गांधीजी की द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा (22-28 नवंबर, 1933 ई.)
द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान गांधीजी ने हरिजन कल्याण की दृष्टि से समस्त देश में यात्राएं की। अतः हरिजनोत्थान से अभिप्रेरित गांधीजी का छत्तीसगढ़ में द्वितीय प्रवास हुआ। वे 22 नवंबर से 28 नवंबर, 1933 ई. तक अर्थात् कुल पांच दिनों तक छत्तीसगढ़ में रुके, कितु इस बार उन्होंने अंचल के अनेक स्थानों का दौरा किया। जबकि पूर्व में (20-21 सितंबर, 1920 ई. में) वे कंडेल सत्याग्रह के संदर्भ में विशेष तौर पर आये थे। वस्तुतः गांधी जी ने हरिजनोत्थान का कार्यक्रम अंग्रेजों की हिन्दुओं को बाटने की कुटिल चाल को विफल करने हेतु चलाया था। सितंबर 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेमेज मेकडॉनाल्ड ने जो साम्प्रदायिक पंचाट जारी किया था उसमें हरिजनों को हिन्दुओं से पृथक वर्ग का दर्जा दिया गया था, किंतु गांधीजी ने जेल में ही अनशन प्रारंभ कर दिया था जिसके फलस्वरूप डॉ. अंबेडकर एवं गांधी जी के मध्य पूना समझौता हुआ जिसमें हरिजनों के लिये हिन्दू वर्ग में विशेषाधिकार स्वीकार किया गया था। यह गांधी जी के जीवन का अत्यंत महानतम् कार्य था, अन्यथा अंग्रेज हिन्दुओं को बांटने की अपनी साम्राज्यवादी चाल में सफल हो गये होते। जेल से छूटते ही गाधी जी ने हरिजनोत्थान के प्रयास आंरभ कर दिये । सर्वप्रथम उन्होंने अपने पत्र नव जीवन का नाम बदलकर 'हरिजन सेवक (सामान्यतः हरिजन नाम से जाना जाता है) रखा और संपूर्ण देश का दौरा आरंभ कर दिया। इसी उद्देश्य के अंतर्गत गांधी जी 22 नवंबर को संध्या छः बजे दुर्ग पहुंचे। इस यात्रा में धमतरी के डॉ. हजारीलाल जैन उनके सारथी बने रहे अर्थात गांधी जी द्वारा प्रयोग की गई कार के ड्राइवर सपूर्ण छत्तीसगढ़ दौरे में श्री जैन ही थे। दुर्ग से कुम्हारी होते हुये गांधी जी रायपुर पहुंचे। यहां आमापारा चौक में हजारों की भीड़ ने उनका स्वागत किया। गाधी जी के रुकने की व्यवस्था पं. रविशंकर शुक्ल के यहां की गई थी। गांधी जी के साथ इस दौरे में कुमारी मीरा बेन (अंग्रेज शिष्या) ठक्करवापा (झाबुआ के आदिवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) इनके निज सचिव महादेव देसाई एवं जमनालाल बजाज की पुत्री थी।
23 नवंबर को गांधी जी ने रायपुर के तत्कालीन विक्टोरिया गार्डन (वर्तमान मोतीबाग) में स्वदेशी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। 24 नवंबर को लॉरी स्कूल (वर्तमान सप्रे हाई स्कूल) के मैदान मे उन्होंने विशाल आमसभा को संबोधित किया। इसके बाद उन्होंने पं. शर्मा द्वारा संचालित सतनामी आश्रम और अनाथालय का भी निरीक्षण किया। इसके बाद वर्तमान मौदहारापा में सभा कर हरिजनों को संबोधित किया। इसी दिन रायपुर की पुरानी बस्ती में स्थित एक मंदिर को हरिजनों के लिये खोल दिया गया। गाधी जी ने स्वयं हरिजनों को साथ लेकर इस मंदिर में प्रवेश किया।
पं. शर्मा को गुरु कहा- अपने रायपुर प्रवास के दौरान गांधीजी को जब पं. शर्मा के अछूतोद्धार कार्यक्रम के सम्बन्ध में जानकारी रायपुर में मंदिर प्रवेश के दौरान मिली तो उन्हें एक सुखद आश्चर्य हुआ। गाधीजी ने इसकी सराहना करते हुये पं. शर्मा को गुरु निरूपित किया और कहा-हरिजनों के उद्धार विषयक कार्य में पं. सुन्दरलाल शर्मा
मुझसे बड़े हैं जिन्होंने देश के इस महत्वपूर्ण कार्य को मेरे इस मिशन से पूर्व आरंभ कर एक आदर्श स्थापित किया है।
धमतरी प्रवास- गांधी जी धमतरी तहसील की राष्ट्रभक्ति एवं जागरूकता से भलीभांति परिचित थे, जिसे उन्होंने अपने प्रथम प्रवास में ही स्वीकार किया था। अतः इस बार उनका धमतरी जाना स्वाभाविक था। वे 25 नवंबर, 1933 को पूर्वान्ह धमतरी पहुंचे जहां पूर्व की भाति मकई बंघ चौक में अपार जनसमूह ने उनका स्वागत किया। यहां उन्होंने सर्वप्रथम दाजी मराठी कन्याशाला में एक सभा को संबोधित किया। पुनः उन्होंने बाबू छोटेलाल के निवास के समक्ष महिलाओं की एक सभा का सक्षिप्त संबोधन किया और महिलाओ को हरिजनोद्धार हेतु आगे आने का सुझाव दिया। उनके संबोधन से प्रभावित होकर कुछ महिलाओं ने हरिजन फंड हेतु अपने आभूषण समर्पित कर दिये। दोपहर गांधी जी को नगर पालिका स्कूल में नगरपालिका की ओर से नत्थूजी जगताप ने अभिनंद पत्र भेंट किया। इसी अवसर पर नरायणराव मेघावाले ने शहर की जनता की ओर से हरिजन फंड के लिये 501 रुपए भेंट किया, अन्य संस्थाओं ने भी अभिनंदन पत्र भेंट किये, पर इसमें से नगरपालिका की ओर से प्राप्त अभिनंदन पत्र को गांधीजी ने नीलाम करवाया जिसे गांधी जी के वाहन चालक डॉ. हजारीलाल जैन ने खरीदा।
धमतरी के आंदोलन में सक्रियता को देखते हुये गांधी जी ने कहा यह तहसील वस्तुतः यहां की बारदोली है। बारदोली गुजरात में स्थित है जहां सरदार पटेल के नेतृत्व में किसानों ने 'कर नहीं आंदोलन 1928 में चलाया था. जो सफल हुआ था। इसमें गांधी जी ने भी भाग लिया था। यह आंदोलन इतिहास में बारदोली सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है।इसके बाद गांधी जी सतनामियों के आग्रह पर धमतरी के सतनामी मोहल्ले में गये जहां उन्होंने भोजन किया तत्पश्चात् माखन नामक नाई से हजामत बनवाई और फिर यहां से सीधे गांधी जी ने रायपुर के लिये प्रस्थान किया। नगर छोड़ते वक्त मकई बंध चौक में भीड़ से एक पोटली कार में फेंकी गई जिसमें चावल, हल्दी और दो पैसे का सिक्का था। इसे देखकर गांधी जी ने कहा- किसी सच्चे गरीब की भेंट है। इसके बाद मार्ग पर राजिम में उन्होंने जनसभा को संबोधित किया और इस पोटली के संबंध में अवगत करा उसे नीलाम किया जिससे 101 रुपए प्राप्त हुये। यहां अनेक लोगों ने हरिजन फंड हेतु गांधी जी को धन भेंट किया। कुछ महिलाओं ने भी गांधीजी को अपने आभूषण समर्पित किये। यहां से गांधी जी रायपुर आये।
गांधी जी का बिलासपुर प्रवास- गांधी जी 25 नवंबर, 1933 को रात्रि में बिलासपुर पहुंचे। ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर ने जरहा भाटा चौक में उनका स्वागत किया। अपने प्रवास के दौरान गांधी जी ने कुंजबिहारी अग्निहोत्री के निवास में भोजन और विश्राम किया। दूसरे दिन गांधी जी ने वर्तमान गांधी चौक में विशाल सभा को संबोधित किया। इसी के बाद इस सभास्थल का नाम गांधी चौक पड़ा। यहां भी व्यापक पैमाने पर हरिजन फंड हेतु भेंट गांधी जी को दिया गया। महिलाओं ने भी इसमें अपना सहयोग दिया।
यहां से गांधी जी भाटापारा होते हुए पुनः रायपुर पहुंचे और 28 नवंबर को गांधी जी समानता एवं स्वतंत्रता का संदेश देते हुये देश के अन्य हिस्सों में अपने हरिजनोद्धार कार्यक्रम हेतु वापस रायपुर से रेल द्वारा गोंदिया होते हुये बालाघाट गये।
अपनी महाकोसल यात्रा के दौरान गांधी जी को हरिजन फंड हेतु सर्वाधिक राशि 1450 रुपए रायपुर जिले से भेंट में प्राप्त हुई, जबकि इस क्षेत्र से कुल चौहत्तर हजार रुपयों का संग्रह हुआ था। रायपुर जिले में गांधी जी के इस प्रवास में उनसे प्रभावित होकर पं. रामदयाल तिवारी ने गांधी मीमांसा' नामक ग्रथ लिखना आरंभ कर 1936 में
पूर्ण किया। यह ग्रंथ अपने महत्वपूर्ण संदर्भो और सूचनाओं के कारण आज भी अद्वितीय है।
7 अप्रैल, 1934 को गांधी जी द्वारा द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति की घोषणा की गई। गांधी जी के इस कदम की आलोचना सुभाषचन्द्र एवं सरदार पटेल जैसे नेताओं ने करते हुये कहा-"गांधी जी ने पिछले 13 वर्षों की मेहनत और कुरबानियों पर पानी फेर दिया। वस्तुतः गांधी जी ने आंदोलन के प्रति लोगों में उत्साह की कमी देखकर ऐसा किया। इसके बाद गांधी जी कुछ दिनों के लिये कांग्रेस से अलग हो गये। आंदोलन की समाप्ति पर कांग्रेस का रूझान पुनः व्यवस्थापिकाओं की ओर हो गया। छत्तीसगढ़ में पिछले चार वर्षों से चल रहा सीधा संघर्ष थम गया और यहां के नेताओं ने राष्ट्रीय नेतृत्व का अनुसरण करते हुये स्वतंत्रता की दिशा में अपना प्रयास जारी रखा।
रायपुर जिला कौंसिल की बहाली- पूर्व में रायपुर जिला कौसिल को अंग्रेजो ने 11 नवंबर, 1930 को 3 वर्षों के लिए स्थगित कर दिया था, जिसके अध्यक्ष पं. शुक्ल निर्वाचित हुए थे। शासन ने पुनः 8 मार्च, 1934 को शासन का प्रबंध शुक्ल जी को सौंप दिया।
अन्य घटनाएं- 1934 में केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा का निर्वाचन हुआ जिसमें कांग्रेस से दुर्ग के श्री घनश्याम जी गुप्ता सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। महाकौसल' साप्ताहिक हिन्दी पत्र नागपुर से रायपुर हस्तांतरित कर दिया गया। यहां इसका प्रकाशन पं. शुक्ल ने आरंभ किया। 1935 में हुए मध्य प्रांत की विधान सभा के चुनाव में रायपुर से ठाकुर प्यारेलाल सिंह चुने गए। 1936 में ई. राघवेन्द्रराव मध्यप्रांत एवं बरार के गवर्नर नियुक्त हुए। वे इस पर नियुक्त होने वाले छत्तीसगढ़ के प्रथम व्यक्ति थे।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का द्वितीय छत्तीसगढ़ आगमन- दिसंबर 1935 को रायपुर जिला परिषद के तत्वावधान में रायपुर का वार्षिक सम्मेलन आयोजित किया गया। इसका शुभारम्भ राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा किया गया। 11 दिसंबर को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी इस अधिवेशन में सम्मिलित होने रायपुर आए। इन दिनों वे कांग्रेस अध्यक्ष थे, उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज फहराया एवं जनता को सम्बोधित किया।
पं. नेहरू का रायपुर आगमन- रायपुर में 15-16 दिसंबर को रायपुर जिला कौंसिल के द्वारा छठवां वार्षिक शिक्षक सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें पं. नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से रायपुर आकर सम्मिलित हुए। बरार का मध्यप्रांत में सम्मिलन-भारत शासन अधिनियम, 1935 के द्वारा प्रशासनिक दृष्टि से बरार को मध्यप्रांत
में मिला दिया गया।
प्रांतों में स्वायत्तता हेतु निर्वाचन- 1935 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत 1937 में प्रांतीय विधान सभाओं के निर्वाचन हुए। इस चुनाव में कांग्रेस को कुल 11 प्रांतों में से छः पर पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ और केन्द्रीय व्यवस्थापिका में वह सबसे बड़े दल के रूप में आयी। आठ प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी। मध्यप्रांत में भी कांग्रेस बहुमत में आयी। रायपुर से पं. शुक्ल, बिलासपुर से राघवेन्द्रराव, दुर्ग से घनश्याम सिंह आदि निर्वाचित हुए। मुख्यमंत्री के चुनाव हेतु सभा के सदस्यों में मतभेद थे, जिसे सुलझाने हेतु पं. शुक्ल ने डॉ. नारायण भास्कर खरे का नाम प्रस्तावित किया और वे 14 जुलाई, 1937 को मध्यप्रांत के प्रथम मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। (इस समय 1935 के अधिनियम के द्वारा बरार को भी मध्यप्रांत में सम्मिलित कर दिया गया था।) पं. रविशंकर शुक्ल को शिक्षा मंत्री बनाया गया और दुर्ग के घनश्याम सिंह गुप्ता व्यवथापिका सभा के अध्यक्ष बनाये गये। पं. शुक्त ने शिक्षा मंत्री के रूप में प्रसिद्ध 'शिक्षा मंदिर योजना की शुरूआत की जिसका मुख्य उद्देश्य प्रांत में अशिक्षा की समाप्ति तथा शिक्षा से स्वावलंबन का विकास करना था। दल में नीतिगत मतभेद होने के कारण श्री खरे को त्यागपत्र देना पड़ा और 29 जुलाई, 1938 को पं. रविशंकर शुक्ल ने मुख्यमंत्री पद का कार्यमार ग्रहण किया। द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश शासन द्वारा विधानमंडल की बिना सहमति के भारत को युद्ध में मित्र राष्ट्रों की ओर से शामिल कर लिया। कांग्रेस द्वारा युद्ध के उद्देश्य की घोषणा की मांग की और साथ ही यह मांग भी रखी कि युद्ध के बाद भारत को स्वतंत्र कर दिया जाये। इन मांगों पर शासन की उपेक्षा के कारण कांग्रेस कार्यकारिणी के आदेश पर 15 नवंबर, 1939 ई. को कांग्रेस मंत्रिमंडल ने त्यागपत्र दे दिया। इसका अनुसरण करते हुए पं. शुक्ल के मंत्रिमंडल ने भी त्यागपत्र दे दिया।
छुई-खदान जंगल सत्याग्रह- 1838-1938 में छुई-खदान रियासत में भी स्टेट कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य जनता को सरकारी शोषण से बचाना था। इसकी स्थापना से वहां आंदोलनकारी गतिविधियों को बल मिला। लोगों ने इस वर्ष वहां जंगल सत्याग्रह का आरंभ किया। सत्याग्रहियों ने गंडई की ओर प्रस्थान किया, किंतु उन्हें गिरफ्तार कर छुई-खदान वापस लाया गया। इसमें समारू बरई' का नाम उल्लेखनीय है।
बदराटोला जंगल सत्याग्रह- 1939-राजनांदगांव रियासत में स्टेट कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने डोगरगढ़ के निकट बदराटोला ग्राम में 21 जनवरी, 1939 को जंगल सत्याग्रह का आयोजन भव्य एवं व्यापक रूप से किया था। उन दिनों तीन-चार सौ की आबादी वाला गांव बदराटोला क्रांतिकारियों का प्रमुख केन्द्र बन गया था। इस जंगल सत्याग्रह को रोकने के लिये रियासती प्रशासन ने भरसक प्रयास किया था। सत्याग्रह के दौरान 13 लोगों को पुलिस एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। अहिंसावादी आंदोलनकारियों पर पुलिस ने लाठियां बरसायीं, पर आंदोलनकारियों का उत्साह कम नहीं हुआ। निहत्थे आदिवासी सत्याग्रहियों पर बिना चेतावनी दिये गोलियां बरसायीं। इस गोलीकांड में 27 वर्षीय आदिवासी नेता रामाधीन गोंड़ शहीद हो गया। गोली चालन में अन्य अनेक व्यक्ति घायल हो गये। शहीद रामाधीन का शव और घायलों को वहां उसी हालत पर छोड़कर पुलिस राजनांदगांव लौट आई। गोलीकांड से आदोलनकारियों के आक्रोश में वृद्धि हुई। 5 फरवरी, सन् 1939 को आदोलन का भावी कार्यक्रम निर्धारित करने हेतु राजनांदगाव रेलवे स्टेशन में एक सभा आयोजित की गई। धारा 144 के उल्लंघन में पुलिस ने कांग्रेसियो को गिरफ्तार किया। इसी समय विद्यार्थियों का एक जुलूस निकाला गया, छात्रों ने हाईस्कूल से यूनियनजैक को हटाकर तिरंगा फहरा दिया।
बदराटोला जंगल सत्याग्रह की सूचना महात्मा गांधी को प्राप्त हो चुकी थी। इस सत्याग्रह के संचालन एवं भावी कार्यक्रम की चर्चा करने के लिए दो सत्याग्रही नेता गांधी जी से मिलने वर्धा गये. जिसमें से एक श्री रूईकर थे। महात्मा गांधी ने इन्हें आंदोलन स्थगित करने की सलाह दी फलस्वरूप उनकी बात का सम्मान करते हुऐ स्टेट कांग्रेस ने सत्याग्रह वापस ले लिया।