छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास (कलचुरि राजवंश (1000 - 1741 ई . )
कलचुरि कालीन शासन व्यवस्था
बस्तर का इतिहास
छत्तीसगढ़ का नामकरण
छत्तीसगढ़ के गढ़
छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास
मराठा शासन में ब्रिटिश - नियंत्रण
छत्तीसगढ़ में पुनः भोंसला शासन
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का स्वरूप
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन
छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव
1857 की क्रांति एवं छत्तीसगढ़ में उसका प्रभाव
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आन्दोलन
राष्ट्रीय आन्दोलन (कंडेल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (सिहावा-नगरी का जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (प्रथम सविनय अवज्ञा आन्दोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (महासमुंद (तमोरा) में जंगल सत्याग्रह, 1930 : बालिका दयावती का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (आन्दोलन का द्वितीय चरण)
राष्ट्रीय आन्दोलन (गांधीजी की द्वितीय छत्तीसगढ़ यात्रा (22-28 नवंबर, 1933 ई.))
राष्ट्रीय आन्दोलन (व्यक्तिगत सत्याग्रह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर षड्यंत्र केस)
राष्ट्रीय आन्दोलन (भारत छोड़ो आंदोलन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर डायनामाइट कांड)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता दिवस समारोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रायपुर में वानर सेना का बाल आंदोलन बालक बलीराम आजाद का शौर्य)
राष्ट्रीय आन्दोलन (रियासतों का भारत संघ में संविलियन)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह)
राष्ट्रीय आन्दोलन (छत्तीसगढ़ में मजदूर एवं किसान आंदोलन 1920-40 ई.)
छत्तीसगढ़ के प्रमुख इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता
मुख्यपृष्ठ > विषय > सामान्य ज्ञान

छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव



 छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रभाव
सन् 1741 ई. से 1854 ई. तक छत्तीसगढ़ में नागपुर के भोंसलों का शासन रहा। मराठा शासन काल में छत्तीसगढ़ उपेक्षित रहा। उन्होंने अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए इसे एक उपनिवेश के रूप में देखा और उसका शोषण किया। इसलिये इस काल में छत्तीसगढ़ में अराजकता, अव्यवस्था और अनिश्चतता के साथ सन् 1854 ई. तक यहां की स्थिति प्रतिगामी बनी रही और इसका विकास अवरुद्ध रहा। मराठा-शासन छत्तीसगढ़ के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई नवीनता और प्रगतिशीलता न ला सका। सन् 1854 ई. में जब छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश शासन की स्थापना हुई तब यहां की स्थिति में निश्चित रूप से परिवर्तन आया। अनेक वर्षों से अव्यवस्थित शासन के पश्चात् यहां पहली बार शांति और सुव्यवस्था की स्थापना हुई। ब्रिटिश शासन व्यवस्था में नियमितता. चुस्ती और प्रजाहित के लक्षण परिलक्षित हुए। कृषि, उद्योग में प्रोत्साहन, नवीन भूमि-व्यवस्था, राजस्व-व्यवस्था, यातायात के साधनों की उन्नति, उचित कराधान प्रणाली, समुचित न्याय व्यवस्था एवं पुलिस व्यवस्था के प्रभावशील होने के कारण इस क्षेत्र में विकासोन्मुखी, आधुनिक युग का आरंभ दिखाई पड़ा और जनता ने नवीन प्रकाश की किरण देखी। ब्रिटिश शासन व्यवस्था से छत्तीसगढ़ की भौतिक प्रगति हुई और वह आधुनिकता की ओर अग्रसर हुआ। इसकी सभ्यता और संस्कृति में नया परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ। ब्रिटिश शासन काल में छत्तीसगढ़ की संस्कृति को जिन तत्वों ने प्रभावित किया उनका विवरण इस प्रकार है-
(1) प्रशासनिक परिवर्तन- इस काल में छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश प्रशासन संबंधी सामान्य नियमों की स्थापना की गयी। इस काल में यहां नये सिद्धांतों और परिवर्तनों, प्रशासनिक प्रयोगों, राजस्व, वित्त, न्याय, पुलिस, जेल, के संबंध में नयी व्यवस्था के निर्माण, जमींदारों के साथ नये सम्बन्धों, डकैतों, लुटेरों का दमन, शांति व्यवस्था की स्थापना आदि से संबंधित महत्वपूर्ण कार्य हुये। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में नयी प्रशासनिक व्यवस्था का सूत्रपात किया गया। ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों द्वारा नवीन पदों की स्थापना कर छत्तीसगढ़ के प्रशासन में नवीनता एवं व्यवस्था लाने का प्रयास किया गया। इसके अनुसार न्याय, पुलिस, वन, शिक्षा और सार्वजनिक कल्याण विभाग को व्यवस्थित कर उनके विकास की दिशा में अनेक कदम उटाये गये। निचले स्तर पर राजस्व-व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए गांवो में पटवारियों और सर्कल में एक रेवेन्यू इंस्पेक्टर की नियुक्ति की गई। ब्रिटिश शासन ने पहली बार यहां समुचित न्याय प्रणाली का सूत्रपात किया । न्याय विभाग को व्यवस्थित करने की दृष्टि से छत्तीसगढ़ संभाग में सबसे वरिष्ठ अधिकारी के रूप में डिस्ट्रिक्ट और सेशन्स जज को पदस्थ किया गया जिसका मुख्यालय रायपुर था। इस नवीन व्यवस्था के कारण छत्तीसगढ़ में न्याय सस्ता, सरल व सुलभ हो गया। न्याय प्रणाली को सफल बनाने की दृष्टि से पुलिस विभाग को चौकस और व्यवस्थित किया गया। भारतीय अपनी मूल संस्कृति से विलग होने लगे। इससे शिक्षित और अशिक्षित के बीच एक खाई उत्पन्न हो गयी। पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त वर्ग सामाजिक-जीवन में घुल-मिल न सका अतः उनका एक नया वर्ग बन गया। अंग्रेजी शासन का शिक्षा के क्षेत्र में यहां की जनजातियों पर विशेष प्रभाव पड़ा। धर्मान्तरण के लिए तैयार करने हेतु मिशनरियों ने आदिवासी अंचलों में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार किया जिससे जनजाति वर्ग के लोग शिक्षित होकर समाज की मुख्य धारा में आने लगे और इस वर्ग की साक्षरता में वृद्धि हुई।
     छत्तीसगढ़ क्षेत्र में शांति और व्यवस्था की स्थापना की दृष्टि से अनेक नये थानों का गठन किया गया, जहां का अधिकारी थानेदार कहलाता था। जिले का सर्वोच्च पुलिस अधिकारी पुलिस अधीक्षक होता था और उसकी सहायता के लिए अन्य सहायक अधिकारी होते थे। पुलिस और न्याय विभाग शांति की स्थापना हेतु सजगता से कार्य करने लगे। ब्रिटिश काल में प्रशासनिक परिवर्तन के द्वारा छत्तीसगढ़ के प्रशासन को एक नयी गति और दिशा प्रदान की गयी। 2 नवंबर, 1861 ई. में जब मध्य प्रांत बना तब छत्तीसगढ़ क्षेत्र के प्रशासन को चीफ कमिश्नर के अधीन रखा गया। सन् 1862 ई. में छत्तीसगढ़ को एक स्वतंत्र संभाग का दर्जा मिला। संभाग का मुख्यालय रायपुर रखा गया। रायपुर को छत्तीसगढ़ की राजधानी बनाया गया। इसके बाद सन् 1905 ई. तक छत्तीसगढ़ संभाग के प्रशासन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। सन् 1905 ई. में संबलपुर जिला बंगाल में मिला दिया गया और बदले में पांच रियासतें -चांगभखार, कोरिया, सरगुजा, उदयपुर और जशपुर बंगाल से लेकर मध्यप्रांत में शामिल कर दिये गये। इस व्यवस्था के कारण छत्तीसगढ़ की प्रशासनिक व्यवस्था में सन् 1906 ई. में जो नवीन परिवर्तन आया, उसके अनुसार यहां तीन जिले रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग निर्मित किये गये। छत्तीसगढ़ संभाग का नाम यथावत् बना रहा। उसका मुख्य अधिकारी कमिश्नर कहलाया। यह प्रशासन व्यवस्था कमोवेश सन् 1947 ई. तक बनी रही।
(2) आर्थिक विकास- मराठा काल में अंचल में गरीबी व्याप्त थी। हैहय कालीन समृद्धि मराठा शासन काल के दौरान लुप्त हो गयी। कृषि व्यापार की स्थिति में गिरावट आई थी तथा शासकीय खजाने में राजस्व जमा भी कम हो गया था। अग्रेजो ने आते ही कृषि की उन्नति हेतु कार्य किया। नवीन भूमि व्यवस्था, राजस्व व्यवस्था का सूत्रपात किया गया। व्यापार की प्रगति हेतु यातायात के साधनो का विकास किया गया। कर व्यवस्था को चुस्त एवं न्याय संगत बनाया गया। व्यवस्थित न्याय एवं पुलिस व्यवस्था आरभ हुई जिससे जनता एवं व्यापारियों को सुरक्षा प्राप्त हुई और व्यापारिक, आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि हुई। इन सभी पक्षो का विस्तृत विवरण पूर्व के अध्याय में दिया जा चुका है। आर्थिक विकास के कारण इस क्षेत्र में विकासोन्मुखी, आधुनिक युग का आरंभ हुआ। ब्रिटिश शासन की स्थापना से छत्तीसगढ की भौतिक प्रगति हुई। रहन-सहन का स्तर परिवर्तन के साथ ऊंचा हुआ। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसका प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ। रेल यातायात के आरंभ ने छत्तीसगढ़ की सीमित आर्थिक गतिविधियों को राष्ट्रव्यापी बना दिया।

(3) पाश्चात्य शिक्षा-  ब्रिटिश शासन काल में भारतवर्ष में अंग्रेजी-शिक्षा का बीजारोपण हुआ। इससे पाश्चात्य-साहित्य, विज्ञान राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास और ज्ञान-विज्ञान की अन्य शाखाओं की शिक्षा का प्रसार हुआ। पाश्चात्य-ढंग की चिकित्सा तथा इंजीनियरिंग के अध्यापन का भी प्रबंध किया गया। ऐसी शिक्षण संस्थाएं समस्त देश में स्थापित हो गयीं। इस समय अंग्रेजी शिक्षा और पाश्चात्य संस्कृति का खूब प्रसार हुआ अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से भारतीय और यूरोपीय संस्कृति का समागम हुआ। अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार छत्तीसगढ़ में भी हुआ और वह भी इससे प्रभावित हुआ। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर और एस. बी. आर. विद्यालय, बिलासपुर का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अंग्रेजी शिक्षा ने स्वतंत्रता की भावना को प्रोत्साहित किया जिसके कारण छत्तीसगढ़ में भी राजनीतिक और सामाजिक प्रगति आयी। अब माध्यमिक स्तरों में भी अंग्रेजी शिक्षा दी जाने लगी। छत्तीसगढ़ क्षेत्र को पाश्चात्य सभ्यता के समीप लाने और यहा नवजागरण उत्पन्न करने का श्रेय अंग्रेजी-शिक्षा को ही है। पाश्चात्य शिक्षा ने क्षेत्रीय लोगों में उन्नति की भावना उत्पन्न कर दी इसके साथ-साथ उनमें आलोचना की एक नवीन प्रवृत्ति भी जागृत हो गयी । फलस्वरूप लोग तत्कालीन दशा में असंतोष प्रकट करने लगे और उसमें सुधार लाने का प्रयत्न करने लगे। ये लोग क्षेत्र की अकर्मण्यता और भाग्यवाद का विरोध करने लगे। वे भविष्य की ओर निहारने लगे और व्यवहार में प्रगति के सिद्धांतों को अगीकार करने लगे। इस नवीन दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट प्रगति हुई। अंग्रेजी शिक्षा ने समाज में एक नये वर्ग को जन्म दिया, जो मध्यम वर्ग के नाम से जाना गया। यह वर्ग शिक्षित और साधन-सम्पन्न था। समाज में इनका प्रभाव बढ़ने लगा उन्होंने देश में धार्मिक और सामाजिक सुधारों को प्रोत्साहित किया और राष्ट्रीय आन्दोलन की नीव रखी।
(4) स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन-  इस काल में स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित किया गया। अब महिलाओं के उत्थान और प्रगति के लिए कार्य आरंभ किया गया। लार्ड रिपन के शासन काल में हण्टर कमीशन ने स्त्री शिक्षा को विशेष रूप से प्रोत्साहित करने का सुझाव रखा। वैयक्तिक अनुदान पर भी अनेक कन्या-शालाएं खोली गयीं। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड और म्युनिसिपल ने भी अनेक कन्या-शालाएं स्थापित की। पर देहातों के कन्या-शालाओं के लिए पर्याप्त व्यवस्था न हो सकी। रायपुर, बिलासपुर आदि नगरों में पृथक कन्या-शालाओं का निर्माण हुआ। स्त्री शिक्षा के प्रभाव के कारण आगे चलकर स्त्रियों ने भी राष्ट्रीय आंदोलन में अपना योगदान दिया।

(5) राष्ट्रीय आन्दोलन का विकास-  स्वतंत्रता, समानता और राष्ट्रीयता के विचार भारतीयों ने पश्चिमी-साहित्य से प्राप्त किये। बर्क, मिल और स्पेन्सर आदि विद्वानों के स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता के विचार भारतीयो को प्रोत्साहन प्रदान करने वाले प्रमाणित हुए। यूरोप के स्वतंत्र वातावरण का प्रभाव भारतीयों पर पड़ा इसने राजनीतिक क्षेत्र में नवीन जागृति को जन्म दिया। इससे अनेक लोकप्रिय संस्थाओं का जन्म हुआ। सारे देश में राष्ट्रीयता की लहर उत्पन्न हुई सरकार के विरूद्ध विद्रोह की भावना का विकास हुआ। लोकतन्त्रवाद की इच्छा प्रवल हुई। इन नवीन विचारधाराओं का प्रभाव छत्तीसगढ़ पर भी दिखाई पड़ा और वहां भी धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय आंदोलन का जोर बढ़ने लगा। वह इस दिशा में सक्रिय हो राष्ट्रीय विचारधारा से जुड़ गया।

(6) धार्मिक प्रभाव-  धर्म और दर्शन के मामले में भारत आरंभ से ही समृद्ध एवं शेष विश्व का प्रेरणा स्रोत रहा है। भारत भूमि स्वयं ही विश्व के अनेक महान धर्मों की जन्मस्थली एवं विश्व के अनेक धर्मों की आश्रय स्थली रही है। हिन्दू धर्म ने दूसरे धर्मों को प्रभावित किया एवं स्वयं भी प्रभावित हुआ। 19वीं शताब्दी के आरभ में अंग्रेजों ने यहां ईसाई धर्म के प्रचार को कानूनी मान्यता भी प्रदान कर दी। ईसाई धर्म ने यहा प्रचार के माध्यम से व्यापक घुसपैठ की। यहां धर्म प्रचार हेतु विधिवत् मिशन आरंभ हुआ जिसमें मिशनरियों द्वारा धर्मान्तरण हेतु अनेक प्रलोभनकारी कार्यक्रम चलाये गये। शिक्षा, धन, सामाजिक सम्मान एवं हिन्दू धर्म की आलोचना के माध्यम से यहा जनजातियो एवं दलितो को बड़े पैमाने पर हिन्दू से ईसाई बनाया गया। प्रतिक्रिया स्वरूप एवं ईसाई धर्म के आक्रमण से सुरक्षा हेतु यहां भी अनेक सुधारवादी आंदोलनों का जन्म हुआ जिनसे प्रथम बार हिन्दुओं ने हिन्दू धर्म में व्याप्त कुछ कुरीतियों एवं अनावश्यक सिद्धांतों को समझा। तर्क के माध्यम से हिन्दू धर्म की प्राकृतिक श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन जैसे अनेक सुधारवादी संस्थाओं का जन्म हुआ जिन्होंने हिन्दुओ में व्याप्त कुरीतियों की भर्त्सना की एवं इसमें सुधार हेतु कार्य किये । इन सुधारों के कारण हिन्दू धर्म की स्वाभाविक प्राण शक्ति दिव्यता के साथ प्रकट हुई और उसके संदेश विदेशों में भेजे गये।

  इस नवीन धार्मिक चेतना का प्रभाव छत्तीसगढ़ में भी दृष्टिगोचर हुआ। धर्म के नाम पर शोषण और भेदभाव के खिलाफ यहां नये धार्मिक वातावरण का निर्माण हुआ। फलस्वरूप यहां नवीन सतनामी पंथ का आविर्भाव हुआ एवं कबीर पंथ की शाखा आरंभ हुई। यहां के अनेक दलित हिन्दुओं ने सतनाम में आस्था अर्पित की तथा अनेकों ने कबीर के विचारों को आत्मसात् किया। यद्यपि ये दोनों हिन्दू धर्म के ही अंग हैं तथापि इनके द्वारा धार्मिक और जातिगत भेदभाव को इस क्षेत्र में जोरदार चुनौती दी गई। इनके द्वारा धर्म के क्षेत्र में समानता के सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर समाज में विद्यमान शोषण और भेदभाव की भावना को दूर करने का प्रयास किया गया। इसने समाज के निम्नवर्गीय लोगों में नवीन उत्साह का संचार किया। इससे अस्पृश्यता पर आघात हुआ और जाति भेद में कमी आयी। इस कारण धार्मिक समानता का आविर्भाव हुआ। इसके बावजूद हिन्दू धर्म द्वारा उपेक्षित वर्ग के लोगो ने बड़ी संख्या में ईसाई धर्म को स्वीकार किया जिसमें आदिवासी एवं छत्तीसगढ़ का सतनामी समाज प्रमुख है। विशेषतः सरगुजा जिले के उरांव जनजाति एवं बिलासपुर जिले के सतनामियों का हिन्दू से ईसाई धर्म में परिवर्तन हुआ। अग्रेजी शासन का धर्म के क्षेत्र में प्रभाव के अंतर्गत छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म का प्रादुर्भाव एवं वर्तमान में यहां की लगभग 2 प्रतिशत जनता का ईसाई होना उल्लेखनीय है। यह प्रभाव छत्तीसगढ के उत्तरी हिस्से में अन्य हिस्सों की अपेक्षा अधिक दृष्टिगोचर होता है।
(7) सामाजिक प्रमाव-  प्राचीन काल में भारतीय समाज में जो समृद्धि एवं गतिशीलता विद्यमान थी उसमें मध्यकाल में जड़ता आ गयी थी। मुस्लिम आधिपत्य के काल में भारतीय समाज पर गहरा आघात हुआ, कितु छत्तीसगढ़ के सामाजिक परिवेश में इस्लाम का प्रभाव नगण्य रहा क्योकि छत्तीसगढ़ प्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम शासन के अधीन नहीं रहा। मराठा काल में यहां समाज तुलनात्मक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ा हुआ था। अंग्रेजी नीतियों ने यहा संपूर्ण राज- नीतिक, आर्थिक व्यवस्था को परिवर्तित कर दिया, सामाजिक जीवन में जिसका गहरा प्रभाव हुआ। पाश्चात्य संस्कृति की महान देन भारतीय समाज का आधुनिकीकरण है। इसके कारण छत्तीसगढ सामाजिक रूढ़ियों से मुक्त होने लगा। क्षेत्र की वेषभूषा, आचार-विचार, व्यवहार और शिष्टाचार आदि में पाश्चात्य प्रभाव की छाया दिखायी पड़ने लगी। अब व्यापार पर जोर दिया जाने लगा, जिससे सामाजिक बन्धन ढीले पड़ गये। यद्यपि इसने संयुक्त परिवार व्यवस्था को आघात पहुंचाया एवं व्यक्ति की आत्म केन्द्रित प्रवृत्तियां पनपने लगी तथापि छत्तीसगढ़ में पश्चिम का प्रभाव सामाजिक बुराइयों के निवारण के लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ। सती-प्रथा, शिशु-हत्या, बाल विवाह आदि बुराइयों को समाप्त करने
की प्रेरणा मिली और विधवा-विवाह की प्रथा चल पड़ी। नर-नारी की सामाजिक समानता स्थापित हो गयी। अन्तर जातीय खान-पान और विवाह पर प्रतिबंध उठा लिये गये। अब यहां की जनता अधिक सुख-सुविधा प्राप्त करने के लिए उत्साहित हुई। इसने अकर्मण्यता और उदासीनता से लोगों का पीछा छुड़ाया। इस प्रकार छत्तीसगढ़ के
सामाजिक जीवन में एक नयी गतिशीलता आयी. जिसने उसे पिछड़ेपन के अभिशाप से मुक्त कराने का प्रयास किया। समाज-सुधार आन्दोलनों के फलस्वरूप छत्तीसगढ़ की बहुसंख्यक दलित जातियों में भी नवीन चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। इनकी दशा सुधारने के लिए ईसाई-मिशनरियों, थियोसोफिकल सोसाइटी और आर्य समाज ने खूब प्रयत्न किये। पं. सुंदरलाल शर्मा एवं गांधी जी ने हरिजनोद्धार हेतु आंदोलन चलाया। स्वयं दलित वर्ग भी अपने अधिकारों के लिए आंदोलन करने लगे। इन प्रयासों के फलस्वरूप छत्तीसगढ़ की सामाजिक दशा में महान परिवर्तन हुए। हिन्दुओं के ईसाई बनने से नया ईसाई समाज अस्तित्व में आया। अंग्रेजी शिक्षा, संस्कृति एवं जीवन पद्धति का छत्तीसगढ़ की सामाजिक व्यवस्था में गहरा प्रभाव पड़ा। इनके कारण हिन्दू समाज मंन एक नवीन वातावरण का निर्माण हुआ। परिणामस्वरूप अछूतों की दशा अपेक्षाकृत सुधरने लगी।
(8) सांस्कृतिक प्रमाव-  भारत सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत समृद्धशाली देश रहा है। प्राचीन दर्शन, ललित कलायें, साहित्य आदि से संबंधित सांस्कृतिक विरासत अत्यंत गौरवशाली था, किंतु देश में मुस्लिम आधिपत्य के समय से सांस्कृतिक प्रवाह अवरुद्ध सा हो गया था। सास्कृतिक जड़ता की स्थिति निर्मित हो गई थी। भारत ने अपने
गौरवशाली अतीत को विस्मृत कर दिया था। अंग्रेजों ने पुरातात्विक अन्वेषण, साहित्यिक रूपांतरण एवं विश्लेषण तथा शोध के द्वारा इस भारतीय खजाने को टटोला। प्राचीन भारतीय ललित-कलाओं और अतीत के गौरव का ज्ञान हमें पश्चिम ने ही कराया। पाश्चात्य विद्वानों जैसे प्रिंसेप, विल्किंस, मैक्समूलर, कनिघम, विलियम जोंस, रिमथ, जॉन मार्शल, कर्नल टॉड आदि ने भारतीय साहित्य, लेखों आदि का अध्ययन एवं विवेचन किया। यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय शिला-लेखों का स्पष्टीकरण किया। यहां उत्खनन का कार्य करवाया एवं इतिहास लेखन की विविध सामग्री प्रस्तुत की अग्रेज-विद्वानों ने भारतवर्ष के समाज तथा भाषाओं का व्यापक सर्वेक्षण किया तथा तदविषयक रिपोर्ट उनके द्वारा प्रस्तुत की गई। इस प्रकार पश्चिम के प्रयासों से ही हम अपने पूर्वजों के विस्मृत विरासत को पुनः हासिल कर सके। अंग्रेजों ने भारत के क्षेत्रीय इतिहास को भी जानने तथा संकलित करने का प्रयास किया जिससे आचलिक गौरव का पता चलने के साथ राष्ट्रीय इतिहास लेखन में सहायता मिली। आज क्रमबद्ध भारतीय इतिहास की जानकारी अंग्रेजों के ही प्रयास का परिणाम कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी। अपने गौरवशाली अतीत के ज्ञान से हमें भारतीय धर्म और दर्शन की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ और हममें आत्म विश्वास जागा। इस नवीन नैतिक बल के प्राप्त होने से भारतीय अपनी संस्कृति पर पाश्चात्य आक्रमण का सफल प्रतिरोध करने में सक्षम हुये। इसी प्रकार संगीत एवं अन्य कलाओ के क्षेत्र में भी पश्चिम का प्रभाव दिखायी पड़ने लगा। इस समय पाश्चात्य नमूनों पर निर्मित भवनों की अधिकता छत्तीसगढ क्षेत्र में दृष्टिगोचर हुई।

     अंग्रेजी-शासन हितकर रहा हो या अहितकर, किंतु वास्तविकता यह है कि पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति ने छत्तीसगढ़ के जन-जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया। इसने छत्तीसगढ़ में विद्यमान समस्त धारणाओं और विश्वासों को चुनौती दी। इसके कारण धर्म, विश्वास और प्रथाओं के मध्यकालीन स्वरूप लड़खड़ा गये। परंपरागत राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संस्थाएं हिल गयीं और उन पर पाश्चात्य सभ्यता ने स्थायी चिन्ह छोड़े। इसका प्रभाव केवल नगरों तक ही सीमित न रहा वरन् गांवों तक फैल गया। इसके कारण यहां का सामाजिक, आर्थिक और नैतिक जीवन प्रभावित हुआ।

      पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से छत्तीसगढ़ में नवीन जागृति आई और नवाभ्युत्थान का सूत्रपात हुआ। धर्म और विश्वास का स्थान विवेक, तर्क एवं न्याय संगत निर्णय ने ले लिया। गतिहीनता का स्थान प्रगति ने ले लिया। दोषों और बुराइयो को दूर करने की आकांक्षा जागृत हुई जिससे उदासीनता और आलस्य त्याग कर यहां के लोगों में कर्मशीलता आयी।

     इस प्रकार छत्तीसगढ़ में लगभग सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन में अंचल में सभी क्षेत्रों में अंग्रेजी प्रभाव दृष्टिगोचर हुये। उनके बाद भी उनके काल में आरंभ हुए परिवर्तन का क्रम जारी रहा और आज भी गतिमान है।