अंग्रेजों के विरोध की योजना सामने आई। 
     1925 में चितरंजन दास की मृत्यु के बाद छत्तीसगढ़ में स्वराजदल में फूट पड़ गई। 1925 ई. को यहां ई. राघवेन्द्रराव की अध्यक्षता में स्वतंत्र दल का गठन किया गया। 1926 के निर्वाचन में इस दल के राव साहब एवं बैरिस्टर छेदीलाल विजयी हुये। राव साहब को मध्यप्रांत की परिषद में शिक्षामंत्री बनाया गया एवं 1928 में राव साहब ने मुख्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया।
    इस समय राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वराजवादियों ने ऐसे ही कार्य किये जिसमें 1924 में 'ली कमीशन (सिविल सेवा से संबंधित) की रिपोर्ट को स्वीकृत न होने देना, 'मुडीमेन कमेटी का सफल विरोध, बजट को अस्वीकृत करना आदि प्रमुख हैं। राष्ट्रीय स्तर पर 1926 के चुनाव में दल को अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हुई और इस वर्ष के अंत तक इस पार्टी का भी अंत हो गया। छत्तीसगढ़ में भी ठाकुर साहब एवं राव साहब के मध्य वर्ष 1929 में मतभेद शासन के अदर रहने या न रहने की बात पर हुआ और ठाकुर छेदीलाल पुनः कांग्रेस में आ गये। कालांतर में राव साहब भी कांग्रेस में वापस आये।

झंडा सत्याग्रह-  कांग्रेस ने चरखा युक्त तिरंगे को अपना प्रतीक चिन्ह बनाकर समूचे देश में उसका प्रचलन कर उसे राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में महत्व देना आरंभ कर दिया। अब कांग्रेस के लिये प्रत्येक कार्यक्रम में तिरंगे का होना अनिवार्य हो गया अतः यह झंडा ब्रिटिश शासन की निगाह में यूनियन जेक के लिये अपमान स्वरूप समझा गया। अतः ब्रिटिश शासन ने इसके महत्व को कम करने प्रयास किया। मार्च 1923 मे सरकार और कांग्रेस के बीच राष्ट्रीय झंडे को लेकर एक नाटकीय कशमकश शुरू हो गई। नगरपालिका चला रहे कांग्रेस के सदस्यों ने जबलपुर के टाऊनहाल में तिरंगा झंडा फहरा दिया। अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर ने उसे नीचे उतारने की आज्ञा दी। अति उत्साही पुलिस ने झंडे को कुचल भी दिया। इस घटना ने एक रोष पूर्ण उत्तेजना फैला दी। कांग्रेस ने एक सत्याग्रह शुरू किया। पं. सुन्दरलाल शर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, नाथूराम मोदी आदि नेताओं के नेतृत्व मे झंडे के साथ एक जुलूस निकाला गया। नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और पं. शर्मा को छ: महीने कैद की सजा सुनाई गई। बाद में सभा स्थल को मई 1923 मे बदल कर नागपुर कर दिया गया अतः देशभर से सत्याग्रही नागपुर पहुंचने लगे। जून 1923 में नागपुर में कांग्रेस का एक जुलूस निकाला गया जिसके साथ तिरंगा झडा भी था अतः अंग्रेज अधिकारियों ने पहले तो झंडा छीनने का प्रयास किया और सफल न होने पर सभी सत्याग्रहियो को झंडे सहित गिरफ्तार कर लिया। शासन के इस कार्य के विरोध में कांग्रेस ने प्रतिदिन झंडे सहित नागपुर में शांत जुलूस निकालने का कार्यक्रम बनाया इसे ही झंडा सत्याग्रह कहा गया। देश भर से लोग नागपुर पहुंच रहे थे और शासन लगातार इन्हें गिरफ्तार कर रहा था।
छत्तीसगढ़ में गिरफ्तारियां-  छत्तीसगढ़ से भी सत्याग्रही नागपुर पहुंचने लगे। रायपुर से पं. शर्मा और पं. शुक्ल पूर्व में ही रवाना हो चुके थे। इस सत्याग्रह में पहुंचने हेतु धमतरी मे अपूर्व उत्साह था। यहां से सत्याग्रही नागपुर जाने हेतु तैयार होने लगे, इधर शासन ने भी इन्हें नागपुर न पहुंचने देने हेतु योजना बनाकर धमतरी-रायपुर रेल
मार्ग (छोटी लाइन) पर सभी स्टेशनों से सत्याग्रहियों को पकड़ कर दूर जगल के क्षेत्रों में छोड़ना प्रारंभ किया, ताकि वे नागपुर न पहुंच सकें। दूसरी ओर सत्याग्रही भी नागपुर जाने हेतु दृढ थे अतः उन्होंने नागपुर पहुंचने हेतु दूसरे मार्गों का सहारा लिया तथा पैदल चलकर दुर्ग राजनांदगांव और डोंगरगढ़ पहुंचे और वहा से ट्रेन पकड़ कर नागपुर पहुचने लगे। लगभग सौ सत्याग्रही धमतरी से नागपुर पहुंचे. इनमे अधिकतर को छ: माह के कठोर कारावास की सजा शासन द्वारा दी गई। इनमें तहसील के धमतरी, नगरी, अमेटी, ठेमसरा, उमरगांव, कोहका, पथरी, कोलियारी, साकरा, ठेमली. चवर आदि ग्रामों के लोग गिरफ्तार हुये। इन लोगों में विशंभर पटेल, शोभाराम साहू एवं श्री हरखराम नगरी से एवं गिरधारी लाल तिवारी एवं नोहर सिंह यदु (छात्र) धमतरी से प्रमुख थे। 9 जुलाई, 1923 को नागपुर में हुई 'अखिल भारतीय कांग्रेस समिति' की सभा में झंडा सत्याग्रह के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया गया।
    यह सत्याग्रह इतना महत्वपूर्ण बन गया कि सरोजनी नायडू, बल्लभ भाई पटेल, वी.जे. पटेल जैसे नेता भी नागपुर पहुच गये। 1 मई से 18 अगस्त, 1923 तक यह आंदोलन चलता रहा। इस आंदोलन का नेतृत्व पहले जमुनालाल बजाज, महात्मा भगवानदीन एवं नीलकंठ देशमुख कर रहे थे किंतु उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में बल्लभ भाई पटेल ने नागपुर पहुंच कर आंदोलन का नेतृत्व सम्हाला । अंततः अंग्रेज सरकार को मानना पड़ा और जुलूस झंडे के साथ मार्च करने की आज्ञा देनी पड़ी। वह दृश्य काफी रोमांचक था, जब पं. माखनलाल चतुर्वेदी के नेतृत्व में स्वयंसेवकों का विशाल जुलूस राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में तिरंगे के सम्मान में निकाला गया।काकीनाड़ा अधिवेशन और छत्तीसगढ़ से पैदल यात्रा
1923 का कांग्रेस का नियमित अधिवेशन दिसंबर में काकीनाड़ा (आध्र प्रदेश) में होना तय हुआ। रायपुर और धमतरी के उत्साही कार्यकर्ता बडी संख्या में काकीनाडा जाने को तैयार हुए चूंकि यहां से बस्तर होते हुए काकीनाड़ा की दूरी कम पड़ती है, अतः क्षेत्र के उत्साही लोगों ने धमतरी से बस्तर के दुर्गम क्षेत्रों से होते हुए काकीनाड़ा पैदल जाने का निश्चय किया। मार्ग में ये लोग इस सपूर्ण आदिवासी अंचल में देशप्रेम की अलख जगाने हेतु लोगों को राष्ट्रीय आदोलन से संबंधित जानकारी देना. राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत करना और गांधी जी के सिद्धातों का उल्लेख करना आदि कार्यक्रम के साथ अपनी यात्रा पूर्ण की। इस दल में लगभग पच्चीस कार्यकर्ता थे, जिसका नेतृत्व धमतरी के नारायण राव मेघावाले ने किया। अन्य लोगों में राजिम के पं. सुंदरलाल शर्मा, धमतरी के दाऊ श्यामलालगुप्ता, प. गिरधारी लाल तिवारी, रामजी लाल सोनी तथा नगरी के श्यामलाल सोम थे। इस दल के पास देश के बड़े नेताओं यथा लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, पं. मदनमोहन मालवीय, चितरंजन दास आदि की तरवीरें थीं तथा वे इन्हें जनता को दिखा कर उनका परिचय देते थे। दल प्रतिदिन लगभग 30 कि.मी. चलता था।

इस सम्मेलन में अछूतोद्धार का मामला उठाया गया। जिसके कारण हिन्दू-मुस्लिम संबंध प्रभावित हुये और साप्रदायिक तनाव ने जन्म लिया जिसके बढ़ जाने पर 1924 में अनेक स्थानों पर दंगे हुए। इस पर गांधी जी ने 21 दिनों का उपवास रखा।
धमतरी में हिन्दू-मुस्लिम दंगा-  1924 में ही देश के अन्य हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ के धमतरी में भी हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष हुआ, किंतु यह एक छोटा संघर्ष था और स्थानीय था। दंगा मस्जिद के सामने बाजा बजाने के कारण हुआ था जिसमें दोनों पक्ष के तीन-तीन व्यक्ति घायल हुए थे, किंतु प. शर्मा ने दोनों पक्षों में समझौता कराया
था। शर्मा जी के द्वारा सांप्रदायिक प्रेम एवं सद्भाव हेतु किये गये इस प्रयास के लिये धन्यवाद स्वरूप लगभग पंद्रह हजार हिन्दू-मुस्लिमों ने मिलकर शर्मा जी का अभिनंदन किया।
    पं. शर्मा और अछूतोद्धार-  काकीनाड़ा सम्मेलन का छत्तीसगढ़ में प्रत्यक्ष प्रभाव हुआ। वहां से लौटने पर पं.सुंदरलाल शर्मा ने बड़ी गंभीरतापूर्वक अछूतोद्धार हेतु प्रयास प्रारंभ किया। वस्तुतः वे पूर्व से इस कार्य में लगे हुये थे।इसमें उनके सहयोगी राजिम के दाऊ धनश्याम सिंह, छबीराम चौबे एवं ठाकुर प्यारेलाल सिंह थे। उन्होंने समस्त
अंचल के शोषित वर्ग के उत्थान का संदेश दिया। वे चाहते थे, शोषितों को न्याय मिले व इन्हें हेय न समझा जाये। इसके लिये वे इनके घरों में जाकर भोजन करते थे। इन्हें यज्ञोपवीत धारण करवा कर आत्मोन्नति हेतु प्रेरित करतेथे। पं. शर्मा को इस कार्य में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा, किंतु वे दृढतापूर्वक इस कार्य में जीवन पर्यन्त लगे रहे। इनके प्रयासों से रायपुर में सतनामी आश्रम, हरिजन पुत्रीशाला, छात्रावास एवं वाचनालय स्थापित हुए। शर्मा जी ने इस आश्रम में इन्हें पूजा-पाठ एवं धार्मिक विधि-विधानों में शिक्षाएं देकर उन्हें करने की प्रेरणा दी। वे मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश के समर्थक थे और अपने नैतिक बल के आधार पर ही उन्होंने राजिम के मंदिर में हरिजन प्रवेश को उस युग में संभव कर दिखाया। इस कार्य के लिये उन्हें कुछ लोगों की आलोचना का सामना करना पड़ा, किंतु वे भेद-भाव पर आधारित समाज के विरोधी थे। पं. शर्मा ने अछूतोद्धार का कार्य गाधी से बहुत पहले आरंभ कर दिया था। इसीलिये गांधी जी जब अपनी द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा पर आये तो उन्हें पं. शर्मा के अछूतोद्धार कार्यक्रम पर आश्चर्यजनक खुशी हुई। उन्होंने इस मामले में पं. शर्मा को अपना अग्रज अथवा गुरु कहकर सम्मानित किया। पं. शर्मा द्वारा लिखा 'सतनामी भजनमाला इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। उन्होंने निष्कासित हिन्दुओं के लिये शुद्धिकरण आंदोलन भी चलाया ।
     महंत नयनदास का गोवध निषेध आंदोलन में भूमिका-  गांधी जी से प्रभावित होकर महंत नयनदास, जो रोहिदासों के धार्मिक गुरु थे, ने घोषणा की कि कोई भी रोहिदास अथवा सतनामी गोवध न करे, शराब न छुएं और कोई भी अनैतिक अथवा हिंसात्मक कार्य न करें।
     अन्य घटनाएं-  1919 से 1922 तक असहयोग आंदोलन चला। इसकी समाप्ति के पश्चात् व्यवस्थित कार्यक्रम के अभाव में आन्दोलन में शिथिलता आ गई थी। चितरंजन दास की मृत्यु के पश्चात् कालान्तर में स्वराज्य पार्टी का भी अंत हो गया। छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश सरकार का विरोध चलता रहा। 1924 ई. में दुर्ग में आयोजित जिला कांग्रेस के अधिवेशन तथा पाटन की राजनीतिक सभा में बिना टिकट प्रवेश को लेकर अधिकारियों से विवाद हुआ और अन्ततः अधिकारियों को झुकना पड़ा।
     1924 ई. में ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने पुनः बी.एन.सी. मिल में हडताल करा दी। आंदोलन में पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने पर एक मजदूर की मृत्यु हो गई। ठाकुर साहब को राजनांदगांव रियासत से निष्कासित कर दिया गया। 1930 में रायपुर जिला परिषद को स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण भंग कर दिया गया। राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय आंदोलन के लिए वातावरण निर्मित हो रहा था। कांग्रेस के भीतर नवयुवकों का वर्ग सक्रिय हो रहा था तथा जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में युवा वर्ग सक्रिय हो रहा था। इसी समय साइमन कमीशन की नियुक्ति से देश के राजनीतिक वातावरण में पुनः उत्तेजना आ गई। 1919 के भारतीय शासन अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार 8 नवंबर, 1927 को साइमन कमीशन' की नियुक्ति की गई थी, जिसमें अधिनियम की सफलता- असफलता की समीक्षा की जानी थी। इसके सभी सदस्य अंग्रेज थे अतः भारतीयो को यह स्वीकार्य नहीं था।
साइमन कमीशन का विरोध-  सभी भारतीय नेताओ ने साइमन कमीशन का विरोध किया। 3 फरवरी, 1928 का कमीशन बम्बई आया। सम्पूर्ण भारतवर्ष में हड़ताल की गई. विरोध में काले झण्डे लगाए गए और ‘साइमन वापस जाओ' के नारे लगाए गए। लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध मे आयोजित प्रदर्शन में पुलिस ने आंदोलनकारियों को लाठियों से पीटा। लाला लाजपतराय की मृत्यु पुलिस की लाठी की चोट से कुछ सप्ताह बाद हो गई। इस घटना रो साइमन कमीशन के प्रति विरोध और बढ़ गया। भगतसिंह और बटकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय व्यवस्थापिका में बम फेंका तथा लाला लाजपतराय को पिटवाने वाले अधिकारी की हत्या 17 दिसंबर, 1928 को कर दी। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में रायपुर. बिलासपुर, दुर्ग आदि स्थानों में लालाजी की हत्या के लिए ब्रिटिश सरकार को दोषी ठहराते हुए उसकी भर्त्सना की गई।
रायपुर जिला परिषद् का संघर्ष-  रायपुर जिला परिषद् आरंभ से ही अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत राष्ट्रवादी भावना से कार्य करता रहा जिससे समय-समय पर शासन से कौसिल का टकराव आम बात थी। 1927 से 1937 के मध्य रायपुर जिला कौसिल ने स्वतत्रता आंदोलन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। पं. रविशंकर शुक्ल इस बीच कौंसिल के अध्यक्ष रहे। उन्होने ग्रामीण क्षेत्रों में राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिये कार्य किया। इस पर शासन के वरिष्ठ अधिकारियों ने शुक्ल पर ग्रामीण शालाओ मे कार्यरत शिक्षको को शासन विरोधी प्रचार करने के कार्यों में लगाने का आरोप लगाया। वस्तुतः शिक्षको को राजनैतिक शिक्षा दी जाती थी और वे गांव-गांव उसका प्रचार करते थे। कौसिल ने इनका राष्ट्रीय आदोलन में भरपूर उपयोग किया। इनसे कांग्रेस का प्रचार करवाया, शराब की दुकानों पर धरने में शिक्षको ने भाग लिया। कौसिल द्वारा संचालित स्कूलों में झंडावादन होते थे। कौसिल में निरीक्षको की नियुक्ति पर शासन के विरोध पर उन्होंने इसका नाम 'व्यायाम शिक्षक कर दिया। इस पर शासन ने कौंसिल को शासकीय अनुदान एक-चौथाई कम कर दिया। पं. शुक्ल ने भी जवाब में आर्थिक असमर्थता बताकर कार्यवाही की। कौंसिल की राष्ट्रवादी गतिविधियों से चिढकर 26 अप्रैल, 1930 को अंग्रेजी शासन ने कौंसिल को अपनी इन गतिविधियों को बंद करने को कहा एवं इसकी अवहेलना पर कौसिल भंग कर दिया। पुनः चुनाव करवाये गये. किंतु शासन को पुनः मुंह की खानी पड़ी। इस बार पुनः पूरी कौसिल पूर्ववत चुनकर आयी। प. शुक्ल, जो इस समय जेल में थे, पुनः अध्यक्ष चुने गये। कौसिल ने फिर अपनी पूर्व प्रणाली पर कार्य करना आरंभ कर दिया। शासन ने अन्ततः 11 नवंबर, 1930 को रायपुर जिला कौसिल को तीन वर्ष की अवधि के लिये स्थगित कर दिया।